Golendra Gyan

Thursday, 23 November 2023

गाँव पर केंद्रित विनय विश्वा और सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ (gaanv par kendrit vinay vishva aur surendra prajaapati kee kavitaen)

 गाँव पर केंद्रित विनय विश्वा और सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ :- 


विनय विश्वा की कविताएँ :-


1).

क्या किसान भगवान है!


विकास की गाथा लिखते - लिखते

हम  विनाश की दहलीज पर खड़े हैं

जिसका गवाह है जलवायु परिवर्तन।


आए दिन मौसम का बदलना

शरीर में रोग होना 

भौतिकता में रम होना

जीवन का बेतरतीब होना

पाना है सुख सुविधा को

पर  आनंद का न होना है

जो मिट्टी, मिट्टी में सना होता था


आज वही मिट्टी के देवता मारे जा रहे हैं

किसी की ज़मीन हड़प कर तो किसी की फसल रौंद कर

जिस खेत को युगों -युगों से संजोए रखे हैं

जिन पर उनकी कई पीढ़ियां टिकी है

आज उनकी कमर टूटी है

क्योंकि उनके जमीर को किसी ने लूटी है

 एक किसान की खेती उसकी खेती नहीं बेटी है।

भारतमाला, गंगाएक्सप्रेसवे जैसी परियोजनाएं किसानों के लिए भस्मासुर बनकर आए 

जिनका जीवन दुभर हो जाए


कभी सड़कों पर कभी अदालत कभी कार्यालयों का चक्कर काटते - काटते पूरे ब्रह्मांड को जैसे ये भगवान नाप दिए हों


फिर भी सत्ता पर बैठे भगवान को तनिक दया न आई और 

और एक किसान का अंत होता है 

अब तो यह जैसे लगता है अंतहीन शाम है

जिसकी कोई सुबह नहीं

कुछ तो समझो ए पत्थर पड़े आदमी ।

धरती के भगवान आज मारे जा रहे हैं

जब से यह ज़माना आधुनिकता के रंग में रंगी

एक जंग छिड़ गई है 

कारपोरेट और किसान में।


हां वहीं किसान जिसे राष्ट्रकवि अपनी कविता में देवता कहते हैं - 

किसे ढूंढता है मूरख देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में

आज उसी खेत के देवताओं की दानशीलता दानवी प्रवृति के दलालों से छीनी जा रही है

जिसका परिणाम किसानों की जान गवाने की सजा हो रही है।


2).

गाँव का विद्यालय


निगाहें देखती हैं

गाँव की ओर हाँ वहीं गाँव जहाँ प्रेम की नाव चलती है

जिस नाव के खेवनहार किसान, मजदूर, गंवार हैं

जो अपने लाल को ढाल बनाने भेजते हैं गांव के स्कूल।


 गांव का विद्यालय जीवन की पहली पाठशाला है

जो अब उत्पादशाला हो गई है

इंस्पेक्शन की , कागज़ पर थोपा हुआ परीक्षा की जो विचारों को परिक्षा में लिए जा रही हैं।


वहीं गांव जहां सुनहरे ईमानदार विचार  हैं जो साहित्य का आधार है - प्रेमचंद, नामवर, केदार, त्रिलोचन,धूमिल,गोलेंद्र

पुराने, नए, तुम और मैं सरीखे ज्ञान है जो मानवता का आधार है


आज मानवता की एक कुंडी फंस गई है जो लीलने के लिए आतुर है

शहर की चाकचौबंद की तरह

जहां विष ही विष घुली है मानव को दानव बनाने के लिए।

©विनय विश्वा (युवा कवि-लेखक , शिक्षक व शोधार्थी। संपर्क : 91100 84157 )


सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ :- 

1).

पीड़ाओं का रेगिस्तान है मेरा गाँव


प्रिय मित्र!

तुम्हारा स्नेह निमंत्रण सराहनीय है 

और हमसे यह उम्मीद की मै उत्सव में शामिल रहूँगा, स्वागतयोग

शुक्रिया, पर क्षमा करना

मेरी अक्षमता है मै कोई कविता पाठ  करने नहीं आ सकूँगा


ऐसी कोई खास आफत विपत नहीं है 

बस एक बहुत ही जीवन को विचलित कर देनेवाली 

टीस उभरा हुआ है

इस समय  मैं, एक बहुत ही जरूरी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनने जा रहा हूँ


अगड़े-पिछडों में एक घमासन है 

अगड़ा हक हकीकत सबकुछ छीनने को बेचैन है

पिछड़ा अपनी घिनौनी मानसिकता लेकर रोने को लाचार

खुलकर बोलने में प्रतिबंध है 

विचारों पर पहरा है, 

अधिकारों पर षड्यंत्र रचा जा रहा है

मै, मेरा कवि उन सभी पुरातन नियमों से असहमत हूँ

कि अपने ही देश में खानाबदोष कि जिंदगी जी रहे हैं लोग

मेरे पाठकों, बंधुओं, मेहनती लोगों से पहचान तलाशी जा रही है


सनातन धर्म मानने वाले

घृणित संस्कृति को जानने वाले

पूछ रहे हैं जाति

कुतर्कों की चाल में पूछ रहे हैं खानदान

मै उसके विरोध में खड़ा हूँ

अराजकता के निष्ठूर काँटों पर पड़ा हूँ


मेरे गाँव का एक खुशहाल किसान

जिसके जवान बेटे को नक्सली बताकर हत्या कर दिया गया

मै उसके लिए विरोध प्रदर्शन कर रहा हूँ


मुहल्ले के एक पिछड़ी जाति के छोरी को 

दवंगो ने स्तन काट दिया 

इसलिए कि वह उनके खेतों में साग खोट रही थी 

मै उसके लिए विरोध में जा रहा हूँ


मेरा एक चिर प्रतिद्वंदी है

जिसे कारगार में बंदी बनाकर कठोर यातना दिया जा रहा है

उसने एक समाजवादी नेता के घिनौने चरित्र को उजागर करने का दुःसाहस किया था


पेट की भूख इंसान को बावला बना देती है

और, स्वार्थ की लालसा, एक खूँखार कमीना

यह विरोधों को चिंगारी देने का समय है

और कविताओं में हुंकार भरने का

धूप से तपति हुई धरती एक मजदूर के फेफड़े को जला देती है

यह विचारों को धारदार बनाने का समय है


पेट की आग से लड़ता हुआ इंसान भीड़ में भिखारी बन जाता है

और ईंट गारे से बने महल की घृणा इन्हे समाज के लिए कोढ बताती है


मै चाहता हूँ जब मै विरोध प्रदर्शन में हूँ 

मेरी कविता सच की गवाही दे और

शहादतों के पक्ष में बिगुल फूंके

अपनी उपस्थिति का कीमत चुकाए

अपने पूर्वजों के हक में गौरव का गीत गाए


इसी जरूरी समय में न्याय को मनुष्यता के हक में रक्तदान करने की वकालत करता हूँ 

चाहता हूँ सौरमंडल के इस एकलौते ग्रह पर मानव के आदिम सभ्यता के हक में फैसला हो

चाहता हूँ मेरी कविता अपनी उपस्थिति की कीमत चुकाए


तब आपके दम्भ से सजे मंच पर विस्मरणीयता के स्वार्थ में असाधारण कविता की पंक्तियाँ बोलना

