Golendra Gyan

Saturday, 18 April 2020

हिंदी आलोचना के अमर आचार्य【हिंदी आलोचना के भगवान 】 : आचार्य रामचंद्र शुक्ल





इसमे किसी को सन्देह नही होना चाहिए कि रामचंद्र शुक्ल जी की जो किताब है खासकर "इतिहास " की वो किताब आउटडेटेड हो चुकी है। उन्होंने इस किताब में जो भी कोलॉज निर्मित किये हैं। वो अब कोई मायने नही रखता। लेकिन फिर भी वो कौन सी मज़बूरी है, या मानसिकता है, जो इसे "अकेडमिक दुनिया" से अलग नही कर पा रहा।अब आप ये भी कह सकते हैं कि बहुत सारी किताब लिखी जा चुकी है आप उन्हें पढ़िए, लेकिन यकीन मानिए अगर इस किताब से अकेडमिक दुनिया मे प्रश्न नही पूछा जाता तो मैं इसे नही पढता। क्योंकि इनकी जो किताब है, "हिंदी साहित्य का इतिहास" उसका कोई भी आधार अब स्थायित्व नही रखता। सभी निर्मूल हो चुका है। अगर आप चाहे तो इस ग्रन्थ को "मरे हुए लाश" के तरह पीठ पर रखकर चल सकते हैं। लेकिन अकेडमिक दुनिया से इस किताब को बाहर किया जाना चाहिये। आप विहाग वैभव के 2 से 3 शब्दों के आधार पर एक विक्षिप्त मानसिकता के बता सकते हैं तो उसी आधार पर शुक्ल जी को ये क्यो नही कह कहते कि उनका भी इतिहास ग्रन्थ "जातिवादी" और "वर्गवादी" मानसिकता के तहत लिखा गया। शुक्ल जी कंही पर भी जब कवियों का  परिचय देते है तो वह  "जाति" और वर्ग जैसे शब्दों को जोड़ देते हैं।
कुछ उदाहरण देता हूँ। ऐसे उदाहरण बहुतेरे है।
-- भूषण को लेकर उनका वक्तव्य
  उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई।"
--हिंदू जाति के प्रतिनिधित्व कर्ता के रुप में
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी ख़ुशामद नहीं कह सकता।"
--  "वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"
--कबीर के बारे में
कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।"
--सूरदास को लेकर
   "इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।"
   आखिर कोई बतायेगा ये किस प्रकार की इतिहास दृष्टि है।मैं तो उनकी इस किताब को "विसंगतियों का इतिहास" कहना पसन्द करूँगा। जो ज्यादा उपयुक्त है।अगर आप यह कहना चाह रहे हैं कि उस समय की परिस्थिति कुछ और थी। तो ठीक है इस समय और परिस्थिति अब बदल चुकी है,और इनकी यह किताब भी अप्रसांगिक साबित हो चुकी है। हाँ ये कर सकते हैं कि इसे "मरे हुई लाश" के तरीके उपयोग किया जा सकता है। जो ज्यादा उपयुक्त है।
अब वर्तमान में एक नई इतिहास दृष्टि, एक नई सोच की तहत सहित्योइतिहास की  रचना की जानी चाहिए! आप कह सकते हैं कि किताबें बहुत सारी लिखी गई है। लेकिन मैं फिर से कहूँगा कि जो भी इतिहास लिखी गई है आज तक वह सिर्फ इनकी ही विचारों का पिष्टपेषण किया गया है। उसमें उनका कोई मौलिक विचार या, स्वतन्त्र तरीका नही है सोचने का, वह इन्ही के माध्यम से अपनी बातों को शुरू करते हैं।अंत तक इन्ही का खंडन-मण्डन करते चले जाते हैं। आज तक सारे सहित्योइतिहास के रचनाकारों ने यही किया। जिनके कारण ही उनकी ये किताब आज तक अपनी अस्तित्व बनाई हुई है। अगर वो एक नई तरीके से सोचते तो आज ये "आउटडेटेड" किताब पढ़ने की आवस्यकता नही होती।
कुछ बयान सुनवाता हूँ आपको! जो पहले ही इनके सामने हथियार डाल देते हैं। बिल्कुल नतमस्तक हो जातें है।
