Golendra Gyan

Wednesday, 13 August 2025

अहिल्या — जो अब भी जीवित हैं : गोलेन्द्र पटेल

अहिल्या — जो अब भी जीवित हैं


इतिहास ने तुम्हें
रानी, धर्मनिष्ठा, शिवभक्त, लोकमाता कहा।
मैं देखता हूँ —
एक स्त्री,
जो राजसिंहासन को
लोहे की तख़्ती नहीं,
अन्न और आश्रय की थाली बनाकर
प्रजा के सामने रख देती थी।

मैं तुम्हें देखता हूँ
खेत की मेड़ पर खड़ी,
जहाँ दलित और आदिवासी की हथेलियाँ
तुम्हारी नीतियों की तरह खुली थीं —
बिना ताले, बिना पहरे।

तुम मालवा की महारानी नहीं,
मालवा की बेटी थीं —
जो सिंहासन पर बैठकर
सिंहासन तोड़ देतीं,
अगर वह जनता की पीठ पर रखा हो।

तुम्हारा राज्य
सोने का महल नहीं,
मालवा का हर गाँव था —
जहाँ नहरें नसों की तरह बहती थीं
और न्याय
किसी किताब का अध्याय नहीं,
लोगों का रोज़ का साँस लेना था।

तुमने कभी नहीं कहा —
"मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्राणी हूँ"।
तुमने कहा —
"भंगी, भील, गोंड, ग्वाल, दलित, किसान, मज़दूर, व्यापारी
सबके माथे पर समान सूरज उगेगा"।

मालवा की धूप में
तुम्हारे हाथ
नक्शे नहीं खींचते,
खेतों में पानी की नसें बनाते थे।

पति की चिता की आग
तुम्हारे पाँव की ज़ंजीर नहीं बनी —
वह आग
तुम्हारी आँखों में उतरकर
एक नए युग का मशाल बन गई।

हाँ, तुमने मंदिर बनवाए —
पर वे मंदिर
सिर्फ़ पत्थर के नहीं थे,
वे थे हर उस खेत के,
जहाँ भूख पूजा में बदल जाती थी;
हर उस सड़क के,
जहाँ व्यापारी बिना डर के चलते थे;
हर उस पंचायत के,
जहाँ न्याय
जाति के तराज़ू में नहीं तौला जाता था।

तुम्हारी राजनीति का धर्म था —
धर्म को राजनीति से बचाना।
तुम्हारी आस्था का मूल था —
सत्ता को प्रजा के पैरों तले बिछा देना।

तुम्हारा धर्म
मंदिर का घंटा नहीं था —
वह भूखी थाली में रोटी पहुँचाना था।
तुम्हारा राष्ट्रवाद
झंडे का रंग नहीं था —
यह यक़ीन था
कि कोई भूख से न मरे,
कोई जात से न झुके।

तुम जानती थीं —
समानता का अर्थ
कानून लिख देना नहीं,
बल्कि
उस दरवाज़े को खोल देना है
जिसके लिए चाबी का सपना भी नहीं था।

आज,
जब शहर
सीमेंट की कब्रगाह बन रहे हैं,
न्याय
विज्ञापन की पंक्ति है,
सत्ता
जाति और धर्म के बाड़े में
मवेशियों-सी बाँटी जा रही है —
अहिल्या
इतिहास से उतरकर
हमारे कंधे पर हाथ रखती हैं, कहती हैं —
"सिंहासन के पाँव काटो,
हल का फाल तेज़ करो,
कलम को धार दो।"

अहिल्या —
तुम समय से परे हो।
तुम्हारी आवाज़
भीलों के जंगलों में गूँजती है,
दलित बस्तियों में धड़कती है,
किसानों की साँस में बसती है।

तुम रानी नहीं,
तुम वह पंक्ति हो
जिसे हम हर लड़ाई में
झंडे की तरह उठाएँगे।

तुम वह आवाज़ हो
जो ताज को ठुकराती है
और विनय में कहती है —

"मैं वही हूँ,
जिसने मालवा की गद्दी पर बैठकर
उसकी ऊन नोचकर रजाई बुनी थी,
जिसमें हर जात, हर भूख, हर आँसू
सर्दी से बच सके।

