Golendra Gyan

नामवर सिंह (आलोचक आलोक) : गोलेन्द्र पटेल



**परंपरा में रचा-बसा आधुनिक**
नामवरसिंह पर एकाग्र ' साक्षात्कार के विशेषांक में प्रकाशित 

नामवरजी की आलोचना नयी और अलग है, लेकिन उनके यहाँ इसके उगने–बढ़ने का खाद-पानी परंपरा से आता है। नामवरजी ने अपने समय के ‘प्रचलित’ और ‘मान्य’ से अलग और नया किया और खास बात यह है कि उन्होंने हिंदी समाज में ‘अलग’ और ‘नये’ का स्वागत और सम्मान करने की आदत भी डाली। उन्होंने जब आलोचना में कदम रखा, तो उसमें खूँटोंवाली आलोचना का वर्चस्व था। यह ऐसी आलोचना थी, जिसमें इधर-उधर या आसपास था, लेकिन अलग और नये के लिए गुंजाइश बिल्कुल नहीं थी। उस समय माहौल ऐसा भी था कि परंपरा के नाम पर कुछ लोग अतीत में ही ठहर गए थे, जबकि कुछ लोग ऐसे थे, जो परंपरा और विरासत की चेतना और संस्कार को दकियानूसी मानकर हवा में ‘आधुनिक’ हो गए थे। नामवरजी के अलग और नये आलोचक की खास बात यह है कि इसका उगना-बढना परंपरा की जमीन पर हुआ और वह किसी खूँटे से बँधकर उसके बाड़े में कैद भी नहीं हुआ। नामवरजी में परंपरा की चेतना थी, लेकिन अतीत उनके लिए श्रद्धेय कभी नहीं रहा। अतीत के साथ उनका संबंध द्वंद्व का था। दरअसल परंपरा की चेतना और संस्कारवाले सभी लोगों का अतीत से संबंध, यदि यह स्वस्थ संबंध है, तो हमेशा द्वंद्व का ही होता है। परंपरा इसी श्रद्धा संबंध के कारण कई आलोचकों के यहाँ मृत या ठहरी हुई है। नामवरजी के यहाँ यह जीवंत है- इसका बदलना-बनना नामवरजी की आलोचना में साफ दिखता है।
नामवरजी की आलोचकीय पहचान अपनी समकालीनता के ‘अलग’ और ‘नये’ मूल्यांकन के कारण बनी, लेकिन परंपरा की चेतना और संस्कार उनमें निरंतर और गहरा था। परंपरा की स्मृति और संस्कार उनके आलोचकीय प्रस्थान में ही थे‌। उनके आरंभिक दोनों काम- ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’ और ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ हमारी परंपरा की पहचान और मूल्यांकन से संबंधित थे। परंपरा को लेकर नामवरजी के यहाँ कोई आग्रह नहीं था- यह उनकी चेतना और संस्कार में अनायास थी। आलोचना नये की हो, या प्राचीन की, यह चेतना और संस्कार उनकी आलोचना में दिखता है। वे हवा में आधुनिक होनेवाले आलोचको से अलग थे-‌ उन्हें साहित्य की भारतीय और उसमें भी खास तौर पर संस्कृत साहित्य की परंपरा का ज्ञान था, वे परवर्ती पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषाओं के साहित्य के भी जानकर थे। उनके ‘आधुनिक‘ की जड़ें इसीलिए इस दीर्घकालीन और विविध प्रकार की पंरपरा में थीं। अन्य कई आलोचको की तरह नामवरजी पश्चिम की ओर पीठ करके कभी खड़े नहीं हुए- वे आधुनिक और उसमें भी उसके नवीनतम को हमेशा अपने सम्मुख रखते थे। हिंदी में हवा में होने वाले आधुनिक तो कई हैं, लेकिन अपनी परपंरा और विरासत में रच-बसकर पूरे आधुनिक होनेवाले नामवरजी ही थे।
नामवरजी से मिलना थोड़ा दुर्लभ, लेकिन बहुत सुखद और समृद्धकारी था। वे संवाद व्यग्र लोगों में से थे- वे संवाद में सोत्साह हस्तक्षेप करते थे और सामनेवाले को भी इसके लिए प्रोत्साहित करते थे। सामनेवाले के लिए उनके पास उसकी रुचि के अनुसार गुजांइश थी और वे उसको ध्यान से सुनते-गुनते थे। अंतिम बार दो विख्यात सम्माननीय कवियों- अरुण कमलजी और लीलाधर जगूड़ीजी के साथ उनके यहाँ गया। यह उनके जीवन का अंतिम चरण था, स्मृति उनका साथ छोड़ रही थी, लेकिन उनकी विद्वत्ता और संवाद व्यग्रता बरकरार थी। वे संवाद की पहल करके आपको अपने साथ जोड़ लेते थे। उनके परिचितों का दायरा बहुत बड़ा था- वे सभी के आत्मीय और अपने थे। अपने सभी परिचितों के लिए उनकी स्मृति में कुछ-न-कुछ था। वे उन लोगों से बहुत अलग थे, जो मिलते ही सामनेवाले पर अपने भारी-भरकम बोझ के साथ लद जाते हैं और उसको छोटा कर देते हैं। वे मिलते ही आपकी लाई किताब, पत्रिका, लेख आदि की उन्मुक्त भाव से सराहना करते और इस तरह आपके खुलने-खिलने और सहज हो जाने की जगह निकालते थे। वे शीर्ष पर थे- उनका कद और हैसियत बहुत बड़ी थी, लेकिन उनसे मिलकर अपने छोटे होने का अहसास कभी नहीं हुआ। उनसे मिलकर, उनके यहाँ से निकलकर अपने को हमेशा आश्वस्त और भरा-भरा पाया।
नामवरजी को पाठ्यचर्या में पढा-पढ़ाया, कई बार सुना और कई बार उनसे आमना-सामना हुआ, लेकिन सही मायने में उनके साथ बैठकर इत्मिनान से बातचीत का मौका विश्वविद्यालय में आने के बाद मिला, जब वे उदयपुर व्याख्यान देने आए। उनसे यह पहली अनौपाचारिक मुलाकात लगभग दो-तीन दिन की थी। विश्वविद्यालय ने मोहनलाल सुखाड़िया स्मृति व्याख्यान देने के लिए नामवरजी को निमंत्रित करने का निश्चय किया। यह विश्वविद्यालय का प्रतिष्ठित वार्षिक आयोजन था। किसी अनुशासन या विषय का कोई शीर्ष विद्वान यह व्याख्यान देता था। युवा आलोचक और संपादक पल्लव उनके स्नेहभाजन थे, इसलिए उनको नामवरजी को राजी करने का दायित्व सौंपा। वे आए। हम थोड़े भयभीत थे, लेकिन उनके बहुत सहज और सामान्य व्यवहार ने हमको भी सहज-सामान्य कर दिया। व्याख्यान दूसरे दिन था, इसलिए रात्रि को भोजन के लिए एक रिसोर्ट पर गए। खुले में बैठे थे, सुनसान था और हवा चल रही थी। चाँद ने निकलना शुरू किया। नामवरजी की निगाहें उसी पर टिकी हुई थी। वे बातचीत में केवल हाँ-हूँ कर रहे थे। एकाएक नामवरजी मुखर हो गए- कालिदास के श्लोक एक बाद एक उनके मुँह से झरने लगे। उन्होंने एक श्लोक के कई निहितार्थ हमारे सामने रख दिए। अंग्रेजी और संस्कृत के प्रोफ़ेसर मित्र प्रदीप त्रिखा और नीरज शर्मा साथ थे- वे आश्चर्यचकित थे। अगले दिन सुबह व्याख्यान हुआ। विषय था- ‘भारतीयता की अवधारणा’। सामान्य औपचारिकताओं के बाद उन्होंने बोलना शुरू किया। एकदम धाराप्रवाह- वाक्य एक के बाद एक ढलकर आ रहे थे। उनकी स्थापनाएँ शास्त्रों से पुष्ट थीं। विश्वविद्यालय का अकादमिक समाज, बुद्धिजीवी और नगर के साहित्यप्रेमी मंत्रमुग्ध थे। उनका विचार था कि हमारे देश के लिए ‘भारत’ नाम इसकी बुनियाद रखनेवालों ने इसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को ध्यान में रखकर बहुत सोच-विचार के बाद रखा। उन्होंने व्याख्यान में कहा कि “आप यही देखें कि भारत नाम है पुराना, लेकिन स्वाधीनता जब मिली, तो सबसे बड़ी चुनौती थी कि पाकिस्तान ने तो अपना नाम रख लिया- पाकिस्तान, तो उसके जवाब में कायदे से इसको हिन्दुस्तान होना चाहिए था, हिन्दुस्तान शब्द चलता भी था। लेकिन क्या बात थी कि पाकिस्तान के बरक्स हमने हिन्दुस्तान नहीं चुना। आप को याद होगा गांधी ने जो पहले किताब लिखी थी ‘हिन्द स्वराज’ थी। गांधीजी ने भारत का इस्तेमाल नहीं किया। जवाहरलाल नेहरू ने जो किताब सौभाग्य से इंग्लिश में लिखी थी तो उसका नाम ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ रखा। ‘भारत एक खोज’ ये नाम अनुवाद करके लिया गया था, जवाहरलाल नेहरू ने तो ये नाम नहीं लिया था। बाद में देखें तो कई अखबार ऐसे हैं। अंग्रेजी में जो अखबार निकलता है वो ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ है, हिन्दी में उसका संस्करण है वो ‘हिन्दुस्तान’ है। ...आज भी ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ जो अंग्रेजी का निकलता है वो ‘इंडिया’ से काम चलाता है। ....बावजूद इसके हमने पाकिस्तान के बरक्स हिन्दुस्तान नहीं चुना। क्योंकि यह हिन्दुओं का देश न लगे, न माना जाए। बल्कि हमने तय किया था कि पाकिस्तान भले ही इस्लामिक स्टेट हो, लेकिन हम हिन्दुस्तान के बरक्स हिन्दुओं का राज्य नहीं कायम करेंगे।” भारतीयता के संबंध में उनकी धारणा थी कि यह लेने-देने की नहीं, खोजने की चीज है और हर व्यक्ति और हर पीढ़ी अपनी भारतीयता, अपनी तरह से खोजती है। उन्होंने व्याख्यान में इसको उदाहरण से स्पष्ट करते हुए कहा कि “जन्म लेने से ही यह प्रमाण पत्र नहीं मिल जाता कि हम भारत को जानते और समझते हैं। अगर ऐसा होता तो जवाहरलाल नेहरू इतने दिनों तक आम जनता के बीच संघर्ष करते रहे, देश की स्वाधीनता के लिए लड़ते भी रहे और इस काफी लंबी लड़ाई के बाद जेल में आकर चालीस के दशक के बाद, एक लम्बा जीवन बिताने के बाद, उन्होंने जो किताब लिखी उसका नाम था ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’। जाहिर है उन्होंने डिस्कवरी की, खोज की। अनुवाद उसका ‘भारत एक खोज’ होना चाहिए था, इसलिए कि इतने दिनों तक भारत में रहने के बावजूद जवाहरलाल नेहरू की यह किताब इशारा करती है कि भारत सहज सुलभ नहीं है। ये वो जानते थे। एक लंबी उमर के बाद भी उन्होंने भारत को नये सिरे से खोजा। ये खोज की उन्होंने भारत का तूफानी दौरा करते हुए। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, चुनाव के दौरान वे गाँव गए। सब कुछ देखा, रहन-सहन, खान-पान सब देखा।” उनका यह भी मानना था कि हमारे साहित्य ने भारतीयता की खोज की है। उन्होंने इस पर विस्तार से रोशनी डालते हुए हुए कहा कि “भारत की खोज होती रही। कविताओं के द्वारा, कहानियों के द्वारा, उपन्यास के द्वारा। क्योंकि भारत एक भूगोल नहीं हैं। भारत केवल नदियों, पहाड़ों, जंगलों का देश नही है। न यह बड़े–बड़े महानगरों, कल-कारखानों का देश है। बल्कि जो स्वयं ये भारत में रहनेवाले जो लोग हैं, जो जनता है, उस जनता की अपनी जिंदगी है, अपनी कहानी है, उसके अपने दुखःदर्द हैं, संघर्ष है, हास है उल्लास है, जो कभी-कभी उसके त्योहारों में अभिव्यक्त होते हैं, उसके अलावा व्यक्त होते हैं- ग्राम-गीतों में, लोककलाओं में।” जाहिर है, यह बातें कट्टरपंथी रुझानवाले लोगों को अच्छी नहीं लगी। बाद में उनमें से एक राजनेता ने मंच पर जाकर अपनी असहमति व्यक्त की। नामवरजी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। दूसरे दिन यह मामला अखबारों में उछला। अखबार उन्हें दिखाए‌‌‌- वे निर्द्धन्द्ध थे, उन्होंने कुछ नहीं कहा। बाद में हम कीर्तिशेष कवि नंद चतुर्वेदी के यहाँ मिलने गए- दोनों ने बहुत देर तक घर-परिवार और सुखःदुख की बातें कीं। नंदबाबू ने उनके व्याख्यान पर विवाद का प्रसंग भी छेड़ा, लेकिन उन्होंने इसे बहुत महत्त्व नहीं दिया। बहुत बाद में समझ में आया कि वे अपनी धारणाओं में साफ थे- उनकी राय दो टूक थी और वे इस पर किसी ऐसी-वैसी प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करने से परहेज कर रहे थे।
बाद में एक-दो अवसरों पर और प्रिय पल्लव के साथ उनके पास गया। बातचीत हुई- हमने इस बीच अपना किया-धरा उनको दिया, उन्होंने देखा और हमेशा की तरह इसकी सराहना की और प्रोत्साहित किया। नामवरजी से हुई अंतिम भेंट सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है। इस भेंट से लगा कि नामवरजी को प्राचीन साहित्य से कितना गहरा लगाव था, वे इसके संरक्षण और प्रकाशन के लिए कितने चिंतित थे और यह भी कि उनका आलोचकीय प्रस्थान कितना  संघर्षपूर्ण था। यह भेंट तब की है जब उनकी स्मृति धुँधली होने लग गई थी। खास बात यह है कि धुँधली स्मृति के बाबजूद राजस्थान के प्राचीन साहित्य और संस्कृति के लिए उसमें कितनी गहरी और मजबूत जगह बनी हुई थी। साहित्य अकादेमी के एक आयोजन में थे। आग्रह अरुण कमलजी का था कि आज नामवरजी के पास चला जाए। नामवरजी के लिए उनके मन में असाधारण किस्म का सम्मान था। उनके दिल्ली में होने का एक मतलब नामवरजी से मिलना भी था। वे अक्सर बातचीत में नामवरजी घर जाने को तीर्थाटन कहते थे। लीलाधर जगूड़ीजी को साथ लेकर दोपहर के बाद हम तीनों शिवालिक आपर्टमेंट पहुँचे। बाहर ताला लगा हुआ था। गर्मी बहुत थी- हम पसीने में लथपथ थे। निराशा हुई- हम तीनों ने बारी-बारी से ताले को हाथ लगाकर परखा-तोला और पाया कि यह लगा हुआ था। अरुण कमलजी ने मोबाइल पर डायल किया, तो मोबाइल अंदर बज रहा था। अरुण कमलजी बहुत चिंतित और व्यग्र थे, उन्होंने दरवाजा खटखटाया, आवाजें दीं, पर भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। हम सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गए। हम तीनों बहुत देर तक ऊहापोह में खड़े रहे। अंततः अरुण कमलजी फिर ऊपर गए। उन्होंने इधर-उधर तलाश की और अंततः दरवाजे के पास दीवार पर लिखा हुआ एक मोबाइल नम्बर लेकर नीचे आए। नीचे आकर उन्होंने लगाया, तो पता लगा यह नामवरजी की सेवा करनेवाली एक युवती का नंबर है। कुछ देर में वह आ भी गई। उसने ताला खोला, नामवरजी आए और हमको देखकर बहुत प्रसन्न हुए। साहित्य अकादेमी से मुनि जिनविजय पर प्रकाशित विनिबंध की प्रति उनको दी। देखकर उन्होंने कहा- मुनिजी पर मोनोग्राफ आ गया, अकादेमी ने यह अच्छा काम किया। मुनि जिनविजय से उनकी अपने गुरु हजारीप्रसाद द्धिवेदी के कारण आत्मीयता थी। आदिकाल की अवधारणा के विकास में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जिन साहित्यिक रचनाओं का इस्तेमाल किया किया है, उनमें से अधिकांश मुनि जिनविजय के द्वारा अन्वेषित और संपादित-प्रकाशित थीं। उन्होंने हजारीप्रसाद द्विवेदी से सुना मुनि जिनविजय संबंधी एक प्रकरण भी हमें सुनाया। उन्होंने बताया कि शांतिनिकेतन में आचार्य क्षितिमोहन सेन, हजारीप्रसाद द्विवेदी और मुनि जिनविजय के बीच में किसी विषय को विचार-विमर्श चल रहा था। एक युवक विद्वान पर्याप्त तर्क देने के बाद भी असहमत था। उसकी असहमति में विनम्रता कम और दंभ ज्यादा था। अंततः कृशकाय मुनि जिनविजय ने लकड़ी उठाई और कहा कि वे केवल विद्वान नहीं हैं, वे जाति से राजपूत हैं और तदनुसार उत्तर देने की क्षमता भी रखते हैं। उन्होंने बताया कि वृद्धावस्था और कमजोर आँखों के बावजूद मुनिजी पांडुलिपियाँ सामान्य किताबों की तरह पढ़ते थे। फिर उन्हें अपने शोधकार्य के सिलसिले में किए गए राजस्थान प्रवास की स्मृति हो आई। वे अपने शोधकार्य के सिलसिले में राजस्थान और उसमें भी खास तौर पर बीकानेर में लंबे प्रवास पर रहे। उन्होंने बताया कि बीकानेर उस समय प्राचीन साहित्य के संरक्षण और शोध का केंद्र था। प्राचीन साहित्य की अधिकांश पांडुलिपियाँ वहीं थीं। यह वहाँ सक्रिय दो विद्याव्यसनी और प्राचीन साहित्य के विशेषज्ञ, अगरचंद नाहटा और नरोत्तम स्वामी के कारण संभव हुआ। उन्होंने यह भी बताया कि इटली के विख्यात राजस्थानी साहित्य के विद्वान एलपी तेस्सीतोरी का शोध कार्य का क्षेत्र भी बीकानेर ही था। अगरचंद नाहटा और नरोत्तनम स्वामी के प्राचीन साहित्य के संरक्षण और शोधकार्यों की उन्होंने सराहना की और दुःखी हुए कि अब नई पीढ़ी तो उनके संबंध में जानती तक नहीं है। ‘पृथ्वीराज रासो’ की पांडुलिपियाँ उनको इन दोनों विद्वानों से ही मिलीं और उन्होंने यहीं रहकर इन पांडुलिपियों की प्रतिलिपियाँ भी कीं ।
राजस्थान की संस्कृति और उसमें भी खासतौर पर यहाँ के आतिथ्य-सत्कार की उन्होंने जमकर सराहना की। उन्होंने बताया कि अपने शोधकार्य के लिए वे लगभग पूरा राजस्थान घूमे। यहाँ के लोगों से मिले प्रेम और आतिथ्य-सत्कार से वे अभिभूत थे। उन्होंने बातचीत में यह भी जोड़ा कि उस समय आज की तरह फैलोशिप वगैरह नहीं मिलती थी और उनके पास इतने पैसे नहीं थे, लेकिन राजस्थान के आतिथ्यप्रेमी लोगों के कारण उनको यहाँ कोई असुविधा नहीं हुई। शोधकार्य के लिए किए गए इस प्रवास और यात्रा में सहयोगी रहे अपने एक पुस्तक व्यवसायी मित्र चंपालाल रांका के संबध में उन्होंने हमें विस्तार से बताया। रांकाजी को उन्होंने बहुत प्रेम और आदर के साथ स्मरण किया। राजस्थान के ग्रंथागारों में संग्रहीत पांडुलिपियों की दुर्दशा और उन पर कोई काम नहीं हो पाने के कारण वे दुःखी थे। उन्होंने कहा कि इस दिशा में कुछ होना चाहिए। बातचीत में और भी कई प्रसंग आए। उस समय उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा दी गई महत्तर सदस्यता का प्रसंग ताजा था। अरुण कमलजी ने स्मरण करवाया, उन्होंने निर्लिप्त भाव से सुन लिया, इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। अब वे इन सब से ऊपर उठ चुके थे। उन्होंने अपनी सेविका से कहा कि हमारा एक फोटो लो। वे हमारे बीच में बैठे और चित्र लिया गया। हमने चाय पी, अंत में उनके चरण स्पर्श किए और नीचे आए। अरुण कमलजी ने कहा कि आज की यह भेंट तो अ‍साधारण है- नामवरजी इतना खुलकर अपने अतीत को कम स्मरण करते हैं।
हिंदी में माहौल शुरू से ही कुछ ऐसा बना कि परंपरा और आधुनिकता में ही छत्तीस का आँकड़ा हो गया। यह नासमझी थी। दरअसल परंपरा ही अपनी निरंतरता में आधुनिक भी होती है और जो परंपरा अपनी निरंतरता में आधुनिक नहीं होती वह सही मायने में परंपरा नहीं है। नामवरजी की आधुनिक आलोचना परंपरा की निरंतरता का विस्तार और पल्लवन है। परंपरा में असहमति को भी अच्छा नहीं मानने का चलन हिन्दी में रहा, लेकिन असहमति भी परंपरा की निरंतरता का ही हिस्सा है। परंपरा असहमति से ही जीवंत और पुनर्नवा रह पाती है। यदि असहमति नहीं है, तो परंपरा ठहर जाएगी और यह परंपरा नहीं रहेगी। नामवरजी के तमाम आलोचना कर्म में इसीलिए असहमति भी निरंतर है। खास बात यह है कि कई जगह तो वे अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी से भी असहमत होते हैं।  
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हुई नामवरी सुबह की सांझ….
हिन्दी के शीर्षस्थ शोधकार-समालोचक नामवर सिंह (जन्म: 1 मई 1927- मृत्यु: 19 फ़रवरी 2019) को युवा लेखिका अर्पिता राठौर की भावांजलि। सम्पा.
 
