सादर नमस्कार मैं ऋतु गर्ग सिलिगुड़ी पश्चिम बंगाल से
गृहिणी समाज सेवी साहित्यकार आपसे आदरणीय कलमकार केशव विवेकी जी द्वारा संपादित काव्य प्रहर मासिक पत्रिका हेतु
आपकी साहित्यिकी यात्रा से जुड़े कुछ प्रश्न में जानना चाहते हैं जिससे हमारे पाठक पढ़कर प्रेरणा प्राप्त करें।
*1. हम आपका परिचय अपने पाठकों को करवाना चाहते हैं, आप अपने सहज सरल शब्दों में अपनी बारे में हमें बताएं।*
A. नमस्कार! सर्वप्रथम आपके और प्रिय यशस्वी संपादक श्री केशव विवेकी जी के प्रति हार्दिक आभार एवं साधुवाद! मुझे अपने कार्यक्रम से जोड़ने के लिए।
वैसे तो मेरा कोई विशेष सफल परिचय नहीं है, न ही वह पठनीय है। फिर भी, मैं पूरी ईमानदारी के साथ अपने बारे में बताऊँगा लेकिन आपको क्या लगता है कि हर रचनाकार अपने बारे में पूरा सच बताते हैं! क्या एक रचनाकार के साक्षात्कार से उसके व्यक्तित्व के बारे में सही जानकारी प्राप्त होती है? मुझे लगता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व के बारे में जानने के लिए रचनाकार का नहीं, बल्कि उसके करीबी उन लोगों का साक्षात्कार लेना चाहिए, जो भाषा में उपेक्षित हैं। मसलन— रचनाकार की जन्मभूमि, कर्मभूमि व भावभूमि से जुड़े हुए लोगों का साक्षात्कार, ख़ासकर उन स्त्रियों का साक्षात्कार लेना चाहिए, जो रचनाकार को जन्म से जानती हैं ।
बहरहाल, मेरा घरेलू नाम 'गोलेन्द्र ज्ञान' है और साहित्यिक नाम 'गोलेन्द्र पटेल'। मेरा जन्म 5 अगस्त, सन् 1999 ई. को उत्तर प्रदेश के चंदौली जिला के खजूरगाँव में एक किसान-मजदूर परिवार में हुआ। मेरे पिता दिव्यांग (विकलांग) हैं और मेरी माता किसान-बनिहारिन हैं, वे दूसरे के खेतों में काम करती हैं, रोपनी से लेकर सोहनी तक। हम तीन भाई व एक बहन हैं और सबसे बड़ा मैं हूँ।
मेरी प्रारंभिक शिक्षा मेरे गाँव की सरकारी स्कूल से हुई है। मेरी शिक्षा का किस्सा रोचक इस अर्थ में है कि मैंने भोजन के लिए सरकारी स्कूलों में पढ़ा है। बचपन में एक उदार शिक्षक की नज़र मुझपर पड़ी, वे मुझे अपने प्राइवेट स्कूल में ले गये। उनकी कृपा से फ़ीस माफ़ थी लेकिन भूखे पेट पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था। क्योंकि उन दिनों मेरे घर की स्थिति बहुत ख़राब थी। किसी दिन चूल्हा जलता था, तो किसी दिन नहीं। इसलिए मैं नियमित क्लास नहीं कर पाता था। अंततः मैं भूख से परेशान होकर सरकारी स्कूलों में चला गया। वहाँ शुरू-शुरू में चावल-गेहूँ मिलता था। लेकिन कुछ सालों में 'दोपहर का भोजन' मिलना शुरू हो गया। खाना बनाने वाली चाची-दादी मेरे घर की दैन्य स्थिति से अच्छी तरह से परिचित थीं, इसलिए मुझपर उनकी दया दृष्टि बनी रहती थी। गुरुजन की कृपा से किताब-कॉपी की दिक्कत नहीं होती थी और ऊपर से मैं बुनकरों के साथ सुबह-शाम हथकरघे पर कढ़ाई करता था और चरखे पर उनकी नरी भरता था।