बहुत ही उबाऊ और निरर्थक और घटिया किस्म की जान पड़ेगी दोस्त

आपके स्नेह में सिक्कों की खनक है


पीड़ाओं का रेगिस्तान है मेरा गाँव, 

मेरे मुहल्ले में दुःखी काका पुस्तैनी किसान थे

कहने को किसानी करते

रक्त-पसीने से सींच कर फ़सल उगाते

उनके अथक परिश्रम से पंडित साहूकर आघते

लेकिन कभी भरपेट अन्न नहीं खाते

तंत्र के छल की बाँसूरी पर वे नसीब को कोसते

रीरीयाते घिघीयाते, पीड़ा के गीत गाते


सता की नालायकी ने कभी उनके लहलहाते फ़सल की कीमत तो नहीं चुकाया

लेकिन मौत ने उनकी बिछुड़ी हुई हड्डियों पर ऐसा जश्न मनाया

कि बादल भी गला फाड़ कर रो पड़ा

कीचड में सने उनकी लाश को कफ़न कौन दे 

भूख से तड़पती उनकी सात साल कि बच्ची को पिता की लाश पर चीख-चीखकर मरते पुरा आकाश देखा है दोस्त

इंसान के गाढ़ी खुन के साथ इससे घिनौना छल क्या हो सकता है


पुराणों के पवित्र श्लोकों के विपरीत एक ईमानदार संघर्ष होती है, उम्मीद की हूक होती है

मेरे विरोध प्रदर्शन, मेरे कवि के सत्य समर्पण को

सता का धारदार छुरा सीने में पेवस्त न कर दे

इससे पहले मुझे शांति जुलूस में जाना होगा

मै उस हर प्रदर्शन में जा रहा हूँ जहाँ मलीन बस्तियों का शरीर

लाठी का प्रहार झेलते खेत हो जा रहा है

जहाँ उनके मांस के लोथड़े हवा में लहराते रेत हो जा रहा है

एक कवि ने अपनी महान कविता में कहा था

इंसान हर रस और श्रृंगार की कविता से बड़ा है

इसी कारण तो वह शताब्दियों से खड़ा है


दोस्त यही समय है, मै अपनी कविता के साथ

रेगिस्तान में तप जाऊँ

खेतों में गड़ जाऊँ

बंजरों में तन जाऊँ

अपने कवि को लेकर राजमार्ग पर गड़े किलों पर चलूँ और सत्ता के हुक्मरानों से लड़ जाऊँ

जीत की गुहार पर सौ सौ बार मर जाऊँ।

2).

मृत उपमाओं का देश


आदर्श विहीन इस समाज में

यह मेरा है यह तेरा परिवार में

मानवता रहित इस संस्कार में

जहाँ शब्द मूल्यहीन कंकड बन गए

बेजान, परिष्कृत; और हमें

इसी मृत शब्द और उदास कविता के साथ रहना है


थके, हारे और उदास लोगों का है यह शहर

और मृत उपमाओं का यह देश

दुःख से बिलबिलाता, षड्यंत्रों से खेलता

पीड़ा का लम्बा आख्यान यह जनादेश

ईमानदारी, आदर्श, नैतिकता सब जार-जार

इज्जत, आवरू, प्रतिष्ठा सब तार-तार

कविताएँ सब हटाश, कहानियाँ सब झूठी

एक युद्ध पल रहा है

पल रहा है और चल रहा है बिना शस्त्र बल के

युगों से हारता जीतता

रोता मुस्कुराता

कभी आनंद कभी पीड़ा का चादर तानता मै

खुद से लड़ रहा हूँ

न जीता न मर रहा हूँ


लिख रहा हूँ एक लम्बी कविता

एक छोटे से जीवन के लिए

वह जीवन जो किसी पेड़ से लटककर झूल रहा है


मैं उस नदी में बह रहा हूँ जो मेरी धमनियों में है

उस बंजर पर हाँफ रहा हूँ, जो मेरे फेफड़े में है

शरीर पर एक परछाई है

जो मुझे ही डराता है लगातार


एक बदहवास, निरुदेश्य बेनाम कवि मै

गली के नुक्क्ड़ पर खड़ा

पूरे बजूद के साथ चिल्ला रहा हूँ

नहीं...! चिल्लाने की कोशिश कर रहा हूँ

शहर, समाज, परिवार

नदी, पेड़, संस्कार

कि आदर्श और जीवन

कि जीवन और कविता

और कविता.....!


3).

उम्मीद की टहनी


धीरे-धीरे  हम बढ़ रहे हैं गंतव्य की ओर

लेकिन आशा के विपरीत हमारी उपस्थिति को

अनदेखा कर दिया जा रहा है


स्वयं को नकारा जाना, 

जीवन से भटक जाना है

फिर हम जाकर भी कहाँ जा रहे हैं?

समंदर में भी बून्द कहाँ पा रहे हैं?

उर्वर पर रेगिस्तान फैल रहा है


सीने पर एक सुरज उग आया है

सुबक रही है व्यथा की दारुण दशा

चन्द्रमा से उतरकर अंधेरे में टहल रही है

उम्मीद की टहनियाँ

हो रहा है वेदना का विस्तार 

अभिलाषा तार-तार


विचार पर पहरा है

अभिव्यक्ति छुट रहा है 

पकड़ से धीरे-धीरे

बहुत धीरे-धीरे सारे तर्क

स्वर्ग को लूट रहा है।


4).

जीवन के गीत


          *१*

एक उम्मीद है आशा है

क्या चाह हृदय में पलता है

पल्लवित होते छिपे भावों में

कौन खाधोत सा जलता है

एक विश्राम तक जाते-जाते

भूल जाता हूँ पंथ सदा

मंजिल तक जाने को आतुर

कौन श्रम को अर्पित करता है


          *२*

भरने दे अभी रंग चित्र में

अद्भुत कृति को गढ़ने दे

पथ पर विचित्र फूल खिला दे

कंटक पर साँसों को चलने दे

इस दर्द की पीड़ा मधुर जान 

तू व्यर्थ इतना घबराता है

बीते रात, प्रभात आने दे

मेरे दीपक को जलने दे।


          *३*

कहो जुगनू कौन, कैसा सुख?

छिप-छिप चमक दिखाने में

यह कैसा मदहोश उमंग है

जलते हुए परवाने में

स्वाधीनता में आनंद है, लेकिन

बता मनोहर, तोता बोलो

लौह पिंजड़े में कैसा सुख है

कितनी तड़प है दाने में।

©सुरेन्द्र प्रजापति (ग्रामीण चेतना के कवि व कथाकार, संपर्क : 70618 21603)


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📖चोकर की लिट्टी कविता का लिंक : https://golendragyan.blogspot.com/2023/11/chokar-ki-litti-golendra-patel.html




            

                


चोकर की लिट्टी (Chokar Ki Litti ) : गोलेन्द्र पटेल (Golendra Patel)

 


चोकर की लिट्टी


मेरे पुरखे जानवर के चाम छिलते थे 

मगर, मैं घास छिलता हूँ


मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

मेरे सिर पर 

चूल्हे की जलती हुई कंडी फेंकी गयी

मैंने जलन यह सोचकर बरदाश्त कर ली

कि यह मेरे पाप का फल है

(शायद अग्निदेव का प्रसाद है)


मैं पतली रोटी नहीं, 

बगैर चोखे का चोकर की लिट्टी खाता हूँ


चपाती नहीं, 

चिपरी जैसी दिखती है मेरे घर की रोटी

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ


मुझे हमेशा कोल्हू का बैल समझा गया

मैं जाति की बंजर ज़मीन जोतने के लिए

जुल्म के जुए में जोता गया हूँ

मेरी ज़िंदगी देवताओं की दया का नाम है

देवताओं के वंशजों को मेरा सच झूठ लगता है

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

 

मैं कैसे किसी देवता को नेवता दूँ?

मेरे घर न दाना है न पानी

न साग है न सब्जी

न गोइंठी है न गैस

मुझे कुएँ और धुएँ के बीच सिर्फ़ धूल समझा जाता है

पर, मैं बेहया का फूल हूँ

देवी-देवता मुझे हालात का मारा और वक्त का हारा कहते हैं

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ


देखो न देव, देश के देव! 

