Golendra Gyan

Wednesday, 31 August 2022

कोरोजीवी कविता और प्रेम : गोलेन्द्र पटेल (corojivi Poetry and Love: Golendra Patel)

 

कोरोजीवी कविता और प्रेम


मानव स्वभाव से रागी होता है। उसका रागात्मक संबंध ही व्यापक तौर पर प्रेमानुभूति का जनक है। वह जिस देशकाल में जन्म लेता है। उससे उसका रागात्मक संबंध होता है। अतः इस अर्थ में प्रेम सहज, स्वाभाविक एवं सनातन मानव-प्रवृत्ति है। मनुष्य के रागात्मक संबंध की व्यापकता पूरी दुनिया में, सभी दिशाओं में विद्यमान है। इसकी व्यापकता व्यक्ति की रागात्मकता से जुड़ी है। व्यक्ति के रागात्मक संबंध समाज में अनेक रूपों में विद्यमान है। जैसे व्यक्ति और व्यक्ति के बीच को ही लें, तो इसके अनेक रूप सामने आते हैं। पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य व प्रेमी-प्रेमिका के बीच जो रागात्मक संबंध उत्पन्न होता है, उसे प्रेम की संज्ञा दिया जाता है। पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, पहाड़, नदी, झील, सागर व प्रकृति से मानव के संबंध में भी प्रेम तत्व है। जब रागात्मक संबंध सामाजिक हो जाता है, तब प्रेम का फलक व्यापक हो जाता है। वह समाज या राष्ट्र प्रेम का रूप ग्रहण कर लेता है। जिसे साहित्य में मातृभूमि प्रेम, देश-प्रेम व देशभक्ति आदि कहा जाता है। काव्य में राग का क्षेत्र प्रिय-प्रिया तक ही सीमित न होकर विस्तृत फलक पर प्रसारित है। यही प्रेम भाषा में अभिव्यक्ति की शक्ति है और इसकी रागात्मकता की सीमा समाज, राष्ट्र, मानवता, प्रकृति, आत्मा एवं काल तक फैली हुई है। आदिछंद के सृजन में करुणामय प्रेम की अहम भूमिका है। आरंभिक काव्य से लेकर अधुनातम काव्य में प्रेमानुभूति एक अविच्छिन्न-धारा के रूप में प्रवाहित हो रही है। संत व सूफी कवियों के यहाँ यह अलौकिक रूप में है, तो रीतिकालीन कवियों के यहाँ दैहिक आकर्षक के रूप में। कुछ एक अपवादों को छोड़कर। आधुनिक काल में स्त्री और पुरुष के सहज आकर्षक से उत्पन्न प्रेम या प्यार की गहन व सूक्ष्म अभिव्यक्ति हमें देखने को मिलती है। संभवतः सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला पहले कवि हैं जिन्होंने अपनी बेटी के सौंदर्य का वर्णन किया है। इस संदर्भ में आप उनकी कविता 'सरोज स्मृति' को देख सकते हैं। इस कविता में पिता और बेटी की प्रेमानुभूति महान रागात्मकता की कसौटी पर वत्सलता है। इसी क्रम में आप बाबा नागार्जुन की कविता 'यह दंतुरित मुस्कान' को भी देखा सकते हैं।आप सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' से लेकर शमशेर बहादुर सिंह तक की कविताओं में प्रेम के विविध रूप देख सकते हैं। प्रेम में आत्मीयता जरूरी है। मैत्री के रिश्ते में प्रेम का विकास आजकल विचारणीय है क्योंकि यौन-चेतना की तीक्ष्णता का चित्र सामने आते रहते हैं और आधुनिक विपरीत लैंगिक मैत्री-संबंध की मूल आवश्यकता 'सेक्स' के साथ गहरे अर्थों में जुड़ी हुई है। रीतिकालीन कवियों से लेकर आज तक के कवियों की कविताओं में नारी के विषय में यौन-चेतना को अभिव्यक्त किया गया है। कहीं प्रकृति को आलंबन बनाकर भी चित्रण किया गया है, तो कहीं सीधे-सीधे। 


प्रेम ही एक ऐसा तत्व है जो सांसारिक दुःख-दर्द से पीड़ित व्यक्ति के लिए शरण-स्थल है। वासना से ऊपर की चीज़ है प्रेमानुभूति। वासना के स्वरूप और प्रेम की शक्ति को कविगण अच्छी तरह से पहचानते हैं। किन्तु याद रहे कि प्रेम का पथ सीधा नहीं होता, वह ब्लेड की धार पर चलने जैसा है। प्रेम और वासना व्यक्ति के साथ अनंतकाल से जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार शब्द से उसके अर्थ जुड़े हुए हैं। कविता में प्रेम का दर्शन व्यापक है। प्रेम किया नहीं जाता, वह हो जाता है। महामारी के दौर में प्रेम अपने उदत्ता रूप में हमारे सामने साहित्य और सिनेमा के माध्यम से आया है। बीमारी में प्रेम की जीत को कवियों ने कविता में दर्शाया है। युद्ध की कविता में बुद्ध की अहिंसा के जो रूप सामने आते हैं, उसमें भी प्रेम पूरी प्रासंगिकता के साथ उपस्थित है। बिम्बों में भावों व विचारों को उद्बुद्ध करने की क्षमता परिवेशगत संलग्नता से प्राप्त होती है। चेतना की विभिन्न स्थितियों-परिस्थितियों, काल के विविध रूपों, देश और काल के संश्लेषण के युक्त, अचेतन सत्ता पर चेतना के आरोप से निर्मित अनेक रागात्मक बिम्ब और प्रेम परक प्रतीक कोरोजीवी कविताओं में आए हैं। कोरोजीवी कविता में स्पर्श, रूप, रस, गंध, रंग, राग व रव संबंध के सूत्र में इस कदर गूँथे हुए हैं कि प्रेम के प्रतीक प्रखरता से प्रकाशित होते हुए संबंध-संवेदना को समोज्ज्वलित करते हैं। मनुष्य की ऐन्द्रिय संवेदनाओं में इन तत्वों का विशेष महत्व होता है। इन तत्वों की चेतनोपस्थित से कालातीत क्रियमान हो जाता है। कोरो-क्रियाओं में ऐन्द्रिय-बोध की महत्ता मानवीय स्पर्श की सीमा का अतिक्रमण करता है। कोरोजयी कवियों की कविताओं में प्रेम प्रतीकात्मक ढंग से अपनी पहचान के साथ उपस्थित है। इनमें प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यंजना अद्वितीय है। लेकिन कविता में प्रकृति ऊर्जा, उत्साह और जीवनी शक्ति बनकर उभरती है। यह प्रेम परक कविता प्रकृति और सामाजिक दृष्टि से संयुक्त मानवतावाद की व्यापक चेतना से ओतप्रोत है। इसमें जीवन की मानवीय लय है और उदात्त जिजीविषा है। 


असल में आज प्रेम पर जितनी तेज़ी से कविताएँ लिखी जा रही हैं। प्रेम मानव जीवन से उतनी ही तेज़ी से गायब हो रहा है। घृणा दिल और दिमाग में स्थायी रूप से घर कर गयी है, बैठ गयी है। गेह से नेह का गायब होना, भाषा से मानवीय भावना का गायब होना है। मानवीय भावना ही मनुष्य को घृणा पर विजय पाने की शक्ति देती है। ऐसे में सोशल मीडिया पर घृणा का प्रचार-प्रसार चिंतनीय विषय है। सच्चा प्रेम समतामूलक समाज की आवश्यकता है। हमें प्रेम के औदात्य को समझना होगा। प्रेम जीवन की सबसे ख़ुबसूरत अनुभूति है। यह परिभाषा से परे है। इसके बिना सृष्टि के सत्य को समझना बहुत कठिन है। यह लोक-जीवन से संचालित प्रकाशपुंज है। इस पर हर काल में बहसें होती रही हैं। सृजनात्मक संसार का यह एक मात्र ऐसा विषय है, जिस पर लगातार चर्चाएँ-परिचर्चाएँ होती रही हैं। इसमें आसक्ति और आकर्षक होने की वजह यह कभी-कभी प्रश्नांकित भी होता है। प्रेम स्वप्न और संघर्ष के बीच पनपता है। इसकी सार्थकता इसकी स्वतंत्रता में है लेकिन इसकी सफलता इसकी सामाजिकता में है। इसीलिए साहित्य में व्यक्तिगत प्रेम सामाजिक हो जाता है। यह मानव जीवन का प्राथमिक बिन्दु है। एक बात और यह है कि काम ही प्रेम बनता है, काम की ऊर्जा ही प्रेम की ऊर्जा में विकसित होती है। इसलिए कोई भी कोरोजयी कवि वासंतिक वासना को नकार नहीं सकता है। भले ही इनका 'प्रेम' वासना नहीं है। प्रेम इनके यहाँ जीवन के जागरण की क्रांति का प्रतीक है। प्रेम के केंद्र में शुरू से ही मनुष्य और ईश्वर रहे हैं। प्रेम एक प्रतीक्षा है। इसकी पवित्रता प्रकाशित प्रज्ञा है। कोरोजीवी कविता में प्रेम परिश्रम के पसीने की पहचान है। यह श्रम के सौंदर्यशास्त्र से प्रदीप्त है। प्रेम में जीवन का दर्द दृश्य बन जाता है। प्रेम जहाँ होता है, वहाँ कुण्ठा के लिए कोई जगह नहीं होता है। कोरोजीवी कविता का प्रेम जीवन के छोटे-छोटे मानवीय दुखों के अन्वेषण से उपजा है। इस प्रेम में जीवन का दर्द संगीत की तरह बजता रहता है। आप इसे पीड़ा के प्रबोधन का प्रगीत कह सकते हैं। इस कोरोजयी प्रेम की एक विशेषता है कि यह मनुष्य को जीवन के संबंधों के प्रति उद्दाम एवं अकुण्ठ बनाता है। प्रेम साहचर्य से नहीं, बल्कि विरह से उपजा है। लेकिन उन्मुक्त प्रेम की जननी आत्मीयता होती है। इसी आत्मीयता की वजह से सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रेमानुभूति का सौंदर्य भी नैसर्गिक हो जाता है। कोरोजयी प्रेम में समर्पण व स्वीकृति से अधिक स्वास्थ की सजगता पर जोर है, अर्थात् संबंध की सेहत पर जोर है। 

प्रेम की भाषा हृदय की भाषा होते हुए भी मन की मुलायमता से संचालित होती है। अनुभूति की आँच पर प्रेम मन और शरीर दोनों का व्यापार है। प्रेम की पीड़ा मनुष्य की आत्मा को नवीनता की ओर त्वरित गति प्रदान करती है। जो प्रेम सामाजिक सत्य है, वह आत्मपरक अनुभूति है। लेकिन जो प्रेम प्रणय के प्रतिबिंब माँसलता की ऊष्मा में उपस्थित करता है, वह भावुकता की भूमि पर काम की भूख को जन्म देता है। वास्तविक प्रेम इनसान को बाँधता नहीं, बल्कि मुक्त करता है। कोरोजीवी कविता प्रेम की तीव्र संवेदना लेकर तो आती है, किन्तु प्रेम में डूबना और मर जाना ही प्रेम में सफलता का प्रमाण है, इस तरह की बातों को उसकी संवेनात्मक करुणा ख़ारिज करती है। प्रेम में आनंद का मूल स्रोत एकाकीपन है। कोरोजयी कवि का तटस्थ द्रष्टाभाव जीवन की गति की दिशा और दशा को सांकेतिक स्वर देता हुआ मनुष्यता के मार्ग की तलाश करता है। उसकी आत्मपरकता में वस्तुपरकता का आधार आत्मा की आँख है। जहाँ आत्मीयता से आत्मविश्वास बना हुआ है। प्रेम के आँसू में अपनी बातों को सम्पूर्ण त्वरा के साथ सम्प्रेषित कर देने की क्षमता होती है। यह इनसान को स्नेह से लेकर ख़ुशी की ओर धीरे-धीरे अग्रसर करता है। यदि हम कोरोनाकालीन कोरोकाल को देखें, तो हम पायेंगे कि प्रेम द्रष्टा और दृष्टि का रागात्मक रसायन है, विलयन है। प्रेम मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है और मानवीय सौन्दर्य उस प्रेम में समाया रहता है। प्रेम मोह और भक्ति के बीच की अवस्था का नाम है। प्रेम में प्रतिबद्धता एक उम्मीद है जो कि संबंध को सदा के लिये कायम रखती है। पवित्र प्रेम से जीवन निखरता है। इससे कोई बच नहीं सकता है क्योंकि यह स्वभाव है। 

