लोकोन्मुखी समुज्ज्वल भाषा के कवि हैं श्रीप्रकाश शुक्ल
©गोलेन्द्र पटेल
नमस्ते साथियो!
साथियों, आज का समय कवियों के लिए बहुत कठिन है। अच्छी कविता लिखना कितना चुनौतीपूर्ण काम है। इस ओर संकेत करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'कविता क्या है?' निबंध में लिखा है कि 'ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-धर्म कठिन होता जाएगा।' (चिन्तामणि, संजय बुक सेंटर, वाराणसी।, पृष्ठ संख्या-85) इस फेसबुकिया दौर में रोज़ हजारों कवि पैदा हो जा रहे हैं और जो ख़ुद को कवि, लेखक, आलोचक व आचार्य के रूप में आपके सामने प्रस्तुत करते रहते हैं। हमें उन्हें पढ़ने से बचना चाहिए। समय सबसे मूल्यवान चीज है। आइए अपने समय के एक ऐसे सच्चे कवि को पढ़ें, जिनकी कविताएँ पाठक को विचलित कर देती हैं, उसके भावबोध का परिष्कार करती हैं और उसकी दृष्टि को बदल देती हैं, जिनकी कविताएँ मनुष्यता का ऐसा दस्तावेज़ जो अपने समय के अन्याय और क्रूरता को चुनौती देती हैं। जिनकी कविता की गूँज बहुत ही गहरी और विस्तृत हैं। जो समय के सच को स्व-चेतना और आत्म-दृष्टि से बयान करता है। अर्थात् मैं आप सभी के बीच अपने गुरु, नब्बे के दशक के महत्त्वपूर्ण कवि, कोरोजीवी कविता के सूत्रधार, संवाद प्रिय शिक्षक, समीक्षक व बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल के नये कविता संग्रह 'वाया नई सदी' पर विद्यार्थी की दृष्टि से चर्चा करूँगा। यदि इस बातचीत की कड़ी में कहीं मेरे आलोचक की आँख टिक जाए और मेरी निर्निमेष नज़रों में कुछ अच्छी चीज़ें आयेंगी, तो मैं आपको उनसे अवश्य अवगत कराने का प्रयास करूँगा। बातचीत शुरू करने से पहले एक बात पर विशेष ज़ोर कर मैं यह कह रहा हूँ कि शिष्य को गुरु को पढ़ना चाहिए। क्योंकि अच्छे गुरु दिल, दिमाग, दृष्टि और दृष्टिकोण को नयी दिशा की ओर अग्रशित करते हैं। हिंदी की समकालीन कविता का संसार काफ़ी समृद्ध और बहुवर्णी है। इसके कवि अपने उदात्त उतार-चढ़ाव के साथ संवेदना के सागर में डूबते हुए नज़र आते हैं। वे डूब कर अनेक मानवीय रत्नों को खोज़ निकालते हैं। इस दौर की कविताओं की यात्रा के क्रमिक विकास और उनके वैशिष्ठ्य पर बोलना मेरे लिए हर्ष का विषय है। क्योंकि इस काल के अधिकांश कवियों को अपने अतीत से बेइंतहा मुहब्बत है। वे अपनी पूरी चेतना को अतीत के बोझ से मुक्त करते हुए, उससे अतीत के मैल को निकालकर उसे शुद्ध करते हुए और मनुष्य को शुद्ध चैतन्य में प्रवेश की विधियाँ एवं मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनकी समकालीनता के विशिष्ट अर्थों को समझने के लिए पाठक को यायावर की तरह उनकी कविताओं में यात्रा करना होगा। इस यात्रा में अपने दृष्टिकोण के कोण को बचाये रखना भी बेहद जरूरी है क्योंकि इस काल के कवि पाठक पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हुए उन पर हावी हो जाते हैं। यह उनकी थिराई हुई भाषा का जादू है। ऐसा उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति में अनुभूति का गुरुत्वाकर्षण बल होने से संभव हो पा रहा है। उनके शिल्प के संस्कार पर शास्त्र का संस्कार है, तो स्वर पर लोक का। साहित्य में शास्त्र और लोक के अद्भुत समन्वय के हस्ताक्षर कवि श्रीप्रकाश शुक्ल अपने वर्तमान के साथ पुरखों से संवाद करने वाले सचेत सर्जक हैं। कोरोनाकाल में उनकी सक्रियता कई कवियों के लिए प्रेरणा रही, तो कइयों के लिए दिमाग की दवा। कोविड के दौर में उन्होंने ही कहा है कि महामारी हमें भावुक करती है और भावुकता हमें किंचित अतीत की ओर ले जाती है। उनकी अतीतजीविता वर्तमान के लिए रोशनी है। उनकी रचनाओं से गुज़रना अपने समय व समाज से परिचित होना ही नहीं, अपितु सृजनात्मक शक्ति से सम्पन्न होना है। उनका काव्य-संसार 'अपनी तरह के लोग' प्रथम कविता संग्रह से लेकर राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली से सद्यः प्रकाशित 'वाया नई