मैं अब भी चोकर का लिट्टा गढ़ रहा हूँ, 

चोकर का रोटा ठोंक रहा हूँ

क्या तुम इसे मेरी तरह ठूँस सकते हो?

मैं भाषा में अनंत आँखों की नमी हूँ

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ


-गोलेन्द्र पटेल 

संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

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Saturday, 18 November 2023

प्रेम पर केंद्रित गोलेन्द्र पटेल की 21 कविताएँ (Prem Par Kendrit Golendra Patel Ki 21 Kavitayen)

प्रेम पर केंद्रित गोलेन्द्र पटेल की 21 कविताएँ :-

1). 

प्रेम क्या है?


१).


संबंध टूटता है

समय के कंठ से उत्तर फूटता है


'प्रेम क्या है?

कबीर का अढ़ाई अक्षर है?

बोधा की तलवार पर धावन है?'

'ना ,भाई , ना

प्रेम___

आँखों की भाषा में

मन के विश्वास से उपजी

हृदय की मुक्तावस्था के लिए

आत्मा की आवाज़ है'


'क्या यह मित्रता को मुहब्बत में तब्दील करने की_____

भावना में वासना भरने की____

छद्मवेश धरने की_____

वस्तु है?'

'ना , भाई , ना ,

प्रेम____

व्यक्तित्व में

उदात्त होने का तथास्तु है!'


२).


उसने परिणय से पूर्व पूछा—

“प्रेम संभोग है?”— ‘नहीं’

“प्रेम रोग है?”— ‘नहीं’

“प्रेम वियोग है?”— ‘नहीं’

“प्रेम संयोग है?”— ‘नहीं’

“प्रेम योग है?”— ‘हाँ’

किन्तु ,

किसका?

उत्तर— ‘मन से मन का

हृदय से हृदय का

और 

कुछ लोग हैं 

कि इसे सोग कहते हैं!’ 


३).


सुनो!

यदि प्रेम अनंत है

तो संभोग क्षणिक 

और यह सृष्टि के लिए

ज़रूरी चीज़ है!


४).


प्रेम का प्रथम लक्ष्य सेक्स है

क्योंकि वह परिणय का पिछलग्गू है


५).


मुक्ति के मार्ग में

सेक्स घृणा नहीं, 

बल्कि प्रेम है

और उसके बिना सेक्स 

विष है

यह जीवन की 

थीसिस है!


2).

प्रेम


कल स्वप्न में जिस लड़की से मेरा ब्याह हुआ

आज मैंने उससे कहा कि मित्र,


यह सच है 

कि प्रेम करने की कोई उम्र नहीं होती है

पर, जीवन के पूर्वार्द्ध का प्रेम ही प्रेम की संज्ञा को साकार करता है

बाकी, उत्तरार्द्ध का प्रेम तो वैसे भी

अपनी उदात्तता में भक्ति है


प्रेम—

मानव जीवन की सबसे मूल्यवान चीज़

जहाँ कहीं भी मिल जाये

शेष सभी चीज़ें सस्ती हो जाती हैं


प्रेम शब्द का मतलब

समाज के उन मानवों से है

जो आज भी जाति, धर्म व देह से परे जा कर

बेइंतहा प्यार करते हैं


उनकी भाषा में घृणा, नफ़रत और ईर्ष्या जैसी मनोवृत्तियों के लिए

कोई जगह नहीं है, 

वे शब्दों के फूलों से सामने वाले का स्वागत करते हैं

उसकी पहुनाई में पूरी पृथ्वी समर्पित कर देते हैं

उन्हें बस प्रेम करना आता है

उनकी वजह से जीवन कड़वा होने से बचा है

और नदी सूखने से बची है

उनकी नज़र में प्रेम ही परमात्मा है


प्रेम—

उन्हें तूफ़ानों में भयमुक्त रखता है

उन्हें लहरों से लोहा लेने की शक्ति देता है

उनकी नाव को चट्टानों से टकराने से बचाता है

वे सागर में नहीं, प्रेम में डूबते हैं


वे लड़ते हैं प्रेम के लिए

वे अकाल में किसी पत्थर पर उगी घास हैं

वे बेस्वाद समय में स्वादिष्ट सच हैं

उनके दर्शन से आत्मा हरी हो जाती है

उनकी संगत से अंतर्मन अपनी ऊँचाई छूता है

उन्हीं से प्रेम का अस्तित्व है


प्रेम—

अपराजेय-अपरिभाषित-अमर शब्द है

प्रेम स्वतंत्रता के स्वर का साथ देता है

पर, प्रेम में प्रेम निःशब्द है

वह आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान

और सुंदरता से भरी ज़िंदगी चाहता है

वह मानवता के लिए बंदगी चाहता है

उसी से सद्भावना है

उसी से नये जीवन की सम्भावना है

वह वासना के अँधेरे में प्रदीप है,

नया सौंदर्यशास्त्र रचने वाला शिल्पकार है

आत्मा का शिल्पी है

उसके गाने से

पत्थर-दिल डर जाते हैं

और उसके गीतों से भी!


प्रेम—

पाप और पुण्य से परे मनुष्य को मनुष्य बनाता है

उसकी तलाश में

मैंने पूरी पृथ्वी का कई बार चक्कर लगाया

पर, वह नहीं मिला

नहीं मिला कहीं भी

फिर भी वह मेरे जीवन का लक्ष्य है

उसी से मेरी मुक्ति है

क्योंकि 

मुक्ति का दूसरा नाम है प्रेम


वह मेरी बात कितनी समझी

मुझे नहीं मालूम

मगर, मुझे यह मालूम है 

कि वह मेरी भाषा से अनजान है

मेरे स्वप्न के बाहर

मुझसे बेहतर इनसान है!


3).

पवित्र प्रेम


चल रही है विरह की परीक्षा

इश्क की इमारत में इंगुर पहन रही है इच्छा

दृष्टि! सृष्टि में सम्पन्न हुई दिशा की दीक्षा


शिक्षा है कि उम्मीद की उड़ान उपज्ञा है

परन्तु पृथ्वी पर पवित्र प्रेम प्रज्ञा है


4).


जिससे प्यार करूँ


मैं जिससे प्यार करूँ

वह तन से नहीं

मन से सुंदर हो

उसे कलह नहीं

कला प्रिय हो

उसकी भुजा में नहीं

भाषा में बल हो

वह मेरा आज नहीं

कल हो!


5).


रूह की रोशनी


देखा जब आँसू के आईने में अपने को

तब जाना कि दिल में दर्द के दाग हैं


दिमाग ने नेह की देह पर लिखा

आँख और आँत में आग के राग हैं


मैं ढो रहा हूँ तुम्हारी बातों का बोझ

अब जिह्वा पर तीन अक्षर बेलाग हैं


रीढ़ की हड्डियों में हुस्न की हँसी

पवित्र प्रेम में समर्पण और त्याग हैं 


नसों में रक्त नहीं, रूह की रोशनी

पतझड़ के विरुद्ध मन के बाग हैं!


6).

गुज़रने पर


प्रेम-कविता से गुज़रने पर

कोई याद आती है

आँखों से चूतीं बूँदें 

कहती हैं कि

जिस देह का आधार स्नेह नहीं

वह गम का गेह है

हवा में उड़ती हुई

खारी ख़ाक रेह है!


7).


प्रेम में पड़ीं लड़कियाँ


माफ़ करना

मैंने नहीं मेरे गुरु देखे हैं

कि (पढ़ी-लिखी)

प्रेम में पड़ी हुईं लड़कियाँ

जन्मदिन पर 

प्रेमी का पाँव छूती हैं!


8).


पिछलग्गू


वे कैसे दिन थे 

जब लोग पहले परिणय करते थे

फिर प्रेम

अब तो

प्रेम परिणय का पिछलग्गू है!


9).