प्रेम व्यक्ति की निजी अनुभूति है। मानवीय संबंधों तथा संवेदनाओं के क्षरण को कोरोजयी कवियों ने अपनी प्रेमालोच्य कविता में रेखांकित किया है। कोरोजीवी कविता में गहरी संवेदनशीलता है। आम आदमी, किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी एवं शोषित वर्ग के प्रति कवि की संवेदनशीलता अत्यंत मार्मिक है। कोरोजीवी कविता में आम आदमी के प्रति यह संवेदनशीलता निरंतर गतिशील प्रतीत होती है। हाशिये का जीवन जीने के लिए मजबूर प्रतिकूल सामाजिक अवस्था से निष्कासित आम आदमी की व्यथा-कथा से कोरोजीवी कविता की संवेदना संबंध की सार्थकता से द्रवित होती हुई नदी की धारा की तरह प्रवाहित होती है। इसमें समाज में जी रहे या जीने के लिए विवश, हाशिए पर पड़े आम आदमी की समस्याओं, विसंगतियों और विडंबनाओं को कोरोजयी कवियों ने आत्मीयता के साथ चित्रित किया है। लेकिन प्रेम उनकी पुतलियों में प्रत्येक वस्तु को परखता है। अतः प्रेम की स्मृति में लौटना, पुरखों के पास लौटना है। जैसा कि आप देख सकते हैं कि कोरोजयी कवि रैदास व तुलसीदास के यहाँ ही नहीं बल्कि भरतमुनि, भामह व दण्डी के यहाँ भी जाते हैं। वे बुद्ध के यहाँ जाते हैं। वे वहाँ से प्रेम, अहिंसा व करुणा के सूत्र ढूँढ़ कर लाते हैं और उसे मनुष्यता की कसौटी पर अनुभव के साँचे में ढालते हैं। ताकि प्रेम की स्मृति जीवन के पथ पर पथप्रदर्शिका की भूमिका में साथ रहे। 'मैं' और 'ममेतर' के अंतर्सबंधों के बीच प्रेम अपने आप में एक अन्वेषण है। यह कोरोजीवी काव्य में एक केंद्रीय तत्व है और कोरोजयी कवियों का प्रकृति-प्रेम जीवन के संपूर्ण पर्यावरण की सुरक्षा के लिए है। जो कि गहरी जिजीविषा से जन्म दिया है। प्रकृति के सौंदर्य में प्रेम अपनी पूर्णता का रागात्मक प्रगीत रचता है। कोरोजीवी कविता में प्रेम सृजनात्मकता के उत्कृष्ट शिखर पर है। बहरहाल, कोरोजीवी कविता में प्रेम को देखने के लिए डॉ. अनिल पाण्डेय का आलेख पढ़ें। 

©गोलेन्द्र पटेल

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Tuesday, 30 August 2022

'साइकिल' पर केंद्रित गोलेन्द्र पटेल की सात कविताएँ


'साइकिल' पर केंद्रित गोलेन्द्र पटेल की सात कविताएँ :-

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1).


चलना

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कहते हैं कि हाथी को हर चीज दुगुनी दिखाई देती है

इसलिए अँधेरे में उससे नहीं डरता हूँ

डरता हूँ तो केवल कुत्तों से

जो सदियों से आदमी को डरा रहे हैं और

खुद डर डरकर डगर में भोंक रहे हैं


अँधेरे की एक खासियत यह है कि इसमें चिंतन का चक्का  

उजाले की अपेक्षा तेज चलता है

जैसे कि मेरी सोच की साइकिल चल रही है


सामने से आती हुई गाड़ी की रोशनी

गति को कम कर रही है और

उबड़खाबड़ गढ्ढा ढेला पत्थर अद्धा

सबके सब जीवन के हैंडिल को लड़खड़ा रहे हैं

पर पहुँचने की ज़िद पैडिल मार रही है


शीघ्र गंतव्य तक पहुँचना तय है

चालक हूँ चलना मेरा धर्म है


पुरनिया कहते हैं कि चलने से ही चलती है दुनिया

सो मैं चल रहा हूँ!


रचना : 16-11-2021



2).


साइकिल और सम्भावना

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मेडगाड और घंटी विहीन

साइकिल के टायर पुराने

रिंग जर्जर

और ट्यू में कई चकतियाँ लगी हैं

गद्दी की हालत ख़राब

फिर भी क्लियर पर बैठी पकी उम्र

तुम्हें उम्मीद है

कि पैडिल पहुँचाएगी

अंतिम पड़ाव तक

इसके चैन से सम्भावना है

कि लम्बी यात्रा

हैंडिल की दिशा में करेगी देह

इसके प्रति मन में स्नेह है

ऊब और उदासी की ढलान पर

उगे सूरज का गेह है


साइकिल सीखते हुए बच्चे

सिर्फ़ चलाने की कला नहीं सीखते हैं

वे सीखते हैं कैंची मारते समय

सही दिशा में चलना

वे सीखते हैं चौराहे पर ठहरना


उनकी साइकिल स्वप्न में चलती हुई

पटकथा है गुज़रे ज़वाने की

जिसमें जितनी व्यथा है

उतनी ही कथा है अपनी

राह खोज रही है ज़िन्दगी

यथा और तथा की गली से गुज़रती हुई स्मृति

इतिहास में प्रवेश कर रही है

धूल झाड़ती हुई

वहाँ उसके इंतज़ार में 

कोई सवारी खड़ी है

जो विचार-विमर्श के लिए

अड़ी है अनवरत संवाद

उसके हाथों में हराने की घड़ी है


भूख की भाषा में भुजा से

एक पाँव पर पीड़ा की जीत

बड़ी है पेट के पथिक

प्रिय मजदूर!

संसद की सड़क पर

साइकिल चोरी का दुख अधिक है!!


रचना : 30-08-2022



3).


बल्टहरा

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गाय-भैंस का मेद

दूह रही है दिल्ली 


दुदहड़ा के बल्टे में

आधा दूध है, आधा पानी


दुःख है सफेद

आह! गिर रही है

छत की सिल्ली


साइकिल की गद्दी

चिकोटी काट रही है

सत्ता के सेतु पर


आँखों से छलक रहा है आँसू

माथे से टपक रहा है श्रम


जम रही है दर्द की दही

भूख हृदय की हाँदी में चला रही है सानी


लीटर-पउआ की परिभाषा

उसकी पीड़ा की पहचान है

जो रो रहे हैं बछरू-बछिया पड़वा-पड़िया

वे भी बल्टहरा की नजर में इंसान हैं


असल में इंसान होना 

अपनी मनुष्यता का स्वामी होना है


जो है कि चौपायों के पास है

इंसानियत की शक्ति

और मालिक के प्रति अथाह भक्ति


इसीलिए मालिक कभी पुचकार कर दुहता है

तो कभी फटकार कर

कभी पिटता है बाँस के फरट्ठे से

तो कभी प्यार करता है अपने बच्चे की तरह


पालतू जानवर की जिज्ञासा है

कि क्या आजाद होकर 

किसी का खेत रौंदना

प्रजातंत्र का पगहा तोड़ देना है

या खूँटे को कबार लेना है


काटा काटती हुई काकी कह रही है

कि डेमोक्रेसी की डोरी में फाँसी गयी बाल्टी

अक्सर कुएँ में गिर जाती है


पर पुल को पार करके

सड़क के किनारे सुस्ता रहा है बल्टहरा


उसके पास है उसकी करुण कहानी

जिसे वह बोल बोलकर पढ़ रहा है

और अन्य सुन रहे हैं 

लीटर के भाव ,भीड़ से दूर 

बहुत दूर जा रही है हवा के विरुद्ध 

उसकी आवाज़।


रचना : 19-09-2021



4).


कैंची और काल

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सब कुछ खोना

काली रात का रोना

अनायास सार्थक तुकबंदी का होना

अनंत पीड़ा का पचना

मौत के मुँह से बचना

फिर यह कहना कि

कैंची साइकिल सीखने की उम्र में कविता रचना

हर किसी के लिए हैरानी की बात थी -------


स्मृति के सागर में सीप का चमकना

चिंतन की चिरई का चहकना है

और नदी में नाव का डूबना 

उम्र के पड़ाव पर पहाड़ से लुढ़कना है


प्रत्येक प्रहार में काल की लात थी


बचपन से बूढ़ापे तक कैंची

चलाती रही चेतना

ताकि कटता रहे सफ़र


और जीवन के अंत में घर

पहुँचकर -------


चिरनिद्रा में

मैं कैसे सो जाऊँ!


रचना : 18-12-2021



5).


बाल वाला

(बचपन लौट आया कुछ क्षण के लिए)

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डमरू की ध्वनि सुन

हर घर के

बच्चे दौड़ते हैं

गली में


मैं सोचता हूँ

शायद मदारी है

पर तत्क्षण 

बाँसुरी के बदले 

सुनाई देती है

बेसुरा

सीटी की प्रतियोगिता

या 

कहूँ कनकोंचनी

आवाज


सिर्फ़

बाल दो , सामान लो

हमें सीटी दो

हमें गुब्बारा

हमें यह दो

हमें वह


औरतें खोजती हैं

मुक्कियों में खोसी गयी 

मुठ्ठी भर

खोपड़ी का झड़ा बाल

कच्ची उम्रें

साइकिल को घेर रखी हैं


कोई बच्चा ले कर आया

मूड़न का बाल 

बालों का सबसे लघु व्यापारी बोला

वर्जिन हेयर चाहिए

(8 इंच से बड़े बाल)

कोई चिरपरिचित 

पूछी क्या है हाल

एक आलपीन दो

और एक फूलना


वह दे कर तो चला गया

पर

मैं खिड़की से देखता रहा

पचपन में

कुछ क्षण के लिए

अपना लौटा हुआ

बचपन!


रचना : 19-02-2021



6).


साइकिल से सम्मानित

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मैं साइकिल से सम्मानित होने जा रहा हूँ शहर


हवा झकझोर रही है

मन को

ओहाव पर ओहाव 

आती हुई बारिश

तन को

भीगो रही है

लेकिन फिर भी मैं अपनी इच्छाओं के विरुद्ध

आ गया - बनारस!


गुरुवर! लौटना चाहता हूँ मैं

घर नहीं

उजास के उर में

जहाँ कोई उफान नहीं है

कोई तूफान नहीं है


बस

उम्मीद ही उम्मीद है 

हर उम्र के लिए!