वर्तमान ‘साहित्य और आलोचना’ के युग पुरुष ‘दूसरी परंपरा की खोज’ कर ‘हिंदी में अपभ्रंश का योग’ जता कर ‘कविता की ज़मीन, ज़मीन की कविता’ को ‘कविता के नए प्रतिमान’ प्रदान करते हैं| आज उनका जाना भले ही एक युग का अंत हो लेकिन जब तक इस ज़माने में अभिव्यक्ति का प्रश्न बना रहेगा तब तक नामवर सिंह भी हमारे बीच मौजूद रहेंगे|
समकालीन जगत के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद भी नामवर जी की लेखनी में दृढ़ता है| एक ऐसी दृढ़ता जो अपने समय को और अपने समय के साहित्यकारों को तो चुनौती देती ही है, साथ ही उन चुनौतियों का समाधान भी लेकर आती है| या यूं कहें कि ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ से अस्मिता की खोज करने वाले ‘बकलम खुद’ आलोचकों के मध्य स्वयं प्रतिपक्ष खड़ा करते हैं और ‘वाद विवाद संवाद’ के ज़रिए अपने तर्क शास्त्र से साहित्य जगत को हतप्रभ कर देते हैं। एक अन्वेषी के रूप में नामवर जी की दृष्टि उन अनछुए आयामों पर भी जाती है जो साहित्य जगत में नवीन परिभाषा की मांग करते हैं। वे ‘भावबोध’, ‘तनाव’, ‘द्वंद्वात्मक प्रणाली’,  ‘बहुलतावाद’, ‘सपाटबयानी’ जैसे नए शब्द तो गढते ही हैं, पर साथ ही कुछ सामान्य शब्दों में अद्भुत रंग सम्मिश्रित कर उन्हें अपनी आलोचना का एक अहम हिस्सा बनाते हैं। इसीलिए यहां यह कहना आवश्यक है कि जिस प्रगतिशीलता और मानवतावाद की परिकल्पना हज़ारी प्रसाद द्विवेदी करते हैं, उसमें समय के साथ जो विकृतियां शामिल होती गई हैं उस पर डॉ. नामवर सिंह पहले चोट करते हैं और फिर प्रगतिशीलता के नए मुहावरे भी गढ़ते हैं।
इतिहास और आलोचना के समन्वय से निर्मित नामवर सिंह, हर युग और उसकी हर परिस्थिति को तब तक कुरेदते हैं जब तक उसका मूल कलेवर सामने ना आए। इसीलिए छायावाद के संदर्भ में नवीनतम दृष्टि लाने वाले वे पहले आलोचक बनते हैं  जो उसको परत-दर-परत खोल कर उसकी वास्तविकता को हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं। जब वे कहते हैं- “छायावाद का स्थायित्व उसके व्यक्तिवाद में नहीं, उसकी आत्मीयता में है, काल्पनिक उड़ान में नहीं आत्मप्रसार में है……… दृष्टिकोण में नहीं दृष्टि में है…”1- तो यहां यह बात केवल छायावाद तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि व्यापक अर्थ में एक ऐसा वाक्य बन जाता है जो संपूर्ण साहित्य को समझने का एक विवेक विकसित करता है, एक ऐसा विवेक जो किसी पूर्वाग्रह से रहित हो। मौखिक परंपरा को आगे बढ़ा आलोचना के नए अफसाने गढ़ने वाले नामवर सिंह यदि किसी के प्रति सबसे अधिक प्रतिबद्ध हुए हैं तो केवल और केवल अपने समय के प्रति। उस समय को ही केंद्रित करते हुए वे लेखकों और वादों के पुनर्प्रतिष्ठापन के पक्षधर रहे हैं। वे बात करते हैं ‘रिअडैप्टेशन’ की,  मांग उठाते हैं इतिहास के पुनर्लेखन की, एक ऐसा इतिहास जो पारंपरिक रूप से चली आ रही औपनिवेशिक दृष्टि से कोसों दूर हो।
नामवर सिंह के साथ साथ एक नया युग अपने कदम बढ़ा रहा था। इस युग में एक ओर पंचवर्षीय योजना की विफलता झलकती है, तो दूसरी ओर यहां वैश्विक स्तर पर दो महागुटों की टकराहट की तस्वीरें है, कहीं विचारधाराओं में प्रतिस्पर्धा जारी है तो कहीं आंतरिक द्वंद्व की आहट महसूस होती है। ऐसे दौर के साथ नामवर जी हाथ तो मिलाते हैं पर उसके साथ कभी समझौता नहीं करते। वे तो उन रास्तों में पैठ बनाते तमाम अंतर्विरोधों में भी नई राहे खोजते हैं।
विचार दृष्टि अथवा प्रतिमानों के प्रति प्रतिबद्ध आलोचक उनके बाद शायद ही कोई दूसरा हुआ होगा। युगबोध और भावबोध  के बीच समन्वय करने वाले आलोचक नामवर सिंह ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ जैसे शब्दों को साहित्य की परिधि से दूर ही रखते हैं। उनके लिए साहित्य की अपनी कुछ रूढ़ियां हैं, कुछ प्रतिमान हैं जिनके आधार पर या तो कोई रचना खरी उतरती है या नहीं। इन सब के बीच नामवर सिंह इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि समकालीन जगत में साहित्य के प्रतिमानों में बदलाव की आवश्यकता है। समय की इस ज़ोर जरूरत के चलते नामवर जी की सफलता भी तभी है जब आज का आलोचक उस दूसरी परंपरा के मध्य में से किसी नई परंपरा का अन्वेषण करे जो अपने युगबोध के साथ  तालमेल बैठा पाए।
तमाम विरोध और समर्थन के बावजूद भी नामवर जी तटस्थता के पक्षधर रहे हैं। वे अस्मिता की खोज को अभिव्यक्ति की खोज मानते हैं जिसके चलते नई कहानी के संदर्भ में निर्मल वर्मा कृत ‘परिंदे’ को और नई कविता के संदर्भ में ‘मुक्तिबोध’ को सही ढंग से समझने और समझाने का प्रयास करते हैं। वे एक ऐसे आलोचक के रूप में हमारे समक्ष आते हैं जो लगातार अपने समय के साथ तर्क की कसौटी पर बहस करता है। ‘वाद विवाद संवाद’ में उनकी यही बात सामने आती है जहां वे समकालीन भाषा, साहित्य और आलोचना कर्म की बुनियादी समस्याओं को उजागर करते हैं। यहाँ एक ओर वे प्रगतिशील साहित्यधारा में अंधलोकवादी रुझान पर विचार करते हैं तो वहीं दूसरी ओर नव्यऔपनिवेशीकरण जैसी गंभीर समस्या के प्रति भी चिंतनशील रहते हैं। अतः नामवर सिंह एक ऐसी नवीन परंपरा का नाम है जो अपने समय के साथ संवाद स्थापित करती हुई  कॉलोनियल डिसकोर्सेज से अलग खड़ी होती है।
19 फरवरी, 2019 की सांझ सृष्टि की क्रूरता लिये हुए आई और आधुनिक हिंदी आलोचना के एक युग को लील गई,। इससे नामवरी आलोचना का ‘वाद विवाद सम्वाद’ थम-सा गया….
“नभ के नीले सूनेपन में
हैं टूट रहे बरसे बादर
जाने क्यों टूट रहा है तन !
बन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर
जाने क्यों टूट रहा है मन !
घर के बर्तन की खन-खन में
हैं टूट रहे दुपहर के स्वर
जाने कैसा लगता जीवन !
(नामवर सिंह)
(नोट : यह लेख मेरा नहीं है अर्थात् अपना नहीं अपने लिए है।-गोलेन्द्र पटेल)

 

