गुरु, शिक्षक और शिक्षा : अंधकार से मुक्ति का अंबेडकरवादी घोषणापत्र
—गोलेन्द्र पटेल
भारतीय समाज में "गुरु" और "शिक्षक" की भूमिका सदियों से चर्चा का विषय रही है। पारंपरिक धारणाओं में गुरु को देवताओं से भी ऊँचा स्थान दिया गया, क्योंकि वे अज्ञानता के अंधकार से निकालकर ज्ञान का प्रकाश देते हैं। किंतु प्रश्न यह है कि यह "प्रकाश" किसके हिस्से आया और किसे अंधकार में ही छोड़ दिया गया? किसके लिए गुरुकुलों के द्वार खुले रहे और किसे वहाँ प्रवेश करने से रोका गया? यही प्रश्न आज हमें गुरु-शिष्य परंपरा को अंबेडकरवादी दृष्टि से पुनर्परिभाषित करने के लिए मजबूर करता है।
शिक्षा : दमन से मुक्ति का औज़ार
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को मुक्ति और समानता का सबसे बड़ा हथियार बताया। उनका वाक्य आज भी गूंजता है—
"शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पिएगा वही दहाड़ेगा।"
यह दहाड़ केवल व्यक्तिगत उन्नति की नहीं, बल्कि सामूहिक मुक्ति और सामाजिक क्रांति की है। इसलिए गुरु और शिक्षक का असली कर्तव्य केवल पाठ्यपुस्तकें पढ़ाना नहीं, बल्कि शोषित-उत्पीड़ित समाज को अपने पैरों पर खड़ा करना, उनमें आत्मसम्मान जगाना और उन्हें संघर्ष के लिए तैयार करना है।
गुरु-शिष्य परंपरा : आलोचनात्मक पुनर्पाठ
भारतीय परंपरा में गुरु-शिष्य संबंध को पवित्र माना गया, किंतु वास्तविकता यह है कि यह परंपरा जाति और वर्ण की दीवारों में कैद थी। शूद्रों, दलितों और स्त्रियों को ज्ञान से वंचित रखकर इस परंपरा ने सदियों तक अंधकार को ही उनका भाग्य बना दिया।
आज आवश्यकता है कि हम इस परंपरा को पुनर्परिभाषित करें—
गुरु वह है जो शोषण के खिलाफ संघर्ष का रास्ता दिखाए।
शिक्षक वह है जो समाज के वंचित वर्गों में आलोचनात्मक सोच और आत्मविश्वास पैदा करे।
गुरु और शिक्षक की कसौटी यह होनी चाहिए कि वह ज्ञान किसे उपलब्ध करा रहा है और किसे परिवर्तन के लिए तैयार कर रहा है।
अंबेडकरवादी गुरु : ज्ञान और क्रांति का संगम
अंबेडकर ने कहा था— "शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो।" यह केवल नारा नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य परंपरा के नए स्वरूप का घोषणापत्र है।
गुरु का कार्य अब केवल शिष्य के चरित्र निर्माण तक सीमित नहीं, बल्कि उसके भीतर अन्याय के खिलाफ लड़ने की चेतना जगाना है।
शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्र को विज्ञान, तर्क और समानता की दृष्टि से सुसज्जित करे, ताकि वह परंपरा और रूढ़ियों की गुलामी से मुक्त हो सके।
बहुजन महापुरुष और शिक्षा की क्रांति
ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और बाबासाहेब अंबेडकर जैसे महापुरुषों ने शिक्षा को क्रांति का औज़ार बनाया।
सावित्रीबाई फुले ने पहला विद्यालय खोलकर स्त्रियों और दलितों को शिक्षा का अधिकार दिया। वे असली "जनगुरु" थीं, जिनकी क्रांति आज भी प्रेरणादायक है।
ज्योतिबा फुले ने "सत्यशोधक समाज" के माध्यम से ज्ञान को ब्राह्मणवादी वर्चस्व से मुक्त कर बहुजनों के हाथ में सौंपा।
अंबेडकर ने शिक्षा को केवल व्यक्तिगत सफलता का साधन नहीं माना, बल्कि सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की नींव के रूप में स्थापित किया।
शिक्षा : आत्मसम्मान और संघर्ष की धुरी
अंबेडकरवादी दृष्टिकोण स्पष्ट करता है कि शिक्षा का असली उद्देश्य नौकरी पाना या डिग्री अर्जित करना भर नहीं है।
यह आत्मसम्मान जगाने का माध्यम है।
यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक सोच विकसित करने का साधन है।
यह जाति, लिंग और वर्ग आधारित अन्याय को पहचानने और उसके खिलाफ खड़े होने की ताक़त देती है।
आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियाँ
आज विश्वविद्यालय और विद्यालय "ज्ञान" तो बाँट रहे हैं, लेकिन यह ज्ञान किसकी सेवा कर रहा है? क्या यह शिक्षा गरीब, दलित, आदिवासी और स्त्रियों को बराबरी दे रही है, या फिर उन्हें बाज़ार और सत्ता का उपकरण बना रही है?