आँखों की बरसात

मार रही है लात

एक बूढ़ी दादी गिर गयी हैं 

संसद की पक्की सड़क पर

उन्हें उठा रही है मेरी कविता


कीचड़ लग गया 

उनकी खादी के कुरते में

उनकी लय लड़खड़ा रही है

लोग हँस रहे हैं

तीन टाँगों वाली माँ पर


उसके हालात से हहरा गये हैं

वे शब्द

जो उसकी संवेदना को प्रकट करना चाहते हैं

हम सबके बीच।


रचना : 15-09-2021



7).


साइकिल पर शब्द

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सड़क पर अचानक सृजन करना

आत्मा के साँचे में अनुभूति को धरना है


रुक नहीं रही है बारिश

लावारिस की तरह खड़ी है साइकिल

और खड़े-खड़े दोनों पैर अगिया रहे हैं मेरे


समय के शब्द सवारी करना चाहते हैं

मेरी साइकिल की 

जिसके चक्कों के वृत्ताकार गति में प्रगति है


जहाँ जीवन के छंद 

मात्रा की यात्रा में गड़बड़ा रहे हैं

मतलब दिमाग से कोसों दूर मति है!


रचना : 27-08-2021

नाम : गोलेन्द्र पटेल

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Thursday, 25 August 2022

अपने बारे में (13 साल बाद) : गोलेन्द्र पटेल


अपने बारे में


रात दो बज कर तीन मिनट हो रहे हैं। मुझे नींद नहीं आ रही है। जबकि मैं बहुत थका हुआ हूँ, फिर भी नींद नहीं आ रही है। क्या आदमी जब अत्यधिक थक जाता है तो उसकी नींद भी थक जाती है? वह आने का नाम नहीं ले रही है। आँखों में अजीब सी बेचैनी है, छटपटाहट है। किसी ने दोपहर में मेरे बारे में जानना चाहा। उस वक्त मैं एक साहित्यिक कार्यक्रम में था। अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया। वैसे भी मैं अपने बारे में किसी को कुछ नहीं बताता हूँ। रचनाकारों को तो और भी नहीं। क्योंकि रचनाकार दूसरे की व्यथा को अपनी कथा या काव्य का खनिज बना लेते हैं। वे सम्मानित होते हैं, पुरस्कार पाते हैं, प्रकाशित होते हैं। पुरस्कारराशी पर अपना पूरा अधिकार जताते हैं। वे अपने उपजीव्य व खनिज को भूल जाते हैं जो कि उस पुरस्कारराशी के असली हकदार होते हैं। अरे भाई, आपको सम्मान मिल रहा है फिर भी आपके मन में धन की लालच बनी हुई है। यानी आप सच्चे कवि नहीं हैं, लेखक नहीं हैं। संत कवियों को शायद ही कोई सम्मान या पुरस्कार मिला हो। क्योंकि वे असली कवि थे। रीतिकालीन कवियों में कविकर्म के लिए सम्मान, पुरस्कार व धन वगैरह मिलता था लेकिन उन्हें ही जो अपने राजा को ख़ुश करते थे। आज तो राजा को ख़ुश करनेवाला कवि या लेखक सच्चा सर्जक कहलाने का हक खो देता है। बहुत से खो चुके हैं। बहुत से खो रहे हैं। बहुत से खोने वाले हैं। बहुत से खोयेंगे। खैर, साहित्य का काम क्या है? इसे बताने की जरूरत नहीं है। दुनिया में एक से बढ़कर एक रचनाकार हुए हैं। काफी परिवर्तन हुआ है। लेकिन खनिज वही है जो कल था, आज है और कल रहेगा। बस चयन करने की दृष्टि बदली है। आदिकवि के यहाँ जो दुःख था। वही आज के बिल्कुल ताजे कवि के पास भी है। बस उसका स्वरूप बदल गया है। क्योंकि भाषा के बदलने पर खनिज का स्वरूप स्वतः बदल जाता है। भाषा गतिशील है। उसकी जीवटता उसकी गतिशीलता में होती है। किसी भाषा से उसका भास गायब होने पर, वह मर जाती है। भाषा में भास भाव से होता है। ये भाव स्थायी भाव होते हैं। सभी भावों की जननी अमर जिजीविषा होती है। मेरे भीतर भी वही जिजीविषा है जो मुझे ज़िंदा रखी हुई है।

मैं शब्दों से खेलना जानता हूँ। मैं चाहूँ तो शब्दों के भँवर में आपको फँसा सकता हूँ। पर, ऐसा करूँगा नहीं मैं। क्योंकि आप मेरे भावी जीवनीकार हैं। आपको यह जानने का हक है कि मेरा जन्म कैसे हुआ, किन परिस्थितियों में हुआ, कब हुआ। तो कब से शुरू करूँ अपने बारे में बताना। 

आरोही क्रम में अथवा अवरोही क्रम में। आप किस क्रम में जानना चाहते हैं मेरे बारे में। जन्म से ही शुरू करता हूँ। मैं शुरू करने से पहले कुछ बता देना चाहता हूँ। मेरी माता के पिता एक पहाड़ी मजदूर थे लेकिन दादा किसान थे। मेरे नाना जी के पिता बुढउ नाना बहुत ही मोट बुद्धि के थे। मोट का मतलब है कि वे दिमाग से दिव्यांग थे। उनके परिवार वाले उसी का लाभ उठाकर उनकी बीस बीघा जमीन अपने नाम करवा ली। फिर भी शेष दो बीघा पहाड़ की ढलान पर बची हुई थी। उसे वे अपनी बहनोई को लिख दिये थे। लेकिन वे नाना जी एवं उनके तीन अन्य भाई और दो बहनों का मुँह देखकर। दो-तीन वर्षों बाद पुनः नाना जी के नाम कर दिये। पिता कितना भी नालायक क्यों न हो? रामायण देखने वाले अपने पिता का सेवा भक्ति भाव से करते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति में भी पितृसेवा ईश्वर सेवा के समान माना गया है। मेरे नाना जी भी पितृभक्त थे। वे अपने पिता की खूब सेवा किये। मरते वक्त वे आशीर्वाद दिये कि बेटा वे बेमान कभी सुखी नहीं रहेंगे। किन्तु तुम सब उन धोखेबाज़ों से बेहतर जीवन जीयोगे। वही हो भी रहा है। कहते हैं न कि मरते हुए व्यक्ति की जिह्वा पर सरस्वती का वास होता है। यमराज के पास होने से उस वक्त उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है। नानाजी की दोनों बहनों का विवाह नहीं हुआ था। तभी उनके पिता मर गए। लेकिन नाना का विवाह हो गया था। नानी जी बहुत ही सज्जन एवं मातृ-वत्सल महिला थीं। वे अपनी ननदों एवं बेटियों और देवरों के लिए माँ थीं। जबकि नाना जी की माँ जीवित थीं। 

बचपन में ही नाना जी का विवाह हुआ था। अठारह-बीस की उम्र में दो बेटों एवं तीन बेटियों के पिता बन गए थे। पहले बड़ा बेटा था, उसके बाद तीन लगातार बेटियाँ। फिर एक बेटा। यह क्रम था उनकी संतानों का। वे बचपन से ही पहाड़ों में काम करते थे। वे पहले गिट्टी फोड़े। फिर बोल्डर काटे । फिर पटिया निकालने लगे। वे कुछ कमा कर व कर्ज लेकर पहले अपनी दोनों बहनों की पारी-पारा शादी की। फिर अपने तीनों छोटे भाइयों का भी पारी-पारा ब्याह किये। कर्ज में डूब गए थे। तभी उनके भाई अलगौझे हो गए। उनका बड़ा बेटा (बड़े मामा) लाड-प्यार की वजह से बिगड़ गये थे। सोचा विवाह कर देंगे तो वे सुधार जाएंगे। काम-धाम करने लगेंगे। वे अपनी बड़ी बेटी (बड़ी मौसी) की और बड़े बेटे की शादी एक ही साथ कर दिये। लेकिन विवाह के बाद बेटा भी अलग हो गया। तब मेरी माँ की शादी नहीं हुई थी। वे बहुत ही कर्ज में डूबे हुए थे। रात-रात तक पहाड़ में काम करते थे। अधिक श्रम करने से आदमी कम उम्र में बूढ़ा हो जाता है। वे भी चालीस की उम्र में साठ के दिखते थे। पहाड़ अधिक तोड़ने से उन्हें भस्सी लग गई थी। डॉक्टर की सलाह थी कि वे पहाड़ में काम न करें। लेकिन पहाड़ी मजदूर पहाड़ तोड़ने के अलावा और क्या कर सकते हैं। कुछ नहीं। वे मजबूरी में पहाड़ तोड़ते रहें। फेफड़ा खराब होने की वजह से खटिया पकड़ लिए। उस वक्त उनका छोटा बेटा अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर पहाड़ में गिट्टी फोड़ने लगा। ऋण-कर्जा लेकर किसी तरह माँ की शादी हुई। शादी भी कुछ दिलचस्प ही है। पिता जी के पिता (यानी मेरे दादाजी) नानाजी को दूसरे का खेत और अपना बिका हुआ खेत सब जोड़-जाड़कर प्रेत्यक बच्चे पर पाँच बीघा बता कर शादी के लिए मना लिये। मेरे पिता तीन भाई हैं। आप सोच सकते हैं कि मेरे माता-पिता का ब्याह कैसे हुआ होगा। विवाह के पूर्व से मेरे पिता जी रीढ़ का विकलांग हैं और मेरी माँ बचपन से शारिरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। मेरी माँ अपनी शादी के समय रूप से स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट हट्टी-कट्टी सुंदर युवती थीं। तसवीर देखकर लगता ही नहीं है कि मेरी माँ एक मजदूर की बेटी हैं। 

ऐसा लगता है जैसे कोई राजकुमारी हैं। नानी अधिया-टुकड़िया खेती-बाड़ी करती थीं। ऊख पाँच-पाँच बीघा अधिया बोया जाता था। और कुछ पैसे पर भी। सभी मिलकर खेतों में काम करते थे। माँ और छोटी मौसी में काम को लेकर खूब लड़ाइयाँ होती थीं। कभी-कभी झोटा कबरौवल भी हो जाता था। बहरहाल वे जब अपनी स्मृति में जाती हैं तो बहुत दुखी होती हैं। बड़ी मौसी की मृत्यु मेरे जन्म से पहले ही हो गयी थी। इसलिए उनकी गोदी में खेलने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला। छोटी मौसी की शादी करने के बाद नाना जी चल बसे। छोटे मामा जी मौसी का गौना कराये। मौसी के गौना के साल ही वे दसवीं कक्षा की परीक्षा दिये थे लेकिन वे फेल हो गए। उनकी भी पढ़ाई छुट गई। फिर कुछ वर्षों बाद उनकी शादी हुई। तीस की उम्र में वे भी चल बसे। उनकी एक बेटी और दो बेटे हैं। जरा कल्पना कीजिए कि मेरी माँ यह जानने के बाद क्या सोची होगी कि उनका जिन से शादी हुआ है, वह विकलांग है। जब नानी को पता चला कि मेरे पिता जी विकलांग हैं तब नानी ने कहा कि बच्ची गगरी ठनठनही निकलने पर चार बार बदली जाती है। लेकिन माँ ने पिताजी के साथ रहना स्वीकार कर लिया। मैं पैदा भी नहीं हुआ था। माँ केवल एक बार ससुराल आयी थी। वह चाही होती तो उसकी शादी कहीं और हो जाती। परंतु, उसने पिताजी को अपना परमेश्वर घोषित कर दिया। उसने इस विसंगति को अपना भाग्य स्वीकार कर लिया। जबकि पिताजी माँ को खूब पिटते थे। उन्हें और दहेज चाहिए था। 