सदी' कविता संग्रह तक व्यापक है। इस संग्रह में पिछले आठ वर्षों में लिखी उनकी कविताएँ शामिल हैं। इन कविताओं का अपना समकाल है। इन कविताओं का अपना अनुभव संसार है। कुछ कोरोना के पहले की और कुछ कोरोनाकाल की। उनकी कविताएँ संस्कृति से जुड़ी हुई हैं। जो सृजन की सामाजिक धरती पर रविदास, तुलसीदास, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध और मदन कश्यप की परंपरा में आती हैं। उनकी कविताओं में निराला का दुःखबोध है, तो नागार्जुन और मुक्तिबोध की राजनीतिक चेतना अपने नये कलेवर में मौजूद है। लोकपीड़ा की लय उनकी कविताओं का प्राणतत्व है। उनकी कविता में जन-जीवन का होना, उनकी कविताई की विशेषता है। हालांकि इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ कोरोजीवी कविताएँ हैं। जो अपने परिवेशगत संलग्नता, सेहत और संबंधों की बहुत ही सूक्ष्मता से चर्चा करती हुई समय का सवाल मानस में छोड़ती हुई पाठक को ठहर कर सोचने के लिए कहती हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए मैंने महसूस किया है कि चरम परिवेशगत संलग्नता ही कोरोजीवी कविता का केंद्र बिन्दु है। लेकिन मानवीय सेहत और संबंध पर कोरोजयी कवि की अद्वितीय अंतर्दृष्टि पड़ी है। शुभ और अशुभ, सफलता और विफलता, प्रशंसा, निंदा, रोग-स्वास्थ्य, जवानी -बुढ़ापा, जन्म-मृत्यु, जीवन के तमाम पहलुओं की ओर उनकी अंतर्दृष्टि गयी है और जो अस्पर्शित सत्य को उजागर किया है।
शुक्ल जी की कविताएँ अपने समय के विभिन्न रंगों को पढ़ती हुईं, गढ़ती हुईं, उसके तनाव और ताप को बाँचती हुई कविताएँ हैं। ये कविताएँ हैं कठिन समय में भी जीवन के उल्लास को, प्रेम को सहेजती हुईं, भविष्य में झांकती हुई सी जान पड़ती हैं। प्रेम और विश्वास जीवन के महत्त्वपूर्ण तत्व हैं। इन तत्वों का क्षरण बहुत तेज़ी से हो रहा है। यह ऐसा समय है कि हमारे जीवन से मानवीय तत्व गायब होते जा रहे हैं। इन्हें बचाने के लिए कवि हृदय से छटपटाते हुए इस संग्रह की पहली कविता के शुरुआत में ही अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करते हुए कहा है कि
"यह कैसा समय है जिसकी सबसे ज्यादा बात हम करते हैं
वही हमारे जीवन में अनुपस्थित रहता है
मसलन प्यार
मसलन विश्वास
मसलन जनतंत्र
मसलन सत्ता से जुड़ा हुआ बहुत कुछ का प्रतिरोध
जब हम सत्ता के बाहर होते हैं।"(पृष्ठ संख्या-9)
इन तत्वों से जीवन और समाज चलते हैं, इनको बचाए रखने के लिए वे हर बुरी ताकत से टकराने को तैयार हैं। वे इस कविता में चुप्पी से क्रांति का शोर उत्पन्न करते हैं। पीड़ा-प्रबोधन से उपजी श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएँ उम्मीद की कविताएँ हैं। मैं अन्य कविताओं पर बात शुरू करूँ, उससे पहले मैं आप लोगों को एक बात बताना चाहता हूँ। इस संग्रह की सूचना अपने फेसबुक वॉल पर साझा करते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल जी ने लिखा था कि "इनके आने की ख़बर आई है। इनके पहुंचने का इंतजार है। चल चुके हैं। अभी यह 'स्क्रीन स्पर्श' है। 'स्किन सुख' का इंतजार है।" इस संग्रह में 'इंतजार' शीर्षक से एक मार्मिक कविता है। जिसमें वे सीझती हुई करुणा की बात करते हैं और बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान भूख-प्यास से ब्याकुल जनता कैसी परिस्थिति में थी। उस समय की ऐसी तसवीरें जो दिल को चिर देने के लिए सोशल मीडिया पर उछलती हुई सामने आ रही थीं, वे सारी तसवीरें पुनः चलचित्र की तरह चेतन मन में चलने लगी हैं। उन्हें देखने के बाद सहृदय के आँसू न टपकें, यह कैसे हो सकता है! मनुष्यता के धरातल पर श्रीप्रकाश शुक्ल इस कविता में किसका इंतजार कर रहे हैं? क्या यह इंतजार वही इंतजार है जो फ़ैज अहमद फ़ैज 'सुब्हे-आज़ादी' में कर रहे हैं? क्या यह इंतजार वही इंतजार है जो शमशेर बहादुर सिंह 'टूटी हुई बिखरी हुई' में कर रहे हैं? क्या यह इंतजार वही इंतजार है जो धूमिल 'पटकथा' में कर रहे हैं?