केदारनाथ सिंह : चौपाल विशेषांक

सृष्टि में केदारनाथ सिंह' इसी नाम से 'चौपाल' का विशेषांक आया है। प्रिय कामेश्वर प्रसाद सिंह ने बहुत महत्वपूर्ण और बड़ा काम किया है। मेहनत दिखती है।व्यवस्थित ढंग से सामग्री प्रस्तुत की गयी है। कवि गुरू केदार की स्मृतियाँ, मित्र मंडली में केदार, घर-परिवार में केदार, कृतियों में कवि केदार, कवि का संसार, कसौटी पर कविता-एक कविता:एक आलोचक, कविताओं में कवि, धरोहर और पत्र शीर्षक अनेक खंडों में लगभग छह सौ पृष्ठ की सामग्री। अपने संपादकीय में कामेश्वर प्रसाद सिंह केदारनाथ सिंह को याद करते हुए कहते हैं कि वे अब भी हैं, अपने होने की बहुत-बहुत सी जगहों पर, उतने ही जीवंत, उतने ही सजग, उतने ही उत्फुल्ल। होकर भी न होने की तरह और न होकर भी होने की तरह।
कामेश्वर जी की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि यह अंक उनके न होने के बाद उनको महसूसने के रोमांचक आमंत्रण की तरह है। यूं तो केदारनाथ सिंह पर बातें तब तक होती रहेंगी, जब तक कविता पर बातें होती रहेंगी लेकिन इस अंक में उन्हें और उनकी कविता को समझने की एक बड़ी और व्यापक कोशिश दिखाई पड़ती है। इसमें एक आलेख मेरा भी है।
जड़ों की ओर वापसी के लिए 'विद्रोह'
सुभाष राय
   यथास्थिति, जड़ता, विनाश और तबाही के विरुद्ध न केवल मनुष्य बल्कि प्रकृति भी निरन्तर सक्रिय रहती है। धरती पर जीवित-अजीवित, नदी, जंगल, पहाड़, वनस्पति तथा जीवन के अन्य अनगिनत रूपों में आंतरिक स्तर पर एक उद्वेलन, आंदोलन चलता रहता है, जिसकी दिशा हमेशा बदतर से बेहतर, असुंदर से सुंदर की ओर रहती है। कई बार बदलाव की यह प्रक्रिया अचानक शुरू होती है और बहुत तीव्र गति से आगे बढ़ती है, एक ‘विद्रोह’ की शक्ल में। ‘विद्रोह’  शब्द जीवन में तमाम अर्थों में व्यक्त होता आया है। दुनिया भर की अनेक भाषाओं में लेखकों, कवियों, रचनाकारों के लिए यह एक आकर्षक और सम्मोहक शब्द रहा है।  इस पर सैकड़ों कविताएं लिखी गई हैं, इसे तरह-तरह से समझने और व्याख्यायित करने की कोशिशें भी की गई हैं। केदारनाथ सिंह जी ने भी इसी शब्द शीर्षक से एक कविता लिखी है, ‘विद्रोह।' आइए पहले वह कविता पढ़ते हैं-
आज जब घर में घुसा/ तो वहां अजब दृश्य था/ सुनिये-मेरे बिस्तर ने कहा/ यह रहा मेरा इस्तीफा/मैं अपने कपास के भीतर/ वापस जाना चाहता हूँ। उधर कुर्सी और मेज का/ एक संयुक्त मोर्चा था/ दोनों तड़पकर बोले-/ जी हां, अब बहुत हो चुका/ आप को सहते-सहते/ हमें बेतरह याद आ रहे हैं/ हमारे पेड़ और उसके भीतर का/ वह जिंदा द्रव/ जिसकी हत्या कर दी है आप ने। उधर आलमारी में बंद/ किताबें चिल्ला रही थीं / खोल दो-हमें खोल दो/ हम जाना चाहती हैं अपने / बाँस का जंगल और मिलना चाहती है/ अपने बिच्छुओं के डंक/ और सांपों के चुंबन से। पर सबसे अधिक नाराज थी/   वह शाल, जिसे अभी कुछ दिन पहले/  कुल्लू से खरीद लाया था/ बोली-साहब/  आप तो बड़े साहब निकले/ मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से पुकार रहा है/  और आप है कि अपनी देह की कैद में/  लपेटे हुए हैं मुझे।  उधर टीवी और फोन का बुरा हाल था/  जोर-जोर से कुछ कह रहे थे वे/  पर उनकी भाषा मेरी समझ से परे थी/  कि तभी नल से टपकता पानी तड़पा-/  अब तो हद से गयी साहब/ अगर सुन सकें तो सुन लीजिए/  इन बूंदों की आवाज-/  कि अब हम यानी आपके सारे के सारे कैदी/ आदमी की जेल से मुक्त होना चाहते हैं।  अब कहां जा रहे हैं-/ मेरा दरवाजा कड़का/ जब मैं बाहर निकल रहा था।
नल से टपकता पानी केदारनाथ सिंह से जो कहना चाहता है, उसे समझने के लिए पहले हमें धरती की ओर, उसकी पीड़ा की ओर झांकना होगा। पृथ्वी अपनी धुरी से खिसकने के कगार पर है। जब भी वह अपनी धुरी से खिसकती है, अनतिक्रम्य विनाश लेकर आती है। बड़ी-बड़ी सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं, सतह के नीचे दफन हो जाती हैं। असंख्य जीवन, वनस्पतियां विलुप्त हो जाते हैं, धरती के गर्भ में उनकी काली जली हुई स्मृति भर रह जाती है। क्या सचमुच पृथ्वी करोड़ों वर्षों से चल रही एक बैलगाड़ी की तरह है, जिसकी धुरी को मरम्मत की जरूरत है? परन्तु धरती तो अपनी मरम्मत खुद ही करती रहती है, फिर ऐसी स्थिति क्यों आयी? वह अपनी मरम्मत करने में विफल क्यों हो रही है? क्या हुआ है जो नींद में पहाड़ रात-रात भर रोते रहते हैं? क्यों नदी अब घर में नहीं रह गयी है, कहां है जो दिखती नहीं? बाघ को क्यों डर लगता है कि एक दिन वह भी मार डाला जायेगा? सचमुच बहुत खतरनाक स्थिति है। तापमान बढ़ रहा है। समुद्र दिन-ब-दिन गरम हो रहा है। उसकी लहरें तटों से टकरा रही हैं। किनारे बसे खूबसूरत शहरों में प्रवेश कर रही हैं। पिछले कुछ दशकों में समुद्र के सीने पर बसे कई सुंदर द्वीप या तो डूब गये या डूबने के कगार पर है। बारिश अब मौसम के रास्ते नहीं आती। मौसम कई बार आसमान में टकटकी लगाये गुजर जाता है और एक बूंद भी नहीं गिरती। कई बार इतनी बारिश होती है कि गांव के गांव बह जाते हैं, डूब जाते हैं, सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। आंधियां भी अब पहले जैसे कहां आती हैं। लेकिन वे जब भी आती हैं, विनाश की अनगिनत तस्वीरें छोड़ जाती है। जंगल रहे नहीं। जितने बचे हैं, वहां रहने वाले जीवों के लिए पर्याप्त नहीं। उन्हें जब जंगल में खाने को नहीं मिलता, वे बस्तियों की ओर निकल आते हैं, तबाही मचाते हैं। पेड़ों में पहले जैसे फूल नहीं आते, फल नहीं लगते। परागण करने वाले छोटे-छोटे जीव, कीड़े-मकोड़े धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं। आधी सदी पहले सुबह-सुबह पक्षियों का जो संगीत सुनायी पड़ता था, अब कहां रहा। आदमी मंगल पर या अन्य ग्रहों पर अपनी पृथ्वी ढृूढ़ रहा है। सोचता है कि पृथ्वी पर प्राकृतिक कारणों से या मनुष्य की करतूतों से कभी बड़ा धमाका हुआ तो वह उड़कर दूसरे ग्रह पर चला जायेगा। यहां पृथ्वी पर पानी अब दुर्लभ होने के कगार पर है। केदारनाथ सिंह यह सारा विनाश, सारा ध्वंस बहुत उदास मन से देखते हैं। उसे अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं। उन्हें पता है कि उन्हें तो इसी धरती पर रहना है, चिड़ियों की उड़ान के साथ। इसलिए वे उम्मीद नहीं छोड़ते। कभी किसी बिंदु पर शायद मनुष्य को समझ में आ जाय। वह अपने मूल की ओर लौट चले।
मनुष्य समझता है कि उसने बहुत प्रगति कर ली है। उसने पहाड़ों को रौंदकर उन पर सड़कें बिछा दी हैं। नदियों को बांध लिया है। जंगलों को सूखी कटी लकड़ियों के ढेर में, घर में सजाने वाली चीजों में बदल दिया है। अपनी सुख सुविधाओं के हजार साधन जुटा लिये हैं। मौसम के विरुद्ध खुद को सुरक्षित रखने की तरकीबें ढूंढ ली है। समुद्र को कैद कर लिया है। पृथ्वी के गर्भ को चीरकर सारे कीमती संसाधन निकाल लिये हैँ और उसे अपने विकास की रफ्तार तेज करने में लगा दिया है। वह इस अंधाधुंध विकास के परिणाम को नहीं देख पा रहा। उसे चिंता नहीं है कि विकास के जहरीले धुएं ने ओजोन की परत में जो छेद कर दिया है, उससे सूरज की जानलेवा किरनें जमीन तक पहुंच रही है। उसे चिंता नहीं कि उसने हरे जंगलों को काटकर वहां जिस तरह कंक्रीट के बदरंग जंगल खड़े कर दिये हैं, उससे जंगल के असली रहवासियों का घर छिन गया है और तमाम जीवों एवं वनस्पतियों का जीवन खतरे में पड़ गया है। प्रकृति संतुलनधर्मा है। उसके साम्राज्य में हर जीवन की, हर वनस्पति की अपनी भूमिका है। सब अन्योन्याश्रित है। सब एक दूसरे के काम आते हैं। किसी एक का होना किसी दूसरे के होने का कारण है। यह बिल्कुल न समझा जाये कि कुछ जीव खत्म हो जायेंगे तो भी ऐसे ही चलने वाला है। यह एक चेन की तरह है, जो एक जगह भी टूटी तो पूरी बिखर जायेगी। एक तितली मरती है तो कई पौधों में फल नहीं आते। केदारनाथ सिंह की कविताएं प्रकृति, पृथ्वी और जीवन के पक्ष में खड़ी है। वे धरती पर जीवन के संतुलन के सूत्र को ठीक से समझते हैं। वे इस मर्म को जानते हैं कि सबका रहना जरूरी है, किसी का भी अस्तित्व किसी अन्य के विरुद्ध नहीं है और सभी मिलकर एक विराट अस्तित्व की रचना करते हैं। उस अस्तित्व में कोई भी सूराख धरती की धुरी को डांवाडोल कर सकता है, प्रकृति के संतुलन को डगमगा सकता है। वे इसीलिए बार-बार जड़ों की ओर, मूल की ओर, बीज की ओर लौटने की हिमायत करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि सबसे बड़ी बाधा बाजार है। वह बीच में खड़ा है, रास्ते में खड़ा है। वे चुपके से बाजार को खबर हुए बगैर चावल से, नमक से और पुदीने से मिलना चाहते हैं। उन्हें कविता और बाजार की हल्की सी टक्कर भी रोमांचित करती है। वे गांव से शहर आते हैं पर शहर में चैन से रह  नहीं पाते। लौटकर बार-बार गांव आते हैं। वे जानते हैं कि गाँव विकास के ध्वंस से अभी भी थोड़े बहुत बचे हुए है। अभी भी वहां जीवन है, प्रेम है, हवा है, पानी है। सांस है बची हुई। उन्हें विकास की शुष्क ऊंचाई पसंद नहीं। यह कितना खतरनाक है कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर जिस महान ऊंचाई तक जाती है, वहां कोई नहीं रहता। वे समझ रहे हैं कि एक विकसित और सभ्य कहे जाने वाली दुनिया सर्वाधिक क्षुद्र, असहनशील, स्वार्थी और असभ्य होगी। वह  केवल मनुष्य के लिए ही नहीं समूची धरती के लिए खतरनाक होगी, सबको नष्ट कर देगी।
केदारजी अपने चारों ओर बहुत ही गहरी नजर रखते हैं। जब विस्थापन का दौर हो, जब सारी चीजें अपनी जड़ों से छूट रही हों, जब सबके सब अपनी पहचान खो रहे हों, तब मनुष्य का भी अपने मूल यानी मनुष्यता से विलग हो जाना लाजिमी है । यह होता रहा है, आज भी हो रहा है। विकास की गति जितनी तेज हुई है, मनुष्य उतना ही लालची, पाखंडी और दंभी हो गया है। उसे अपने सिवा किसी और की परवाह नहीं है। उसने संवेदना, करुणा, प्रेम, दया सब कुछ छोड़ दिया है।  उसने अपने मूल को तिलांजलि दे दी है। वह किसी के दुख से दुखी नहीं होता, किसी की पीड़ा से आहत नहीं होता। उसने अपनी सामूहिकता, सामाजिकता खो दी है। वह नितांत अकेला हो गया है और इसीलिए बहुत ही क्रूर, अमानवीय और असहिष्णु भी। वह अपनी जड़ों से अलग ही नहीं हुआ है, उस पर कुल्हाड़ी भी चला रहा है। वह नहीं जानता कि जिस दिन जड़ें पूरी तरह कट गयी, वह इस तरह गिरेगा कि फिर कभी उठ नहीं पायेगा। केदारनाथ सिंह इस संकट को समझ रहे हैं, इसीलिए वे अपनी जड़ों की बात करते हैं। लोक की, गांव की, नदी, पहाड़, जंगल की, पानी की, हवा की बात करते हैं। प्रख्यात आलोचक अरुण होता लिखते हैं, 'केदार जी की कविता अपनी जड़ों से उत्पन्न होती है। उससे ऊर्जा पाती है और उसके बल पर समय और समाज को विनिर्मित करती है। नागार्जुन, त्रिलोचन की तरह केदार जी का अपनी जड़ों के प्रति अपार लगाव है। जनपदीय चेतना से संबद्धता है। इसीलिए रोज-ब-रोज हमारी आंखों से दिखने वाली चीजें जो अक्सर हमसे छूट जाती हैं। यानी जिन पर नजर नहीं जाती, उन्हें यह कवि बड़ी शिद्दत के साथ प्रस्तुत कर देता है। उनमें छिपे जीवन रहस्य के मर्म को उद्घाटित कर देता है। ऐसा कर पाना कवि के अपनी मिट्टी, जमीन, जल, नदी, पेड़-पौधों से गहरी संपृक्तता का परिणाम है।'
स्पष्ट जीवन दर्शन और रचना दृष्टि के बिना कोई बड़ा कवि नहीं हो सकता। केदारजी को समग्रता में पढ़ने पर पता चलता है कि उनकी अभिव्यक्ति में जहां जीवन से गहरे सरोकार की गूँज है, वहीं एक रचनात्मक दार्शनिक सौंदर्य की निरन्तरता भी है। वे गांव से शहर आ जाते हैं लेकिन गांव उनके भीतर बना रहता है। वह शहर में रहते हैं पर गांव में बसते हैं। जब भी समय मिलता है, गांव लौटते हैं। उनके समय में भी बाजार गांव को बदल रहा था। इस बदलाव में गांव की संस्कृति से, जीवन से बहुत सारी चीजें गायब हो रही थीं। केवल गांव आकर वे संतुष्ट नहीं होते। वे गांव में पैदा हो रही रिक्ति को बार-बार देखते हैं और गायब हो रही चीजों की ओर लौटते हैं। तुलसी का चौरा, वहां दीप जलाना, चिड़ियों का आंगन में उतरना, चहचहाना, पेड़ों पर या घरों में उनका घोंसला बनाना, कुआ-बावड़ी, यह कोई नास्टैल्जिया नहीं बल्कि एक समृद्ध, भरी-पूरी संस्कृति को सूखते हुए देखने की तरह है। केदारनाथ सिंह जानते थे कि स्थानीयता ही हमारी पूंजी है और यह स्थानीयता  हमारी बोली में है, हमारी कृषि संस्कृति में, हमारे ग्राम्य जीवन के राग-रंग में, उल्लास में, उत्सव में है। ये सब ख़त्म हुआ तो हमारे पास कुछ बचेगा नहीं, हमारी अपनी धरती भी नहीं। बाजार लगातार लोकल को ग्लोबल से विस्थापित करने की कोशिश में जुटा है। वह गांव के खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा, गीत-संगीत, इन सबको अपने आकर्षक किन्तु खोखले उपादानों से रिप्लेस कर देना चाहता है। यह पूंजी का षडयंत्र है और इसके खिलाफ हम तभी लड़ पायेंगे, जब अपनी समृद्ध स्थानीयता को सुरक्षित, संरक्षित रख सकेंगे। इसी अर्थ में केदार जी हमेशा उस तरफ लौटते हैं, जहां से चीजें गायब से रही है। इसे यथास्थिति बरकरार रखने के प्रयास के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम अपनी संस्कृति के साथ आधुनिकता को स्वीकार करें। आधुनिक होने का मतलब अपनी लंबी स्मृति से, अपनी उत्सवधर्मी संस्कृति से कट जाना नहीं है बल्कि परिष्कार के साथ उसका स्वीकार है। हम अंग्रेजी छोड़ें लेकिन अपनी बोली-भाषा से हीन होकर नहीं। हम नये स्वाद, नयी गंध को स्वीकार करें लेकिन अपने गांव के स्वाद, गंध की अस्वीकृति की कीमत पर नहीं। अगर हमने ऐसा नहीं किया तो हमारी स्मृति, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन की बहुलता नष्ट हो जायेगी। यह एक ऐसा बुनियादी स्वर है जो केदार जी के व्यक्तित्व में है, उनके कृतित्व से भी। आशय यह है कि एक सतत विद्रोह उनके कविता संसार में मौजूद है। ‘विद्रोह’ कविता में उसका एक खास रूप ज्यादा मुखरता से व्यक्त हुआ है।