माध्यमिक विद्यालय में पहुँचा, तो नरेगा (मनरेगा) में काम करने लगा। गाँव में सड़कें या नालियाँ बनती थीं, तो उसमें काम करता था। सम्पन्न किसानों के खेतों में भी काम करता था लेकिन मजदूरी बहुत कम मिलती थी और काम गँड़ियाफार करना पड़ता था। मजूरी कम मिलने से मन खिन्न हो गया, तो कभी रामनगर मजदूर मंडी तीनपौलिया, तो कभी पड़ाव मजदूर मंडी के जरिये, मैं शहरों में राजगीर का काम करने लगा। बैग लेकर मैं अपने साथियों के साथ पढ़ने जाता था लेकिन पढ़ने न जाकर हम सब काम करने चले जाते थे। सबके घर की स्थिति ठीक नहीं थी। 10वीं तक जो मेरे सहपाठी थे, अब वे सब शहर में मजूरी करते हैं। चौथी कक्षा से आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई मैंने ऐकौनी से की। यह गाँव मेरा पड़ोसी गाँव है और 9वीं से 12 वीं प्रभुनारायण राजकीय इंटर कॉलेज, रामनगर, वाराणसी से। 12 वीं के बाद इंजीनियरिंग परिवेश परीक्षाएं पास करने के बाद आर्थिक स्थिति ठीक न होने की वजह से एक साल घर बैठना पड़ा, फिर काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी, पालि , ए.आई.एच.सी., फ्रेंच व अँग्रेज़ी से बी.ए. किया और संस्कृत से दो वर्ष का डिप्लोमा कोर्स भी। फिलहाल मैं हिंदी विभाग, बीएचयू में परास्नातक फाइनल ईयर का शिक्षार्थी हूँ। मैं नेट भी पास हो चुका हूँ।
बचपन में इंद्रजीत सिंह एवं अन्य साथियों के साथ मिर्जापुर के लालपुर के पहाड़ों में काम करता था, पत्थर तोड़ता था, गिट्टी फोड़ता था और गायों के लिए घास छिलता था तथा गोबर सैंतता था, रात में खेत की फ़सलें अगोरता था। इसलिए वे पढ़े-लिखे लोग जो मेरे जीवन से थोड़ा बहुत परिचित हैं, वे मुझे कभी हल्कू, तो कभी होरी, तो कभी पहाड़ी कवि कहते हैं। इंद्रजीत अभी भी पहाड़ों में पत्थर तोड़ते हैं।
*2. आपका लेखन काल कब से प्रारंभ हुआ।*
A. देखिए! लेखन कार्य तो बचपन से शुरू है। मैं पढ़ने में सामान्य था, लेकिन कहते हैं न कि अँधों में काना राज होता है, सभी सहपाठी साथी एक जैसे परिवेश से आते थे। हम सब मजदूर के बच्चे थे। कोई क्लास मानीटर बन जाए, हमें फ़र्क नहीं पड़ता था। हमारे बीच लोकतांत्रिकता थी, हमें जाति का बोध नहीं था। हिन्दू-मुसलमान व दलित-सवर्ण सब एक ही थाली में खाते थे, मेरे गाँव में चार हजार से अधिक दलित हैं। एक दिन चौथी कक्षा में मैंने प्रार्थना के बाद 25 तक पहाड़ा सुनाया, तो मुझे क्लास-मॉनीटर बनाया गया। रोज़-रोज़ गुरुजन हमें प्रार्थना कराने के लिए बुलाते थे, रोज़ एक ही राष्ट्रगान गाते-गाते बोरियत महसूस होने लगा था, फिर क्या एक दिन गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की जय हे, जय हे, जय हे, जय, जय,...