काली प्रेमिकाएँ


जंगल, पहाड़, समुद्र और कोयले में

जो पाई जाती हैं काली प्रेमिकाएँ

वे सिर्फ़ वासना की पूर्ति भर हैं

उनकी नज़र में 

जो उन्हें प्रेम कर के छोड़ देते हैं!


10).


ईश्वर नहीं नींद चाहिए


उनके व्यर्थ गए गुनाहों के बारे में

जब सोचती हूँ मैं

स्पर्शशून्य रस उमड़ता है भीतर

आँखें बोलती हैं

ईश्वर नहीं नींद चाहिए!


11).


संस्मरण


मुहब्बत वीणा की तरह 

मेरे हृदय में थी

तुम तो साधक थे!


अब संगीत में सना संस्मरण

मेरे दिल व दिमाग का गायक है!



12).


प्यार! प्यार!! प्यार!!!


प्रिये! 

तुम्हारे स्पर्श ने मुझे ज़िन्दा रखा है


मुझे नयनों से नयनों का गोपन

संभाषण पसंद है

उनका मारना नहीं


जब भी तुमने मारीं आँखें

मैं घायल हुआ

तन से, मन से

और मुझ पर 

पर्वतराज, सिंधु व सिंह हँसें

जो कि अभिव्यक्ति के अखाड़े में

मुझसे पराजित होते रहे हैं

बार-बार


यदि तुम मेरी प्रेरणा बनोगी

मैं रच डालूँगा

प्रेम का सबसे सुंदर छंद

होगा उसमें 

इस जीवन का सार

प्यार! प्यार!! प्यार!!!


13).

बीस पार


यह कहना कि मैं प्रेम नहीं करता

सही नहीं होगा

हर किसी की तरह मैं भी देखता हूँ दुनिया

मुझे आकाश होना है

किसी ख़ास चिड़िया के लिए


शायद उसने उम्मीद की उड़ान भरना 

सीख ली है

वह मेरी चेतना है


पंखों की लम्बी अनुपस्थिति में

धरती की धुन सुनीं

मेरी आँखें


मैंने महसूस किया कि मेरी हथेलियों की रेखाएँ

मेरे मस्तक पर पढ़ी जा सकती हैं


मैं उसके गीत में उतरना चाहता हूँ

जैसे फूल के रंग 

उसकी गंध के राग हैं

मैं वैसे ही उसके शब्द का अर्थ हूँ

मेरे हृदय के स्वर

उदात्त संबंधों के नये अनुराग हैं


मैंने अपने खेतों में प्रेम रोपा है

नयी सदी के लिए

मेरी फ़सलें 

पुरखों की संचित मानवीय संवेदनाएँ हैं


मेरे जीवन के वन में असंख्य यादों के पेड़ हैं

जहाँ समय संवाद और सवाल करता है

मेरे भूत, वर्तमान और भविष्य से

और मुझे उसकी उपस्थिति की अनुभूति होती है

तन-मन की हरियाली से


लेकिन लताएँ

नदी की ओर जाती हुई हवा से कहती हैं 

कि मैं बीस पार हो चुका हूँ

मुझे सागर से सीख लेने की आवश्यकता है!


14).


प्यार का इंतज़ार


नहीं हूँ किसी का भी भक्त मैं

पर प्रभु तुम्हारे मंदिर की सीढियों पर

करती हूँ अपने प्यार का इंतज़ार


वैसे ही

जैसे पृथ्वी करती है 

वसंत की प्रतीक्षा!


15).


चिंतित समुद्र


उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की 

यात्रा से लौटे हैं प्रभु!

उनकी थकान की मात्रा 

मीडिया में मुस्कुरा रही है कि


रेगिस्तान में

जब उठती हैं लहरें

समुद्र चिंतित होता है

पर नदी प्रसन्न होती है

क्योंकि वह प्यास बुझाती है!


16).

भावना-भूख


मैंने प्रेम किया अपने उम्र से

मुझसे प्रेम कर बैठी बड़ी उम्र


स्नेह के स्तन से फूट पड़ी दूध की धार

लोग कहते हैं इसे हुआ है तुझसे प्यार


दुनिया देख रही है दिल में दर्द-ए-दुख

दृश्य दृष्टि से बाहर दौड़ रहा है निर्भय


देह की दयनीय दशा दर्पण में मुख

ममत्व का मन निहार रहा है वात्सल्य


नादान उम्र नदी बीच नाव पर है भावनाभूख

हिमालय पर हवा का होंठ चूम रहा है हृदय


संवेदना सो रही है शांत सागर में चुहकर ऊख

वासना बेना डोला रही है अविराम मेरे हमदम!


मैंने प्रेम किया.....

(रचना : 2017)


17).

चेहरे पर चेतना की चाँदनी का चुम्बन


संभावना के स्वर में

सुबह गा रही है उम्मीद का गीत

हे सखी!

शाम आ रही है

नाव पर

धारा के विपरीत पतवार खेओ!


तरंग टकरा रही है तन से

नदी उचक-उचक कर उर छू रही है मन से

हवा की गंध तैर रही है सतह पर

तकलीफ़ों के तूफ़ान पर फतह कर

तकदीर उत्साहित है

मछली की तरह ;


आशाएँ आती हैं आकाश से

मछुआरिन की कीचराई आँखें चमक उठती हैं

चेहरे पर चेतना की चाँदनी चूमती है

प्रेम का तुहिन ताप बुझाता है

तरुणी की तरणी पहुँच जाती है किनारे 

भव सागर के पार!

(रचना : ३०-१०-२०२०)


18).

आवाज़


मैं जिनकी आवाज़ हूँ , 

उन्हें मालूम है 

कि मैं उनकी कितनी आवाज़ हूँ

कैसी आवाज़ हूँ!


19).

एक अथाह अर्थ में आह


मुझ पर विजय पाने के लिए

तुम्हारा भगीरथ प्रयास व्यर्थ है

मुझे मालूम है

तुम्हारी मुस्कान का क्या अर्थ है?

तुम्हारी आँखों का अस्त्र

मुझे घायल करने में असमर्थ है

तुम्हारे होंठों की शक्ति

मुझे पराजित करने में असमर्थ है

ओ भावना!

मैं भाषा में प्यार नहीं

विचार हूँ!!


तुम्हारा समर्पण सराहनीय है

लेकिन मेरे पास

एक अथाह अर्थ में आह है

सुगबुगाता संबंध 

तुम्हारी चाह की राह में डाह है

रव की रुकावट

बेवजह बुद्धि का ब्रेकर

सत्य के सफ़र में

राग को रोक रहा है

समय का शब्द 

स्वर को टोक रहा है

तुम्हारी मुहब्बत में मोड़ अधिक है

तुम्हारा मन स्वयं पथिक है

तुम्हारी बात

रात में बस की बर्थ है

ओ वासना!

मैं देह की परिभाषा में मोच नहीं

नयी सोच हूँ!!


20).


परीक्षा केंद्र पर प्रेम


आजकल धर्मपुरी में धूपाग बरस रही है

विद्युत के लाले पड़े हैं

सड़कों के तपन-राग गाँव के नंगे पाँव गुनगुना रहे हैं

जहाँ प्रबुद्ध पेड़ पक्षियों का डैना नहीं,

पंखों का डैना देखते हुए दिन काट रहे हैं

उनकी रात मत पूछो कैसे कटी, पद्मिनी!


हे पद्मिनी!

कल, पांडेयपुर की काली माता के मंदिर में

परीक्षा के बहाने मिलते हैं

लेकिन याद रखना इस बार 

न किसी का सर कटेगा

न हाथ

न कोई कपिलदेही देवदत्त कहलायेगा

न कोई देवदत्त-शरीरी कपिल

एक जन्म पुरुष चार अनुपस्थित रहेगा

पर, समस्या वही रहेगी

तुम्हारे वक्ष पर वेदना रहेगी

जाँघों पर परम प्रेमी

आँखों में मशाल

और कौमार्य के खुले अधरों पर

कामदेव-रति का नृत्य होगा

कोई मुखौटा नहीं

हृदय को सब स्पष्ट दिखेगा

मैं तुम्हारे केशों को केशव की तरह प्यार करूँगा, 

तुम राधा की तरह चेहरे पर मन की मुस्कान लेकर 

आओगी न, पद्मिनी?