-- रामचन्द्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। ..... फिर भी शुक्ल जी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना घबराता है, पंडित सिर हिलाता है।
ऐसे बहुतेरे कथन आपको मिल जायेगा। आप ढूंढ सकते हैं। चतुर्वेदी जी से लेकर बच्चन तक, रामविलास से लेकर नामवर जी तक। बहरहाल इसका एकमात्र कारण है इनके विचारों से ही "खण्डन-मण्डन"  की  शुरआत करना।
एक और नमूना देखिये-रामस्वरूप चतुर्वेदी जी का
--"आचार्य का विषय प्रतिपादन जैसा गुरु गम्भीर है उसके बीच उनका सूक्ष्म व्यंग्य और तीव्र तथा पैना हो गया है, घनी-बड़ी मूँछों के बीच हल्की मुस्कान की तरह।"
कौन सी गुरु गम्भीरता कौन --हाँ
---आदिकाल के साथ शुद्ध और अशुद्ध साहित्य के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---भक्तिकाल जो जनवादी चेतना का उभार था उसके साथ ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---रीतिकाल में श्लीलता-अश्लीलता के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
---छायावाद के साथ रहस्यवाद के नाम पर ये क्या करते हैं। आपसे छिपा था।
छायावाद के बाद बालें प्रकरण पर कुछ भी कहना बेईमानी होगी चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य का।
इनके इतिहास की जो किताबों है। उसका दूसरा संस्करण 1940 है। तो निश्चित है। उसके बाद की इतिहास इसमें कम मिलने वाली है।मुमकिन ही नही है।यानि कि करीबन 60 वर्षों का इतिहास गायब, फिर भी इतना ज्यादा प्रासंगिक होना! कितना आश्चर्यजनक है न! मैं आखरी बात कहना चाहूँगा की यह किताब "आउटडेटेड" हो चुकी है। आपको इसे जिस खोह-कंदरा में डालना हो डालें, लेकिन अकेडमिक दुनिया से इसे बाहर करें।
क्योंकि यह मेरे समकालीन नही ठहरता। समकालीन का अर्थ प्रसांगिकता से लें!इस प्रकार, भले ही रैदास और कबीर मध्यकाल के कवि ठहरते हैं। और दुष्यन्त कुमार और राजेश जोशी आधुनिक काल के लेकिन अगर कबीर के विचार हमारे लिए प्रसांगिक है तो भले ही वह मध्यकाल के हों लेकिन वह "मुझे" मेरे समकाल नज़र आते हैं। और अगर राजेश जोशी का विचार पुरातनपंथी है। तो भले ही वह आधुनिक काल के कवि हैं लेकिन वो मेरे लिए समकालीन नही है और अप्रसांगिक भी।
उसी प्रकार कुल-मिलाकर मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि रामचंद्र शुक्ल की जो इतिहास की किताब है वो "आउटडेटेड" हो चुकी है।
दीपशिखा सिंह Deepshikha Singh के इस लिखे से मेरी सहमति है। हिंदी आलोचना को शुक्ल-द्विवेदी की बाइनरी से बाहर ले जाने की जरूरत है। हिंदी एकेडमिया में बहुत सारे जरूरी लिखे गए से जान बूझकर वाकिफ़ नहीं कराया जाता। ऐसा कराया जाना चाहिए। संत काव्य पर परशुराम चतुर्वेदी का काम भी कम महत्व का नहीं है। लेकिन मुझे नहीं याद की 'उत्तर-भारत की संत परम्परा' का नाम भी मुझे किसी शिक्षक ने एमए तक बताया हो। टिप्पणी देखें।
हिंदी की विश्वविद्यालयी शिक्षण पद्धति को लेकर मेरे मन में बार-बार यह सवाल खड़ा होता है कि वास्तव में विद्यार्थियों को एक सचेत आलोचकीय दृष्टि प्रदान करने में यह पूरी प्रक्रिया सक्षम है या फिर हम एक ऐसे सँकरे गलियारे में बंद कर दिये जाते हैं, जिसका एक रास्ता रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ खुलता है और दूसरा हजारी प्रसाद द्विवेदी के यहाँ।