मनुष्य ने अपने पर्यावरण को जितना नुकसान पहुंचाया है, उसकी भरपाई लगभग नामुमकिन है। वह प्रकृति के साथ सहचर की भूमिका में रहता तो उसे कोई कठिनाई नहीं होती। धरती पर जितने भी जीव है, प्रकृति ने उन सबके लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराया है। अगर वे सभी अपनी जरूरत भर का प्रकृति से लें तो धरती को, पर्यावरण को कोई क्षति नहीं होगी। प्रकृति अनंतकाल तक सबका पोषण करती रहेगी। लेकिन दुखद बात यह है कि मनुष्य ने, समृद्ध देशों ने अपने लिए संसाधनों का जखीरा जमा करने, अपने ऐश्वर्य के साधन जुटाने के लिए प्रकृति का जो अंधाधुंध दोहन किया है, उससे पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचा है। केदार जी घर में, घर के बाहर इसे लगातार महसूस करते हैं। कविता में वे इसे अनोखे ढंग से कलात्मक नाटकीयता के साथ प्रस्तुत करते हैं। एक दिन जब वे अपने ही घर में घुसे तो एकदम अलग दृश्य था। उनको सवालों की बौछार का सामना करना पड़ा। मेज, कुर्सी, दरवाजे, पुस्तकें, नल का पानी, शाल, फोन सभी अपनी बात, अपनी पीड़ा कहना चाह रहे थ्रे। कहना तो वे बहुत दिनों से, वर्षोँ से, दशकों से चाह रहे थे लेकिन किन्हीं कारणों से कह नहीं पाते थे। पीड़ा, यातना सहने की भी एक सीमा होती है। एक दिन हद हो गयी। उनसे रहा नहीं गया और विद्रोह कर दिया सबने एक साथ। केदार जी मानवीकरण को इस कविता में एक खास उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं। घर में रखी सारी चीजें जीवित वस्तुओं की तरह व्यवहार करती है। वे केदारजी को घेर लेती है। शायद वे स्वयं ही स्वयं के प्रश्नों से घिरा हुआ महसूस करते हैं। प्रकृति को क्षतिग्रस्त करने का अपराध चाहे जिसने किया हो, जिन व्यक्तियों ने, जिन समूहों ने, जिन देशों ने, एक संवेदनशील मनुष्य के नाते कवि स्वयं को भी उस अपराध के लिए दोषी पाता है, स्वयं को उस अपराध में शामिल देखता है। उसने ऐसा अपराध क्यों किया, अब भी क्यों कर रहा है, उसके पास कोई जवाब भी नहीं है। वैसे तो यह एक छोटी सी कविता है लेकिन इसकी अर्थ संभावना इसे बहुत दूर तक ले जाती है। यह एक वैश्विक प्रतिरोध की कविता की शक्ल में खड़ी दिखती है। शब्दों के छोटे आयतन के भीतर विराट अर्थ दीप्ति के कारण यह एक बड़ी और समृद्ध कविता का रूप धारण कर लेती है। केदार जी की कविताओं पर बहुत बातें हुई है। उनकी छोटी-छोटी कविताएं अपने अकाट्य अर्थ वैभव के कारण बार-बार उद्धृत की जाती रही हैं लेकिन ‘विद्रोह’ को कभी इस नजीरिये से नहीं देखा गया। इसमें जिस तरह प्रकृति एवं पृथ्वी के साथ मनुष्य के छल को उजागर किया गया है, वह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस कविता में पर्यावरण के खिलाफ क्रूरता से भिड़ंत के लिए एक बड़ा आंदोलन बनने की सामर्थ्य है।
केदार जी की कविताओं पर बात करते हुए प्रख्यात आलोचक अरूण होता ‘विद्रोह’ की भी चर्चा करते हैं और कहते हैं, 'इस कविता के विद्रोह के मूल में अपनी जड़ से मिलने की प्रबल आकांक्षा है। कवि ने अपनी संदेवना को व्यापक बनाते हुए यह चिन्हित किया है कि विद्रोह का एका केवल मनुष्य में ही नहीं होता है बल्कि विस्तर, कुर्सी, मेज, किताबें, शाल, टीवी, नल से टपकती पानी की बूंदों में भी होता है। मनुष्य के कारागार से सभी मुक्त होना चाहते हैं। सचमुच उम्दा कविता है यह।' ‘विद्रोह’ कविता इतनी सघन और मार्मिक अभिव्यक्ति से सम्पन्न है कि एक पाठ में इसका बहुत कम हिस्सा खुलता है। कई बार पढ़ने पर यह कविता खुद ही खुद को खोलती जाती है। कविता घर की वस्तुओं से कवि की सामान्य बातचीत से शुरू होती है। सवाल बढ़ते जाते हैं और गंभीर होते जाते हैं। कविता खत्म होने के पहले की एक महत्वपूर्ण पंक्ति पर नजर डालें, कितना तीखापन है उसमें।
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
बूंदों की आवाज-
कि हम सब आपके सारे के सारे कैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं
यहां ‘आप’ और ‘मनुष्य’, इन दो शब्दों में अर्थ विस्तार का एक अद्भुत संदर्भ है। पहले ‘आप’ केदार जी के लिए संबोधित है लेकिन दूसरी पंक्ति में ही केदार जी केवल आप नहीं रह जाते, वे पूरी मनुष्य जाति का प्रतिनिधि बन जाते हैं। आदमी ने सारी धरती को एक जेल में बदल दिया है। जंगल, पहाड़, नदी, प्रकृति की सारी संपदा का वह अपना आर्थिक वैभव बढ़ाने में क्रूरतापूर्वक इस्तेमाल कर रहा है। आधुनिकता और सभ्यता के नाम पर चल रहे विश्वव्यापी उद्योग निर्माण अभियान में प्रकृति के इन उपादानों का भयंकर दुरुपयोग हो रहा है। प्रकृति इतनी पीड़ा में है कि उसके तमाम हिस्से मनुष्य के चंगुल से छूटकर अपनी जड़ों की ओर लौट जाना चाहते हैं। पानी अपने स्रोत से अलग रहकर भी उससे अलग नहीं महसूस करता, मेज, कुर्सी खुद को पेड़ से अलग नहीं समझते, विस्तर खुद को कपास में देखता है, किताबें बांस के जंगल और विच्छुओं के डंक, सांपों के दंश से खुद को जोड़कर देखती हैं। शाल को याद आ रहा है वो दुम्बा भेड़ा, जिसके शरीर से ऊन उतारा गया है। कितने खूबसूरत तरीके से केदार जी इन सबको जीवित देखते हैं और महसूस करते हैं कि वे सब अपने मूल से अलग होकर दुखी हैं और वापस लौट जाना चाहते हैं। कवि उन्हें मनुष्य के कैदी के रूप में देखना है। कैदी को उसकी इच्छा के विरुद्ध जेल में रखा जाता है। घर में सजाकर रखी गई किसी भी वास्तु की इच्छा नहीं है इस तरह कैद में बने रहने की। हर कैदी की तरह वे भी मुक्त हो जाना चाहती हैं। कोई रास्ता नहीं दिखने पर वे ‘विद्रोह’ पर आमादा हो जाती हैं। पहले केदार जी अपने लिए उनके संबोधन को ‘आपके कैदी’ के रूप में इस्तेमाल करते हैं लेकिन अगली ही पंक्ति में अपने निजत्व को विसर्जित करते हुए कविता को एक बड़े फलक पर ले जाने के लिए ‘मनुष्य की कैद’ कहकर अपनी पीड़ा को सफलतापूर्वक एक वैश्विक धरातल पर ला खड़ा करते हैं। कवि संवाद की स्थिति में नहीं है, सुनने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि वह इस पीड़ा को उसके घनीभूत रूप में भीतर तक महसूस करता है। इन पंक्तियों में देखिये-
जी,हां अब बहुत हो चुका
आप को सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़ और उनके भीतर का
वह जिंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है आपने
.... ....... ...... ...... .....
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से पुकार रहा है
और आप हैं कि अपने देह की कैद में
लपेटे हुए हैं मुझे
हम सभी जानते है किस तरह जंगलों को उजाड़ा गया है, किस तरह हरे पेड़ काटे गये हैं, किस तरह जिंदा उनकी हत्या की गयी है। निर्जीव समझी जाने वाली वस्तुओं के माध्यम से गहरे तक संवेदित करने वाली बातें कहलवाकर केदार जी किसी को भी बेचैन कर देते हैं। 'यह रहा मेरा इस्तीफा', ‘दोनों तड़प कर बोले’, ‘किताबें चिल्ला रही थी', 'खोल दो हमें खोल दो,' ‘दुम्बा भेड़ा कब से पुकार रहा है’, ‘नल से टपकता पानी तड़पा,’ 'दरवाजा कड़का' पूरी कविता में क्रियाओं का पीड़ा और गुस्से से भरा हुआ जो सख्त मिजाज दिखता है, वह यह बताने के लिए काफी है कि धरती और प्रकृति के निरन्तर विनाश से कवि कितना दुखी है, कितना क्रुद्ध है। यह कविता जितना कहती है, उसका कई गुना अनकहा छोड़ देती है। कवि घटनाओं और व्यौरों में न जाकर, तथ्यों के ढेर पर लोटने की जगह एक विराट हाहाकार को इस तरह के शब्द सूत्रों में जड़कर पेश करता है कि पढ़कर कोई भी दहल जाये। मुक्तिबोध ने कहा है, कविता केवल ज्ञान से नहीं होती, केवल संवेदना से भी नहीं। ज्ञान की आभा से कोई भी चमत्कृत कर सकता है। इसी तरह केवल संवेदना निष्क्रिय रुदन का कारण बन सकती है। कविता के लिए ज्ञान के साथ संवेदना और संवेदना के साथ ज्ञान की जरूरत होती है। ‘विद्रोह’ की बात करुं तो यह कविता ज्ञान और संवेदना दोनों से लैस है, इसीलिए केवल झकझोरती नहीं, बल्कि कार्रवाई के लिए उकसाती भी है।
केदार जी की कवितई में कला का बड़ा योगदान है। वे जानते थे कि बिना कला के कोई भी कविता संभव नहीं है क्योंकि यह केवल बयान नहीं है, वह लेख या कहानी भी नहीं है। वे कला को कविता पर छा जाने की भी इजाजत नहीं देते थे, उसे अभिव्यक्ति के एक कौशल की तरह ही इस्तेमाल करते थे। ‘विद्रोह’ में भी केदार जी की कलात्मक प्रतिभा का सौंदर्य देखा जा सकता है। कवि अपने घर की चीजों के साथ मृत चीजों जैसा व्यवहार नहीं करता। वह उन्हें जीवंत, बतियाती हुई प्राणवान देखता है। तभी तो वह विस्तर, कुर्सी, मेज, किताब, फोन, टीवी के दुख को, उनकी यातना को और इस तरह समूची प्रकृति की तड़प को सुन पाता है, समझ पाता है। उनके क्रोध, उनकी मुक्ति स्वप्न को महसूस कर पाता है। यह कोई शिकायत नहीं, यह ‘विद्रोह’ है। केदार जी के साथ रहते रहते वे सब आजिज आ गये हैं। केदार जी यानी मनुष्य उनका इस्तेमाल तो करता है लेकिन उनकी पीड़ा नहीं समझता। कभी उनसे पूछता नहीं कि वे कैसे हैं, किसी पीड़ा में तो नहीं है। सब कुछ अनसुना कर दिये जाने पर वे एक साथ धावा बोलते हैं, सवालों की बौछार कर देते हैं। वे महसूस करते हैं कि उन्हें मार दिया गया है। जब बिस्तर कपास में था, मेज-कुर्सी पेड़ में थे, किताबें बांस वन में थीं, शाल दुम्बा की त्वचा पर थी, टीवी और फोन अपने प्राकृतिक स्रोत में थे, बूंदें धरती में, बादल में, नदी में थीं, वे सभी मुक्त थीं, प्रकृति के जीवन द्रव्य से सीधे जुड़ी हुई लेकिन मनुष्य ने उन्हें उनकी सहजता और नैसर्गिकता से काटकर न केवल अपनी कैद में डाल दिया है बल्कि इस तरह प्रकृति को भी क्षत-विक्षत किया है। केदार जी स्वयं ही उनकी तरफ से सवाल करते हैं और उन्हीं सवालों से स्वयं घिर जाते हैं। घबड़ा जाते हैं, सोचते हैं, निकल जाने को। अभी तो निकल लो यार, स्थिति गंभीर है, थोड़ी देर बाद आना। तब तक शायद इनका गुस्सा शांत पड़ जाए। यह नाटकीयता उन्होंने स्वयं रची है। कविता को प्राणवान और प्रभावशाली बनाने के लिए वे पीछे लौटते हैं और निकल जाना चाहते हैं लेकिन दरवाजा उन्हें टोकता है...
अब कहां जा रहे हैं -
मेरा दरवाजा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था।
यह दरवाजे का टोकना इस कविता की नाटकीयता का शिखर है। ऐसा लगता है कि जिन्हें मनुष्य ने कैद किया हुआ है, वे मिलकर मनुष्य को ही कैद कर लेंगे। खतरा है, दरवाजा कहीं खुद को बंद न कर ले। दरवाजे का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। यह समूचे मनुष्य जगत से प्रकृति का, धरती का प्रश्न है। बताओ, तुमने अपने छोटे स्वार्थ के लिए मुझे इतना नुकसान क्यों पहुंचाया? इस सवाल का जवाब तो देना ही पडेगा। इससे बचना मुश्किल है। कोई रास्ता नहीं भाग निकलने का। जवाब नहीं दिया तो दरवाजा तय करेगा कि उसे खुलना है या बंद हो जाना है। प्रकृति का दोहन जिस खतरनाक स्थिति तक पहुंच गया है, अगर मनुष्य ने इस पूरी प्रक्रिया को पलटने की नहीं सोचा तो धरती पर जीवन के विकास के सारे दरवाजे बंद हो जायेंगे। क्या दुनिया सुन रही है यह आवाज, यह सवाल या बचकर निकल जाना चाहती है? अब बचकर निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं है। धरती को, प्रकृति को, जीवन की विविधता को,