आ गयी पद्मिनी

काली-मंदिर के भीतर

पसीना से तरबतर

तुम्हारे साथ ये सिपाही कौन हैं, पद्मिनी?

"पिताजी"

ओह!, अब क्या होगा?

परीक्षा शुरू होने से पहले ही चले जाएंगे

तब ठीक है

पद्मिनी, ये सब परीक्षार्थी नहीं, प्रेमी हैं

और

आँखों के अंतर्वैयक्तिक सम्प्रेषण

सिर्फ़ प्रेमी समझते हैं!

ज़रा सावधानी से सब इधर ही देख रहे हैं

"वे देख नहीं रहे हैं, 

अपनी आँखें सेंक रहे हैं!"


जानती हो पद्मिनी?

पुरुष कथ्य किसी से भी सीख सकता है 

लेकिन जीवन का शिल्प तो वह अपनी स्त्री से ही सीखता है

और एक बात, यह सरासर गलत है 

कि स्त्री के प्रेमतंत्र में बुद्धि और ज्ञान की कोई जगह नहीं है


प्रेम में मान और महत्व के बीच 

कुछ पाना 

कुछ खोना है

क्योंकि वह आत्मा को जागृत करता है


मेरा घर-द्वार व ज़मीन-जैजात सब कुछ बिक गया है

मैंने अपने आँख-कान व किडनी-गुर्दा आदि अंगों का दान कर दिया 

मतलब मेरे पास सिर्फ़ बचा है ईमान-धर्म

जो तुम्हारा पेट नहीं भर सकता, पद्मिनी!


न मुझे भूत की चिंता

न भविष्य की

मुझे वर्तमान में जीने की आदत है, पद्मिनी!


पद्मिनी, प्रेम का कोई धर्म नहीं होता है

कोई जाति नहीं होती है

लेकिन परिणय का धर्म होता है न?


पद्मिनी, हम इस समय जिस अवस्था में है 

इसमें भावुकता प्रधान है

हमें गंभीरता और संयम से सोचने की आवश्यकता है।


लो, परीक्षा-कक्ष में परिवेश के लिए 

घंटी बज गयी

तुम्हें पता है पद्मिनी

रट्टा और रचनात्मकता एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं

अर्थात् 

परीक्षा रटना क्रिया का पक्षधर है

पर प्रतिभा रचना क्रिया का

इन दोनों क्रियाओं में श्रेष्ठ कौन हैं, पद्मिनी?


पद्मिनी, यह परीक्षार्थियों की भाषा में पीएचडी का प्रश्न है

मैंने तुम्हारी साँसों के स्वाद से जाना

ज़िस्म के जश्न पर रूह क्यों मौन है?


पद्मिनी, हमें पुरखे कवियों व लेखकों के बारे में 

कुछ नया कहने लिए 

उन पुरखों व पूर्ववर्तियों से अधिक सोचना है 

उन से अधिक मानसिक श्रम करना है

जो उन पर कुछ नया कह चुके हैं


नया के बाद कुछ नया कहना

पुनर्नवा है 

और यह पुनर्नवा परंपरा पर प्रश्नचिह्न लगाता है

क्योंकि इसमें परिवर्तन की शक्ति निहित होती है, पद्मिनी!


पद्मिनी, साहित्य का सूरज पश्चिम में उगता है

उसके पूरब में उगने का अर्थ है

उसे किसी राहु-केतु से भय नहीं है

उसे किसी अग्नि-परीक्षा की चिंता नहीं है

क्योंकि वह स्वयं आग का गोला है न?


ओह हो, तुम्हारी सीट उस कक्ष में है

मेरी सीट इस कक्ष में है

परीक्षा के बाद गेट पर मिलते हैं!


पेपर कैसा रहा पद्मिनी?

ठीक रहा, 

परंतु परीक्षक पिछले कुछ वर्षों से 

पेपर कठिन बनाने के चक्कर में प्रश्न ही गलत बना दे रहे हैं

मुझे लग रहा है ये-ये प्रश्न गलत हैं

चलो, गलत हैं तो उसके फ़ायदे भी तो हैं

फ़ायदा क्या घंटा?

गलत प्रश्न आगामी प्रश्न के उत्तर को प्रभावित करते हैं

और उनके प्रभाव में 

आगामी प्रश्न के गलत होने की संभावना बढ़ जाती है


खैर, तुम्हारा कैसा गया?


मेरा??

मेरा क्या? 

मैं मस्त रहता हूँ 

मुझे परीक्षा-वरीक्षा की चिंता नहीं रहती है

वैसे भी अब तक मैंने जितने साहित्यकारों को पढ़ा है

उनमें से अधिकांश के पास मुझसे कम डिग्री है

वे अपने समय के कबीर हों 

या फिर निराला 

या फिर कोई और


उधर देखो, पद्मिनी! 

तुम्हें तुम्हारे सिपाही बुला रहे हैं

इधर मुझे मेरी सड़क!

21).

नई सुबह


नई सुबह का स्वर -

हवा , धूप व बारिश वृक्ष के अधीन हैं

धरती आसमान से पूछ कि प्रेम क्या है ?

क्या अब भी वे उड़ने में लीन हैं ?

जो पंक्षी बीज बोते हैं


उसकी छाया में सुस्ताते वक्त

तुम्हारी आँखों में अपना चेहरा देखना

असल में अंतर्मन को सेकना है !

संक्षिप्त परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

उपनाम/उपाधि : 'गोलेंद्र ज्ञान' , 'युवा किसान कवि', 'हिंदी कविता का गोल्डेनबॉय', 'काशी में हिंदी का हीरा', 'आँसू के आशुकवि', 'आर्द्रता की आँच के कवि', 'अग्निधर्मा कवि', 'निराशा में निराकरण के कवि', 'दूसरे धूमिल', 'काव्यानुप्रासाधिराज', 'रूपकराज', 'ऋषि कवि',  'कोरोजयी कवि', 'आलोचना के कवि' एवं 'दिव्यांगसेवी'।
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) व एम.ए., बी.एच.यू., हिन्दी से नेट।
भाषा : हिंदी व भोजपुरी।
विधा : कविता, नवगीत, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास व आलोचना।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :

कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' ,'गौरवशाली भारत' ,'सत्राची' ,'रेवान्त' ,'साहित्य बीकानेर' ,'उदिता' ,'विश्व गाथा' , 'कविता-कानन उ.प्र.' , 'रचनावली', 'जन-आकांक्षा', 'समकालीन त्रिवेणी', 'पाखी', 'सबलोग', 'रचना उत्सव', 'आईडियासिटी', 'नव किरण', 'मानस',  'विश्वरंग संवाद', 'पूर्वांगन', 'हिंदी कौस्तुभ', 'गाथांतर', 'कथाक्रम', 'कथारंग' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।

विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं और "कविता में किसान" (सं. नीरज कुमार मिश्र एवं अमरजीत कौंके) में कविता।