से प्रेरणा और प्रतिक्रिया एक साथ भीतर उपजी और मैंने भी राष्ट्रगान के तर्ज पर 'नवराष्ट्रगान' लिखा तथा सुबह की प्रार्थना के बाद 'नवराष्ट्रगान' सुनाया। गुरुजन को लगा कि मैंने किसी का चुराया है लेकिन उसमें वर्तनी त्रुटि ज़बरदस्त थी, जिसको ठीक किया गया। सातवीं-आठवीं कक्षा तक मेरी रचनाओं का संशोधन गुरुवर मुमताज अहमद सर व गुरुवर विकास चौहान सर करते थे, विकास सर ख़ासकर अंग्रेज़ी की कविताओं का संशोधन करते थे। उन दिनों विकास सर भोजपुरी में गीत लिखा करते थे। मैं भी लिखा करता था। हम एक दूसरे को अपना गीत सुनाया करते थे। विकास सर के यहाँ मैं चार बजे भोर में ही चला जाता था। किसी-किसी दिन सर और मैम एक साथ बिस्तर पर सोये रहते थे और मैं पहुँच जाता था।...खैर, उन दिनों गाँव के प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के लिए मुझसे शेरों-शायरी लिखवाते थे बदल में मुझे पैसे देते थे। एक पंक्ति किसी और की होती थी तो एक पंक्ति अपनी। इसी तरह लिखता रहा एक दिन एक प्रेमी की प्रेमिका मेरे गाँव की निकली और पोल खुल गया कि प्रेमपत्र की हैंडराइटिंग मेरी है। भीतरी शीतयुद्ध छिड़ गया। परिणामतः मुझे प्रेमियों का प्रेमपत्र लिखना छोड़ना पड़ा।
9 वीं कक्षा तक आते-आते मुझे 'कस्बे का कवि' ,'युवा किसान कवि', 'पहाड़ी कवि' व 'गँवई गंध के कवि' आदि के रूप में प्रसिद्धि मिली। कॉलेज में कुछ गुरुजन कवि-शिक्षक थे, उन्होंने मेरी कविताओं को सुना और संशोधन किया। लेकिन जब मैं बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पहुँचा तो मेरी रचनात्मकता को नयी दिशा व दृष्टि मिली क्योंकि वहाँ देश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों से मुझे पढ़ने का मौका मिला। वहीं मुझे 2019 में काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल मिले। उन्होंने सर्वप्रथम मेरे कवि को उम्मीद की उड़ान दी। उनके मार्गदर्शन में मेरी रचनाधर्मिता को गति मिली। मुझे उनकी कृपा से कई शब्द-शिक्षक, ज्योति-पुरुष व चेतना के चिराग़ मिले। मेरे प्रिय पथप्रदर्शकों की सूची में लीलाधर जगूड़ी, अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, सदानंद शाही, श्रीप्रकाश शुक्ल, जितेंद्र श्रीवास्तव, स्वप्निल श्रीवास्तव, सुभाष राय, वशिष्ठ अनूप, अरुण होता, कमलेश वर्मा, आशीष त्रिपाठी, राकेशरेणु, शंभुनाथ, ममता कालिया, श्रद्धा सिंह, शैलेंद्र शांत, गिरीश पंकज, पलाश विश्वास व वाचस्पति से लेकर विन्ध्याचल यादव आदि हैं।
*3.हमने साधारण रूप से देखा है कि किसी भी कवि या कवित्री को एक ही उपनाम या उपाधि प्राप्त होते हैं लेकिन आपको अनेक बार उपनाम और उपाधियां प्राप्त हुई ।इसको संक्षेप में हम जानना चाहते हैं।*