Monday, 20 April 2020

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इतिहासदृष्टि : सम्प्रदायिक ,जातिवादी / वर्णवादी है या नहीं - गोलेन्द्र पटेल


//कोरोना काल में शुक्ल पर बवाल क्यों//
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औपनिवेशिक काल का यह यह चित्र उस चित्र कुछ ऊपरी हिस्से से मेल खाता है जिसमें आम्बेडकर भी फिरंगी टाई और कोट से शुक्ल की तरह लैस हैं।पहनावे का अंतर सिर्फ इतना है कि आंबेडकर नीचे फूल पेंट पहनते थे और शुक्ल धोती। इसलिए आंबेडकर और शुक्ल दोनों
पर औपनिवेशिक पाश्चात्य चेतना का घर प्रभाव है।उपनिवेशवाद हमारी भलाई के लिए नहीं आया था,अब यह जगजाहिर है।
      शुक्ल में प्राच्य जातिवादी साम्प्रदायिक चेतना का भी प्रभाव है।लेकिन इस पर कमोवेश बहस लंबे समय से होती रही है।फिर इसमें नया क्या है?नया है देश काल और उसका प्रोडक्ट।।    
         कोरोना काल में बड़ी मानवता की हिफाजत के बजाए जात धरम पर बहस सत्ता और मीडिया कर रहे हैं और हम उसके असर के शिकार मनीषा हो चुके हैं।मुझे दुख है कि हिंदी के ढेर सारे पढ़े लिखे बौद्धिक हंसुआ के विवाह में खुरपी के गीत जैसी कहावत के ट्रैक में फंस गए हैं।यह अमानवीय कर्म भी है।
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      बात चली है तो ध्यान रखिए कि यह सनसनी साहित्य में सोशल डिस्टेंसिंग और क्वारन्टीन की उपज है। एकेडमिक जगत पाखण्ड और अवसरवाद के लॉक डाउन का शिकार लंबे समय से है। इसलिए नियति के ये दिन आने ही थे।
         हिंदी के कुएं में पानी जैसे जैसे कम होता जाएगा,मेढ़क की टर्र टर्र बढ़ती जाएगी।सच तो यह है कि आलोचना और शोध से छत्तीस के आंकड़े रखनेवाले के एकेडमिक कुल का विस्तार लगातार होता रहा और उसको हमारे योग्य आचार्यों ने बेशर्म बढ़ावा दिया।आज उसकी कूट फसल यह पीढ़ी है।
        जब शोध और आलोचना के नाम पर घर धुलाई,कार पोछाई,ओझाई और  चेलाई ही करवानी है तो उसका सह उत्पाद ऐसा ही होगा।।    
         हिंदी के शीर्ष आलोचकों ने विश्व ज्ञान को साधा था,तब कुछ दे गए।जो दे गए चाहे शुक्ल-द्विवेदी हों या नामवर-मैनेजर उनकी जड़ें प्राच्य और पश्चिम की ज्ञान और साहित्य परम्परा में सतर्क ढंग से धंसी हुई है।
      दुनिया के दो समकालीन मार्क्सवादी  आलोचक टेरी ईगलटन और फ्रेडरिक जेमेसन को पढ़िए तो पता चलता है कि वे अपनी परंपरा से कितने जुड़े हैं।
         असहमति का साहस और सहमति का विवेक दोनों हमारे आसपास रणनीति के तहत नष्ट किए गए हैं। जातिवादी और कुलीन ब्राह्मण समुदाय को शुक्ल जी पसंद हैं तो यह दोनों का दुर्भाग्य है और इसी कारण दलित को शुक्ल जी से घृणा है तब भी दोनों की बदनसीबी है।
         वस्तुतः नवकुल नक्काल की भड़ैती ही उनका साहित्यिक शगल है।एक कहावत है यथा गुरु तथा चेला/मांगे गुड़ दे ढेला।
     मुझे तो इस बहस में सनसनी,उत्तेजना,अनपढपन और तथ्यहीनता ही ज्यादा दिख रही है।जिस बहस का मूल ही अनपढपन और अवसरवादी सनसनाहट का शिकार हो उसके अतिरिक्त विस्तार का नतीजा रिक्त ही होगा।
         कोरोना महामारी की विकट घड़ी में जिस तरह सत्ता जात धरम की राजनीति से मानवता को घायल कर रही है,उसी का बाई प्रोडक्ट यह उथला एकालाप है।जहाँ देखिए हिंदी के मास्टर और एकेडमिक जगत से परमकुंठा पालने वाले कथित लेखक मच्छर गान गाए जा रहे हैं।न राग न लय, फिर भी प्रलय!!!...


