गाँव
धूल, धुआँ और कुआँ किसी पहचान है?
कितना घातक दाँव है
कहीं धूप, तो कहीं छाँव है
भँवर में फँसी नाव है
मेरा गाँव अपने जनपद में एक बड़ा गाँव है!
मेरे गाँव में एक घर पंडित है
और एक घर मुस्लमान
अधिक चमार हैं
और उसके बाद चौहान
आधा में कई जातियाँ हैं
कई टोले हैं -
यादव हैं
पटेल (कुर्मी) हैं
तेली हैं
कुम्हार हैं
मौर्या हैं
डोम हैं
नट हैं
गोड हैं
लोहार हैं
खट्टिक हैं
नाउन हैं
धोबी हैं
पासवान हैं
ठाकुर हैं...
जैसे हर गाँव में पण्डित पूज्य हैं
वैसे ही मेरे गाँव में भी
लेकिन मेरा पड़ोसी पंडित ऐसा कोई दिन नहीं है
कि वह दारू न पीता हो
ऐसा कोई दिन नहीं है कि वह नशे में गालियाँ न देता हो
ऐसा कोई दिन नहीं है कि नालियों में न सोता हो
ऐसा कोई दिन नहीं है कि वह मराता न हो
मुझे उस पर दया आती है
किन्तु मैं क्या करूँ
मैं समझा भी तो नहीं सकता हूँ
उसे समझाने का अर्थ है गालियाँ खाना
मैं उससे अधिक मुस्लमान का सम्मान करता हूँ
क्योंकि मेरे गाँव के मुस्लमान
मुस्लमान कम, इनसान अधिक हैं
वे कभी भी माइक व हारन लगाकर
अज़ान नहीं पढ़ते हैं
न ही करते हैं पर्दा
वे दूर से देखने पर
एक हिन्दू से भी अधिक हिन्दू दिखते हैं
वे हिन्दू-पर्व मनाते हैं
मुझे कई सालों तक नहीं पता था कि ये मुस्लमान हैं
वे मेरी नज़र में हिन्दुस्तान हैं
मैं उनके यहाँ कई बार खाना खाया हूँ
उनके आँगन में गौली-कौड़ी खेला हूँ
और पंडीजी के आँगन में आइस-पाइस
पंडीजी तब तक मेरे प्रिय रहे
जब तक मदिरालय से दूर रहे
रही बात चमारों और चौहानों की
तो वे सब मेरे अच्छे मित्र हैं
जब मैं भक्त नहीं था
तब सबकी थाली में खाता था
अब तो केवल आत्मीय जन के घर खाता हूँ
क्या पासवान?, क्या चमार?, क्या चौहान?
क्या पटेल?, क्या पंडित?, क्या मुस्लमान?
हम सब एक हैं हमारा गाँव एक है
जहाँ अब भी बसता है असली हिन्दुस्तान
वे हमारे घर के कारज़-परोज़ में आते हैं
हम उनके घर के कारज़-परोज़ में जाते हैं
वे हमारी मँड़ई उठाते हैं, हम उनकी
वे हमारी देवी-देवता को पूजते हैं, हम उनके
वे हमारे खेत अगोरते हैं, हम उनके
असल में मैं 'मैं' नहीं, 'हम' है
जो एक गाँव है
जो जोगी-फ़कीर का ठाँव है!
(©गोलेन्द्र पटेल / रचना : 02-05-2018)
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