मैं जब पूछता हूँ कि तूने पिताजी को छोड़ क्यों नहीं दिया। वे तो तुम्हें बहुत कष्ट दे रहे थे! पिताजी एक नंबर के गजेड़ी व जुआड़ी थे। वे गजेड़ी तो अब भी हैं। भले ही मुझसे या मेरे भाइयों से डरते हों। हाँ, उत्तर में माँ कहती है कि मैं यही सोचती थी कि कहीं दूसरा इनसे भी बुरा निकल जाए। तब मेरा क्या होगा? तुम्हारे नाना तो कर्ज के बोझ से दबकर दम तोड़ चुके थे। इसलिए मैंने सोच लिया कि अब मैं अन्य जगह शादी नहीं करूँगी। चाहें तुम्हारे पिताजी मुझे सम्मान से अपनाते या नहीं अपनाते। तुम्हारे नानाजी तुम्हारे दोनों मामाओं से कहे थे कि वे मेरे लिए पहाड़ के पास एक कोठरी बनवा देगें। जब मैं दूसरी बार गौने आई, तब तुम मेरे पेट में थे। तुम...,विपत्ति के दिनों में तुम्हारा जन्म हुआ। मैं तुम्हें लेकर बरधवानी (घास-फुस की गौशाला) में रहती थी। बरसात में बहुत दिक्कत होती थी। तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए दूध नहीं लेते थे। मैं बीमार थी। मुझे दूध होना बंद हो गया था। तब ई बड़की माई अपनी बकरिया का दूध चोरी से रात में देती थीं। उन दिनों इनके घर से तुम्हारे बड़े बढ़का बाउओं के घर से झगड़ा हुआ था। तुम्हारे पिताजी अपने भाइयों के सुनते थे। उन्हीं के मानते थे। कभी-कभी लगता था कि तुम्हें लेकर किसी कुँएं या नदी-नार में कुद जाऊँ। पर, मैं पता नहीं क्यों सोचती थी कि तुम मेरे लड़के हो। मेरी आँखों का तारा हो, मेरा ख़ून हो। यदि लड़की होते तो अब तक जीवित नहीं रहती। तुम से मेरा बेड़ा पार जाएगा लेकिन तुम्हारे पिताजी को बुढ़ापे में समझ में आएगा। रात में मैं तुम्हें लेकर कुद-मरने गयी थी। लेकिन सोचते-सोचते भोर हो गया। पड़ोस की महिलाएँ खेत की ओर जाने लगी थीं। दिशा जाना या खेतों की ओर जाना एक गुप्त मुहावरा है। हम दोनों को एक-दो औरतें देख भी लीं। जब वे पूछीं यहाँ क्या कर रही हो फलाने बो? तब मैंने कहा कि मदार के नीचे तुम्हें नहवाने लाई हूँ। उस दिन सुबह छह बजे तुम्हें लेकर तुम्हारी नानी के घर निकल गई। आधी दूरी (लगभग बीस किमी.) पैदल चली। पैसे थे नहीं। भूख लगी थी। तब तुम्हें रास्ते में अपनी एक सहेली के घर ले गई। संयोग से उसके यहाँ गाय का दूध था। तुम्हें पिलाई। फिर वहाँ से तुम्हारी छोटी मौसी के यहाँ गई। वहाँ उसी दिन रात को अपने घर (नानी के यहाँ) तुम्हें ले के पहुँची। तब तुम तीन महीने के थे। जब तुम साल भर के हो गये। तब तुम्हारे पिताजी घुमते-घामते तुम्हें देखने आयें। बस, तुम्हें देखकर वे वापस लौट आयें। फिर एक बार जाड़ा के दिनों में तुम्हारे लिए स्वेटर-पैजामा लेकर आये थे। उसके बाद पाँच साल के लिए तुम मेरे लिए लव-कुश रहे। मैं तुम्हारे लिए सीता। मैं तुम्हें लेकर ठोकर खाती रही। जानते हो? 

जिसका समय ख़राब होता है उसका भाई-बंद भी साथ नहीं देते हैं। मैं दिन भर दूसरों के खेतों में बन्नी-मजूरी करती थी। तुम्हें मेंड़ पर सुला देती थी। दूसरे गाँव में रोपनी करने जाती थी। एक बार तुम्हें बहुत पिरकियाँ हो गयी थीं और ऊपर से तुम हगते बहुत थे। माई के यहाँ की दवाई काम नहीं कर रही थी। परेशान होकर तुम्हें दवाई के लिए लेकर मैं अपने बड़का भइया के ससुरार गई थी। मैं तभी का उनके ससुराल गई हूँ। उनकी साँस (माई) मुझे बहुत मानती थीं। वहीं की दवाई से तुम सही हुए, स्वस्थ हुए। लगभग साढ़े पाँच साल बाद तुम्हारे पिताजी सम्मान के साथ मँड़ई से करकट छाने के बाद हम दोनों को साथ लाये। कुछ दिन बाद फिर वही नटंकी। तुम्हारे पिताजी काम-धाम करते नहीं थे। कभी देवघर, त कभी मइहरमाई, त कभी विन्ध्याचल, त कभी बम्बई घूमते थे। लुंगी-गमछा पर ही अपने दोस्तों के साथ गुप्ताधाम चले जाते थे। एक बार तुम्हारे पिताजी कहें कि वे भीटे (घर से एक मिल दूर) पर से भंटा (बैगन) तोड़ कर लाते हैं। लट्टी-चोखा बनेगा। 'ये बाबू हम तवन अहरा सुलगा देहली। उ तवन लुंगी-गमछा पर गुप्ताधाम चल गइलन। ई त अइसन इनसान हयन। बेटवा मरे या मेहरिया मरे इनके रंग में कउनो फरक ना पड़ी। ई एकदमे फक्कड़ बाड़न। तोनहन दूनो मिला माई के यहाँ भइला। ई दूनो मिला यहाँ।...' 

मैं नानी के यहाँ ही एक पहाड़ी स्कूल में पहली कक्षा तक पढ़ा। वहाँ महीने के अंत में चावल-गेहूँ दूसरे गाँव में मिलता था। तब मैं झोला लेकर अपने हिस्से का चावल-गेहूँ लाने के लिए अन्य साथियों के साथ जाता था। फिरंगी वाला लमचूस खरीद कर खाता था। उन्हीं दिनों माँ को भंडारी देवी के दर्शन हेतु अहरौरा (मिर्जापुर) जाना था। माँ मुझे फुसलाकर चली गई। मैं अन्य बच्चों के साथ दिनभर खेलता रहा। जब शाम हुआ तो कुछ बच्चे खिलौने लेकर पास आ गए। अब आप सोच सकते हैं कि मेरे मन में क्या भाव जागृत हुआ होगा और मैंने क्या किया होगा? मेरी माँ भी मेरे लिए लोहे की सिटी लाई थी। जैसा कि ट्रॉफिक पुलिस के पास होता है। ठीक वैसा ही था। इस माथे से बजाता था, तो उस माथे की चिरई-कउआ उड़न छू हो जाते थे। उसको बजा-बजाकर मैं मक्के व बाजरे के खेतों को अगोरता था। फिर अगले साल अपने गाँव पर प्रथम कक्षा में ही पढ़ा। उसके बाद। पिताजी के एक मित्र ने मुझे अपने प्राइवेट स्कूल में दाखिला दिलवाया। मगर मैं भोजन की समस्या की वजह से समय पर नहीं पहुँच पाता था। उसी साल पिताजी महीने भर बीमार हो गये। घर में किसी दिन चूल्हा जलता था, किसी दिन नहीं। खाली पेट पढ़ने का अर्थ आप समझते होंगे।

मैं अपनी कमजोरी कितना दिन छूपाता। एक दिन गुरुजी घर चले आएं। जात के चमार थे। लेकिन पिताजी के अजीज दोस्त थे। घर की हालत देखकर मेरी फीस माँफ कर दी। लेकिन भोजन की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। उसी साल से सरकारी स्कूलों में तीन सौ कुछ रुपये मिलने शुरू हो गये थे। बीच में पता नहीं क्यों वह प्राइवेट स्कूल बंद हो गया। फिर मैं अपने गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ने लगा। लेकिन उस समय तक मैं व्यासजी की कथा सुनने जाने लगा था। इसलिए नहीं कि वे भगवान राम की कथा सुनाते हैं। बल्कि इसलिए कि वहाँ हलवा-पूड़ी पेट भर मिलता था और हम सब प्रसाद घर भी पालीथीन में भर कर लाते थे। आगे चौथी कक्षा से सरकारी स्कूलों में भोजन भी मिलने लगा। भोजन की समस्या खत्म हो गई। हम दोपहर में बारह बजे चापकर खाते थे। एक बार में आठ पहर का काम हो जाता था। आठवीं कक्षा तक ड्रेस व भोजन स्कूल पर ही मिलते थे। फिर नौंवी कक्षा से बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई मैंने एक राजकीय इंटर कॉलेज से किया। वहाँ भी एक से आठवीं कक्षा तक के बच्चों को भोजन मिलता था। सो, मैं वहाँ भी दोपहर का भोजन कर लेता था। जो प्राइमरी या प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक हैं वे समझ सकते हैं कि क्यों गाँव में कम उम्र के बच्चों को भी उनके माता-पिता पाँच साल का बताकर नाम लिखवा देते हैं। कुछ पैसे के लालच में लिखवाते हैं तो कुछ और। असल में मैंने तो एक से बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई के केवल पेट भर भोजन के लिए किया है।

हांलाकि मैं आठवीं कक्षा तक आते-आते कवि के रूप में स्कूल-कॉलेज में प्रसिद्ध हो चुका था। भोजपुरी में मेरे गीत बिकने लगे थे। और एक बात कि दू हजार पन्द्रह तक मुझे कम से कम दस लोग गोद लेना चाह रहे थे। इनमें शिक्षक से लेकर नेता तक शामिल हैं। मगर, मुझे किसी की बात अच्छी नहीं लगी। मैं अपनी माँ से दूर नहीं रह सकता। माँ मेरी आत्मा है। चाहें ईश्वर स्वयं आ कर आफ़र क्यों न दें! मगर, मुझ पर केवल और केवल मेरी माता-पिता ही हुकूमत कर सकते हैं। शेष अन्य कोई भी नहीं। मुझे पिता की तुलना में माँ से जादा लगाव है। मैं माँ को पिता से श्रेष्ठ समझता हूँ। जब प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ता था, तो नरेगा (मनरेगा) में काम करता था। जिन सड़कों में काम किया था। वे उस समय अठारह फीट चौड़ी थीं। किंतु अब छह फीट हो गई हैं। नालियाँ पट चुकी हैं। नहर नाली में तब्दील हो चुकी है। एक बार नौंवी कक्षा में कॉपी-किताब से भरा हुआ बैग लेकर रामनगर की मजदूरमंडी में खड़ा था, तो वही से दो सौ पचास रुपये प्रति दिन के हिसाब से मकान का डिज़ाइन निकालने चला गया। तब मसाला बनाने नहीं आता था लेकिन उस दिन पता नहीं कैसे अच्छा मसाला बना पाया। कितने एक में कितने सीमेंट पड़ेंगे। सब सही रहा। कहते हैं कि गरीबी महान प्रतिभा की जननी है। जहाँ हालात उसे हुनर सीखा देता है। बीच में मेरे अनुज की तबीयत बिगड़ गई। तब मैं अपने गाँव के एक साथी के साथ पड़ाव की मजदूरमंडी में गया। हम दोनों तीन दिनों तक एक साथ एक ही घर पर काम किये। फिर चौथे दिन मंडी से अलग-अलग मालिकों के साथ गये। संयोग से मैं एक रिटायर्ड कर्नल के यहाँ गया। डिज़ाइन निकालना था। एक हफ्ते तक आराम का काम था फिर लेबरई में जो होता है वही हुआ। गाजीपुर के एक यादव जी थे। वे मेरे हिस्से की सीमेंट-बोरी दो मंजिलें पर चढ़ता थे। वे उसके बदल में मुझसे एक नाप ताड़ी लेते थे। कर्नल पटेल थे, मेरे बिरादर थे। पर, उनके यहाँ जाति के भेदभाव के सूत्र मौजूद थे। वे मुझे अपने गिलास में पानी देते थे। लेकिन यादव जी को कांच के गिलास में। आज भी जब कोई मुझे कांच के गिलास में पानी देता है। कर्नल साहब की छवि सामने आ जाती है। उनका बड़ा बेटा यूपी बोर्ड के हाईस्कूल में पचासी प्रतिशत अंक प्राप्त किया था। वे बहुत ख़ुश थे। समाचारपत्रों में उसकी तसवीर थी। मैं सोच रहा था कि काश मेरे पिता भी पढ़े होते, तो मेरी तसवीर भी समाचारपत्रों में छपती। क्योंकि मैंने भी अच्छे अंक अपनी नौवीं कक्षा में पाया था। एक वर्ष बाद हाईस्कूल में उससे अधिक।