अंबेडकरवादी दृष्टिकोण कहता है कि शिक्षा तभी सार्थक है, जब वह समाज में बराबरी और न्याय को मज़बूत करे, न कि असमानता को और गहरा करे।
घोषणापत्र : नए युग का गुरु-शिष्य संबंध
1. गुरु-शिष्य परंपरा अब केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि संघर्ष और परिवर्तन की साझेदारी है।
2. हर शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बहुजन बच्चों को मुख्यधारा से जोड़कर उनमें आत्मविश्वास पैदा करे।
3. शिक्षा को बाज़ार और जाति की कैद से मुक्त कर, उसे सामाजिक न्याय की धुरी बनाया जाए।
4. असली गुरु वही है, जो शिष्य को प्रश्न करना सिखाए, न कि अंधविश्वास में झुकना।
5. अंबेडकरवादी शिक्षक वही है, जो "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" का जीवन्त उदाहरण बने।
निष्कर्ष
गुरु और शिक्षक का महत्व निर्विवाद है, लेकिन उनकी भूमिका का पुनर्पाठ करना ज़रूरी है। आज हमें ऐसे गुरु चाहिए, जो केवल ज्ञान न दें, बल्कि न्याय और समानता के लिए लड़ने की प्रेरणा दें। ऐसे शिक्षक चाहिए, जो केवल पाठ्यक्रम न पढ़ाएँ, बल्कि बहुजन समाज की चेतना को जगाएँ।
यही अंबेडकरवादी शिक्षा का मार्ग है—
ज्ञान से मुक्ति, शिक्षा से क्रांति और गुरु-शिष्य परंपरा से सामाजिक न्याय की स्थापना।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को मुक्ति और समानता का सबसे बड़ा हथियार बताया। उनका वाक्य आज भी गूंजता है—
"शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पिएगा वही दहाड़ेगा।"
यह दहाड़ केवल व्यक्तिगत उन्नति की नहीं, बल्कि सामूहिक मुक्ति और सामाजिक क्रांति की है। इसलिए गुरु और शिक्षक का असली कर्तव्य केवल पाठ्यपुस्तकें पढ़ाना नहीं, बल्कि शोषित-उत्पीड़ित समाज को अपने पैरों पर खड़ा करना, उनमें आत्मसम्मान जगाना और उन्हें संघर्ष के लिए तैयार करना है।
गुरु-शिष्य परंपरा : आलोचनात्मक पुनर्पाठ
भारतीय परंपरा में गुरु-शिष्य संबंध को पवित्र माना गया, किंतु वास्तविकता यह है कि यह परंपरा जाति और वर्ण की दीवारों में कैद थी। शूद्रों, दलितों और स्त्रियों को ज्ञान से वंचित रखकर इस परंपरा ने सदियों तक अंधकार को ही उनका भाग्य बना दिया।
आज आवश्यकता है कि हम इस परंपरा को पुनर्परिभाषित करें—
गुरु वह है जो शोषण के खिलाफ संघर्ष का रास्ता दिखाए।
शिक्षक वह है जो समाज के वंचित वर्गों में आलोचनात्मक सोच और आत्मविश्वास पैदा करे।
गुरु और शिक्षक की कसौटी यह होनी चाहिए कि वह ज्ञान किसे उपलब्ध करा रहा है और किसे परिवर्तन के लिए तैयार कर रहा है।
अंबेडकरवादी गुरु : ज्ञान और क्रांति का संगम
अंबेडकर ने कहा था— "शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो।" यह केवल नारा नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य परंपरा के नए स्वरूप का घोषणापत्र है।
गुरु का कार्य अब केवल शिष्य के चरित्र निर्माण तक सीमित नहीं, बल्कि उसके भीतर अन्याय के खिलाफ लड़ने की चेतना जगाना है।
शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्र को विज्ञान, तर्क और समानता की दृष्टि से सुसज्जित करे, ताकि वह परंपरा और रूढ़ियों की गुलामी से मुक्त हो सके।
बहुजन महापुरुष और शिक्षा की क्रांति
ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और बाबासाहेब अंबेडकर जैसे महापुरुषों ने शिक्षा को क्रांति का औज़ार बनाया।
सावित्रीबाई फुले ने पहला विद्यालय खोलकर स्त्रियों और दलितों को शिक्षा का अधिकार दिया। वे असली "जनगुरु" थीं, जिनकी क्रांति आज भी प्रेरणादायक है।
ज्योतिबा फुले ने "सत्यशोधक समाज" के माध्यम से ज्ञान को ब्राह्मणवादी वर्चस्व से मुक्त कर बहुजनों के हाथ में सौंपा।
अंबेडकर ने शिक्षा को केवल व्यक्तिगत सफलता का साधन नहीं माना, बल्कि सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की नींव के रूप में स्थापित किया।
शिक्षा : आत्मसम्मान और संघर्ष की धुरी
अंबेडकरवादी दृष्टिकोण स्पष्ट करता है कि शिक्षा का असली उद्देश्य नौकरी पाना या डिग्री अर्जित करना भर नहीं है।
यह आत्मसम्मान जगाने का माध्यम है।
यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक सोच विकसित करने का साधन है।
यह जाति, लिंग और वर्ग आधारित अन्याय को पहचानने और उसके खिलाफ खड़े होने की ताक़त देती है।
आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियाँ
आज विश्वविद्यालय और विद्यालय "ज्ञान" तो बाँट रहे हैं, लेकिन यह ज्ञान किसकी सेवा कर रहा है? क्या यह शिक्षा गरीब, दलित, आदिवासी और स्त्रियों को बराबरी दे रही है, या फिर उन्हें बाज़ार और सत्ता का उपकरण बना रही है?
अंबेडकरवादी दृष्टिकोण कहता है कि शिक्षा तभी सार्थक है, जब वह समाज में बराबरी और न्याय को मज़बूत करे, न कि असमानता को और गहरा करे।
घोषणापत्र : नए युग का गुरु-शिष्य संबंध
1. गुरु-शिष्य परंपरा अब केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि संघर्ष और परिवर्तन की साझेदारी है।
2. हर शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बहुजन बच्चों को मुख्यधारा से जोड़कर उनमें आत्मविश्वास पैदा करे।
3. शिक्षा को बाज़ार और जाति की कैद से मुक्त कर, उसे सामाजिक न्याय की धुरी बनाया जाए।
4. असली गुरु वही है, जो शिष्य को प्रश्न करना सिखाए, न कि अंधविश्वास में झुकना।
5. अंबेडकरवादी शिक्षक वही है, जो "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" का जीवन्त उदाहरण बने।
निष्कर्ष
गुरु और शिक्षक का महत्व निर्विवाद है, लेकिन उनकी भूमिका का पुनर्पाठ करना ज़रूरी है। आज हमें ऐसे गुरु चाहिए, जो केवल ज्ञान न दें, बल्कि न्याय और समानता के लिए लड़ने की प्रेरणा दें। ऐसे शिक्षक चाहिए, जो केवल पाठ्यक्रम न पढ़ाएँ, बल्कि बहुजन समाज की चेतना को जगाएँ।
यही अंबेडकरवादी शिक्षा का मार्ग है—
ज्ञान से मुक्ति, शिक्षा से क्रांति और गुरु-शिष्य परंपरा से सामाजिक न्याय की स्थापना।
★★★
रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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