जो रचनाएँ पूजनीय हो चुकी हैं उनको शिक्षण संस्थाओं में नहीं पढ़ाना चाहिए। शिक्षा तर्क करने और विचार व्यक्त करने का अधिकार देती है। जो लोग किसी रचना को पूजनीय मानते हैं उनको यह पहल जरूर करना चाहिए। क्योंकि शिक्षण संस्थानों में पढ़ाये जाने पर बार-बार उनकी उपादेयता पर प्रश्न जरूर होंगे।

जिस समय देश के स्वंतत्रता सेनानी एकजुट होकर साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ रहे थे, स्वंतत्रता आंदोलन निर्णायक भूमिका की तरफ कदम बढ़ा रहा था उस समय गाँधी और अंबेडकर में आजादी के स्वरूप को लेकर बहस भी चल रही थी। अंबेडकर अंग्रेजों के साथ ही जातिवादी और सामंतवादी ताकतों के शोषण से वंचित समाज की मुक्ति चाहते थे। ये वही ताकतें थी जिन्होंने वंचित समाज का सदियों से शोषण किया था। गाँधी इसको घर की आंतरिक समस्या मानकर बाद में इसके समाधान की बात कर रहे थे। अंबेडकर वंचित समाज की इस गुलामी को अंग्रेजों से मुक्ति के साथ ही खत्म करने की बात कर रहे थे और निरंतर वंचित समाज की आवाज बनकर संघर्ष कर रहे थे। उस समय यह देखना जरूरी हो जाता है कि साहित्य का आलोचक, इतिहासकार और चिंतक वंचित समाज के बीच से निकलकर आने वाली रचनाओं को किस रूप में देख रहा था। खासकर कबीर और रैदास की रचनाओं के प्रति उसका क्या रुख था। ये वही रचनाएँ हैं जो वंचित समाज की संवेदना और पीड़ा से परिचित कराती हैं। यदि चिंतक और इतिहासकार की दृष्टि में इनकी कविताएँ कविता की सीमा रेखा के बाहर नजर आती हैं तो उस इतिहास और चिंतन पर प्रश्न खड़े करना जरूरी हो जाता है। यदि उस समय का चिंतक और इतिहासकार वंचित समाज के कवियों से नहीं टकरा रहा है और उनकी संवेदना से कोई सरोकार नहीं स्थापित कर रहा है तो स्वाभाविक है कि वह नये तरह के साम्राज्यवाद को रचने की कोशिश कर रहा है। आज यह जरूरी हो जाता है कि उस समय के इतिहास और चिंतन का फिर से सचेत मूल्यांकन किया जाय और उसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किया जाय। इससे किसी को किसी तरह का परहेज नहीं होना चाहिए।
बी एच यू बना बौद्धिक हॉटस्पॉट : इसे क्वारंटाइन की जल्द जरूरत है
एक वरिष्ठ हैं सुनते हैं बड़े गरिष्ठ हैं| कविता पर आज तक एक वाक्य भी नहीं लिखा हैं और नई सदी की कविता का इतिहास बनाने चले हैं| यह कोरोना में ही सम्भव है कि जो कविता का एक वाक्य न लिखा हो, वह कविता का इतिहास बनाने निकल पड़ा हो|

दूसरे वरिष्ठ के सशक्त प्रतिरोधी कनिष्ठ हैं| ऐसे कनिष्ठ हैं कि अभी दो दिन शोध में आए हुआ है, और मुझे नहीं लगता कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को ठीक से पढ़ा भी है, लेकिन करें क्या कि प्रासंगिकता के लिए शुक्ल जी से ही टकरा गए|
अब ये भी कोरोना में ही सम्भव है कि बिना किसी को पढ़े बिना किसी को जाने आप किसी से टकरा जाएं...अब भाई बदनाम तो होंगे क्या नाम भी न होगा?
दुर्भाग्य यह है, कि जैसे कई नौजवान कवि कोरोना काल में वरिष्ठ का शिकार हो गये, वैसे ही कई वरिष्ठ रचनाकर इस काल में कनिष्ठ के शिकार हो गए|
मुझे इसकी चिंता ज्यादे हो रही है कि यदि ये लॉकडाउन आगे बढ़ा तो हिंदी सहित्य का इतिहास किस रूप में समृद्ध किया जाएगा? यह देखने की बात होगी|
सम्भव है कि हिंदी साहित्य को बचाने के लिए हिंदी के प्रशासनिक ढाँचे के लोग आगे आएं और इस लॉक डाउन को जल्दी ख़त्म कराने का प्रयास करें| अन्यथा हिंदी का ऐसा इतिहास लिखा जाएगा जो भूतो न भविष्यत होगा|
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास पर  जब विचार-विमर्श , आरोप -प्रत्यारोप, आलोचनाएँ हो ही रहीं हैं, तो कुछ विचार-विमर्श इसपर भी हो कि - आचार्य शुक्ल के इतिहास में कितनी ऐसी नई अन्तरदृष्टियाँ हैं, जिनकों लेकर नये-नये शोध , नये-नये विचार विमर्श और आलोचनाओं के मार्ग प्रशस्त होते हैं । मुझे तो आचार्य शुक्ल से ज़्यादा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'हिन्दी
साहित्य की भूमिका' में ऐसे नये शोध ,आलोचना,विमर्श के मार्ग मिलते हैं... मैं हिन्दी के विद्वानों को इस पर अपने विचार रखने के लिये आमन्त्रित करता हूँ।
फेसबुक पर शुक्ल जी पर अब कुछ लिखना उमड़ते उदधि में कागज की नाव तैराने जैसा हो गया है,पर वादा किया था, सो जाति के प्रश्न पर भी अपनी बात रखूंगा |
साथियों, शुक्ल जी वैसे ही हिंदी साहित्येतिहास का पक्का ढांचा खड़ा कर रहे थे जैसे उसी दौर में म. प्र.द्विवेदी हिंदी भाषा का पक्का ढांचा बना रहे थे |यह दौर हिंदी भाषा और साहित्य के स्थिरीकरण का है, तो स्वाभाविक है कि इसका लक्ष्य 'शिक्षित जनता 'को ही होना था,ठेठ अपढ लोक में बहावमिलना था, ठहराव  नहीं|यह हमें जानना चाहिए कि शुक्ल जी के यहां 'शिक्षित जनता' का मतलब सीधे तौर पर परंपरागत ज्ञानधारी होने से था यानी वेद-पुराणादि के ज्ञान से था, और तरह की पढ़ाई उनकी 'शिक्षित जनता 'में शामिल नहीं है|और उस समय वेदपुराण काव्यशास्त्र  कौन जानता था? ब्राह्मण या चंद उच्चसोपानिक वर्ण के लोग|इसीलिए शुक्ल जी का पूरा दृष्टि पथ वर्णव्यवस्था की इन्हीं ऊंची जातियों को लेकर खड़ा हुआ|
दूसरे वे भारतीय रसवाद के गहरे असर में थे|रसवाद आस्वाद को महत्व देता है |आस्वादन के लिए 'सहृदय'होना अनिवार्य है |सहृदयता की भी शर्त वही 'शिक्षित जनता 'पूरी करती थी |इसीलिए जातिव्यवस्था( चिंतामणि भाग-4)जैसा विचारोत्तेजक निबंध लिखने वाले शुक्ल जी लोक की 'प्रकृति भावधारा' की ताकत को समझते हुए (द्वितीय उत्थान :काव्यखंड) भी पुराणवादी शिक्षित जनता की पूंछ नहीं छोड़ पाते|
शुक्ल जी ने जो कवियों की जाति का जरूर से जरूर उल्लेख किया है यह उन्हें साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में शिवसिंह सेंगर के यहां से मिलता है |जो लोग यह समझते हैं कि शुक्ल जी का इतिहास मौलिक है, वे कुछ नहीं जानते|शुक्ल जी ने इतिहास लेखन का पैटर्न ग्रियर्सन,मिश्रबंधु और बंग्ला के इतिहास लेखक दिनेशचंद सेन से लिया, शोध पूरा का पूरा मिश्रबंधुओं के विनोद व सभा की रिपोर्ट से लिया, हां आलोचना दृष्टि में मौलिकता है|कवि परिचय लिखते लिखते शुक्ल जी जो मूल्यवान टिप्पणियां करते चलते हैं यह आदत 'शिवसिंह सरोज' में मुसलसल मौजूद है, भले सरोजकार का बोध शुक्ल जी के स्तर का नहीं है |
उन्हें जातिवादी कहते समय यह भी ध्यान देना चाहिए कि मिश्रबंधु और शुक्ल जी का इतिहास दोनों नवजागरण की ही उपज हैं, नवजागरण ऊपरी तौर पर जाति वगैरह का खण्डन करता है, पर उसके झंडाबरदार चूंकि ऊंची जातियों से आये थे, सो उनके दृष्टिपथ में वर्णवाद का घुसना स्वाभाविक था, जो शुक्ल जी के साथ भी हुआ|यही कारण है कि शुक्ल जी की दृष्टि उलझी हुई नजर आती है |उनके भक्त और आलोचक दोनों अपनी सुविधानुसार कोटेशन तलाश सकते हैं |मेरे विचार से सांप्रदायिक नहीं थे,और जहां हुए हैं, वहां औपनिवेशिक दृष्टि का शिकार होने के नाते हुए हैं |वे अपनी समझ में जातिवादी नहीं हैं पर संस्कार,परंपरा और अपने द्वारा बनाई गयी साहित्य की मान्यताओं की फँसरी के जहां जहां शिकार होते हैं  जातिवादी या कहें वर्णवादी हो उठते हैं|
इसमे किसी को सन्देह नही होना चाहिए कि रामचंद्र शुक्ल जी की जो किताब है खासकर "इतिहास " की वो किताब आउटडेटेड हो चुकी है। उन्होंने इस किताब में जो भी कोलॉज निर्मित किये हैं। वो अब कोई मायने नही रखता। लेकिन फिर भी वो कौन सी मज़बूरी है, या मानसिकता है, जो इसे "अकेडमिक दुनिया" से अलग नही कर पा रहा।अब आप ये भी कह सकते हैं कि बहुत सारी किताब लिखी जा चुकी है आप उन्हें पढ़िए, लेकिन यकीन मानिए अगर इस किताब से अकेडमिक दुनिया मे प्रश्न नही पूछा जाता तो मैं इसे नही पढता। क्योंकि इनकी जो किताब है, "हिंदी साहित्य का इतिहास" उसका कोई भी आधार अब स्थायित्व नही रखता। सभी निर्मूल हो चुका है। अगर आप चाहे तो इस ग्रन्थ को "मरे हुए लाश" के तरह पीठ पर रखकर चल सकते हैं। लेकिन अकेडमिक दुनिया से इस किताब को बाहर किया जाना चाहिये। आप विहाग वैभव के 2 से 3 शब्दों के आधार पर एक विक्षिप्त मानसिकता के बता सकते हैं तो उसी आधार पर शुक्ल जी को ये क्यो नही कह कहते कि उनका भी इतिहास ग्रन्थ "जातिवादी" और "वर्गवादी" मानसिकता के तहत लिखा गया। शुक्ल जी कंही पर भी जब कवियों का  परिचय देते है तो वह  "जाति" और वर्ग जैसे शब्दों को जोड़ देते हैं।
कुछ उदाहरण देता हूँ। ऐसे उदाहरण बहुतेरे है।
-- भूषण को लेकर उनका वक्तव्य
  उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई।"
--हिंदू जाति के प्रतिनिधित्व कर्ता के रुप में
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी ख़ुशामद नहीं कह सकता।"
--  "वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"
--कबीर के बारे में
कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।"
--सूरदास को लेकर
   "इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।"
   आखिर कोई बतायेगा ये किस प्रकार की इतिहास दृष्टि है।मैं तो उनकी इस किताब को "विसंगतियों का इतिहास" कहना पसन्द करूँगा। जो ज्यादा उपयुक्त है।अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि उस समय की परिस्थिति कुछ और थी। तो ठीक है इस समय और परिस्थिति अब बदल चुकी है,और इनकी यह किताब भी अप्रसांगिक साबित हो चुकी है। हाँ ये कर सकते हैं कि इसे "मरे हुई लाश" के तरीके उपयोग किया जा सकता है। जो ज्यादा उपयुक्त है।
अब वर्तमान में एक नई इतिहास दृष्टि, एक नई सोच की तहत सहित्योइतिहास की  रचना की जानी चाहिए! आप कह सकते हैं कि किताबें बहुत सारी लिखी गई है। लेकिन मैं फिर से कहूँगा कि जो भी इतिहास लिखी गई है आज तक वह सिर्फ इनकी ही विचारों का पिष्टपेषण किया गया है। उसमें उनका कोई मौलिक विचार या, स्वतन्त्र तरीका नही है सोचने का, वह इन्ही के माध्यम से अपनी बातों को शुरू करते हैं।अंत तक इन्ही का खंडन-मण्डन करते चले जाते हैं। आज तक सारे सहित्योइतिहास के रचनाकारों ने यही किया। जिनके कारण ही उनकी ये किताब आज तक अपनी अस्तित्व बनाई हुई है। अगर वो एक नई तरीके से सोचते तो आज ये "आउटडेटेड" किताब पढ़ने की आवस्यकता नही होती।
कुछ बयान सुनवाता हूँ आपको! जो पहले ही इनके सामने हथियार डाल देते हैं। बिल्कुल नतमस्तक हो जातें है।
-- रामचन्द्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। ..... फिर भी शुक्ल जी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना घबराता है, पंडित सिर हिलाता है।
ऐसे बहुतेरे कथन आपको मिल जायेगा। आप ढूंढ सकते हैं। चतुर्वेदी जी से लेकर बच्चन तक, रामविलास से लेकर नामवर जी तक। बहरहाल इसका एकमात्र कारण है इनके विचारों से ही "खण्डन-मण्डन"  की  शुरआत करना।
एक और नमूना देखिये-रामस्वरूप चतुर्वेदी जी का
--"आचार्य का विषय प्रतिपादन जैसा गुरु गम्भीर है उसके बीच उनका सूक्ष्म व्यंग्य और तीव्र तथा पैना हो गया है, घनी-बड़ी मूँछों के बीच हल्की मुस्कान की तरह।"
कौन सी गुरु गम्भीरता कौन --हाँ
---आदिकाल के साथ शुद्ध और अशुद्ध साहित्य के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---भक्तिकाल जो जनवादी चेतना का उभार था उसके साथ ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---रीतिकाल में श्लीलता-अश्लीलता के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---छायावाद के साथ रहस्यवाद के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
छायावाद के बाद बालें प्रकरण पर कुछ भी कहना बेईमानी होगी चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य का।
इनके इतिहास की जो किताबों है। उसका दूसरा संस्करण 1940 है। तो निश्चित है। उसके बाद की इतिहास इसमें कम मिलने वाली है।मुमकिन ही नही है।यानि कि करीबन 60 वर्षों का इतिहास गायब, फिर भी इतना ज्यादा प्रासंगिक होना! कितना आश्चर्यजनक है न! मैं आखरी बात कहना चाहूँगा की यह किताब "आउटडेटेड" हो चुकी है। आपको इसे जिस खोह-कंदरा में डालना हो डालें, लेकिन अकेडमिक दुनिया से इसे बाहर करें।
क्योंकि यह मेरे समकालीन नही ठहरता। समकालीन का अर्थ प्रसांगिकता से लें!इस प्रकार, भले ही रैदास और कबीर मध्यकाल के कवि ठहरते हैं। और दुष्यन्त कुमार और राजेश जोशी आधुनिक काल के लेकिन अगर कबीर के विचार हमारे लिए प्रसांगिक है तो भले ही वह मध्यकाल के हों लेकिन वह "मुझे" मेरे समकाल नज़र आते हैं। और अगर राजेश जोशी का विचार पुरातनपंथी है। तो भले ही वह आधुनिक काल के कवि हैं लेकिन वो मेरे लिए समकालीन नही है और अप्रसांगिक भी।
उसी प्रकार कुल-मिलाकर मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि रामचंद्र शुक्ल की जो इतिहास की किताब है वो "आउटडेटेड" हो चुकी है।
वह सभी दृष्टियाँ जो इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम युग्म में देखती है,वे साम्राज्यवादी है और एक हद के बाद साम्प्रदायिक भी हो जाती है।और उस भाषाई समाज में जिसके पुरखों ने इस नयी परिस्थिति के शुरुआती दौर में ही बहुत ही रेडिकल स्टैंड लेते हुये कहा था - "न वेदे न कुराने", ‘‘ना मस्जिद ना देहुरा।‘‘गोरखनाथ की इस विचार-परम्परा को ही कबीर ने ‘ना हिन्दू ना मुसलमान‘ , ‘दोनों राह न पायी‘ जैसी टेक के साथ अनेक बार दोहराया है। इन दोनों कवियों को याद करना इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के टकराव एवं सम्मिलन की ये प्रारंभिक आवाजें हैं।इन आवाजों के साथ बाद के और विशेष रूप से साम्राज्यवाद के खिलाफ ल़डाई के दौर में विभिन्न अनुशासनों में लिख रहे लोगों ने किस तरह का रिश्ता बनाया है,उसका मूल्यांकन होना ही चाहिए।गोरख और कबीर के लिए इन्सान होना पहली शर्त है।उनके लिए समानता और बन्धुता वह बुनियाद है जिसपर भावी मनुष्यता की गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो सकती है।नाथ और निर्गुण पंथ में कही गईं इस तरह की बहुत सी बातों के साथ आप किस तरह से संवाद करते है इससे आपकी पक्षधरता निर्धारित होगी।किसी विचारक का मूल्यांकन करते हुए यह भी देखा जाना चाहिए कि उसका समय-सन्दर्भ कैसा है और साथ ही वह अपने समय की अग्रगामी विचार सरणियों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है।
चुनौती :                                                                            
पिछले दो दशकों में हिन्दी साहित्य  में  हुए पाँच उल्लेखनीय/महत्वपूर्ण/श्रेष्ठ शोधकार्य   : भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभागों में हुए शोधकार्य का नाम बताइये, जिन्हें आज और आने वाले समय में हिन्दी पाठकों,विद्यार्थियों,शोधार्थियों  के समक्ष प्रतिमान के रूप में पेश किये जा सकें।
रामचंद्र शुक्ल का इतिहास साम्प्रदायिक और जातिवादी इतिहास है।
हिन्दी अकेडमिया को तुरंत इसका विकल्प खोजना चाहिए और इस इतिहास को इतिहास के संग्रहालय में डाल देना चाहिए।
बात जरा अगम्भीर लगे तो भी।
हम सब यह तो मानते ही होंगे कि पढ़ने का असर हमारी चेतना पर होता है। हमारी चेतना का निर्माण हमारे पढ़ने-समझने से भी विकसित होता है। यानी अगर हमारी चेतना प्रगतिशील मूल्यों में भरोसा रखने वाली बनी है तो निश्चित ही उसमें कबीर,रैदास,प्रेमचंद,निराला,मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों का योगदान होगा। (जिन्हें नाम छूटने के आरोप लगाना है वे अपने हिसाब से और नाम जोड़ सकते हैं। वे स्वतंत्र हैं।) इसी तरह जो दक्षिणपंथी लोग हैं वे अपने ढंग की किताबें पढ़ते हैं।
अब मूल बात कि क्या आप में से कोई किसी ऐसे व्यक्ति का नाम बता सकता है जो शुक्ल का इतिहास पढ़कर साम्प्रदायिक या जातिवादी हुआ हो?.....