यदि हम कक्षाओं में हिंदी आलोचना की स्थिति को देखें, तो सहज ही यह पाते हैं कि हमें रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना कर्म के बीच ही उलझाकर रख दिया गया है। ज़्यादा से ज़्यादा हम इस क्रम में आगे बढ़ते हुए रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तक पहुँच पाते हैं। लेकिन हिंदी साहित्य के विविध कालखण्डों के विश्लेषण और मूल्यांकन के क्रम में रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा निर्मित ढाँचे को तोड़ नहीं पाते हैं। यहाँ तक कि एमए तक अधिकांश विद्यार्थियों को यह भी पता नहीं चल पाता है कि इनके समकालीन अन्य आलोचकों ने भी कुछ महत्त्वपूर्ण लिखा- पढ़ा है, जो हमारी दृष्टि को विस्तार दे सकता है, बाद वालों को तो छोड़ ही दीजिए।
जैसे निर्गुण भक्ति का अध्ययन करते हुए हम शुक्ल जी से होते हुए द्विवेदी जी पर आकर रुक जाते हैं। कभी भी कक्षाओं में पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जैसे अध्येताओं की दृष्टि की चर्चा तक नहीं की जाती। इसी तरह से हर बार कहा जाता है कि हिंदी साहित्य के आदिकाल पर बहुत कम काम हुआ है। लेकिन जो कायदे का काम हुआ है, उनमें हजारी प्रसाद द्विवेदी से आगे बढ़कर कभी भी विद्यार्थियों से रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, धर्मवीर भारती आदि की पुस्तकों की चर्चा भी नहीं की जाती।
इस तरह से हिंदी साहित्य के अनेक हिस्सों की चर्चा की जा सकती है, जिनपर अनेक आलोचकों ने छोटा- बड़ा लेकिन महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेकिन शुक्ल- द्विवेदी के दायरे में हम इतना सिमटकर रह गए हैं कि इनके दृष्टिकोण पर उठने वाले कुछ जायज सवालों से हम टकराना नहीं चाहते। एक लंबी प्रक्रिया के तहत हमारी दृष्टि इतनी संकुचित कर दी जाती है कि कई बार इन पर उठने वाले सवालों पर ईशनिंदा की तर्ज पर हमले होने लगते हैं।
हमने विश्वविद्यालयी शिक्षण पद्धति में भी मुख्यधारा और हाशिया बना रखा है और आज भी हमारा मन-मस्तिष्क इसकी इजाजत नहीं देता कि हाशिया भी मुख्यधारा हो सकता है या मुख्यधारा में शामिल हो सकता है। बार-बार एक ही पुस्तक को पढ़ने की दबावनुमा सलाह के पीछे कौन से पूर्वाग्रह काम करते हैं! बीए से लेकर रिसर्च करने तक और उसके बाद भी कोई एक ही पुस्तक क्यों पढ़ता रहे! हजारों पुस्तकें हैं, पूरी दुनिया खुली हुई है। सम्भव है कि किसी एक पुस्तक को पढ़ने पर किसी को हर बार कोई नई दृष्टि मिले, उसी तरह किसी को नहीं भी मिल सकती है। यह प्रक्रिया बहुत निजी है। किसी पुस्तक के संदर्भ में इसे सार्वभौमिक नहीं बनाया जाना चाहिए।
रामचन्द्र शुक्ल के 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में सिद्धों-नाथों, कबीर व अन्य संत कवियों से होते हुए निराला तक का क्या और कितना विश्लेषण किया गया है और ये विश्लेषण, इतिहासकार की किस दृष्टि के परिचायक हैं, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है। इसलिए इन पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को सार्थक दिशा देने की जरूरत है। साथ ही हमें पीछे मुड़कर विश्वविद्यालयी शिक्षण पद्धति के अपने अनुभवों का भी विश्लेषण करना चाहिए ।