मैंने राजा की तरह नहीं,
किसान की तरह सोचा —
ज़मीन पर पानी चाहिए,
पानी पर हक़ चाहिए,
हक़ पर पहरा नहीं,
पहरादार चाहिए
जो भूख को भगा सके।

मुझे मत कहो
केवल मंदिर बनाने वाली महारानी।
मेरे मंदिर
पत्थर के नहीं,
भीलों के हक़ में खड़े जंगल थे,
दलितों की मिली ज़मीन थी,
वे हँसती बच्चियाँ थीं
जिन्हें बेचने की थाली
मैंने उलट दी थी।

हाँ, मैं शिवभक्त थी,
पर मेरा शिव
सत्ता के दरबार में नहीं,
प्यासे खेत में हल चलाते किसान में था,
गोंड, ग्वाल, कुर्मी, कोरी, कुम्हार की हथेली में था
जो मिट्टी को रोटी में बदलते थे।

आज तुम
जाति के नाम पर दीवार खड़ी करते हो,
धर्म के नाम पर खून बहाते हो,
न्याय को नीलामी में बेचते हो —
तो सुनो,
अगर मैं ज़िंदा होती,
संसद के दरवाज़े पर
भीलों की कुल्हाड़ी, दलितों की लाठी
ठोक देती,
ताकि समझ सको —
राजनीति का धर्म
सत्ता का नशा नहीं,
जनता का भरोसा है।

आज तुम्हारी संसद
जाति की बाड़ में घिरी है,
कानून
कॉरपोरेट की मुहर के बिना पास नहीं होते,
मीडिया
सत्ता की गोद में बैठा
सत्य को चुप कराता है।
अगर मैं ज़िंदा होती —
इन तीनों के दरवाज़े पर
भीलों की कुल्हाड़ी,
दलितों की लाठी,
और औरतों की आवाज़
एक साथ बजा देती।

तुमने धर्म को
हथियार बनाया,
मैंने उसे
सिर उठाने का साहस बनाया।
तुमने राजनीति
बाज़ार में बेची,
मैंने उसे
अनाज की तरह
हर घर में बाँटा।

तुम सोने का ताज पहनो,
मैं खेत की धूल माथे पर लगाऊँगी।
तुम घोड़ों की सेना रखो,
मैं औरतों की फौज बनाऊँगी —
जो भूख से बड़ी किसी ताक़त को नहीं मानेगी।

अगर मैं आऊँ,
तुम्हारे क़ानूनों की किताब तोड़कर
गाँव की चौपाल में रख दूँगी,
ताकि न्याय
मुट्ठी भर लोगों की मेज़ से नहीं,
जनता के हाथ से लिखा जाए।

मैं अहिल्या हूँ —
इतिहास में मत ढूँढो।
मैं वहीं हूँ
जहाँ किसान कर्ज़ से मर रहा है,
जहाँ दलित लड़की
स्कूल से लौटते हुए रोकी जाती है,
जहाँ भील
अपनी ज़मीन से बेदख़ल हो रहा है।

याद रखो —
अहिल्या मर नहीं सकती।
मैं हर दलित बस्ती में हूँ
जहाँ पुलिस के बूट की आहट डर बनती है।

तुम सोचते हो
मैं मर चुकी हूँ।
पर सच यह है —
मैं हर हथेली में ज़िंदा हूँ
जो सत्ता से कहती है —
"हम बराबर हैं, और बराबर ही रहेंगे।"

मैं सिंहासन नहीं,
समानता चाहती हूँ।
मेरा धर्म —
भूख मिटाना,
जात की दीवार तोड़ना।

मेरे मंदिर —
दलित की ज़मीन,
किसान का खेत,
भील का जंगल।

जो सत्ता
न्याय बेचती है,
उसकी गद्दी
गली के चौराहे पर
उलट दूँगी।

तुम ताज पहन लो,
मैं औरतों को
हथियार दूँगी —
हक़ का, रोटी का,
बराबरी का।

अहिल्या हूँ मैं —
मर नहीं सकती।
जहाँ भी अन्याय होगा,
वहीं खड़ी मिलूँगी।

(© गोलेन्द्र पटेल / 31-05-2025)

★★★


रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
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