A. उपनाम या उपाधि से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं होता है। न ही ये व्यक्तित्व को बड़ा बनाते हैं। इसलिए हमें इनके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए कि फला कवि या लेखक को इतने सारे उपनामों या उपाधियों से जाना जाता है। एक समय था कि कवियों को उपाधियाँ दी जाती थीं। एक समय था कि लोग छद्मनाम से लिखा करते थे। मेरे उपनाम व उपाधि, दरअसल मेरे मित्रों और मार्गदर्कशों के प्रेम व स्नेह के प्रतीक हैं। मैं साहित्यिक दुनिया में उम्र व अनुभव में सबसे छोटा हूँ। सो, मुझे सभी सहृदय समीक्षकों से वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद प्राप्त होते रहते हैं। मेरे प्रिय पथप्रदर्शक मेरे अभिभावक की भूमिका में होते हैं और आत्मीय अभिभावक वैसे भी अपने वत्स को किसी ख़ास विशेषण या दिलचस्प नाम से संबोधित करते हैं। मेरे भी आत्मीय जन मुझे तमाम उपनाम व उपाधियों संबोधित करते हैं। जिनमें कुछ वायरल उपनामों और उपाधियों से आप परिचित हैं। खैर, उपाधि मेरे लिए एक जिम्मेदारी है। मैं मरते दम तक इन उपाधियों पर ख़रा उतरने की कोशिश करूँगा।
*4.आपने इतनी कम उम्र में अपने लेखन को इतना प्रभावशाली कैसे बनाया। क्या आपको यह प्रतिभा विरासत में मिली है?*
A.नहीं, मेरी प्रतिभा विरासत नहीं, विपन्नता की देन है। अर्थात् मुझे लेखन की प्रतिभा विरासत में नहीं मिली है। मेरी माँ अँगूठाछाप हैं और मेरे पिता दो-तीन क्लास तक ही पढ़े हैं, यानी वे भी अँगूठाछाप हैं। मेरी प्रतिभा की जननी मेरी गरीबी है। वह महान है कि नहीं? यह भविष्य तय करेगा। हमें अपने महान होने के बोध से बचना चाहिए, जो अपने महान होने के बोध से बचकर लिखते हैं वे लंबे समय तक अच्छा लिखते हैं। ऐसा पुरखों का कहना है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद भी यह मानते हैं कि गरीबी महान प्रतिभा को जन्म देती है। लेकिन मैं 'महान' शब्द को भविष्य पर छोड़ता हूँ। मेरी प्रतिभा भी दीनता की कोख से जन्मी है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि 'प्रतिभा' जन्मजात चीज़ है। आचार्य भामह ने भी कहा कि काव्यप्रतिभा कुछ ख़ास लोगों में ही होती है। इस संदर्भ में मुझे आचार्य कुंतक याद आ रहे हैं, वे कहते हैं-"प्राक्तनाद्यतन-संस्कार-परिपाक-प्रौढ़ा प्रतिभा काचिदेव कविशक्तिः।" (अर्थात् पूर्व एवं वर्तमान जन्म के संस्कारों से मिली कवित्व शक्ति प्रतिभा है।) प्रतिभा को प्रमुख काव्य हेतु माना जाता है। लेकिन आचार्य दण्डी ने अभ्यास पर ज़ोर दिया है। क्योंकि अब अभ्यास कर के कोई भी कवि बन सकता है। अभ्यास कर कविता लिखी जा सकती है और लिखी जा रही हैं। लेकिन अभ्यास उस कवि को परिष्कृत करता है, जिसमें कवित्व की प्रतिभा होती है, जो जन्मजात कवि हैं। लेकिन यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि सभी को संतुष्ट करने की इच्छा कारयित्री प्रतिभा की मृत्यु का कारण होती है!