तो उत्तर है कुछ वैसा ही यह इंतजार भी है, भूख की भाषा में भाव को अभिव्यक्ति करते हुए वे 'इंतजार' में लिखते हैं कि
"एक क्रिया से जुड़ता हूँ
अनेक प्रतिक्रियाएँ कुलबुलाने लगती हैं
दूर बहुत दूर कोई माँ रो रही है
अर्थ तो बचा नहीं
भाषा भी खो रही है। (पृष्ठ संख्या-112)
आज हम देख ही रहे हैं कि किस तरह से सत्ता रोटी से खेल रही है और जो रोटी से खेलते हैं उन लोगों से धूमिल 'रोटी और संसद' में परिचय करवाये हैं। रोटी के राग को अनुराग की शब्दावली में ढालते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल ने लिखा है कि
"रोटी बन रही है
अनेक के इंतजार में
लोई पड़ी है
लोई से रोटी बनने के बीच एक जगह है
जहाँ उम्मीद है।" (पृष्ठ संख्या-130)
श्रीप्रकाश शुक्ल की इंतजार एक उम्मीद की तरह है। उनकी कविताओं से भावक वर्ग को काफ़ी भरोसा है। जैसे चिड़ियों की चहचहाहट से कवि को नई सुबह का भरोसा है। वे 'भरोसा' शीर्षक कविता में लिखते हैं कि 'आकाश से झड़ रही हैं अँधेरे की पाँख/ और सुबह का भरोसा अब/ इसी चिड़िया से है!' (पृष्ठ संख्या-11)
उनकी कविताओं में जड़ता का नकार और नवता का स्वीकार है। उनकी कविताएँ दिल और दिमाग के समन्वय से लिखी गई हैं। जो लोकविश्वास और लोकसम्भावनाओं की कविता हैं। उनकी कविताएँ आम आदमी की पीड़ा और उसकी संवेदना को उभार कर रख देती हैं। वे जनता को सत्ता से सवाल करने का साहस देती हैं। उनका मूल स्वर अन्याय के विरुद्ध आवाज़ है और अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार तभी होता है जब दुःखबोध होता है। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए आप महसूस करेंगे कि जीवन में जितना अधिक ताप होगा ,संताप उतना ही कम होगा। खैर, इस संग्रह में करीब एक दर्जन कविताओं का विषय चुप्पी है। चुप्पी के बारे में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने कहा कि 'मौन भी अभिव्यंजना है।' लेकिन याद रहे कि मौन, चुप्पी और सन्नाटा ये तीनों ही एक सीमा के बाद अहित कर हो जाते हैं। इनको तोड़ने के बारे में कवि सोच रहा है। चुप्पी कभी कभी आदमी को अतीत में ले जाती है। लेकिन किसके अतीत में? इस संदर्भ में श्रीप्रकाश शुक्ल 'भविष्य' कविता में लिखते हैं कि "चुप्पे लोग हमेशा चुप रहते हैं और अतीत में सोचते हैं/ बोलता आदमी भविष्य की बातें करता है और वर्तमान में सोचता है/ जिन्हें उनका अतीत प्यारा हो वे चुप्पी के साथ रहें व संटुष्ट भी।" (पृष्ठ संख्या-49)
'चुप्पी के खिलाफ' शीर्षक कविता में कवि तमाम सत्ताओं की क्रूरता व पाखंड का खुलासा करता है। यह कैसा दौर है। अब बोलना भी मुश्किल है। उस देश में जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति का मूल अधिकार है। शुक्ल जी इस संदर्भ में भी कहते हैं कि "यहाँ हर आदमी दूसरे को चुप करा रहा है और गम्भीर बनाए रखने के की/ कोशिश में हर अगंभीर काम करता है/सत्ता का इतिहास भी इसी गंभीरता का इतिहास है।" (पृष्ठ संख्या-48)