मैं पूर्णतः शाकाहारी हूँ। ताँबे के लोटे में पानी पीता हूँ, कभी-कभी परई में भी और पीतल की थाली में खाता हूँ। हीताई-नताई में चौथी लेकर जाना हो। या फिर खिचड़ी लेकर जाना हो। हर जगह मेरे लिए सादा भोजन ही बनता हैं। ऐसा नहीं है कि मैं शुद्ध भक्त हूँ। मैं भले ही सत्रह वर्षों तक शिव की उपासना की है। जिसमें मैंने प्रारंभिक सात सालों तक शिव का निर्वस्त्र होकर जलाभिषेक किया है। तेइस वर्षों तक शक्ति की उपासना की है। ये सब आगे भी पता नहीं कब तक चलेगा। फिलहाल मैं इसे विषय को भविष्य पर छोड़ता हूँ। मैं चमार के साथ एक ही थाली में खाया हूँ, तो मुस्लिम की थाली में भी खाया हूँ, ब्राह्मण की थाली में भी खाया हूँ, नट की थाली में भी खाया हूँ, डोम की थाली में भी खाया हूँ, गड़ेरिया की थाली में खाया हूँ, पहाड़ी-आदिवासी की थाली में खाया हूँ। मुझे चमार पढ़ायें हैं, तो मुस्लिम भी पढ़ाए हैं, ब्राह्मण भी पढ़ाये हैं, आदिवासी भी पढ़ाए हैं। जिनके साथ थाली में मैं खाया हूँ, वे जीवित हैं। जिनसे शिक्षा ली वे भी जीवित हैं। वे सब आत्मीय हैं। आत्मीयता वह आरी है जो भेदभाव की बेड़ी काट देती है। एक बार भोजन के चक्कर में अट्ठारह मिनट लेट हो गया था। मुझे सर्वविद्या की राजधानी की सबसे बड़ी संस्था की अंग्रेजी की कक्षा से बाहर कर दिया गया था। दुःख हुआ कि सरस्वती इस आचार्या को मेरी कक्षाध्यापिका कैसे नियुक्त कर दीं। अरे भाई, हर कोई विद्या की राजधानी में रहकर ही विद्या ग्रहण नहीं करता है।

कुछ विद्यार्थिगण विद्या की राजधानी से बहुत दूर होते हैं उन्हें बढ़ियाई गंगा तैर कर पार करना होता है। समय तो लगेगा ही। थोड़ा सा लेट हो गए तो क्या हुआ। जो मेरे हिस्से की विद्या होगी। वह मेरे पास आएगी। लेकिन उसे यूँ हीं छिन लेना उस दिन बहुत खला। कम से आप एक बार पूछ ली होतीं कि मैं क्यों लेट हुआ। बहरहाल, मैं अपनी धार्मिकता के संदर्भ में कुछ कह रहा था। वह यह कि मैं धार्मिक नहीं हूँ। लेकिन अपने माता-पिता-गुरु को पूजता हूँ। पूजना दरअसल कविता की भाषा कूजना है। मैं बहुत सारे प्रसंगों को छोड़ दिया हूँ। क्योंकि 'अपने बारे में' ऐसा विषय है जिस पर मैं तब लिखता-बोलता रह जाऊँगा जब तक कि मेरा प्राणांत न हो जाए। मैं मिर्जापुर, इलाहाबाद, वाराणसी (वाराणसी में खासकर 'रामनगर, मलदहिया, सामने घाट, हनुमानघाट, मणिकर्णिका घाट, मडुआडीह, मिर्जामुराद व रोहनिया' के प्रसंग) और चंदौली के ढेर सारे प्रसंगों छोड़ दिया हूँ। बस नाम ले ले रहा हूँ ताकि यहाँ काम करने वाले श्रमिकों के पसीने की बूंदें यह न सोचें कि मैं उनको भूल गया हूँ। मैं हवा को सूँघकर बता सकता हूँ कि किसी दिशा में मेरे मजदूर मित्र श्रमरत हैं। 

मैं एक घटना आपको और बताता हूँ। दो हजार सोलह में एक राजकीय बालिका इंटर कॉलेज की प्राचार्या (वरिष्ठ प्रिंसिपल) मुझसे मिलने अचानक मेरे घर आयीं। वे मेरे बारे में मेरी बहन से सुनी थीं। वे मेरे द्वारा लिखित एक गीत ('मइया मोरी नींदियों आवे लीन/कि घोरे-घोरे बदरिया छावे लीन/भोरे-भोरे चदरिया ओढावे लीन/ मन की मँड़इया टप-टप चुअ ता/ तन हमार रुअ ता/ अँखियाँ से बहतारे लोर हो/ हियरा में मचल बाटे शोर हो।...') मेरी बहन से सुन चुकी थीं। वे जब आईं, तब मैं भूमि पर लेटा हुआ था। वे मुझसे काफी सारी बातें कीं। अंततः जाते वक्त पूछा कि मैं भूमि पर क्यों सोता हूँ। तो मेरे बोलने से पहले ही मेरी बहन उनकी जिज्ञासाएँ शांत की। प्रिय भाई! आपकी सहानुभूति के संदर्भ में मुझे अपनी ही कविता 'सहानुभूति 'याद आ रही है। जिसकी पंक्तियाँ हैं :-

न तो मेरे पास घर है
न घर बनाने के लिए ज़मीन
मैं एक निर्वस्त्र आत्मा हूँ
भूख की भाषा में दीन
मेरी रात्रि कभी ढली नहीं
मैंने कभी देखा नहीं दिन
बस भटक रही हूँ जंगल-पहाड़
भटकना मेरी नियति है
ओ सहानुभूति!
तेरी धड़कन में मेरे लिए गति है?

आज भी मेरे पास न तो ख़ुद का घर, न घर की इच्छा। मैं बचपन में माँ की गोदी में सोया हूँ। बोध होने पर दूसरे के घर। ऐसा नहीं है कि मैं घर नहीं बनवा सकता हूँ। या मैं दू पहिया या चार पहिया नहीं खरीद सकता हूँ। घर बनवा सकता हूँ, खरीद सकता हूँ। लेकिन मुझे फिर से गीतकार बनना पड़ेगा। आत्मा के विरुद्ध मजबूरन एक भाषा में भर्ती भावना की कसौटी पर अश्लीलता की अभिव्यक्ति करनी होगी! माँ को दिया वचन तोड़ना होगा! मेरे सहोदरो! मैं बहुत थक गया हूँ। आज यहीं तक, फिर कभी मेरे बारे में मुझसे सुन लेना। आप सब की आँखें लाल हो गई हैं। उन्हें विश्राम दो। यदि आप और अधिक जानना चाहते हैं तो इन-इन लोगों से संपर्क करें। कुछ नाम - क, ख, ग, घ, ङ, च....। माँ तो कहती हैं कि वे जब बहुत बीमार थीं। तब आप उनकी सहेलियों का स्तनपान किये हैं। अब आप सब शेष बातें माँ और पिता से ही पूछ लेना। एक दिव्यांग साथी का फोन आ रहा है।

मैं बचपन में मिर्जापुर के लालपुर वाले पहाड़ में पत्थर तोड़ा हूँ, गिट्टी फोड़ा हूँ और बोल्डर काटा हूँ। उनमें से कई भूजूर्गों की मौत हो चुकी है। जो मुझे अपना कत्तल (ढोके से छोटा टूकड़ा) देते थे। वे साथी बाहर जा चुके हैं जो मेरे मोटे पत्थर को अपनी चकधारा से चिरते थे। यूपी के बाहर वे कंपनियों में काम कर रहे हैं। कुछ साथी खींच-तानकर दसवीं-बारहवीं तक पढ़ाई किये। फिर उसके बाद छोड़ दिये। मैं उनका प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ और परास्नातक में पहुँच गया हूँ। मैं कड़ी धूप में हथौड़ा चलाया हूँ। पहाड़ों में बोल्डर काटते समय एक घुट्ठा छटकर मेरे नड़ीहड़ से टकरा गया, तो मानो मेरे प्राण निकलते-निकलते बचे। अभी तक उसके निशान हैं। देखो! ये हैं। अब जब कभी मैं ईंधन के लिए लकड़ी फाड़ता हूँ, चिरता हूँ। तो मैं महसूस करता हूँ कि निशाना वही है। जो पहाड़ में पत्थर तोड़ने का फल है। अभी पुराने लोग मुझे कवि से अधिक पहाड़ी पथिक कह कर पुकारते हैं। उनकी दादी कह रही थीं कि आप उनके साथ जाड़े के दिनों में सवेरे-सवेरे ही घास काटने जाते थे। हाँ, मैं जाता था। मैं बचपन में ख़ूब घास किया हूँ, काटा हूँ और छिला हूँ। मैं अपने गाँव की बूढ़ी औरतों के साथ घास काटने जाता था। वहाँ, जो हमउम्र के लड़के-लड़कियाँ होती थीं। उनके साथ घास-घास खेलता था। घासों से संबंधित कई खेल हैं। जिनको हम सब खेलते थे। हम घासों का विवाह भी कराते थे। बगीचे में घास काटने जाने पर, कभी होलापाती, तो कभी गोटी-सोटी खेलते थे। खेल-खेल में समय छू मंतर हो जाता था। जब काफी समय हो जाता था। तो हम सब नहर में हिलकर महउवाँ-सहउवाँ काट लेते थे। ऐसा हम इसलिए करते थे ताकि मार खाने से बच सकें। मार से बचने के लिए बोरा का भरा होना आवश्यक था। एक दिन होलापाती खेलते वक्त गोधूलि बेला में एक लड़का (कखग) ने मेरा हसुआ चुरा लिया। जब कुछ लोगों के माध्यम से पता चला तो दूसरे दिन उसने उसके बदले में मुझे अपनी पुरानी बाँकी दी। मेरी माता-पिता सीधे हैं। वे बिना विरोध किये। वे चुपचाप बाँकी ले लिए। मेरे परिवार में कई लोग घास करते थे, छिलते थे। अब उनकी पत्नियाँ घास छिलती हैं। मैं बूढी औरतों के साथ घास  छिलता था। उसकी वजह से मैं विभिन्न प्रकार की घासों के औषधीय गुणों को जानता हूँ। मैं पचास से अधिक घासों को पहचानता हूँ। मैंने 'निनावाँ' से लेकर 'नोनियाँ' तक पर अनेक कविताएँ लिखी है। हर घास का मेरे जीवन में अपना महत्त्व है। पिताजी आपके प्रशंसा करते नहीं थकते हैं। वे कहते हैं कि आप सीवान में गोबर सइतते थे। हाँ, सइतता था। पर बस एक साल तक सइता। उस साल मेरी गाय को एक विषैले साँप ने काट लिया था। जिसकी वजह से उसकी मृत्यु गई थी। ईंधन के लिए दिक्कतें होती थीं। सो, गोबर सइता। मैं बगीचे में लकड़ियाँ तोड़ा और बिना। मैं उपला (चिपरी) पाथ लेता हूँ और गोइठा भी। मैं गोहरा लगा लेता हूँ। कभी आप किसी गोबर पाथने वाली स्त्री की हथेली देखना। आपको उन हथेलियों में एक महान कला नज़र आयेगी। वैसे मैं मुसहर साथियों के साथ खेतों में गेहूँ-धान के बालों को भी बीना हूँ। मैं गेहूँ के थ्रैशर पर काम किया हूँ। दो हजार बीस में तो एक दिल दहला देने वाली घटना घटी। जिस थ्रैशर पर मैं काम करता था। उस पर एक मजदूर का हाथ कट गया। गेहूँ लगाते वक्त उसका दाहिना हाथ फँसकर अंदर चला गया। उस दर्दनाक दृश्य की उपज है मेरी कविता 'थ्रेसर'।