ब्लॉग्स, वेबसाइट और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन :-

गूगल के 100+ पॉपुलर साइट्स पर - 'कविता कोश' , 'गद्य कोश', 'हिन्दी कविता', 'साहित्य कुञ्ज', 'साहित्यिकी', 'जनता की आवाज़', 'पोषम पा', 'अपनी माटी', 'द लल्लनटॉप', 'अमर उजाला', 'समकालीन जनमत', 'लोकसाक्ष्य', 'अद्यतन कालक्रम', 'द साहित्यग्राम', 'लोकमंच', 'साहित्य रचना ई-पत्रिका', 'राष्ट्र चेतना पत्रिका', 'डुगडुगी', 'साहित्य सार', 'हस्तक्षेप', 'जन ज्वार', 'जखीरा डॉट कॉम', 'संवेदन स्पर्श - अभिप्राय', 'मीडिया स्वराज', 'अक्षरङ्ग', 'जानकी पुल', 'द पुरवाई', 'उम्मीदें', 'बोलती जिंदगी', 'फ्यूजबल्ब्स', 'गढ़निनाद', 'कविता बहार', 'हमारा मोर्चा', 'इंद्रधनुष जर्नल' , 'साहित्य सिनेमा सेतु' , 'साहित्य सारथी' , 'लोकल ख़बर (गाँव-गाँव शहर-शहर ,झारखंड)', 'भड़ास', 'कृषि जागरण' ,'इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट', 'सबलोग पत्रिका', 'वागर्थ', 'अमर उजाला', 'रणभेरी', 'हिंदुस्तान', 'दैनिक जागरण', 'परिवर्तन', 'मातृभाषा. कॉम', 'न्यूज़ बताओ' इत्यादि एवं कुछ लोगों के व्यक्तिगत साहित्यिक ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित हैं।

लम्बी कविता : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' एवं 'दुःख दर्शन'

अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित

काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।

सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" , "रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार-2022", हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से "शंकर दयाल सिंह प्रतिभा सम्मान-2023",  "मानस काव्य श्री सम्मान 2023" और अनेकानेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र प्राप्त हुए हैं।

मॉडरेटर : 'गोलेन्द्र ज्ञान' , 'ई-पत्र' एवं 'कोरोजीवी कविता' ब्लॉग के मॉडरेटर और 'दिव्यांग सेवा संस्थान गोलेन्द्र ज्ञान' के संस्थापक हैं।

संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

■■■★★★■■■

--Golendra Patel
BHU , Varanasi , Uttar Pradesh , India

धन्यवाद!

■■★★■■

(दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना)

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प्रस्तुति : अर्जुन आलोचक 



Saturday, 11 November 2023

मकान मालिक (Makan Malik) : गोलेंद्र पटेल (Golendra Patel)

मकान मालिक

कविता में चीखने से किला की दीवारें दरक जाती हैं

आह से उपजी कोई पीड़ा
रोशनी में राह से क्यों भटक जाती है?

कवि जिस मकान में रहता है
उसकी न कोई दीवार होती है
न कोई छत

दिन के अँधेरे में मकान की दीवारें
आपस में बतियाती हैं कि मकान मोह से शुरू होकर
मोहभंग पर ख़त्म होता है
इसकी नींव में सदियों की नींद दफ़नी है
इसके छत पर
मरी हुई भाषा में आसमान रोता है
इसकी ज़मीन पर आँसू के धब्बे हैं
इसके रोशनदान में गौरैया का खोता है
पर, उसमें कोई चहक नहीं, कोई हलचल नहीं

तभी तो, एक दीवार ने सामने की दीवार से कहा
कि बहन तुम्हारी पीठ पर लिखा है
आदमी जैसे-जैसे बड़ा होता है
उसका घर
वैसे-वैसे छोटा होता है
बिल्कुल जंगल की तरह छोटा हो जाता है
आँगन के पेड़ को साँप सूँघा है
समय शून्य है
और कमरा सुन्न, उसमें नहीं कोई धड़कन, नहीं कोई धुन

फिर एक दीवार ने सामने की दीवार से पूछा
कि बहन तुम्हारे पेट में कोई बात पचती क्यों नहीं है!
सुनो न, अपनी परछाईं के किस्से कितने अजीब हैं
कोई ठोंकता है हमारी छाती में कील
कोई पोतता है हमारे चेहरे पर ख़ून,
कोई थूकता है रंगीन बलगम
कोई मूतता है हमारे ऊपर
हमारे ऊपर कोई कुछ लिखता है, कोई कुछ लिखवाता है
कोई कुछ बनाता है, कोई कुछ बनवाता है...

देखो न, हम गरीब हैं, कला के करीब हैं
हम कई दिनों से चुप्पी पी रहे हैं
हमारी मालकिन कहाँ गयी हैं?

गहरे उच्छवास के साथ एक दीवार ने बोला
कि काश कि हम चल पाते बहन!
तो ज़रूर ढूँढ़ते मालकिन को
और मालिक को भी

मालिक हमें हर दीवाली पर नई साड़ी गिफ़्ट करते हैं न!

फिर एक दीवार बोली,
बहन! क्या इस दीवाली पर हमें नई साड़ी नहीं मिलेगी?
अगल-बगल के मकानों की दीवारें नई साड़ियाँ पहन रखी हैं
वे इठला रही हैं, चमक रही हैं, अँगूठा दिखा रही हैं
हमारी हँसी उड़ा रही हैं
हमें अपने मालिक को खोजना चाहिए
नहीं तो ये मूतभुसौलिन दीवारें हमें खड़ी रहने नहीं देंगी
हमें एक साथ ज़ोर से मालिक को बुलाना चाहिए

दीवारों की पुनर्पुकार मालकिन के लिये है
मालकिन के बिना मकान वैसे भी मकान नहीं होता है

हाय, इस मुल्क में मकानों के मुहावरे मौसम के मारे हैं
उनकी दीवारों पर
जीवन के कुछ नारे हैं
जो आदमी को नये परिचय की ओर लेकर
चल रहे हैं और
यह बता रहे हैं कि
पहले मकान का 'म' गायब हुआ, फिर 'कान'!

दरवाज़े-खिड़कियों के संवाद में दीवारों की चर्चा है
जहाँ दुख उन्हें खुरोचा है
एक मकान बनाने में बहुत ख़र्चा है

दीवारें लोकमंगल के दिन दुखी हैं, बहुत दुखी हैं
हाय-हाय करते-करते मालिक चल बसे हैं
एक भावभीनी दीपांजलि मालिक के नाम
इस दीपोत्सव के दिन!

इस दीवाली पर!!

(©गोलेन्द्र पटेल/ 12-11-2023)

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Tuesday, 7 November 2023

धूमिल को समर्पित कविताएँ (dhoomil ko samarpit kavitayen) / धूमिल पर केंद्रित कविताएँ (dhoomil par kendrit kavitayen)

धूमिल से संबंधित गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ :-

दस कविताएँ :-

1). धूमिल जयंती
2). धूमिल! मैं तुम्हें गाऊँगा
3). सत्ता से सवाल
4). धूमिल की पुण्यतिथि
5). याद आते हैं
6). धूमिल का घर मेरा दिल है
7). धूमिल होना
8). कविता मरने के बाद भी कवि को ज़िंदा रखती है
9). नज़्र-ए-रत्नशंकर पाण्डेय
10). धूलिम की धरती 

1).

