एक भरसाँय साहित्य का
जिसमें हाशिये का हसुआ
समय को कउर रहा है
जी हाँ हारे हाथ से
कुछ दाना दनादन छाना
शोषितों के छलनी से
जो फूटा उसे भी
जो नहीं फूटा उसे भी
बालू बकवास तो
झर झर झर गया
खो अपना अपनत्व
कुछ तो महत्व
अभी भी रख रहा है
फूटे टूटे मन से
बालू-बात-बतंगड़
कडाही को कष्ट नहीं है
इन सब तथ्य से
आँच आँत तक पहुँच
आदमी के पेट में नगाड़ा बजा रहा है
उस ध्वनि को केवल साहित्यकार सुनता है
श्रोता राजा नहीं!!
-गोलेन्द्र पटेल
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