भइया, चाचाजी बता रहे थे कि आप साइकिल पर सब्जियाँ बेचते थे। हाँ, मैं बेचता था। मैं एक बार लगभग चार बिस्वा बैगन, धनिया, पालक व टमाटर बोया था। उस साल कई लंगोटिया यार भी अपने खेत अगोरते थे। हम सब बरसात में अपने फसलों को निलगाय, घड़रोज, साँड़ व भैंसा से बचाने के लिए रात में मचान पर तिरपाल ओढ़कर बैठते थे। अक्सर मेंड़ में चूल्हा बनाकर कुछ न कुछ बनाया-खाया जाता था। जाड़े में कचालू तो गरमी में लिट्टी-चोखा। एक बार तो मेरे खेत की सारी ककड़ियाँ तित निकल गयीं। तब उस साल दूसरे के खेतों में आधीरात को ऊँट-सियार की कहानी मैंने दुहराया। वैसे भी खाने-पीने के सामानों को गाँव के लोग आपस में बाँटकर खाते हैं। हम अपने किसी परिचित के खेत में एक-दो ककड़ियाँ तोड़ लेते हैं। हर हलधर सहृदय व उदार होता है। लेकिन उनके खेतों में चोरी करना कठिन है। क्योंकि वे कुत्तों के साथ कुत्तों की भाँति सोते हैं। बहरहाल बात यह थी कि जब मैं साइकिल पर सब्जी बेचता था, तो मेरे साथ मेरे पिताजी भी होते थे। गाँव-गाँव में चिल्ला-चिल्लाकर सब्जी बेचने की वजह से काफी लोग मुझे पहचानते हैं। अब तो गीत बचने की वजह से कई पॉवर स्टार, टॉवर स्टार व हिट मशीन भी मुझे जानते हैं, पहचानते हैं। 

(©गोलेन्द्र पटेल
26-08-2022)

कवि : गोलेन्द्र पटेल

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Wednesday, 17 August 2022

क्या तुम इसका उत्तर जानते हो? : गोलेन्द्र पटेल


क्या तुम इसका उत्तर जानते हो?

यह है आज़ादी के
अमृत महोत्सव का वातावरण
भाषा पर भुजा
व भूख पर भय हावी है
आँसू की नदी में नीति की नाव नहीं
डूबा भावी नावी है
मटके पर मुल्क का मन अटक गया
पर , पानी की पीड़ा पसीने को पता है
धर्मराज!
मैं अछूत की कविता हूँ
सृजनात्मक समाज का सोच नया शब्द-स्वर
जाति की ज्योति - जीवन की जीवटता
जन्मजात जिज्ञासा - जीव की जिजीविषा
मैं मानवीय संवेदना की सरिता हूँ
आज़ाद भारत के महाभारत का भविष्यपर्व
अर्थात् अनकहा गीता हूँ
मुझे मालूम है
मेरा शब्दसपूत अर्थार्जुन से जंग जीता है
वह सहृदय में समय का सविता है
मृत्यु की गोद में सोना
उसके लिए अंतिम बार रोना है

कृष्ण!
मेरे एकलव्य को देखे हो
द्रोणाचार्य को दिया उसका अँगूठा
अक्षर से आकृति बना रहा है
अँधेरे के चेहरे पर
मैं चाहती हूँ कि वह इसे रोके
अन्यथा आवाज़
अंतःकरण से बाहर आते ही
धर्म की ध्वनि को शोर में परिवर्तित कर देगी
और तुम्हारा सपना 
संघर्ष के संग्राम में स्वाहा हो जाएगा
मृत्यु का मौसम वसंत से अच्छा है
जंगल - यह ख़ून से गीला
किसका कच्छा है?

पहाड़ का हाड़ पहाड़ा से जोड़ता प्रश्न
भूगोल के लिए कठिन है
हर! हर
दिन दीन के लिए दुर्दिन है 
भीष्म को अपनी प्रतिज्ञा प्यारी है
किन्तु कर्ण को परिवर्तन की चाह है
बेवजह चालान कट रही है
यह कैसी राह है?

मेरी आँखों का तारा
हालात से हारा है
समरसता का स्वाद उसे मारा है
उसकी प्यास इतिहास का आन्दोलन है
वह पाण्डुलिपियों में
पेड़ के प्रतिबिंब का प्रदोलन है
हवा में ख़ुशबू नहीं
तैर रही है सनसनी ख़बर 
व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध की बात
कर रही है रात
अपनी है न 
जात
भात के लिए तरस रही है!

आँचल के कोर भोर होने से पहले भीग गये हैं
चाक चरमपंथी के आगे कब तक चुप रहेगा?
नाथ! दुख का हाथ 
सुबह से शाम तक उसके साथ है
आज मिट्टी बिना वह अनाथ है
मगर मिट्टी पास है
जो आँवाँ में नहीं
चेतना के चूल्हे में पकेगी
एक अनूठी अभिव्यक्ति के रंग में राग अड़ा है
औंधा घड़ा पर बड़ा 
किन्तु एकदम गोल सवाल खड़ा है
जो अपने अस्तित्व के लिए
बहुत लड़ा है

संजय!
क्या तुम इसका उत्तर जानते हो?
क्या तुम उस माँ की चीख सुन सकते हो?
गंधारी की पट्टी से बाहर झाँक रही हैं पुतलियाँ
व्यास वीरों के तीरों की वृष्टि से आहत हैं
इंद्र की आँखों से ढुलकीं
आँसू की बूंदें उनकी स्याही में जा मिलीं 

वे लिख रहे हैं इंद्रनामा
जिसे धृतराष्ट्र की तरह
संवैधानिक संज्ञा - न्याय पढ़ने में असमर्थ है
क्या उनका लिखना व्यर्थ है?

उत्तर दो गुरु!

(©गोलेन्द्र पटेल
17-08-2022)

कवि : गोलेन्द्र पटेल

संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com





 

Saturday, 13 August 2022

आज़ादी का अमृत महोत्सव : गोलेन्द्र पटेल / 15 अगस्त पर ख़ास कवित

 

आज़ादी का अमृत महोत्सव

पचहत्तर साल बाद आज़ादी का अमृत महोत्सव
वहाँ मनाया जा रहा है
जहाँ हर आदमी नंगा है
उनका प्रधानमंत्री भिखमंगा है
उनके घर नहीं, तिरपाल पर तिरंगा है
जो धूमिल की आँखों में
सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
सावन में बहुत घाम है
मानो किसान-मजदूर के लिए सुबह ही शाम है

उनके वोट का दाम सड़े हुए गेहूँ की एक रोटी है
उनका नारा है - 'तुम मुझे अन्न दो , मैं तुम्हें वोट दूँगा'
लोकतंत्र के लोक और लोग अब सवाल हैं
संविधान के शब्द संसद की सड़क पर उतर गये हैं
लेकिन संत और सिपाही उनके ढाल हैं

चारों ओर आश्वासन की आवाज़ गूँज रही है
धरती धधक रही है
सारे जंगल जल रहे हैं , गाँव-शहर सुलग रहे हैं
नदी-समुद्र के जल खौल रहे हैं
पर , आसमान में धुआँ तनिक भी नहीं है
मौसम मुस्कुरा रहा है मंद-मंद
भूख गुनगुना रही है आँत में आँसू का छंद
उनको चारण कवि का कलाकंद पसंद है
लेकिन वे समय सापेक्ष सत्य के स्वर से डरते हैं

पहाड़ की चीख से चौक चौंक रहा है
चाय की चुस्की से उत्पन्न
बहस की बातें लंबी उड़ान भर रही हैं
हृदय को चीरता हुआ चित्र अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर है
चूल्हा गर्भवती चुहिया को देखकर
लज्जा महसूस कर रहा है
उसकी दृष्टि में देश का नक्शा उसकी पीड़ा की परछाँई है
अँधेरे का आरा आज़ादी को तीन बराबर हिस्सों में काट चुका है
(आ-ज़ा-दी : एक खंड उनका है
दूसरा खंड इनका है
तीसरा खंड बाँटने वाली बिल्ली की है
कोई आवाज़ - दिल्ली की है!)
सहानुभूति बुरे समय में सूखे की पूँजी है
कतार में खड़े लोगों के हाथों में
सत्ता की सड़ी सूजी है

पेड़ के नीचे आदमी जब गहरी नींद में होता है
तब कुत्ता भी कभी-कभी मुँह पर मूत देता है
चिड़िया तो खैर दिनदहाड़े चेहरे पर हगती है
मैं मात्रा की यात्रा में सोचता हूँ___
क्या भारत की संतानें पेड़ के नीचे सोना छोड़ दें?
फिर चुपचाप चला जाता हूँ दिमाग से दिल में
जहाँ मासिकधर्म में डूबे हुए दो-चार विचार हैं
अजीब सी संबंध की गंध है
तीमार क्रियाएँ वक्ष के वक्तव्य में बीमार हैं

मैं अचानक जले हुए स्वप्नों के ढेर पर देखता हूँ
रंगा-सियार मस्त है
आज उसी का पन्द्रह अगस्त है
बगल में कोई आदमी उल्टी-दस्त से पस्त है
मानो वह अस्त है
सो, सभ्य सियार अपने में व्यस्त है!

फिर भी मृत्यु आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रही है
वह प्रश्न की पीठ पर आत्महत्या का बोझ लाद रही है
वह नीति की नाक को परंपरा की पालिश से चमका रही है
लेकिन चमड़े की मुहावरे से चुनाव का चेहरा
देखो, दृश्य में देवता का दोहरा चरित्र है
नफरत की नयी नज़र में बुद्ध, तुलसी व गाँधी वगैरह
सब मर चुके हैं बची हैं केवल घृणा-तृष्णा

सिर्फ़ एक अक्षर बीज-मन्त्र
चरैवेति, चरैवेति, अब भी कोई चीख
शब्द के भीतर गूँज रही है
बेचैन बुद्धि की ज़र्द जिरह में संभोग से सिद्ध तन्त्र
क्या जनतंत्र है?
जादुई जुल्म की दिशाएँ दुनिया में अनेक हैं
पर , आज भी कुछ इरादे नेक हैं
जो भाषा में अमर हैं!!

