काशी का अक्कड़,बक्कड़ व फक्कड़ आमंत्रण.......
कल,रविवार,19 जनवरी 2020 को घाटवाक विश्वविद्यालय के द्वितीय वार्षिक उत्सव समारोह का खुला आमंत्रण//-आरम्भ:ठीक 1.30 पर -तुलसीघाट से।
(संयोजक-श्रीप्रकाश शुक्ल,आयोजक--विजयनाथ मिश्र)
कार्यक्रम ठीक 1.30 बजे तुलसीघाट से आरंभ होगा और 5 बजे राजघाट पर सम्पन्न होगा।यह दुनिया का शायद अकेला व अनूठा विश्वविद्यालय है जिसका वार्षिक उत्सव भी घूम घूम कर ही नहीं,झूम झूम कर होगा।जैसे की इसकी शिक्षा का स्वभाव है।अपने गतिशील पाठ्यक्रम के अनुसार।काशी की रामलीला की तर्ज पर इसकी संकाय संरचना भी गतिशील है ठीक काशी की अपनी गति की तरह।यहां देह स्थायी रूप से विसर्जित है।केवल चेतना का जाग्रत भाव बना रहता है...
...तो 'घाट वाक' तन की नहीं,मन की यात्रा है..
अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवाक विश्वविद्यालय,बनारस के अखाड़े बाजों का नहीं,फक्कड़ व मस्तमौलों का आयोजन है।यह गंभीर व उबाऊ लोगों का नहीं,सरस व टिकाऊ लोगों का आयोजन है।अपने 4 प्रमुख संकायों में बंटे इस विश्वविद्यालय का अपना एक अडभंगी मिजाज है।शिव इसके संरक्षक हैं और गंगा इसकी रक्षक! शिक्षा,स्वास्थ्य ,स्वच्छता और सकारात्मक सोच इसके प्रमुख उद्देश्य हैं।सत्य की रक्षा करना इसका संकल्प है और इसके पास अपना शीर्षक गीत भी है।लोगो भी बनकर तैयार है जो आगे चलकर अलग से लोकार्पित होगा।
घाटवाक देह नहीं ,दर्शन है...बाह्य नहीं,आंतरिक है..पर्यटन नहीं,प्रेम है... सरल नही,जटिल है ...दिन चर्या नहीं,लोक चर्या है...जहां हर घाट अपनी अलग व अनूठी कहानी कहते हैं।वे रोकते हैं,टोकते हैं,बतियाते हैं और अगले घाट की तरफ इशारा करते हैं।वे कहते हैं कि वॉक ही मत करो,टाक भी करो।वे बार बार अपनी सांस्कृतिक विरासत से वर्तमान को सहला रहे होते हैं और प्रश्नांकित भी कर रहे होते हैं।।वे कह रहे हैं कि बैठो ही मत,देखो भी।चलो ही मत,चिंतन भी करो।भीड़ ही मत देखो,हमारे अकेलेपन को भी देखो..और समझो कि हम महज पत्थर नहीं हैं,हमारे में वैदिक ऋषियों से लेकर रामानंद,कबीर,तुलसी,रविदास, से लेकर पंडित जगन्नाथ , चेत सिंह व बबुआ पांडेय की चेतना का प्रवाह भी है।हमारी सांस्कृतिक बहुलता केवल बौद्धिक नारा नहीं है बल्कि हमने संस्कृति की विविधता को अपने बारीकी से तराशे गए पत्थरों में सुरक्षित कर रखा है...आखिर गंदा करके तुम अपनी ही जिंदगी में गंदगी इकट्ठा करते हो।
हमारे बनारसीपन को देखो तो समझोगे कि गायघाट के नट बोल्ट देवता केवल यहीं संभव हैं!चिता की राख से जीवन के उल्लास की रचना भी यही संभव है...और यही पर ताना बाना समूह की ' झीनी झीनी बीनी चदरिया' के गीत संभव हैं!पंचगंगा का महोत्सव और उसकी सांगीतिक उदात्तता भी यहीं कहीं है।
...तो संलग्न कार्यक्रम के अनुसार आ जाएं।निराश नहीं होंगे।उदात्त होकर ही लौटेंगे।आखिर रविवार का दिन भी है---
खेत भर धूप के बहाने भी आ सकते है
रूप तो रेत भर ही है
फिर क्या सोचना!
(@श्रीप्रकाश शुक्ल)
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