इस संग्रह की कविताएँ सचमुच एक अलग तरीके से प्रभावित करती हैं। जब शक्ति और समृद्धि से ओतप्रोत देश अपने नागरिकों को बचाने में असमर्थ रहीं। कोरोजीवी कविताएँ संघर्षशील जनमानस को एक उम्मीद से ढांढस बंधाती रहीं। कविता बदलते परिदृश्य की ज़िम्मेदारी है, जो सत्ता और प्रतिसत्ता के बीच के संघर्ष को बहुत स्वाभाविक तौर पर रेखांकित करती हैं। इस संग्रह में कवि प्रकृति के तमाम जीवों की अस्मिता की आवाज़ बन कर आया है। वह झींगुर, गूलर, गाय, देवदारु की दुनिया, समुद्र, पेड़, गुलमोहर, कचकचिया आदि कविताओं में वैसे ही मौजूद है, जैसे छायावादी कवि अपनी प्रकृतिपरक कविताओं में। इस वाया नई सदी में कचकचिया (Babbler) का कचराग कितना मनोहारी है! यह तो आप आगामी पंक्तियों से समझ सकते हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल लिखते हैं कि "घोंसला बन रहा है/सृष्टि के विधान में नई साँस का उदय हो रहा है/ स्पर्श सुख का कहना ही क्या/ नेह गान थिरक रहा है।" (पृष्ठ संख्या-144)
‘कोइलिया जल्दी कूको ना’ शीर्षक कविता में कवि अपनी पूरी लय में विराट जिजीविषा लिए हुए उपस्थित है। इसमें कवि भावभूमि से मनोभूमि की यात्रा दृष्टि सम्पन्न यायावर की भाँति करता हुआ मानो महामारी में युग का मंगलाचरण गा रहा है। लेकिन इतिहास में 'कोयल' राजनीतिक प्रतीक है। इस संदर्भ में आप माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'कैदी और कोकिला' देख सकते हैं या फिर नागार्जुन की कविता 'शासन की बंदूक'। उसमें नागार्जुन लिखते हैं कि "जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक/ बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक।" (आधुनिक एवं छायावादोत्तर काव्य-संग्रह, पृष्ठ संख्या-182)
यहाँ 'कोइलिया' शांति और क्रांति का प्रतीक तो है ही, साथ-साथ आशा और उम्मीद का भी। उसका कूकना उल्लासमय जीवन का अनुष्ठान है। आपदा में अवसर के विरुद्ध वह युद्ध नहीं, बुद्ध की करुणा से रसमग्न हो कर कूक रही है। ऊपर भी बताया जा चुका है कि कवि चिड़ियों से नये सवेरा की बात करता है। वे कहते हैं कि "गौरैया भी जगी हुई है/ तिनका तिनका बीन रही है/ सृजन राग से इस दुनिया में/ जाग, भाग को साध रही है/ हुआ सवेरा दौड़ी आई/ मिला नहीं जो ढूँढ रही हैं!/ कोइलिया जल्दी कूको ना!" (पृष्ठ संख्या-127)
उनकी कविताओं में 'पेड़' कई अर्थों में प्रयोग हुए हैं लेकिन 'पेड़' शीर्षक कविता में पेड़ भावी पीढ़ी का प्रतीक है। श्रीप्रकाश शुक्ल को युवाओं से काफ़ी उम्मीद है। वे युवा रचनाकारों से अभिवावक की तरह पेश आते हैं। यही कारण है कि वे काफ़ी चर्चा में रहते हैं। वे अपनी उम्मीद को दर्ज करते हुए कहते हैं कि "जब हम नहीं होंगे/ ये पेड़ ही होंगे/ जो अपनी ऊँचाई में/ हमारी गहराई का पता देंगे।" (पृष्ठ संख्या-109) श्रीप्रकाश शुक्ल कविता की भाषा पर भी ख़ूबसूरत प्रयोग कर रहे हैं। जैसे प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत, त्रिलोचन, अज्ञेय, धूमिल और ज्ञानेन्द्रपति ने किया है। वे भारतीयता के क्षरण के प्रति अपनी असहमति, अपना प्रतिरोध दर्ज करने वाले कवि हैं। जैसे मुक्तिबोध 'अँधेरे में' मुखर होकर कहते हैं वैसे ही श्रीप्रकाश शुक्ल एक मुखर आदमी के पक्ष में अपना बयान देते हुए लिखते हैं कि "...कि लोकतंत्र के मुद्दे भुजा से नहीं/ भाषा से तय होते हैं।" ('मैंने कहा था' कविता से, पृष्ठ संख्या-61)