©गोलेन्द्र पटेल
रचना : 13-08-2022

कवि : गोलेन्द्र पटेल
🙏संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

Wednesday, 10 August 2022

बहन पर केंद्रित कविताएँ / रक्षाबंधन / बौद्ध रक्खासुत्तबंध दिवस : गोलेन्द्र पटेल

बहन पर केंद्रित कविताएँ :  गोलेन्द्र पटेल 
1).

जरई

धूल में धम्मधर्मी ध्वनि की जय है

धूप ने खिले हुए फूलों से कहा 
कि शब्द और संवेदना के बीच 
मानवीय संबंधों की लय है 

एक स्त्री को रोते देख 
दूसरी स्त्री का रोना 
असल में एक दूसरे का दु:ख समझना है 

पाँच दाने गेहूँ 
शेष जौ 
भूखे पेट सींचना 
रक्षाबंधन जैसा पर्व मनाना है 

कजरी के दिन जरई कबारती हुयीं बहनें
नदी में डुबकी लगाकर 
क्या कहती हैं?

यह तो हम नहीं जानते
न ही हमने कभी यह जानने की कोशिश की
कि वे क्या कहती हैं 

लेकिन हमने यह ज़रूर महसूस किया है 
कि बहनों के बिना 
आँगन की तुलसी सूख जाती है 
और सूख जाते हैं पेड़ 
उनके बिना न घर चिक्कन होता है 
न दुआर 

उनके होने से होता है 
चिड़ियों का कलरव 
झरनों के स्वर में पर्वत के गीत 
और भाइयों की भाषा में आँखों की नमी 

वे विश्वास का पर्याय होती हैं 
जैसे संतान के लिए माँ

बहनें कलह नहीं, कला प्रिय होती हैं 
वे बनाती हैं पतलो-काशा की कुरई, डोलची, सिकौली, झाँपी...
वे बनाती हैं बाँस का बेना
बुनती हैं एक से एक डिज़ाइन वाले स्वेटर 
वे रचती हैं रूमाल पर नई रचना
नई चेतना 

उनकी जरई स्नान से जुड़ी हुयीं यादें 
उन्हें पूरे साल 
धरती होने का बोध कराती हैं 
वे चूल्हे की आँच से सींझती हुई कहानी सुनाती हैं 
वे सुनाती हैं नाँद में चाँद के उतरने के किस्से 
सपनों के संगीत 

उनके स्नेह से अँजोरिया है 
उनकी बातें सुनने के लिये ढिबरी जलती है पूरी रात 

वे कतकी व तीज पर कूजती हैं
उनसे जरई बँधवाते हुए हमने जाना 
बहनापा का वैश्विक मतलब भाईचारा से व्यापक है 
और हमने उनसे सीखा 
बुरे वक्त में 
वेदना को उत्सवगान में बदलने का हुनर

हमारी बहनें 
साहस व सहजता के धरातल पर 
उम्मीद हैं!

2).

धागा

पाण्डुलिपियों में पर्व की परंपरा बची है
लेकिन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से
अभी तक प्रेम का प्रमेय हल नहीं हुआ है
गणितज्ञ के यज्ञ में श्लोक नहीं,
सूत्र का स्वाहा है
हर युग इसका उदात्त उत्तर चाहा है

धरती और आसमान आँसू की आवाज़ सुनो!

न तो उसका कोई भाई है
न तो उसकी कोई बहन
वह तो महज़ एक पेड़ है
फिर भी उसे धागा बाँधा जा रहा है
पत्थर को भी धागा बाँधा जा रहा है
क्या इस धागे में रक्षाबंधन की रक्षा सूत्र नहीं है?

पत्थर पेड़ की तरह मनोवांछित फल देता है
ओ रूढ़ रव!
ऐसी सामाजिक व्यवस्था है 
कि धागे से अटूट आस्था है

एक धागा प्रेम का प्रतीक है
जिसके टूटने से तन नहीं,
मन टूट जाता है

क्या यह वही है?

3).

गगरी

माँ ने बहन से कहा कि मेरी बच्ची
जहाँ चार-छह गगरी होंगी
वहाँ से ठन-ठन की आवाज़ आना स्वाभाविक है

लेकिन आज से ठीक तेइस बरस पहले
नानी ने माँ से कहा था कि मेरी बच्ची
यदि गगरी ठनठनही निकल जाए,
तो उसे चार बार बदली जाती है

गगरी वही है 
पर, परिस्थिति अलग है
जो कि उसका अर्थ बदल रही है
बेटी माँ की तरह गल रही है!

4).

बहन का मतलब

अंग्रेजी में ‘बहन’ को ‘सिस्टर’ कहते हैं
जिसका मशहूर मतलब है
‘स्वीट’, ‘इनोसेंट’, ‘सुपर’, ‘टैलेंटेड’, ‘एलिगेंट’ और ‘रिमार्केबल’

हिन्दी में बहन का पहला मतलब है
‘ब’ से ‘बज़्म’ है बहन 
‘ह’ से ‘हथौटी’ है बहन 
‘न’ से ‘नज़्म’ है बहन

बहन का दूसरा मतलब है
‘ब’ से ‘बल’ है बहन (भाई का)
‘ह’ से ‘हल’ है बहन (हर सवाल का)
‘न’ से ‘नल’ है बहन (पानी का)

बहन का तीसरा मतलब है
‘ब’ से बाप के लिए बधाई बन जाना 
‘ह’ से हक के लिए हथियार उठाना
‘न’ से नीच के लिए नाख़ून बढ़ाना

बहन! बहन का चौथा मतलब क्या है?
“दूसरे की बहन को अपनी बहन समझना!”
■ 

5).

मेरे घर की स्त्रियों का बाल झड़ रहा है

बचपन में
जब भी आता था बाल लेने वाला
मैं मुँक्की-मुँक्का में, 
मँड़ई में माँ का बाल ढूँढ़ता था
बाल मिलते ही
मेरी आँखें चमक उठती थीं
लेकिन अब जब बाल लेने वाले के डमरू की आवाज़ सुनता हूँ 
मेरी आँखें नम हो जाती हैं
मेरा हृदय हहरा उठता है
मेरे आँसू की ढुलकीं
 बूँदें
मेरे पसीने की बूँदों से मिलती हुयीं
उन स्त्रियों का दुःख गाती हैं
जिनके बाल तेजी से 
झड़ रहे हैं, टूट रहे हैं!

मैं अपनी माँ के झड़े हुए बालों के साथ
सेल्फ़ी ले रहा हूँ
कि बहन कह रही है 
कि उसके बाल भी तेजी से झड़ रहे हैं
चाची का भी झड़ रहा है
दादी तो खैर चंडूलाहिन हो गयी हैं

स्त्रियों के बालों का झड़ना
उनके सौंदर्य का झड़ना है

वे स्मित चेहरे के पीछे कितनी दुखी हैं
दिन के दुख से कहीं अधिक गहरा होता है
रात का दुख
और ऊपर से यह बाल का झड़ना
उनके मन को कुतर रहा है
जैसे तन को चिंता!

मुझे अपने घर की स्त्रियों को चंडूलाहिन होने से बचाना है
उन्हें बेलचट होने से बचाना है
उन्हें तकला होने की तकलीफ़ से उबारना है

प्रिय पाठको!
मेरी यह अभिव्यक्ति
किसी बाल चिकित्सक तक पहुँचाने की कृपा करें!
मेरी माँ का बाल तेजी से झड़ रहा है
मेरी बहन का भी
मेरी चाची का भी
मेरी पड़ोसिन स्त्रियों का भी
मेरा भी!

6).

गंजा

अक्सर गंजा आदमी खड़ंजा की संज्ञा पाता है
और औरत बेलमूँड़ी की

दोनों ही घने बालों वालों के लिए
हास्यास्पद बन जाते हैं
कभी-कभी!

7).
माँ राखी बाँधना छोड़ दी

बहन का ब्याह बहुत दूर हुआ है
राह ताक रही माँ से पूछा
"माँ तूने क्यों छोड़ दिया
राखी बाँधना?"
आँखों से टपकती आँसू के बूँदें उत्तर हैं!

मौन टूटने पर माँ ने कहा
___बीमार थी न
रोपनी नहीं कर पायी
रुपये-पैसे नहीं थे इसलिए

बहन को भाई पर गर्व है
तीमार भावाविष्ट रक्षाबंधन
पवित्र प्रेम का पर्व है!!

8).

केवल रक्षाबंधन
 
जग में कोई नहीं है अपना
दो वक्त की रोटी है सपना
वह एकजुआर रोज़ रोती है

चूल्हे की ओर ताक रही है भूख
तवा उदास है और सुना रहा है 
डकची को कड़ाही का दुख-दर्द 
और आत्मा के आँसू की व्यथा-कथा

चौका-बेलना बिलख रहे हैं
सून्ठा-सिल सिसक रही हैं
आँखों में बह रही है नदी 

गरीब के गालों पर देख रहा है 
बुरे समय में उगा ऊख
आह! ये कैसी विपदा? ये कैसी बदी?

कुएँ का पानी विकल्प है
बच्चों के जीवन के लिए
आज नैहर जाना है - प्राणनाथ स्वर्ग से लौट आओ!

बच्चों को नानी के घर
मिलेगा हलवा-पुड़ी-मिठाई
सब उल्लास से उछल रहे हैं

भईया पहले अपने ससुराल जाएंगे
फिर लौट कर आएंगे हमें लेनें
साँझ हो गयी मामा कब आएंगे? माँ!

बेटी! उम्मीद मांगती है वक्त
बस थोड़ा और इंतजार करो, सब्र करो
मामा आ गए, मामा आ गए, बड़े मामा आ गए...

मुन्नी कैसी हो? 
ठीक हैं
रात हो गयी

दीदी रास्ते में गाड़ी खराब हो गई थी
सारे दुकान बंद थे
"लॉकडाउन लगा है चारों ओर
लोग घर में रहते-रहते लंगड़ हो गए हैं"

चलो जल्दी करो! 
माई फोन करवा रही है
वह विशेष धागों के साथ पहुँच गई जब मायके में
तब बैग में ढूँढ़कर, देखकर 
हँसी-ठिठोली में भुक्खड़ भौजाई बोली है
हे बूढ़िया! आपकी धीया
हे मुनुवाँ के पापा! आपकी बहन
मिठाई नहीं केवल रक्षाबंधन लायी हैं
केवल रक्षाबंधन!
केवल रक्षाबंधन!
केवल रक्षाबंधन!

9).