अब रही बात इतनी कम उम्र में अपने लेखन को प्रभावशाली बनाने की बात, तो वह है सही पथप्रदर्शक के चुनाव से संभव हुआ है। मैं बार-बार अलग-अलग साहित्यिक मंचों से यह बात कहता रहा हूँ कि मित्र व मार्गदर्कश का चयन सोच समझ कर करें। हमें स्वामी विवेकानंद की परंपरा का शिष्य बनना चाहिए, यानी हमें भी अपने गुरु की परीक्षा लेकर ही उन्हें गुरु बनाना चाहिए। चयन के मामले में मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैंने सही पथप्रदर्शकों का चयन किया है। मेरे सभी पथप्रदर्शक साहित्य के सूर्य हैं, मनुष्यता के मार्गदर्कश हैं। जिनकी रोशनी में मेरी सृजन-यात्रा जारी है।
*5.आप हिंदी एवं भोजपुरी दोनों भाषाओं में लिखते हैं इसकी कोई खास वजह।भोजपुरी भाषा की तरफ कैसे रुझान हुआ।*
A. वैसे तो विद्यालय से विश्वविद्यालय के सफ़र को ध्यान रख कर देखा जाए, तो अब तक मैंने संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, हिंदी, भोजपुरी, फ्रेंच व अंग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया है। तमिल भाषा सीखने की प्रबल इच्छा है। रही बात भोजपुरी में लिखने की, तो भोजपुरी में अभी तक मैंने कोई ढंग की साहित्यिक रचना नहीं की। आर्थिक संकट के दंश से बचने के लिए 2015 से 2018 के बीच भोजपुरी सिनेमा के गीत मैंने लिखे हैं जो कि भर्ती हैं, लेकिन अब मुझे कुछ साहित्यिक चीज़ें लिखनी हैं। क्योंकि यह मेरी पितृभाषा है, मेरी मातृभाषा अवधी और भोजपुरी के संयोग से निर्मित भाषा है, क्योंकि मेरे पिता भोजपुरी हैं और मेरी माता अवधी।
*6.युवा कवि के रुप में आपकी बहुत प्रतिष्ठा है। इसे आपने कैसे अर्जित किया। हमारे नए रचनाकारों को लेखन विषय संबंधी क्या जानकारी देना चाहेंगे।*
A. आपके इस सवाल का उत्तर चौथे सवाल के उत्तर में निहित है। खैर, रही बात नए रचनाकारों को लेखन विषय संबंधी जानकारी देने की, तो नये रचनाकारों को एक बात हमेशा ध्यान रखनी चाहिए कि उनमें धीरता और गंभीरता ये दो चीजें होनी चाहिए। उन्हें अपने लेखन से किसी को ख़ुश करने से बचना चाहिए। साथ में उन्हें परंपरा का भी ज्ञान होना चाहिए, इसके लिए उन्हें अपने समकालीन साहित्यकारों के साथ-साथ पुरखों को ख़ूब पढ़ना चाहिए। उन्हें पुरखों से प्रेरणा और प्रतिक्रिया एक साथ ग्रहण करनी चाहिए। उन्हें अपनी भाषा और संवेदना पर काम करना चाहिए तथा किसी बड़े रचनाकार के शिल्प को कॉपी करने से बचना चाहिए। यह तभी संभव हो पाएगा, जब आपका कोई साहित्यिक गुरु होगा, इसलिए एक अच्छे साहित्यिक गुरु की तलाश करें, जो आपके करीब भी हों, नहीं कि हमें लिखनी है कविता और हम कथाकार को गुरु बना लें।
*7.आपका लालन-पालन किन परिस्थितियों में हुआ। क्या लेखन कला और अन्य प्रतिभाओं का जन्म पारिवारिक परिवेश से हुआ।*
A. आपके इस प्रश्न का उत्तर पहले व दूसरे प्रश्न के उत्तर में दिया जा चुका है। लेकिन एक बात जो नहीं बतानी चाहिए, लेकिन मैं बता दे रहा हूँ, वह यह कि मेरा लालन-पालन विपरीत परिस्थितियों में हुआ है। शैशवावस्था में जब मैं दुधमुंहा शिशु था, तो मेरे पिता मेरी माँ को पाँच बरस के लिए वनवास भेज दिये थे। मामला दहेज-वहेज का था। माँ मुझे लेकर अपने मायके चली गयीं। उनके पिता व भाई पहाड़ों में काम करते थे, बोल्डर काटते थे व पटिया निकालते थे इसलिए मुझे बचपन में मेरे हाथों कलम की जगह छेनी-हौथी, चकधारा, टाँकी, गुट्ठा व घन आदि मिला। मेरी माँ बीमार थीं, उन्हें दूध नहीं होता था, तो माँ की सहेलियों ने मुझे अपना स्तनपान कराया। पड़ोसियों ने अपनी बकरी का दूध दिया। यहाँ सब कुछ बताना संभव नहीं है। मेरे बचपन के बारे में अधिक जानने के लिए माँ की सहेलियों, भौजाइयों और मेरे गाँव की औरतों से संपर्क करें।