धूमिल जयंती


आसमान में धुआँ ही धुआँ है

युद्ध जारी है

पूरी दुनिया युद्ध में उलझी हुई है


पुरखों की जयंतियाँ बीत जा रही हैं

और पता भी नहीं चल रहा है

ऐसे में


जनकवि धूमिल जयंती की पूर्वसंध्या पर

मैं देख रहा हूँ

इस बार खेवली में नहीं

बल्कि खजूरगाँव में धूमिल जयंती की धूम मचने वाली है

उनकी पुनर्खोज की तैयारी चल रही है


खेवली केवल खजूरगाँव का रूपक नहीं,

बल्कि राष्ट्र का रूपक है


उनका सौंदर्य, श्रम का नया सौंदर्य है

वे मानवीय दृष्टि से कविता और भाषा को 

अपने समय में सबसे अधिक परिभाषित करते हैं

उनका संघर्ष, उनके सृजन को निखारा है

वे अँधेरे में शब्दों को दीपक सा धरते हैं


उनके आत्मचिंतन में समुचित आत्मसंवेग है

सामाजिक सरोकार है, सभ्यता-समीक्षा है

वे भूख और भाषा की दूरी को समझाते हैं

उनकी कहन के अंदाज़ का कायल हूँ मैं

मुझे उनसे असीम प्यार है


उनका गढ़ा ख़ूब पढ़ा जाता है

वे ठंड में धूप की नदी की तरह हैं

उनकी कविता राजनीतिक झूठ का पर्दाफ़ाश करती है

वे अपनी सहजता में गहरी बात के कवि हैं


उनकी क्रांतिकारी चेतना से गुज़रते हुए

मैं साहसिक हो रहा हूँ


उनकी रचनाधर्मिता अवसाद से आश्वस्तता की ओर उन्मुख है

वे दुःख के दौर में दरकते 

व टूटते मन को बचाने की कोशिश भी करते हैं

उनकी अभिव्यक्ति पाठक को शक्ति देती है


मैं वक्त का वाचक हूँ

यह स्मृतियों को बचाने का समय है

उनकी स्मृतियों को कोटि-कोटि नमन!


2).

सत्ता से सवाल


एक दिन

एक किसान कवि चुपचाप

भूख की भूमि में बोया जब अपना दुख

तब उगा दोहा

जो ले रहा है लोकतंत्र से लोहा


जहाँ जनता का जश्न

केवल चुनाव है

उसका पसीना पूछता है प्रश्न____

क्या सत्ता से सवाल करना

धूमिल होना है?



3).

धूमिल! मैं तुम्हें गाऊँगा


राजनीति के रंगमंच पर


‘क्या मैं तुम्हें काशी का दूसरा कबीर कहूँ?’

“नहीं”

‘क्या मैं तुम्हें अस्सी और खेवली के द्वंद्व की उपज कहूँ?’

“नहीं”

‘क्या मैं तुम्हें भदेस भाषा का जादूगर कहूँ?’

“नहीं”

‘क्या मैं तुम्हें लोकतंत्र का सजग प्रहरी कहूँ?’

“नहीं”

‘क्या मैं तुम्हें जनविमुख व्यवस्था की विद्रोही वाणी कहूँ?’

“नहीं”

‘क्या मैं तुम्हें सपनों का संघर्ष कहूँ?’

“हाँ”

‘क्या मैं तुम्हें मोहभंग का कोह कहूँ?’

“नहीं, ‘कूह’ कहो”


वे जो बेलाग और बेलौस

शब्द सजग चिंतक हैं

वे जो जनधर्मी चेतना के तीख़े स्वर हैं

वे जो बेचैन कर देने वाली प्रश्नाकुलता की परंपरा के प्रेरणास्रोत हैं

वे जो वक्त के वक्ता व वकील हैं

वे जो भास्वरता के कवि हैं

‘क्या तुम वही हो?’

“हाँ, मैं वही हूँ

जो ख़ुद के सवालों के सामने खड़ा हो जाता है

जो अवचेतन की भाषा में बड़ा हो जाता है

हाँ, मैं वही हूँ

जिसकी तुक का जोड़ नहीं

जिसके मुहावरे का तोड़ नहीं

हाँ, मैं वही हूँ

नक्सलबाड़ी का नायक

भारतीय संस्कृति का गायक

हाँ, मैं वही हूँ

जो तुम समझ रहे हो

हाँ, मैं वही हूँ!”


ओ साठोत्तरी पीढ़ी के प्रतिनिधि,

मेरे प्रियतम पुरखे धूमकेतु, अग्निधर्मा, आक्रोश के कवि!

मैंने तुम्हें याद करते हुए

महसूस किया कि

तुम्हारा दुःखबोध ही तुम्हारी कविता का प्राणतत्त्व है

तुमने नीली पलकों पर थरथराती हुई

आँसुओं की जो आवाज़ सुनी

वह मेरे युग की महाकाव्यात्मक पीड़ा है

क्या स्याह संवेदना सत्ता के लिए

विषैला कीड़ा है?


तुम चेतना के धरातल पर मेरे बहुत करीब हो

मैं अक्सर लोगों से कहता हूँ

कि धूमिल की धरती मेरी धरती है

खेवली और खजूरगाँव के बीच

शब्द-शिक्षक और शब्द-शिष्य का संबंध है

मैंने तुमसे भाषा में आदमी होने की तमीज़ सीखी

मेरे और तुम्हारे बीच एक ही माटी की गंध है


तुम मेरी आत्मा के प्रकाश हो

तुम मेरी मनोभूमि के आकाश हो

तुम मेरी भावभूमि के विचार हो

तुम मेरी धार हो

तुम मेरे आधार हो

तुम मेरे कवि का पहला प्यार हो


हे सामाजिक मन के सर्जक

युवा ऋषि कवि!

मैं तुम्हारी रचनाओं में ऊब और उदासी के बीच

उम्मीद को पाता हूँ

मैं तुम्हें अंतर्मन से गाता हूँ

तुम बन जाओ मेरा गीत

सरस-सरल-सहज संगीत

मैं तुम्हें गाता हूँ— ‘संसद से सड़क तक’


तुम मेरे प्रिय कवि हो

जैसे होते हैं सबके

वैसे ही


तुम्हारी जनपक्षधरता अद्भुत है

मैं चाहता हूँ— तुम ‘कल सुनना मुझे’

मेरे राग में तुम्हारी आग होगी

और मेरी लय में तुम्हारी जय

मैं तुम्हें गाऊँगा!

कल, मैं तुम्हें गाऊँगा!!


4).

धूमिल की पुण्यतिथि


सड़कें जानती हैं कि

जब एक सूखी हुई नदी 

न्याय की माँग करती है

तब लहरें चीखती हैं

और

रेत रक्त से लिखती है

कि माँ के आँसू

द्वीप को डूबो देंगे!


जहाँ धारा की ध्वनि है

चिता की राख से फूटी हुई

रोशनी बिजली में बदल रही है

क्या ख़ूब आँखों से बारिश होगी

इस धरा पर!


आह! रेत में सूरज डूब रहा है

सत्ता का सेतु गिर रहा है


चाँद को लग रहा है कि आज

किसी ऐसे कवि की पुण्यतिथि है

जिनकी कविताओं में बदलाव की एक अमर,

अपराजेय, अप्रतिहत अनुगूँज है

वेदना वैभव, सार्थक वक्तव्य, विचारवीथी है


नदी में नाव स्मृतिकथा कह रही है 

कवि धूमिल की!


5).


याद आते हैं


छब्बीस जनवरी के दिन

मुझे नागार्जुन का गणतंत्र याद आता है

मुझे याद आता है

'सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र'

मुझे याद आते हैं वे कवि

जो कहते हैं कि 'मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए'


मुझे याद आता है

ज्ञानेंद्रपति की 'संशयात्मा' का 249 वाँ पृष्ठ

मुझे याद आती हैं

अरुण कमल व श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएँ

'उत्सव' से लेकर 

'देश के प्रधानमंत्री के नाम देश के एक नागरिक का ख़त'


मुझे 'क्षमा करो'

अशोक वाजपेयी भी जानते हैं

कि यह कैसा षड्यंत्र है

मैं देख रहा हूँ मदन कश्यप की आँखों से 

कि 'अपना ही देश' में 'लहुलुहान लोकतंत्र' है

मुझे याद आती हैं राजेश जोशी की कुछ पंक्तियाँ

कि 'जो विरोध में बोलेंगे, 

जो सच बोलेंगे, 

वो मारे जाएंगे'


आज़ादी के अमृत महोत्सव पर 

मैंने कहा था कि

मुझे रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा राष्ट्रगान नहीं

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की रची गयी कविता

'जन-गण-मन' याद आ रही है


मुझे ऐसी कविताएँ याद आती हैं

पंद्रह अगस्त पर

या फिर गाँधी जयंती के दिन

लुढ़ियाया तिरंगा को देखकर!