केवल राखी

एक).
मैंने देखा___
सावन का मस्तीला मौसम मेघों का मधुर संगीत सुन रहा है
और धरती चाँद को इंद्रधनुषी राखी बाँध रही है
लेकिन त्यौहार की बयार कह रही है कि
यह श्रेय और प्रेय के बीच संबंधों के क्षय होने का समय है
ऐसे में रोशनी के लिए रूह की राखी में चेतना की चिनगारी का चिंघाड़ना
चुप्पी से चीख को उघाड़ना है
कोई बहन बाज़ार में चेतावनी की चमक देख
आँखों में संचित कर लीं संघनित स्मृतियाँ

यह गंध-रूप-रस-रंग का कैसा राग है?
तपस्वी शब्द के शरीर पर नाख़ून का दाग है
अर्थ की यात्रा में गहरे रिश्ते का रोना
प्रतिदिन मनुष्यता के प्रत्यय का गायब होना है

बहन प्यार की कसौटी पर धागे में अपना बल परोर
भाई की कलाई में कला की तरह बाँध देती है
उसकी भुजा में भाषा की ताकत तप से अधिक तोप है
तुम्हारे रक्षाबंधन से रक्षा का लोप है
किन्तु बंधन बचा है जो तुम्हारे पाँव की बेड़ी है
तुम्हारी पीड़ा के प्रश्नों को पुरुषार्थ के पत्थर पर पनपते देख
प्रलय की आहटें अँखुआने लगी हैं
खूँटे पर बकरी की लेड़ी है और खेत में खेड़ी है
तुम्हारी फटी हुई एड़ी है
मेरी दृष्टि में मैं बहुत चिंतित हूँ!

दो).
अपनी व्यथा-कथा को भूल
मेरी बहन इस पावन पर्व पर सूरदास का पद गा रही है
(राखी बांधत जसोदा मैया।
विविध सिंगार किये पटभूषण, पुनि पुनि लेत बलैया॥
हाथन लीये थार मुदित मन, कुमकुम अक्षत मांझ धरैया।
तिलक करत आरती उतारत अति हरख हरख मन भैया॥
बदन चूमि चुचकारत अतिहि भरि भरि धरे पकवान मिठैया।...)
मैं उसे सुना रहा हूँ श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता 'रक्षा बंधन'
(...मासूम कलाइयों के बदलते हुए खूँखार पंजों के लिए
तुम महज़ एक देह हो
जिसको खुद ही रखना है महफूज
इन रक्षक भाइयों से...)

तीन).
वक्त की वेदना बड़ी है
घाट पर हिलोरों को निहारती हुई
मेरी बहन खड़ी है

सुलगती जा रही है ज़िन्दगी
हथेलियों में हरे हैं ढेर सारे घाव
स्वप्न के संघर्ष में विश्राम नहीं है
बिखर रहा है भाव
बिलख रही है नाव
रेत डूब गई अपने आँसू में

रक्षा बंधन पर नदी का नैहर जाना संभव नहीं है
वह बस अपनी बेटी की तरह रो रही है
जब एक स्त्री रोती है 
तब अन्य स्त्रियों का रोना स्वाभाविक क्रिया है
अब मछलियाँ भी रो रही हैं
बाढ़ आने की स्थिति बन चुकी है

बाँध टूटेगा तो नदी अपने ससुराल पहुँचेगी!

चार).
इस सौहार्दपूर्ण पर्व पर राखी ने पूछा___
क्या प्रेम की पंक्ति में सुरक्षा की सूक्ति है?
क्या रूढ़िवादिता की रस्सी से मुक्ति है?
अभिमंत्रित रेशम ने उत्तर दिया___
रिश्ते की रोशनी अँधेरे में रास्ता दिखाती है

भाई-बहन का प्रेम धर्म-जाति से ऊपर है
इतिहास में मुसलमान हुमायूँ को 
हिंदू कर्णवती ने राखी बाँधी है
जिसकी बहन नहीं, वह आधा है
अपूर्ण है, अभागा है आज भी
कृष्ण की कलाई में द्रौपदी का धागा है

रीति और नीति के बीच नये सोच की सुई है
सत्य से समय का संबंध ख़ास है
मेरी बहन दो घरों का उजास है!

पाँच).
जैसे पिता के लिए ताकत होती है बेटी
वैसे ही छोटे भाई के लिए दाई होती है बहन
मेरी बहन मुझसे छोटी है 
लेकिन वह मेरी बुद्धि का बिंब है
उसकी बहस बहस नहीं बल्कि निंब है

वह अपने तर्क से तिल को ताड़ या राई को पर्वत बनाने में सामर्थ्य है
उसके हठ को हराने में अनर्थ है
मैं बहस में बहन से हार जाता हूँ

हारने का हर्ष जीत की ख़ुशी से अधिक आनंददायक है!

छह).
मैं महासूत्र के पवित्र-महाबंधन पर बहन के नाम छंद रच रहा हूँ
यह रक्षाबंधन पवित्रता का अनूठा संगम है
रेशमी धागों के बंधन में बँधा है संसार का प्यार
यह जाति-धर्म से ऊपर है सबसे बड़ा त्यौहार

इसमें संस्कृति और सभ्यता की तान है
यह स्त्री-रक्षा का अभियान है
ज़िंदगी की नोंक-झोंक में एक दृढ़ विश्वास है
लेकिन आधुनिकता की आँच से सिकुड़ रहे हैं संबंध
भौतिकवाद की भेंट चढ़ रही है राखी
रेशम हो रहा है तार-तार
अब नहीं रह गए रस्म के संस्कार

अक्षय-अक्षुण धुन-ध्वनि-धन्य-धान्य शब्द सखा सगा भाई
सुख-दुख के मौलिक मूल्यों की मर्यादा की मणि है
बहन के लिये आदर्श का आलोक है, घड़ी है
और है चेतना शून्य समय में जीवन का संचार
आश्वासन का उपहार
साक्षात ढाल, मृत्यु समक्ष वज्र प्रहार
महारक्षासूत्र रेशमी बंधन
कुमकुम रोली से सज गये घर-द्वार
मनुष्यता की नाव खे रही है प्रेमपर्व की पतवार!

सात).
रोपनहारिन बहन रोपाई के रुपये से राखी खरीद
मायके आयी है और मिठाई लायी है
नेह से लिपटे चिपटे चाकलेट और हाथ के बने पेड़े
श्रावण पूर्णिमा की श्रद्धा फल
अटूट प्रेम का प्रतीक है

झमाझम बारिश हो रही है माँ की आँखों से
आँगन में गौरैयाँ आ गयी हैं 
तुलसी की पत्तियाँ और हरी हो गयी हैं
पिता के कंठ से फूट रही है आशीष
___चिरंजीवी हो बेटी

मैं बहन की चकती युक्त पुरानी धोती में धुन तलाश रहा हूँ
हे धरती! ध्वनि दे वेदना की असाध्य वीणा में
मेरे हृदय को गार कर शब्द निकाल तू
हे सूर्य! मेरी हड्डियों पर साध हथौड़ा
चोट से उत्पन्न चिनगारी को करने दे यात्रा
हे समुद्र! संगीत का स्वाद जीभ को पसंद है 
लहरों से पूछ ले, यह मेरे आँसू का छंद है

हे लय! हे बचपन! हे मृग-मन! हे सज्जन!
निःस्वार्थ, सहज और आत्मिक अभिनन्दन!
यह अनूठा मिलन रक्षा बंधन
एक यादगार ऐतिहासिक दिन है
चुभी, बहन के पाँव में पिन है

मिठाई के डिब्बे पर रबर है 
पर पुतली में रोता हुआ घर है!!

आठ).
रेशम की डोरी में संबंध की शक्ति है
हे अग्नि!
भूखे पेट पर्व की भक्ति है
आँसू से अनुरक्ति है 

जहाँ पीड़ा की पाखी है साखी
केवल राखी!
केवल राखी!
केवल राखी!

नौ).
इस अनुगूँज के बीच 
बौद्ध रक्खासुत्तबंध दिवस पर चर्चा करती हुई 
एक भिक्खुनी बहन ने कहा 
कि बुद्ध स्त्रियों के पहले शुभचिंतक एवं मार्गदाता हैं 
पर, रक्खासुत्तबंध का रक्षाबंधन होना 
स्त्री को पुरुष के अधीन करना है 

स्त्री पितृसत्तात्मक समाज में असुरक्षित है 

स्त्री के लिए 
रक्षाबंधन भाई-बहन के प्रेम का पर्व नहीं,
बल्कि उसे यह अहसास कराने वाला त्यौहार है 
कि तुम अपनी रक्षा ख़ुद नहीं कर सकती 
तुम कमज़ोर हो 
तुमसे श्रेष्ठ है तुम्हारा भाई

एक स्त्री 
इसलिए विद्रोह नहीं करती है 
कि उसकी माँ ने उसे सहना सिखाया है 
उसकी माँ को उसकी नानी ने इस तरह रहना सिखाया है 
कि ऊपर वाले सब कुछ देखते हैं 
वे न्याय करेंगे

बहनो!
अधिकार और न्याय के लिए 
लड़ना पड़ता है 
लड़ना सीखो, ग़लत को ग़लत कहना सीखो
नींद के विरुद्ध 
यह स्त्रियों के जागने का समय है।

दस).

माँ ने सुना 
और कहा 
कि बेटी बाप की शक्ल है 
और बेटा उनका अक्ल

बेटियों के साथ दरिंदगी की ख़बर 
आ रही है लगातार 
हम दुखी हैं, बहुत दुखी हैं
किस के पास इस दु:ख से उबरने का उपाय है?

बेटियों का असुरक्षित होना 
बेटों का बर्बर होना है 
उनका ठीक से परवरिश न करना है 
उन्हें उचित संस्कार न देना है 
और सड़क पर सरकार का कमज़ोर होना है 

घाव 
राखी-पानी नहीं,
दवा बाँधने से ठीक होता है 
बहन बाँध रही है स्नेहसूत 
भाई मंगलगीत गा रहा है 

पड़ोसी परिवार उदास है 
कि उनके घर बेटी नहीं है

क्योंकि हमारे लिए बेटियाँ
ख़ुशियाँ हैं!

नाम : गोलेन्द्र पटेल (युवा कवि व लेखक : पूर्व शिक्षार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी)
उपनाम/उपाधि : 'गोलेंद्र ज्ञान', 'गोलेन्द्र पेरियार', 'युवा किसान कवि', 'हिंदी कविता का गोल्डेनबॉय', 'काशी में हिंदी का हीरा', 'आँसू के आशुकवि', 'आर्द्रता की आँच के कवि', 'अग्निधर्मा कवि', 'निराशा में निराकरण के कवि', 'दूसरे धूमिल', 'काव्यानुप्रासाधिराज', 'रूपकराज', 'ऋषि कवि',  'कोरोजयी कवि', 'आलोचना के कवि' एवं 'दिव्यांगसेवी'।
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) व एम.ए., बी.एच.यू., हिन्दी से नेट।
भाषा : संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, हिंदी, भोजपुरी, अंग्रेजी, फ़्रेंच एवं मराठी।
विधा : कविता, नवगीत, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास व आलोचना।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :

कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' ,'गौरवशाली भारत' ,'सत्राची' ,'रेवान्त' ,'साहित्य बीकानेर' ,'उदिता' ,'विश्व गाथा' , 'कविता-कानन उ.प्र.' , 'रचनावली', 'जन-आकांक्षा', 'समकालीन त्रिवेणी', 'पाखी', 'सबलोग', 'रचना उत्सव', 'आईडियासिटी', 'नव किरण', 'मानस',  'विश्वरंग संवाद', 'पूर्वांगन', 'हिंदी कौस्तुभ', 'गाथांतर', 'कथाक्रम', 'कथारंग' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित एवं दर्जन भर से ऊपर संपादित पुस्तकों में रचनाएँ प्रकाशित हैं।

लम्बी कविता : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' एवं 'दुःख दर्शन'


काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।

सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" , "रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022", हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से "शंकर दयाल सिंह प्रतिभा सम्मान-2023",  "मानस काव्य श्री सम्मान 2023" और अनेकानेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र प्राप्त हुए हैं।

संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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