'पथ हारा', 'शुभकामनाएँ' एवं 'घर से काम' जैसी उनकी कुछ कविताओं में शब्दों का अद्भुत प्रयोग हुआ है। जिनको पढ़ने के बाद छठी शताब्दी के भामह और सत्रहवीं शताब्दी के पंडितराज जगन्नाथ के सूत्रों का याद आना स्वाभाविक है। जहाँ भामह ने कहा है कि "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम् गद्यं पद्यं च तद्विधा।" या "शब्दाभिधेयेविज्ञाये कृत्वातद्विद्पासना।/ विलोक्यन्य निबन्धाश्च कृत्वाकाव्यक्रियादरः।।" (काव्यालंकार-भामह, चौखम्भा प्रकाशन वाराणसी।) अर्थात् शब्द और अर्थ को ठीक से समझकर कवियों को काव्य रचना की कोशिश करनी चाहिए। वहीं जगन्नाथ ने कहा है कि "रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।" इन्हीं से मिलता जुलता है पाश्चात्य विद्वान कॉलरिज का कथन। वे कहते हैं कि "Poetry is the best words in best order." (भावार्थ : कविता सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम क्रम है।) 'घर' और 'काम' इन दिनों शब्दों के प्रयोग से बनी कविता 'घर से काम' में ध्वन्यात्मकता की गूँज देखिए, वे लिखते हैं कि "घर से काम/घर में काम/ घर का काम!/ घर पर काम/ घर भर काम/ घर हर काम/ घर घर काम/ घर जब काम/ घर तब काम/ घर कब काम/ घर अब काम!/ घर ही काम/ जय जय काम/घर भी काम/ जर जर काम!" अज्ञेय भी कहते हैं कि "कविता सबसे पहले और सबसे अंत में शब्द है।" अतः श्रीप्रकाश शुक्ल को शब्दों का कवि कहा जा सकता है लेकिन मैंने उनके 'बोली बात', 'क्षीरसागर में नींद' और 'वाया नई सदी' इन तीनों संग्रहों से गुज़रने के बाद यह पाया है कि उनके यहाँ भोजपुरी की क्रियाओं का अधिक प्रयोग हुआ है। मसलन 'वाया नई सदी' में जैसे कुछ क्रियाएँ क्रमशः पियराता, पोंछना, गरियाने, बरियाने, लतियाने, छोपकर, छींटता, पुचकारते, लहराता, थिरकना, थूरना, जहकना, थसरने, फनफनाती, बिखराने, लीपने, पोतने, बड़बड़ाने, पपड़िया, खिसिया एवं कुलबुलाना आदि हैं। वे अपनी कविताओं में लोक की सुंदर संज्ञाओं का प्रयोग भी किये हैं लेकिन वे क्रियाओं की अपेक्षा कम हैं। अतः कविता के बने की प्रक्रिया में जो क्रिया होती है, उसी के कवि हैं श्रीप्रकाश शुक्ल। अर्थात् वे क्रिया के कवि हैं। वे क्रियाओं की गतिशीलता के नए संदर्भ को उद्घाटित करते हैं और जिससे कि उनकी कविताएँ अपना अर्थ पाती हैं। उनकी भाषा सहज, सरस, लयात्मक, प्रवाहपूर्ण, संगीतात्मक एवं चित्रात्मक है। उनकी भाषा लोकोन्मुखी समुज्ज्वल भाषा है। वे 'झुकना' शीर्षक कविता में भाषा की आर्द्रता और आँच का समन्वय करते हुए कहते हैं कि "जैसे कि यह पेड़/ जिसकी हर शाखा में/ किसी न किसी के/ झुकने की भाषा दर्ज है।" 'वाया नई सदी' की भाषा के संदर्भ में अग्रज कवि अनिल कुमार पाण्डेय ने कहा है कि 'कहाँ क्रांति की भाषा अपना कार्य करेगी और कहाँ संवेदना से लसित भावनाएं यह कवि जानता ही नहीं है अपितु व्यावहारिकता में इस संग्रह में अपनाया भी गया है।' भाषा का सवाल समय और समाज का सबसे बड़ा सवाल होता है। उसकी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा होती है। इसके बिना मानवीय अस्तित्व संभव ही नहीं है। इस ओर कवि ने बार-बार इशारा किया है।
