Wednesday, 25 August 2021

उपजीव्य कवि श्रीप्रकाश शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल || संदर्भ के रचनाकार

उपजीव्य कवि श्रीप्रकाश शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल

आलेख में संदर्भ के रूप में प्रयुक्त होने वाली रचनाएँ (संकलन जारी है):-


कविताएँ :-


1).

बुरा एक सपना देखा


रात बुरा एक सपना देखा

सूखी नदी के घाट को देखा

पाट सटी टूटी नाव को देखा

तिथिहीन पतवार को देखा

नाविक के अंत:घाव को देखा


रात बुरा-बुरा एक सपना देखा

सूखी नदी को सड़क बनते देखा

सरपट भगती मोटर कार को देखा

घाट को बस-स्टॉप में बदलते देखा

पतवार को खाक़ी लिबास होते देखा

नाविक को बस-ड्राइवर बनते देखा


बुरा स्वप्न बनारस में साकार देखा

असि-अस्थियों की सड़क को देखा

नदी के रक्त-कणों को धूल उड़ते देखा

'रेत में आकृतियाँ' की हर उकेर को देखा

श्रीप्रकाश शुक्ल की आँखों में मर्म को देखा

कि असि* को अस्सी घाट उतरते  न देखा !


( असि एक विलुप्त नदी है। बनारस में गंगा में मिलती थी। असि के नाम से ही अस्सी घाट है)


                                           ©वसंत सकरगाए

                                               10/04/2021


2).

बाढ़ में कवि


लड़कपन से बच गए
जवानी के सैलाब तक में ना फँसे
पर दो हजार सोलह की बाढ़ में
आखिर फँस ही गए
कवि श्रीप्रकाश शुक्ल
हतप्रभ हैं लोग
जो कभी किसी रमणी में न फँसा
दमड़ी में ना फँसा
आखिर वो बाढ़ में कैसे फँस गया?
बाढ़ में बवाल काटते
जनवादी कवि शशिधर से
इस बाबत जब पूछा गया
तो भुजा उठाकर कहा उन्होंने -
'असंभव है कवि का बाढ़ में फँस जाना
भगवा अफवाह है ये
उनका अगल-बगल
अड़ोस-पड़ोस
आकाश-पाताल
सब बाढ़ में डूब सकता है
पर वे नहीं
उनका घर नहीं
क्योंकि नहीं है उनकी कविता में सूखा
ना ही वह किसी गीलेपन के खिलाफ ही है
और फिर नामवर की जिस धरती पर वे रहते हैं
वहाँ बाढ़ का पानी
वो भी गंगा का
भला क्या बहाने और भिगोने जाएगा भाई?'
कहना उनका यह भी
कि पक्की कारपोरेट साजिश है यह
क्योंकि जो आज तक किसी भी
जल-जाल से बचा और बचता रहा
भला बाढ़ में उसका फँसना क्या!
और बचना क्या!
जो भी हो
पर कविता में सच यही है
कि धीरे-धीरे प्यारे कवि
बहुत प्यारे कवि
बाढ़ में फँसते गए
बढ़ती गंगा का पानी
उनकी ओर
कांग्रेसी राजनीति की तरह बढ़ा
सबसे पहले उनके दुआर को चपेटा
फिर चौहद्दी को
फिर दलान से घुसते हुए वहाँ पहुँचा
जहाँ मेज पर फैली उनकी कविता थी
और फिर उसी की ऊँचाई पर
अपनी संपूर्ण गहराई के साथ ठहर गया
किंतु बाढ़ के पानी से
सिमटते-सिमटते वे
भागे नहीं
रोए नहीं
हाथ नहीं जोड़ा
मंत्र नहीं पढ़ा
कोई अनुष्ठान नहीं किया
पीछे नहीं गए
बल्कि ऊपर
और ऊपर चढ़ते गए
और मेरी पुख्ता जानकारी में
फिलहाल ओरहन का वह कवि
ठीक इसी बाढ़ की आँच पर
एक काली धामिन की चकाडुब्ब सुनते
घर के ऊपरी आसमान में रहता है
इधर शहर में उनको लेकर कई कयास हैं
कोई कहता है कि वे बाढ़ में डूब गए
कोई यह कि अच्छा हो कि डूब ही जाएँ
कोई यह कि बह कर कहीं और चले जाएँ
कोई यह कि आखिर जरूरत क्या है
इस शहर को
रेत और पानी के कवि की
खर-पतवार से अधिक वह भला है ही क्या?
कोई-कोई तो यह भी कहते सुना गया है
कि अच्छा होता की बाढ़ हुमचकर
उनके ऊपर सदा-सर्वदा चढ़ी रहती
लोग तो अब खुलकर यह भी कहने लगे हैं
कि काश! इसी बाढ़ में
कब्र बन जाए इन मरगिल्ले हिंदी कवियों की
क्योंकि इन्ही ससुरों की वजह से
काशी नहीं बन पा रहा है क्योटो
दिल्ली की लाख कोशिशों के बावजूद
उधर गंगा के पानियों के बीच
घुप्प अँधेरे में बैठे कवि
फिलहाल मोबाइल की रोशनी में
अखबार पढ़ते हैं
ताजा खबर यह है
कि गंगा को अजीर्ण हो गया है
इसीलिए यह बाढ़ आई है
और अब बार-बार आएगी
यह पढ़ कवि का माथा गरम हो उठता है
आवेश में वे छत पर चढ़ आते हैं
और जोर-जोर से
न जाने किसको
ओरहन देते हैं
कि अजीर्ण, गंगा को नहीं
ज्ञान को हो गया है
सरकार को हो गया है
विद्वान को हो गया है
बवाल काटने वाले
केंद्रोन्मुखी भौकाल
अजीर्णता को भला क्या जाने
क्या समझें
जानता समझता और सहता
तो केवल कवि है
ज्ञान को
विद्वान को
सत्ता को
और पतितपावनी गंगा की बाढ़ को भी
बस वही जानता है
वही सहता है
और फिर सिरजता भी तो वह ही है
भले ही चाहे खुद फँसा
या फँसा दिया गया हो
बाढ़ में एक कवि!
 