*8.आपके लेखन से ऐसा लगता है कि आपके हाथों में करनी और हथौड़ी हमेशा रहती है जिससे आप समाज के हर तबके की बुराइयों को तराशते नजर आते हैं कोई खास वजह।*
A. माँ खेतों में काम करती थीं, तो विरासत में मेरे हाथों में कुदाल, फावड़ा व खुरपी मिलीं। माँ अभी भी खेतों में काम करती हैं। शहर में मैं लेबर बना, तो मेरे हाथों में करनी व बसूली मिलीं। हथौड़ी तो नाना-मामा से मिली है। इन्हीं हथियारों से अपने समय को तराशने की कला सीख रहा हूँ। मेरी आत्मा के संगतराश मेरे शब्द हैं।
*9. आपका मन अंतस की पीड़ा को बहुत बारीकी के साथ पढ़ना जानता है शायद यही वजह है कि आपके काव्य में लाचारी पर बहुत अधिक लिखा गया है। हमारे पाठक जाना चाहते हैं कि लेखक बनने से पहले किन भावों का अत्यधिक महत्व है।*
A. पीड़ा प्रबोधन की पंक्तियाँ जनविमुखव्यवस्था का प्रतिपक्ष होती हैं, जो मानवीय संवेदना के संघनित होने पर प्रोक्ति में तब्दील हो जाती हैं। ऐसी पंक्तियां अंतर्मन की आँख से पढ़ी जाती हैं। मेरे यहाँ काव्य में लाचारी, मनुष्य की लालसा की तरह है और उदासी उम्मीद की तरह, क्योंकि लाचारी, उदासी व पके हुए दुःख में जीवन की लय होती है, उदात्त जिजीविषा होती है। खैर, लेखक बनने से पहले उसकी भीतरी या सच्ची प्रवृत्ति-निवृत्ति को जागृत रखने वाले भावों का अत्यधिक महत्व है। लेखक को सामाजिक मन को उद्दीप्त करने वाले भावों को पहचानने की कला में सिद्धहस्त होना चाहिए। उसे उन भावों को शब्दबद्ध करना चाहिए, जो समाज को मनुष्यता की उच्च भूमि पर लेकर जाएं। इन्हीं भावों को लोकमंगल की भावना के अंतर्गत रखा जाता है। जब ऐसे उदात्त भाव से पाठक गुज़रते हैं, तो वे अपने संकुचित व कुंठित मानसिकता से मुक्त होते हैं और जो रचना अपने पाठक को कुंठित मानसिकता से मुक्त करती हुई उसे आनंद की अनुभूति कराती है, वह अच्छी रचना होती है।
*10. किन बातों से प्रेरित होकर अपने दिव्यंग सेवा संस्थान खोलने का निर्णय लिया।*
A. दरअसल 'दिव्यंग सेवा संस्थान' एक आभासी मंच है। जहाँ दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए निःशुल्क में अध्ययन सामग्री उपलब्ध करायी जाती है। मेरे पिता रीढ़ से दिव्यांग हैं प्रेरणा तो उन्हीं से मिली है क्योंकि वे फक्कड़ स्वभाव के हैं बिलकुल कबीर की तरह लेकिन मैं उन्हें अमीर खुसरो कहता हूँ क्योंकि वे पहेलियाँ पूछते रहते हैं। बहरहाल, मेरे कई सहपाठी साथी नेत्रहीन हैं, उनके कहने पर ही 'दिव्यंग सेवा संस्थान' को खोला गया है। इस मंच पर कवि, लेखक, शिक्षक, प्रोफेसर, पत्रकार, वकील व समाजसेवी आदि सभी का वक्तव्य उपलब्ध कराया जाता है, जो हमारे पठन-पाठन से संबंधित होते हैं।
नाम : गोलेन्द्र पटेल
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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