मनुष्य की छवि जब व्यक्तित्व में रूपांतरित होने लगती है, तो वह सामाजिकता में रूपांतरित हो जाती है। यह एक छवि ही है जो उसे सामाजिक बनाती है। सामाजिकता एक संक्रमणशील इकाई है। वह जितनी ही संक्रमणशील होगी सामाजिकता उतना ही विस्तार पाती है यहीं विस्तार मनुष्य को गतिशील बनाता है। ताकि वह भाषा में आदमी हो सके। वह भूमंडलीकरण के वैश्विक बाज़ार में वस्तु होने से बच जाए। बाजार के विरुद्ध उसका व्यक्तित्व बना रहे। इस संदर्भ को समझने के लिए आप 'आदमी जहाँ टैग है!' कविता को पढ़ें। उसमें श्रीप्रकाश शुक्ल ने स्पष्ट किया है कि
"इस पीड़ा को किससे कहें
आदमी जहां टैग है
प्लास्टिक का एक बैग है
× × × ×
इंसानियत अब
महज एक काश है!" (पृष्ठ संख्या-131)
निकर्षतः हम कह सकते हैं श्रीप्रकाश शुक्ल की कोरोजीवी कविताएँ सत्ता के भय व जनता के त्रास के बीच धरती पर गिर रहे आँसुओं के मूल्य को समझती हुई उसके संघर्ष पक्ष की शिनाख्त करने वाली हैं। इस संग्रह की कविताएँ प्रेम के माध्यम से दूसरे के होने को गौरव प्रदान करती हैं। जो मनुष्य की सामाजिकता को संकुचित होने से बचायी रखने वाली कविताएँ हैं। जिनके भीतर से जनतंत्र का जन झाँकता है। शुक्ल जी मनुष्य के लिए कविता को प्रेरक, स्वास्थ्यवर्धक एवं स्फूर्तिदायक मानते हैं। इनकी कविताएँ मनुष्य के मस्तिष्क को सक्रिय कर उसके भीतर तेजी से प्रतिरोधी क्षमता का विकास करने वाली हैं, जो स्वप्न, संघर्ष और सौंदर्य की अपार सम्भावनाओं से युक्त हैं। इस संग्रह की कुछ कविताओं का वस्तु जगत अंत-र्बाह्य के द्वंद्व से उपस्थित हुआ है, जो अखंड जिजीविषा की कविताएँ हैं। जीवन से जुड़ी इन कविताओं को पढ़कर लगता है कि ये कविताएँ हमसफ़र की तरह हमारे साथ-साथ चल रही हैं। शुक्ल जी गहरी मानवीयता के प्रति हमारे भरोसे को और मज़बूत करते हैं। उनकी कविताएँ पाठक को वैचारिक दृष्टि से समृद्ध ही नहीं, अपितु उसके अंदर के मनुष्य को झकझरती हुई सार्थक कविताओं का आनंद देती हैं। इस संग्रह का कवि संसार को जैसा दिखाना चाहता है, वैसा वह दिखाने की कोशिश किया है। गुरुवर के यहाँ आलोड़ित, आह्लादित व आलोकित का त्रिवेणी अक्ष पर भूत, वर्तमान व भविष्य में घूमते हुए नज़र आ रहे हैं। अंत में इतना ही कि "अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः।/ यथास्मै रोचते विश्वं तथेकं परिवर्तते।।"
(©गोलेन्द्र पटेल / 30-03-2023)
पुस्तक : वाया नई सदी
कवि : श्रीप्रकाश शुक्ल
पहला संस्करण 2022
राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड जी-17, जगतपुरी दिल्ली-110051
मूल्य : ₹495
टिप्पणीकार : गोलेन्द्र पटेल
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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ReplyDeleteकविता के साथ आलोचना पर भी इधर तुम्हारी पकड़ मजबूत हुई है।सस्नेह👌
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