यह उपरोक्त लेख मेरा नहीं है अर्थात् अपना नहीं अपने लिए है
-युवा कवि गोलेन्द्र पटेल!

Saturday, 18 April 2020

हिंदी आलोचना के अमर आचार्य【हिंदी आलोचना के भगवान 】 : आचार्य रामचंद्र शुक्ल





इसमे किसी को सन्देह नही होना चाहिए कि रामचंद्र शुक्ल जी की जो किताब है खासकर "इतिहास " की वो किताब आउटडेटेड हो चुकी है। उन्होंने इस किताब में जो भी कोलॉज निर्मित किये हैं। वो अब कोई मायने नही रखता। लेकिन फिर भी वो कौन सी मज़बूरी है, या मानसिकता है, जो इसे "अकेडमिक दुनिया" से अलग नही कर पा रहा।अब आप ये भी कह सकते हैं कि बहुत सारी किताब लिखी जा चुकी है आप उन्हें पढ़िए, लेकिन यकीन मानिए अगर इस किताब से अकेडमिक दुनिया मे प्रश्न नही पूछा जाता तो मैं इसे नही पढता। क्योंकि इनकी जो किताब है, "हिंदी साहित्य का इतिहास" उसका कोई भी आधार अब स्थायित्व नही रखता। सभी निर्मूल हो चुका है। अगर आप चाहे तो इस ग्रन्थ को "मरे हुए लाश" के तरह पीठ पर रखकर चल सकते हैं। लेकिन अकेडमिक दुनिया से इस किताब को बाहर किया जाना चाहिये। आप विहाग वैभव के 2 से 3 शब्दों के आधार पर एक विक्षिप्त मानसिकता के बता सकते हैं तो उसी आधार पर शुक्ल जी को ये क्यो नही कह कहते कि उनका भी इतिहास ग्रन्थ "जातिवादी" और "वर्गवादी" मानसिकता के तहत लिखा गया। शुक्ल जी कंही पर भी जब कवियों का  परिचय देते है तो वह  "जाति" और वर्ग जैसे शब्दों को जोड़ देते हैं।
कुछ उदाहरण देता हूँ। ऐसे उदाहरण बहुतेरे है।
-- भूषण को लेकर उनका वक्तव्य
  उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई।"
--हिंदू जाति के प्रतिनिधित्व कर्ता के रुप में
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी ख़ुशामद नहीं कह सकता।"
--  "वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"
--कबीर के बारे में
कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।"
--सूरदास को लेकर
   "इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।"
   आखिर कोई बतायेगा ये किस प्रकार की इतिहास दृष्टि है।मैं तो उनकी इस किताब को "विसंगतियों का इतिहास" कहना पसन्द करूँगा। जो ज्यादा उपयुक्त है।अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि उस समय की परिस्थिति कुछ और थी। तो ठीक है इस समय और परिस्थिति अब बदल चुकी है,और इनकी यह किताब भी अप्रसांगिक साबित हो चुकी है। हाँ ये कर सकते हैं कि इसे "मरे हुई लाश" के तरीके उपयोग किया जा सकता है। जो ज्यादा उपयुक्त है।
अब वर्तमान में एक नई इतिहास दृष्टि, एक नई सोच की तहत सहित्योइतिहास की  रचना की जानी चाहिए! आप कह सकते हैं कि किताबें बहुत सारी लिखी गई है। लेकिन मैं फिर से कहूँगा कि जो भी इतिहास लिखी गई है आज तक वह सिर्फ इनकी ही विचारों का पिष्टपेषण किया गया है। उसमें उनका कोई मौलिक विचार या, स्वतन्त्र तरीका नही है सोचने का, वह इन्ही के माध्यम से अपनी बातों को शुरू करते हैं।अंत तक इन्ही का खंडन-मण्डन करते चले जाते हैं। आज तक सारे सहित्योइतिहास के रचनाकारों ने यही किया। जिनके कारण ही उनकी ये किताब आज तक अपनी अस्तित्व बनाई हुई है। अगर वो एक नई तरीके से सोचते तो आज ये "आउटडेटेड" किताब पढ़ने की आवस्यकता नही होती।
कुछ बयान सुनवाता हूँ आपको! जो पहले ही इनके सामने हथियार डाल देते हैं। बिल्कुल नतमस्तक हो जातें है।
-- रामचन्द्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। ..... फिर भी शुक्ल जी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना घबराता है, पंडित सिर हिलाता है।
ऐसे बहुतेरे कथन आपको मिल जायेगा। आप ढूंढ सकते हैं। चतुर्वेदी जी से लेकर बच्चन तक, रामविलास से लेकर नामवर जी तक। बहरहाल इसका एकमात्र कारण है इनके विचारों से ही "खण्डन-मण्डन"  की  शुरआत करना।
एक और नमूना देखिये-रामस्वरूप चतुर्वेदी जी का
--"आचार्य का विषय प्रतिपादन जैसा गुरु गम्भीर है उसके बीच उनका सूक्ष्म व्यंग्य और तीव्र तथा पैना हो गया है, घनी-बड़ी मूँछों के बीच हल्की मुस्कान की तरह।"
कौन सी गुरु गम्भीरता कौन --हाँ
---आदिकाल के साथ शुद्ध और अशुद्ध साहित्य के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---भक्तिकाल जो जनवादी चेतना का उभार था उसके साथ ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---रीतिकाल में श्लीलता-अश्लीलता के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---छायावाद के साथ रहस्यवाद के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
छायावाद के बाद बालें प्रकरण पर कुछ भी कहना बेईमानी होगी चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य का।
इनके इतिहास की जो किताबों है। उसका दूसरा संस्करण 1940 है। तो निश्चित है। उसके बाद की इतिहास इसमें कम मिलने वाली है।मुमकिन ही नही है।यानि कि करीबन 60 वर्षों का इतिहास गायब, फिर भी इतना ज्यादा प्रासंगिक होना! कितना आश्चर्यजनक है न! मैं आखरी बात कहना चाहूँगा की यह किताब "आउटडेटेड" हो चुकी है। आपको इसे जिस खोह-कंदरा में डालना हो डालें, लेकिन अकेडमिक दुनिया से इसे बाहर करें।
क्योंकि यह मेरे समकालीन नही ठहरता। समकालीन का अर्थ प्रसांगिकता से लें!इस प्रकार, भले ही रैदास और कबीर मध्यकाल के कवि ठहरते हैं। और दुष्यन्त कुमार और राजेश जोशी आधुनिक काल के लेकिन अगर कबीर के विचार हमारे लिए प्रसांगिक है तो भले ही वह मध्यकाल के हों लेकिन वह "मुझे" मेरे समकाल नज़र आते हैं। और अगर राजेश जोशी का विचार पुरातनपंथी है। तो भले ही वह आधुनिक काल के कवि हैं लेकिन वो मेरे लिए समकालीन नही है और अप्रसांगिक भी।
उसी प्रकार कुल-मिलाकर मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि रामचंद्र शुक्ल की जो इतिहास की किताब है वो "आउटडेटेड" हो चुकी है।
दीपशिखा सिंह Deepshikha Singh के इस लिखे से मेरी सहमति है। हिंदी आलोचना को शुक्ल-द्विवेदी की बाइनरी से बाहर ले जाने की जरूरत है। हिंदी एकेडमिया में बहुत सारे जरूरी लिखे गए से जान बूझकर वाकिफ़ नहीं कराया जाता। ऐसा कराया जाना चाहिए। संत काव्य पर परशुराम चतुर्वेदी का काम भी कम महत्व का नहीं है। लेकिन मुझे नहीं याद की 'उत्तर-भारत की संत परम्परा' का नाम भी मुझे किसी शिक्षक ने एमए तक बताया हो। टिप्पणी देखें।
हिंदी की विश्वविद्यालयी शिक्षण पद्धति को लेकर मेरे मन में बार-बार यह सवाल खड़ा होता है कि वास्तव में विद्यार्थियों को एक सचेत आलोचकीय दृष्टि प्रदान करने में यह पूरी प्रक्रिया सक्षम है या फिर हम एक ऐसे सँकरे गलियारे में बंद कर दिये जाते हैं, जिसका एक रास्ता रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ खुलता है और दूसरा हजारी प्रसाद द्विवेदी के यहाँ।
यदि हम कक्षाओं में हिंदी आलोचना की स्थिति को देखें, तो सहज ही यह पाते हैं कि हमें रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना कर्म के बीच ही उलझाकर रख दिया गया है। ज़्यादा से ज़्यादा हम इस क्रम में आगे बढ़ते हुए रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तक पहुँच पाते हैं। लेकिन हिंदी साहित्य के विविध कालखण्डों के विश्लेषण और मूल्यांकन के क्रम में रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा निर्मित ढाँचे को तोड़ नहीं पाते हैं। यहाँ तक कि एमए तक अधिकांश विद्यार्थियों को यह भी पता नहीं चल पाता है कि इनके समकालीन अन्य आलोचकों ने भी कुछ महत्त्वपूर्ण लिखा- पढ़ा है, जो हमारी दृष्टि को विस्तार दे सकता है, बाद वालों को तो छोड़ ही दीजिए।
जैसे निर्गुण भक्ति का अध्ययन करते हुए हम शुक्ल जी से होते हुए द्विवेदी जी पर आकर रुक जाते हैं। कभी भी कक्षाओं में पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जैसे अध्येताओं की दृष्टि की चर्चा तक नहीं की जाती। इसी तरह से हर बार कहा जाता है कि हिंदी साहित्य के आदिकाल पर बहुत कम काम हुआ है। लेकिन जो कायदे का काम हुआ है, उनमें हजारी प्रसाद द्विवेदी से आगे बढ़कर कभी भी विद्यार्थियों से रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, धर्मवीर भारती आदि की पुस्तकों की चर्चा भी नहीं की जाती।
इस तरह से हिंदी साहित्य के अनेक हिस्सों की चर्चा की जा सकती है, जिनपर अनेक आलोचकों ने छोटा- बड़ा लेकिन महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेकिन शुक्ल- द्विवेदी के दायरे में हम इतना सिमटकर रह गए हैं कि इनके दृष्टिकोण पर उठने वाले कुछ जायज सवालों से हम टकराना नहीं चाहते। एक लंबी प्रक्रिया के तहत हमारी दृष्टि इतनी संकुचित कर दी जाती है कि कई बार इन पर उठने वाले सवालों पर ईशनिंदा की तर्ज पर हमले होने लगते हैं।
हमने विश्वविद्यालयी शिक्षण पद्धति में भी मुख्यधारा और हाशिया बना रखा है और आज भी हमारा मन-मस्तिष्क इसकी इजाजत नहीं देता कि हाशिया भी मुख्यधारा हो सकता है या मुख्यधारा में शामिल हो सकता है। बार-बार एक ही पुस्तक को पढ़ने की दबावनुमा सलाह के पीछे कौन से पूर्वाग्रह काम करते हैं! बीए से लेकर रिसर्च करने तक और उसके बाद भी कोई एक ही पुस्तक क्यों पढ़ता रहे! हजारों पुस्तकें हैं, पूरी दुनिया खुली हुई है। सम्भव है कि किसी एक पुस्तक को पढ़ने पर किसी को हर बार कोई नई दृष्टि मिले, उसी तरह किसी को नहीं भी मिल सकती है। यह प्रक्रिया बहुत निजी है। किसी पुस्तक के संदर्भ में इसे सार्वभौमिक नहीं बनाया जाना चाहिए।
रामचन्द्र शुक्ल के 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में सिद्धों-नाथों, कबीर व अन्य संत कवियों से होते हुए निराला तक का क्या और कितना विश्लेषण किया गया है और ये विश्लेषण, इतिहासकार की किस दृष्टि के परिचायक हैं, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है। इसलिए इन पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को सार्थक दिशा देने की जरूरत है। साथ ही हमें पीछे मुड़कर विश्वविद्यालयी शिक्षण पद्धति के अपने अनुभवों का भी विश्लेषण करना चाहिए ।
यदि हिंदी विभागों ने हिंदी साहित्य के विविध कालखण्डों के अध्ययन- अध्यापन के दरमियान रामचन्द्र शुक्ल- हजारीप्रसाद द्विवेदी के साथ- साथ अन्य महत्वपूर्ण आलोचकों के कार्यों को भी शामिल किया होता, विद्यार्थियों को विविध पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया होता, उनपर पर्चे लिखवाये होते, कहने का आशय कि यदि हिंदी आलोचना को मुख्यधारा और हाशिया के रूप में नहीं बाँटा होता तो शायद ऐसी अतिरेकी प्रतिक्रियाएँ देखने को नहीं मिलती, जैसी समय- समय पर देखने को मिलती है। बल्कि सवाल भी वाजिब तरीके से उठते और उनपर सार्थक बहस होती।
सभ्यतागत विकास क्रमिक रूप में घटित होता है,अचानक कुछ भी नहीं होता। हजारी प्रसाद द्विवेदी को कोट कर सकते हैं 'भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास'।
लंबे समय से भारतीय समाज की सामाजिक-संरचना जिस ढांचे में चलती आई है वह ढांचा ब्राह्मणवाद/मनुवाद का ढांचा है। गोपेश्वर सिंह ने लिखा है मनुवाद/ब्राह्मणवाद का रूप हमेशा से एक जैसा नहीं रहा है। उसने जितना बाहरी दबाओं से खुद को बदला है उतना ही अपने भीतरी संवादों से भी। जिस तरह का सामाजिक-ढांचा 3-4शताब्दी में था वैसा ही शंकराचार्य के समय में नहीं रहा। शंकराचार्य के समय का ढांचा रामानंद और भक्त कवियों के यहां बदले हुए रूप में दिखाई देता है। उसी ब्राह्मणवादी/मनुवादी समाज व्यवस्था से निकले विवेकानंद और गांधी अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद आधुनिक ख़यालों के व्यक्ति हैं। प्रेमचंद,निराला,प्रसाद और रामचन्द्र शुक्ल जिस भावभूमि पर खड़े होकर विचार कर रहे थे आज का लेखक उससे आगे खड़ा होकर बात करता है। शुक्ल की कविता सम्बन्धी बहुतेरी मान्यताओं को मुक्तिबोध ने अपने लेखन के द्वारा खारिज किया है। 'अंधेरे में' कविता और  'एक साहित्यिक की डायरी' और 'नई कविता का आत्मसंघर्ष और अन्य निबंध' नामक किताब इस सम्बन्ध में पर्याप्त मदद करेगी। रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के मान और मूल्य को नामवर जी ने छायावादी संस्कार कहा है। 'कविता के नए प्रतिमान' किताब देखी जा सकती है। उन संस्कारों से मुक्त हुए बिना कविता के नए प्रतिमान तय नहीं किये जा सकते ऐसी उनकी मान्यता है। उससे आगे भी एक पूरी परम्परा है जो इसी तरह संवाद करते हुए आगे बढ़ी है।
एजेंडे के तहत किसी का विकल्प नहीं तलाशा जा सकता। विकल्प अपनी सभ्यता और संस्कृति से संवाद करते हुए ही विकसित होते हैं। विचार की दुनिया में दाख़िल-खारिज नहीं चलती। संवाद चलता है। संवाद करते हुए आगे बढ़ने की प्रवृत्ति हमेशा से प्रगतिशील मानी गई है।
इस विकासक्रम को आप दुनियाभर में हुई क्रांतियों के साथ भी जोड़कर देख सकते हैं। रेनेसॉ हो,आधुनिकता हो, दुनियाभर की तमाम औद्योगिक क्रांतियां हों,फ्रांस की राज्यक्रांति हो या रूस की बोल्शेविक कोई भी अचानक नहीं घटित हुई हैं। उनके पीछे एक लंबा वैचारिक संघर्ष और संवाद रहा है।
घोषणाएं तानाशाहों की निशानी हुआ करती हैं। जब हम इस देश के जड़ विचारों से लड़ रहे हैं तो हमें नए हथियार तलाशने की जरूरत है। नफरत का जवाब और नफरत नहीं है। झूठ को झूठ से नहीं पराजित किया जा सकता।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास पर  जब विचार-विमर्श , आरोप -प्रत्यारोप, आलोचनाएँ हो ही रहीं हैं, तो कुछ विचार-विमर्श इसपर भी हो कि - आचार्य शुक्ल के इतिहास में कितनी ऐसी नई अन्तरदृष्टियाँ हैं, जिनकों लेकर नये-नये शोध , नये-नये विचार विमर्श और आलोचनाओं के मार्ग प्रशस्त होते हैं । मुझे तो आचार्य शुक्ल से ज़्यादा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'हिन्दी
साहित्य की भूमिका' में ऐसे नये शोध ,आलोचना,विमर्श के मार्ग मिलते हैं... मैं हिन्दी के विद्वानों को इस पर अपने विचार रखने के लिये आमन्त्रित करता हूँ।
हिंदी बौद्धिकजगत में   विवेकहीनता किस तरह चरम पर है उसकी झलक लेनी हो तो बस एकबार हिंदी के महान आलोचक रामचन्द्र शुक्ल के बारे में विगत दो दिनों में लिखी गयी अधिकांश फेसबुक टिप्पणियों को चुपचाप पढ़ जाइए।अनैतिहासिकता किस कदर हिंदी के बौद्धिक जगत में घर बना चुकी है।इसके आपको साक्षात अनुभव चंद मिनटों में ही हो जाएंगे।
“ईश्वर साकार है या निराकार, लम्बी दाढ़ी वाला है या चार हाथ वाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजने वालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठाने वालों से, इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे। इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है, उनके संबंध में प्राचीन पौराणिक कथाएं और कल्पनाएं (छः दिन में सृष्टि की उत्पत्ति, आदम हौव्वा का जोड़ा, चौरासी लाख योनि इत्यादि) हैं, वे अब ढाल तलवार का काम नहीं कर सकतीं।”__रामचंद्र शुक्ल (चिंतामणि-३ / पृ. – १८१)
''जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है। इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक, यवन, यूची, हूण, मंगोल, आर्य तथा द्रविड़ रक्तों का मिश्रण है। जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य को स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है। इसके तथाकथित समर्थकों के किसी भी सदस्य द्वारा यह प्रति-संतुलित(Counter Balanced) नहीं की जा सकती।'' और ''भारतीय समाज की प्रगति में रामायण काल से ही भावशून्य वर्ण और जाति बहुत बड़ी बाधा रही है। जब तक यह अस्वाभाविक प्रणाली प्रचलित रहेगी, समाज का विनाश और उसके साथ हमारा भी विनाश है।''___रामचंद्र शुक्ल
(आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग -4, पृ.-२०२)
ये विचार उन्हीं रामचंद्र शुक्ल के हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा है और जिनपर जातिवादी और सांप्रदायिक होने के आरोप हैं। हाँ ये विचार उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों पूर्व लिखे लेखों यथा 'जाति व्यवस्था', 'धर्म का विकास' आदि में मौजूद मिलेंगे। मेरा यह कहना है कि किसी भी आलोचक के लेखन में वैचारिक विकास को भी देखा जाना जाहिए। आचार्य शुक्ल पर शोध-कार्य करते हुए मेरी निजी समझ यह रही कि वे अपने उत्तरवर्ती लेखन में खुद को बदलते हैं। जैसा कि किसी भी लेखक के साथ संभव है। यह बदलाव या विकास हम तब एकदम नहीं देखेंगे या नहीं देखना चाहेंगे जब सांप्रदायिक व जातिवादी का लेबल लगाकर उन्हें खारिज करने के अभियान में मुब्तिला होंगे।
ये जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर  'जातिवादी व संप्रदायवादी' होने का मिथ्या आरोप मढ़ रहे हैं, यदि वे जाति शब्द से पूर्णतया परिचित होंगे तो उन्हें भी पता लग गया होगा कि उन सब का भी अब एक जाति बन गया है। मैं तो निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वे जाति शब्द से भलीभाँति परिचित हैं तभी कौओं की तरह कवाय रहे हैं। विद्वान कुतर्क व आरोप मढने के बजाय कर्म करते हैं जिससे उनकी अपनी इयत्ता स्वतः स्थापित हो जाती है।  आप कवाँते  रहिये, कुछ होने वाला नहीं है तब तक ,जब तक कि कोई शुक्लजी जैसा मनीषी उत्पन्न नहीं हो जाता। जो कि होने से रहा !!! शुक्ल जी वो आधार हैं जिससे हिंदी-साहित्येतिहासलोचन नामक भवन निर्मित है। ध्यान रहे इस युग पुरुष को ढहाने की कोशिस की तो भवन गिरना तय है। और इसी भवन की क्षत्रछाया में न केवल समूचा हिंदी साहित्य पनपा है ,और पनप रहा है बलकि अन्य साहित्यिक भी उनसे प्रेरणा-प्रेरित हैं।
मेरे प्यारे छोटे भाईयों ( बड़ो को ज्ञान दे सकूं इस लायक नहीं ) और बहनों         ( विशेषकर ) के लिए
स्त्री विमर्श का अर्थ "वामा- विलाप" नहीं है ...
एक दिन पहले शायर मिज़ाज छोटे भाई ने कहा कि " आचार्य शुक्ल की स्त्री दृष्टि पर भी लोग बोल रहे हैं |"
मेरा कहना था - " छोटे भाई इतना समय नहीं है कि केवल फेसबुक मेंटेन कर पाऊं | पोस्ट लिखना, तर्क- वितर्क करना और आजकल कुतर्क भी करना, फिर गोष्ठी बैठाकर एक- एक कमेन्ट पर विमर्श करना और उसके बाद कैसे "चापलूसी विधा" को आगे बढ़ाएं - इस पर अनुसंधान करना, माफ़ी चाहूंगी इतनी क्षमता मेरी नहीं है | मेरे लिए फेसबुक का अर्थ बस इतना है कि समय मिला तो देख लिया | कभी कुछ थोड़ा रोचक लगा तो डाल दिया | या फिर कभी मन न लगा तो ...बस इतना ही |
विस्तार में नहीं जाउंगी ...लेकिन दृष्टान्त हमारे पुरोधाओं को समझने के लिए काफ़ी है | ये है तो विवेकानंद का साक्षात्कार, जिन पर अभी मैं लेख लिख रही   थी | ये उस युग के विचारकों के मानसिक धरातल को और स्त्री सम्बन्धी दृष्टि को समझने के लिए बहुत आवश्यक है जिसमें आचार्य शुक्ल बड़े हुए थे | हो सकता है ये स्थापना साहित्य में न हो लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि ये सत्य ही नहीं है | इसके बाद भी आपत्तिजनक विपत्ति आ जाए तो एक बार दिनकर के लेखों को पढ़ लेंगे | इतनी विनती के साथ साक्षात्कार -       
इस सन्दर्भ को हम इस प्रकार समझ सकते हैं वर्ष १८९८ के दिसम्बर में प्रबुद्ध भारत के प्रतिनिधि ने स्वामी जी से स्त्रियों के विषय में कुछ प्रश्न पूछे | इनमें से कुछ प्रश्न और उनके उत्तर इस प्रकार हैं -
“ और इसलिए आपका विचार है कि हमलोगों में नारी की असमानता पूर्णतया बौद्ध मत के कारण है ?”
“जहाँ वह है निश्चय ही ऐसा है स्वामी जी ने कहा, “ पर हमें यूरोपीय आलोचना की अचानक आयी हुई बाढ़ और उसके कारण अपने में उत्पन्न हुई अंतर की भावना के वशीभूत होकर अपनी नारियों की असमानता के विचार को स्वीकार करने में अत्यधिक शीघ्रता नहीं करनी चाहिए | परिस्थतियों ने हमारे लिए अनेक शताब्दियों से नारी की रक्षा की आवश्यकता को अनिवार्य बनाया है | हमारे इस रिवाज का कारण इस तथ्य में है, नारी की हीनता में नहीं |”
“तो स्वामी जी आप हमारे बीच नारियों की स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट हैं ?”
“कदापि नहीं” , स्वामी जी ने कहा,  “ पर हमारा हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल शिक्षा का प्रचार कर देने तक ही सीमित है | हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें | उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए | और हमारी भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भांति इसे करने की क्षमता रखती है |”
“वह बुरा प्रभाव, जिसका कारण आप बुद्धमत को बताते हैं, क्यों आया ?”
“वह केवल धर्म के क्षय से आया |”
स्वामी जी ने कहा, “प्रत्येक आन्दोलन अपने कुछ असाधारण लक्षणों के कारण विजय प्राप्त करता है , और जब वह गिरता है, तो यही गर्व का विषय उसकी दुर्बलता का मुख्य तत्व बन जाता है | भगवान् बुद्ध, मनुष्यों में महानतम, अद्भुत संगठनकर्ता थे, और उन्होंने इस साधन से संसार को विजित किया | पर उनका धर्म भिक्षुओं का धर्म था|  इसलिए इसका बुरा प्रभाव यह पड़ा कि स्वयं भिक्षुक का वेश ही आदर का पात्र हो गया | उन्होंने पहली बार धर्म- स्थानों पर सामूहिक जीवन का भी आरम्भ किया और उससे नारियों को अनिवार्यत: नरों से हीन बना दिया; क्योंकि महा भिक्षुणियाँ कुछ विशिष्ट भिक्षुओं की सलाह के बिना कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकती थीं | इससे उनके तात्कालिक उद्देश्य, धर्म की दृढ़ता, की तो पूर्ति हो गयी; पर आप देखते हैं कि उसके जो दूरगत परिणाम निकले, वही शोचनीय हुए |”
“ पर संन्यास को तो वेदों की स्वीकृति प्राप्त है! ”
“निश्चय ही है ; पर उसमें नर और नारी के बीच कोई भेद नहीं किया गया है | आपको याद होगा कि राजा जनक की सभा में याज्ञवल्कय से किस प्रकार प्रश्न पूछे गए थे ? उनकी मुख्य प्रश्न करने वाली थी, वाचक्नवी, वाग्मी कन्या – ब्रह्मवादिनी, जैसा उन दिनों कहा जाता था | वह कहती है, “ मेरे प्रश्न एक कुशल धनुर्धर के हाथ में दो चमकदार तीरों के समान हैं |” उसके नारी होने की चर्चा भी नहीं की गयी है | और फिर क्या वनों में स्थित हमारे पुरातन विश्वविद्यालयों में लड़कों और लड़कियों की समानता से अधिक पूर्ण कुछ और हो सकता है | हमारे संस्कृत नाटकों को पढ़िए, शकुंतला की कहानी पढ़िए और देखिए कि क्या टेनीसन की ‘प्रिंसेज’ हमें कुछ सिखा सकती है ?” 
अंत में यही कहूंगी यदि तर्क की ही आवश्यकता है तो उसका स्तर भी श्रेष्ठ होना चाहिए | केवल मैं स्त्री हूँ या मैं "अमुक" हूँ ...यह कहकर छूट नहीं लेनी चाहिए |
दूसरी बात 'विरोध के लिए भी अध्ययन उतना ही मजबूत होना चाहिए और हम सब अभी निर्माण की स्थिति में हैं |
तीसरी बात यदि मेरा स्वपन आदरणीय डॉ. शिव प्रसाद सिंह के 'नीला चाँद' की तरह लिखने का है और यदि यह मैं पूरा नहीं कर पायी तो मुझे कोई हक नहीं कि वामा-विलाप के नाम पर पुरुषों को सर पकड़कर और छाती पीटकर गाली देने लग जाऊं | हाँ  हमारे लिए रास्ते कुछ ज्यादा कठिन हैं मैं मानती हूँ | हिम्मत भी बढ़ानी ही होगी |
यह देखकर आश्चर्य होता है और दुख भी कि हिन्दी के किसी स्थापित लेख़क को निशाना बनाकर उसकी अत्यंत आपत्तिजनक छवि पेश कर देते हैं।उसके विशाल साहित्य से प्रसंग, संदर्भ को काटकर और समयच्युत कर प्रतिपक्ष हिस्से को प्रस्तुत कर दिया जाता है।अथवा बिना ऐसा किये भी फतवा की शक्ल में कुछ टिप्पणी जड़ दी जाती है।अब फेसबुक पर जिसकी प्रकृति ही संक्षिप्त  तात्कालिक और क्षणिक होती है, आप चाहकर भी वास्तविकता नहीं बता सकते।इसके लिए आप पढ़िये, उस पर लिखा पढिये और फेसबुक पर जवाब लिखिये।जाहिर है यह तो संभव नहीं,फिर यह बात कम पढ़े लिखे या युवाओं के भीतर उतर जाती है। फिर इसे ही परम सत्य मानकर पढ़ते ही नहीं।यह प्रवृत्ति बहुत ही घातक है।कहना यह चाहिए कि इस पर ये ये पढ़िये और अपनी सोच बनाइये।जैसे,तुलसीदास वर्णव्यवस्था के पोषक हैं, वे दो कौड़ी के हैं। निराला जी ब्राह्मण थे उनमें हिन्दुवाद है।रामचन्द्र शुक्ल रियेक्शनरी हैं। हम कहते हैं तुम ये ये पढ़ो। इनकी रचनाओं में जो श्रेष्ठ है, रचनात्मक है,उसकी पहचान करो।जो आपत्तिजनक है, उसकी आलोचना करो।अब तुम इस तरह अपना आलोचनात्मक विवेक विकसित नहीं करोगे तो बौद्धिक विकलांग बनकर रह जाओगे।फेसबुक पर शुरू हुए हो,फेसबुक पर ही मिट जाओगे।जर्मन उपन्यासकार हापमैन हिटलर का समर्थक था।उसने द बुअर नाम से एक अमर उपन्यास लिखा।उसे नोबेल पुरस्कार मिला।उसी तरह बालजाक हैं, टालस्टाय हैं। इनका जीवन पढ़ो तो चकित रह जाओगे। मगर इनकी महानता ऐसी कि जब तक यह धरती रहेगी,ये रहेंगे। इसलिए युवाओं तुम्हारे पास दिमाग है,विवेक है तो किसी की मत मानो।खुद पढ़ो,उस पर आलोचना पढ़ो। आलोचनात्मक विवेक से पढो।खुद की समझ विकसित करो।अगर राजनीतिक छेछड़ई वाली अक्ल से साहित्य और बौद्धिकता हासिल करोगे तो इस इलाके के छेछड़ ही बन कर रह जाओगे। जो मन करे,सो  करो।हमारा क्या बिगाड़ लोगे--खाक?
प्लाखानोव बाद में कम्युनिस्ट विरोधी हो गये थे।छात्र जीवन में स्टडी सेंटर में बताया गया था कि तब भी लेनिन मार्क्सवाद को ठीक से  समझने के लिए उनकी की किताब बताते थे।संग्रह और त्याग का विवेक नहीं है तो साहित्य और बौद्धिकता से बाहर चले जाइये।पंसारी की या पकौड़े की दुकान खोलिये अथवा किसी पार्टी का झंडा ढोइ...

मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूँ तो क्या हुआ! इतिहास का तो हूँ! और सम्प्रति आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जिस कृति पर बहस छिड़ी हुई है, वह रचना है - "हिन्दी साहित्य का इतिहास"। स्पष्ट है कि बहस के लिए इसमें हिन्दी साहित्य और इतिहास दोनों ही विषयों के विद्यार्थीयों की आधी-आधी हिस्सेदारी बनती है। ऐसे में, मैं आधे के हिस्सेदार की हैसियत से कुछ कहना चाहता हूँ। इससे हिन्दी साहित्य वालों का ईगो हर्ट नहीं होना चाहिए।

पहली बात तो यह कि बउआ विहाग ने जो बात कही है, वह कोई नई बात नहीं है। मेरा प्रणाम उनको है जो विहाग द्वारा फेंके जाने के साथ ही उसे लपक लिया और च्विंगम की तरह चबाने लगे।
पहले वाक्य में बउआ ने कहा कि"रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास साम्प्रदायिक और जातिवादी है।" ठीक बात है। लेकिन इसीलिए तो हमारे इतिहास का विषयानुशासन(Discipline) कहता है कि इतिहास की कोई पुस्तक पढ़ने से पहले, उसके लेखक को पढ़ो और उस लेखक को भी पढ़ने के पहले उस पृष्ठभूमि का अध्ययन करो, जिसमें वह लेखक लिख रहा है। (मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा कि विहाग 0को इतनी सी बात पता नहीं होगी। लेकिन हरेक पता बात को आत्मसात कर लेना आसान नहीं होता। उसमें हमारी पक्षधरता आड़े आती है). माने कि यह मानकर चला जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने युग के बन्धनों और अपने निजी चेतना-अवचेतना व पूर्वाग्रहों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता है।
1929 में शुक्ल जी के "हिन्दी साहित्य का इतिहास" के प्रकाशित होने के समय तक भारत में साम्प्रदायिकता का अच्छा-खासा खेल खेला जा चुका था। ऐसे में किसी भी लेखक द्वारा अपने साम्प्रदायिक पक्ष का बिल्कुल तिरोहण सम्भव था क्या! ऐसी ही बात कम से कम एक एक उत्तर भारतीयों की जातीय चेतना के विषय में कही जा सकती है।
बउआ ने दूसरे वाक्य में कहा कि "हिन्दी अकेडमिया को तुरंत इसका (शुक्ल जी रचित"हिन्दी साहित्य का इतिहास"का) विकल्प खोजना चाहिए और इस इतिहास को इतिहास के संग्रहालय में डाल देना चाहिए।"
इस सम्बंध में मेरा मानना है कि केवल शुक्ल जी के इतिहास को ही क्यों इतिहास के संग्रहालय में डाल देनी चाहिए! मैं तो कहता हूँ कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले लिखे गए सारे इतिहास के कृतियों को इतिहास के संग्रहालय में डाल दिये जायें। प्रत्येक पीढ़ी को अपना इतिहास स्वयं लिखना और पढ़ना चाहिए। तभी इतिहास का अध्ययन हमारे किसी काम आएगा। वरना पढ़कर केवल स्नातक-स्नातकोत्तर की परीक्षाओं को पास करने के लिए तो शुक्ल जी का इतिहास भी काफी है।...
हिन्दी के आलोचक- जिनकी आज पुण्यतिथि है.-1
आलोचक प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री 
राजनीति, साहित्य और समाज-सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाले प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री (2.5.1929 - 17.4.2005 ) की ख्याति एक कुशल वक्ता और आदर्श शिक्षक की भी है. वे भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं.  ‘कवि निराला की वेदना तथा अन्य निबंध’, ‘तुलसी के हिय हेरि’, ‘अनंत पथ के यात्री : धर्मवीर भारती’, ‘अनुचिन्तन’, ‘कुछ चंदन की कुछ कपूर की’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष’, ‘भक्ति और शरणागति’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं. उनकी कृतियों का संग्रह ‘विष्णुकान्त शास्त्री : चुनी हुई रचनाएं’( 2 खंड ) प्रकाशित है जिसके प्रथम खण्ड में आलोचनात्मक निबंध हैं. इसमें क्रमश: कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर और सर्वेश्वर का मूल्यांकन किया गया है. चार निबंधों का विवेच्य विषय है- काव्य का वाचिक संप्रेषण, आधुनिक हिन्दी कविता और छंद, गीत और नवगीत तथा बांग्लादेश की संग्रामी कविता.
कबीर और तुलसी की तुलना करते हुए उन्होंने जो लिखा हैं उससे उनकी दक्षिणपंथी वैचारिक दृढ़ता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है, “मैं यह तो मानता हूं कि प्राचीन कवियों और उनकी कृतियों को आधुनिक दृष्टियों की कसौटी पर भी कसना चाहिए, इससे उनके नए पहलू उजागर होते हैं, किन्तु ऐसा करते समय उनकी मूलभूत निष्ठा को विस्मृत कर देना उचित नहीं है. ऐसा हुआ तो हम अंतरंग की उपेक्षा कर बहिरंग को ही प्राधान्य दे देंगे. आखिर इसपर तो विचार करना ही चाहिए कि कबीर और तुलसी बुनियादी तौर पर क्या थे? क्या उनकी पहली पहचान समाज सुधारक, लोकनायक आदि की हो सकती है? सच्चाई यही है कि कबीर और तुलसी दोनो मूलत: भक्त थे.  दोनो परम तत्व से अपना संबंध निष्काम प्रेम के द्वारा जोड़ना चाहते थे. दोनों की वास्तविक निकटता या दूरी इसी मुद्दे के ऊपर प्रकट किए गए उनके भावों, विचारों से तै की जा सकती है. मेरा नम्र निवेदन है कि इस क्षेत्र में दोनो में अस्सी प्रतिशत से भी अधिक साम्य है.” ( तुलसी के हिय हेरि, पृष्ठ -253)
शास्त्री जी की आलोचना का फलक विस्तृत है. उनकी जीवन- दृष्टि और इसीलिए आलोचना- दृष्टि भी बहुत कुछ तुलसी की जीवन-दृष्टि और काव्यादर्श से प्रेरित और प्रभावित सी लगती है. उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और रामस्वरूप चतुर्वेदी पर विस्तार से लिखा है. इनपर लिखते हुए शास्त्री जी ने इनसे अपनी सहमतियों और असहमतियों- दोनो को पूरी ईमानदारी से व्यक्त किया है.
डॉ. रामचंद्र तिवारी ने उनकी आलोचना की विशेषताओं को बड़े व्यवस्थित ढंग से रेखाँकित किया है. वे लिखते हैं, “ शास्त्री जी के आलोचना-कर्म की पहली सामान्य विशेषता यह है कि वे आलोच्य विषय से सम्बद्ध समस्त ज्ञातव्य तथ्यों को सामने रखकर पूरी तैयारी के साथ आलोचना-कर्म में प्रवृत्त होते हैं. इसे उन्होंने अपनी पूर्णता-ग्रंथि कहा है. इस ग्रंथि के चलते उनकी आलोचना में अनुशीलन के तत्व भी संश्लिष्ट हो गए हैं. पंत, दिनकर, महादेवी और सर्वेश्वर की आलोचनाएं अपवाद हैं. संदर्भ- गर्भत्व इन आलोचनाओं में भी है किन्तु वह विविध संदर्भ –स्रोतों से नीत न होकर लेखक के आलोचक व्यक्तित्व में रचा- बसा और उसका सहज अविभाज्य अंग बनकर सामने आया है. दूसरी विशेषता यह है कि शास्त्री जी का पूरा लेखन संतुलित है. न तो उन्होंने किसी को एकतरफा खारिज किया है न आसमान पर चढ़ाया है. आलोच्य कवि या आलोचक की सीमाओं का उल्लेख भी बड़ी विनम्रता के साथ किया है.  उनके वैष्णव संस्कार आलोचना में ज्ञात- अज्ञात रूप में सक्रिय रहे हैं. किन्तु विशेष बात यह कि निर्णय के स्तर पर उनकी विनम्रता ने कहीं कोई समझौता नहीं किया है. निराला की भक्तिकाव्य संबंधी रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और नंदकिशोर नवल की आलोचनाओं को उद्धृत करने के बाद लेखक ने अपना निर्णय इन शब्दों में दिया है, “ मैं इन मतों को मार्क्सवादी आलोचना की स्थूलता और विफलता का उदाहरण मानता हूँ.” इससे लेखक की आस्थामूलक दृढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है. शास्त्री जी की आलोचना की तीसरी विषेषता है, निरंतर सक्रिय बुद्धि और हृदय की सहभागिता. यदि बुद्धि आलोच्य विषय के चयन, विश्लेषण, तुलनात्मक परीक्षण और निष्कर्ष –बिन्दु तक पहुंचने की दिशा में सक्रिय रहती है तो हृदय उसके साथ सहभाव बनाए रखकर आलोच्य विषय में अंतर्भूत, कोमल कठोर भाव –स्थितियों को धारण करने वाले मर्मक्षणों के उद्घाटन में प्रवृत्त. कहा जा सकता है कि शास्त्री जी की आलोचना में पुरुष और प्रकृति दोनो का स्वर समान भाव से मुखरित है. उनमें समरसता है, प्रतिद्वन्द्विता नहीं. हृदय से अनुप्रेरित होकर ही उनकी बुद्दि आलोचना-कर्म में प्रवृत्त हुई है. यह और बात है कि वह भी उनके अंतरतम में संचित संस्कारों से अनुप्राणित है. शास्त्री जी की आलोचना की चौथी विशेषता यह है कि परंपरा और शास्त्र का आधार लेते हुए भी न तो वह परंपराग्रस्त हैं, न शास्त्रबद्ध. उनका विश्वास, परंपरा की पुनर्व्याख्या में है. इसलिए पुराने कवियों की आलोचना करते समय भी उन्होंने आधुनिक मानसिकता वाले पाठकों का ध्यान रखा है.  ( विष्णुकान्त शास्त्री अमृत महोत्सव : अभिनंदन ग्रंथ, खण्ड-3, पृष्ठ 119)
   शास्त्री जी अपने व्यवहार और आचरण में भी अत्यंत सौम्य और उदार थे किन्तु वैचारिक दृढ़ता में संघ की विचारधारा के प्रति पूर्ण आस्थावान. 1992 ईं में तथाकथित बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय कार सेवक के रूप में प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री भी अपनी टोली के साथ अयोध्या पहुंचे थे.
शास्त्री जी बहुत उच्च कोटि के शिक्षक थे. राजनीति में रहते हुए भी उनके भीतर राजनीति के छल-प्रपंच, झूठ-फरेब आदि अवगुण नहीं थे. राज्य- सभा के सदस्य रहते हुए अनेक बार वे दिल्ली से कोलकाता हवाई अड्डे पर आते और वहाँ से सीधे विश्वविद्यालय में अपनी कक्षा में होते. विरोधी विचारधारा के लोगों से भी मैंने अनेकश: उनकी प्रशंसा सुनी है. ‘राम जी की कृपा से’ कहकर वे अपने प्रत्येक कार्य ‘राम’ पर छोड़ देते थे और स्वयं को निमित्त मात्र मानते थे.
  फिलहाल, संस्मरण शास्त्री जी की रचना- धर्मिता की केन्द्रीय विधा है. उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी. अपने विरोधी विचारधारा के कवि नागार्जुन की भी दर्जनों कविताएं उन्हें याद थी.
शास्त्री जी का निधन 17 अप्रैल 2005 को ट्रेन में हृदयगति रुक जाने से हो गया था. हम उनकी पुण्यतिथि पर समाज के लिए किए गए उनके योगदान का स्मरण करते हैं और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं...


-गोलेन्द्र पटेल【बीएचयू】

नोट : यह लेख मेरा नहीं है......बस अपने लिए है।