6).


धूमिल का घर मेरा दिल है

जब सपने धूमिल होते हैं
कवि धूमिल पैदा होते हैं
नई भाषा, नई कहन के साथ

वे गढ़ते हैं नये मुहावरे
और पढ़ते हैं आदमी को आदमी से

उनकी चेतना की चोट से चिनगारी उत्पन्न होती है

उनके प्रेम में गुस्सा है
गुस्सा में प्रेम है
उन्होंने कला में जीवन को वरीयता दी
उनकी आँखों को देखकर
मुझे अपनी आँखों की याद आयी
वे मेरी आँखों की भाषा जानते हैं
मैं साँस भर हवा हूँ
  आँचल भर धूप हूँ
  अँजुरी भर रूप हूँ
  प्यास भर पानी हूँ
  भूख भर अन्न हूँ
  जीवन भर प्यार हूँ
सृजन भर सम्पन्न हूँ
वैयक्तिक-सामाजिक यथार्थ से लैस हूँ
मैं संवेदना और शब्द के बीच हाइफ़न हूँ
समय और समाज के बीच डैश हूँ

मैं धूमिल की धरती से हूँ
मुझे उनके घर जाने की आवश्यकता नहीं
क्योंकि उनका घर
मेरा दिल है!


7).

धूमिल होना

एक शब्दवाहक में व्यंग्य के रंग अनेक हैं
और चेतना की चोट से उत्पन्न दूरगामी चिंगारी भी

वे कवि जो अपनी कविताओं में शब्दों को खोलकर रखते हैं
जिनकी टिप्पणियाँ जनता की ज़बान पर होती हैं
जो प्रजातंत्र को प्रश्नांकित करते हैं
जो भय, भूमि, भूख, भाषा
और भाव को परिभाषित करते हैं
जो धुंध में रोशनी देते हैं
जो कविता के किसान हैं
जो सच का सबूत पेश करते हैं
जो बीमारी, बसंत और बनारसी बात के ही नहीं
बल्कि स्वप्न, संघर्ष और मानवीय सौंदर्य के कवि हैं
जिनकी पहचान श्रम-संस्कृति की तान है
उन्हीं का नाम धूमिल है

धूमिल होना
कविता में आदमी होना है
भारतीय समाज की यंत्रणा का कवि होना है!


8).

कविता मरने के बाद भी कवि को ज़िंदा रखती है


ब्रेन ट्यूमर की वजह से 

तुम ही नहीं

कई कवि अल्प आयु में चल बसे

पर, तुम्हारा जाना

एक युग की सबसे बड़ी क्षति है

अब अभिव्यक्ति के नाम पर

कविता में गति नहीं,

यति है

केवल कोरा विचार 


काश कि जब तुम बाहर आये

तुम्हारे हाथों में कविता के बजाय

दिमाग़ का एक्स-रे होता

तुम ज़िंदा होते!

पर, तुम्हारे दिमाग़ में आँतों का एक्स-रे था

और हाथों में कविता

क्योंकि

तुम जानते थे कि कविता मरने के बाद भी

तुम्हें ज़िंदा रखेगी!


9).


नज़्र-ए-रत्नशंकर पाण्डेय


धुंध सूरज को कब तक रोकेगी?

गंध रंग को कब तक टोगेगी?

कोई मोचिन कब तक करेगी

अच्छे दिन का इंतज़ार?

भाषा की रात कब तक बीतेगी?

चाँद कब तक करेगा

नदी में डूब कर रोहिणी से प्यार?

खेवली में धूमिल के नाम से कब तक बनेगा गेट?

क्या कवि-पुत्र को मालूम है?


क्या रत्नशंकर ने धूमिल के कंधे पर काशी देखी है?

(मतलब, बेटा बाप के कंधे पर बनारस देखा है

या बनारसी रामलीला का रावण-दहन?

क्या ख़ूब है कवि की कहन!)

कविरत्न कैसे पिता थे रतन!

क्या वे कविता के बाहर भी गरम थे?

आक्रोशित दिखते थे?

वे बहुत ज़िद्दी थे न? रतन!


कभी ऐसा हुआ है कि वे कोई गीत लिख रहे थे

और उनके रत्न रोने लगे!

या फिर वे कुछ लिखकर रखे थे

उनके रत्न उसका जहाज़ बनाकर उड़ा दिए?

या बारिश में तैरा दिए?

फिर पीठ-पूजा हुई हो, कोई ऐसी घटना याद है रतन?


बहुत सुन लिया मैंने

उनके साथियों का संस्मरण

अब मैं जानना चाहता हूँ कि उनकी कौन सी रचना है

जिसका पहला श्रोता रतन हैं

और पहला पाठक भी

क्या कविरत्न की तरह रतन का बचपन भी आर्थिक संघर्षों में बीता है?


खैर, अब मुझे माता मूरत देवी को सुनना है

उनकी स्मृति के आलोक में आलोकित होना है

क्योंकि वे बिन भाषा

थके-हारे

धूमिल के उदास मन को राहत देती थीं!

10).


धूमिल की धरती


प्रश्नाकुलता के साथ 

प्रगीत में प्रज्ञा की तलाश के करते हुए 

धूमिल की धरती पर किसी ने पूछा 

कि मेरा उनसे क्या रिश्ता है

मैंने कहा कि जो संबंध लमही और लहरतारा के बीच है, 

वही संबंध खेवली और खजूरगाँव के बीच है

वे अक्षरों के बीच गिरे हुए 

आदमी को पढ़ते थे 

और मैं अक्षरों के नीचे दबी हुईं चीखें 

सुनता हूँ!


©गोलेन्द्र पटेल

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Friday, 3 November 2023

मेरा इलाहाबाद जाने का मन नहीं है! : गोलेन्द्र पटेल (Mera Allahabad Jane Ka Man Nahin Hai! : Golendra Patel)

 



1).

मेरा इलाहाबाद जाने का मन नहीं है!


इलाहाबाद ने अपना नाम बदला है

मैंने नहीं,

मेरा नाम वही है, जो कल था

जिस नाम से इलाहाबाद मुझे पुकारता था


हालांकि शिक्षाव्यवस्था ने मेरे नाम को बदलने की कोशिश की

मेरे मना करने पर भी

उसने मेरा नाम बदल दिया

अब मुझे कई उपनामों से जाना जाता है

भले ही वे उपनाम मुझे स्वीकार नहीं हैं


मैं अपने उपनामों से पुकारने पर नहीं सुनता हूँ

मुझे अपने पहले नाम से असीम प्यार है, इलाहाबाद!


शायद तुम्हारा नाम भी किसी व्यवस्था ने बदला है

और तुमने वह नाम सहजता से स्वीकार कर लिया

ताकि मैं तुम्हें पहचान न सकूँ


मुझे घटनाएँ याद हैं प्रयागराज!

एक दो नहीं, सब याद हैं


मैं तुम्हें भीतर तक पहचान रहा हूँ

तुम्हारी शक्ल बरछी की तरह चुभ रही है मेरे हृदय में

मैं तुमसे नाराज़ हूँ न!

मेरा तुम्हारे यहाँ आने का मन नहीं है!


2).

हिचकी तो है!


इलाहाबाद! पिछले पाँच सालों में 

मैंने तुम्हें कभी याद नहीं की

पर, इस पीएचडी प्रवेश परीक्षा ने तो तुम्हारी याद करा दी


क्या सच में तुम बदल गये हो?

या सिर्फ़ तुम्हारा नाम बदला है?


क्या तुम सच में मुझे याद कर रहे हो?

या कोई और?

हिचकी तो है!


(©गोलेन्द्र पटेल / 04-11-2023)


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