©सर्वेश सिंह



3).

 वापसी 

धाराएं लौट रही है नदी में

जैसे लौटती है रौनक बस्ती में 

प्रवासी से पथिक बन

गुरूश्रेष्ठ भी लौट रहें हैं

सूने गेह में जालाने को दीपक


दीपक जलने से पहले 

आ चुकी है बिजली

और जा चुकी है 

निर्जन में घुली काली रात


बाढ़ का जाते ही

काफी जद्दोजहद यानी

चंदा-चुटकी , घुस -पेच के बाद

सबसे पहले आती है लाइट

जिससे घरों में ऑक्सीजन पहुंचता है

क्योंकि कॉलोनी के घरों में

लाइट मतलब लाइफलाइन है


रास्ते पर केवल कीचड़ है

कमल की उम्मीद तक नहीं है

हां एक केवट है

जो स्नेहोपहार को संजो रहा है

जैसे संजो कर रहा था भुभुक्षु


अक्सर सावन बीतते बीतते 

बनारस में आ जाती है बाढ़

जैसे शिव स्वयं गंगा को विदा कराने

आ जाते हैं काशी के घरों में


बनारस में बाढ़ 

शिव - शक्ति का संगम है,

सहवास है ,और प्रवास  है

वे बखूबी समझेंगे

जिनका नदी क्षेत्र में निवास है

        ©दीपक आर्यपुत्र ( मुसाफ़िर )

4).

(कविवर एवं आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल सर को समर्पित कविता)

'रेत में आकृतियों' को 

मिटा रही है बाढ़ ।

कठिन समय में 

धैर्य की परीक्षा देते हुए

'एक जोड़ा दुख' के साथ भी

मुस्कुराता है कवि 

वह जानता है दुख का स्वाद ।


बाढ़ का आना कवि के लिए 

महज सूचना नहीं है ।

खतरे की घंटी है,

विस्थापन के दर्द का उभरना है ,

पुनः एक बार ।


न जाने कितने बाढ़ो का भुक्तभोगी रहा है कवि ।

कविता में लिखता रहा है इसका इतिहास |

वह जानता है कि -

 बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं,

 राजनीतिक षड्यंत्र भी है ।

 कवि देखता है,

 रैदास के बेगमपुरा में ,

बाढ़ का ग़म पसर चुका है ।

©प्रतिभा श्री




संपादक : गोलेन्द्र पटेल

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


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