यदि हिंदी विभागों ने हिंदी साहित्य के विविध कालखण्डों के अध्ययन- अध्यापन के दरमियान रामचन्द्र शुक्ल- हजारीप्रसाद द्विवेदी के साथ- साथ अन्य महत्वपूर्ण आलोचकों के कार्यों को भी शामिल किया होता, विद्यार्थियों को विविध पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया होता, उनपर पर्चे लिखवाये होते, कहने का आशय कि यदि हिंदी आलोचना को मुख्यधारा और हाशिया के रूप में नहीं बाँटा होता तो शायद ऐसी अतिरेकी प्रतिक्रियाएँ देखने को नहीं मिलती, जैसी समय- समय पर देखने को मिलती है। बल्कि सवाल भी वाजिब तरीके से उठते और उनपर सार्थक बहस होती।
सभ्यतागत विकास क्रमिक रूप में घटित होता है,अचानक कुछ भी नहीं होता। हजारी प्रसाद द्विवेदी को कोट कर सकते हैं 'भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास'।
लंबे समय से भारतीय समाज की सामाजिक-संरचना जिस ढांचे में चलती आई है वह ढांचा ब्राह्मणवाद/मनुवाद का ढांचा है। गोपेश्वर सिंह ने लिखा है मनुवाद/ब्राह्मणवाद का रूप हमेशा से एक जैसा नहीं रहा है। उसने जितना बाहरी दबाओं से खुद को बदला है उतना ही अपने भीतरी संवादों से भी। जिस तरह का सामाजिक-ढांचा 3-4शताब्दी में था वैसा ही शंकराचार्य के समय में नहीं रहा। शंकराचार्य के समय का ढांचा रामानंद और भक्त कवियों के यहां बदले हुए रूप में दिखाई देता है। उसी ब्राह्मणवादी/मनुवादी समाज व्यवस्था से निकले विवेकानंद और गांधी अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद आधुनिक ख़यालों के व्यक्ति हैं। प्रेमचंद,निराला,प्रसाद और रामचन्द्र शुक्ल जिस भावभूमि पर खड़े होकर विचार कर रहे थे आज का लेखक उससे आगे खड़ा होकर बात करता है। शुक्ल की कविता सम्बन्धी बहुतेरी मान्यताओं को मुक्तिबोध ने अपने लेखन के द्वारा खारिज किया है। 'अंधेरे में' कविता और  'एक साहित्यिक की डायरी' और 'नई कविता का आत्मसंघर्ष और अन्य निबंध' नामक किताब इस सम्बन्ध में पर्याप्त मदद करेगी। रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के मान और मूल्य को नामवर जी ने छायावादी संस्कार कहा है। 'कविता के नए प्रतिमान' किताब देखी जा सकती है। उन संस्कारों से मुक्त हुए बिना कविता के नए प्रतिमान तय नहीं किये जा सकते ऐसी उनकी मान्यता है। उससे आगे भी एक पूरी परम्परा है जो इसी तरह संवाद करते हुए आगे बढ़ी है।
एजेंडे के तहत किसी का विकल्प नहीं तलाशा जा सकता। विकल्प अपनी सभ्यता और संस्कृति से संवाद करते हुए ही विकसित होते हैं। विचार की दुनिया में दाख़िल-खारिज नहीं चलती। संवाद चलता है। संवाद करते हुए आगे बढ़ने की प्रवृत्ति हमेशा से प्रगतिशील मानी गई है।
इस विकासक्रम को आप दुनियाभर में हुई क्रांतियों के साथ भी जोड़कर देख सकते हैं। रेनेसॉ हो,आधुनिकता हो, दुनियाभर की तमाम औद्योगिक क्रांतियां हों,फ्रांस की राज्यक्रांति हो या रूस की बोल्शेविक कोई भी अचानक नहीं घटित हुई हैं। उनके पीछे एक लंबा वैचारिक संघर्ष और संवाद रहा है।
घोषणाएं तानाशाहों की निशानी हुआ करती हैं। जब हम इस देश के जड़ विचारों से लड़ रहे हैं तो हमें नए हथियार तलाशने की जरूरत है। नफरत का जवाब और नफरत नहीं है। झूठ को झूठ से नहीं पराजित किया जा सकता।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास पर  जब विचार-विमर्श , आरोप -प्रत्यारोप, आलोचनाएँ हो ही रहीं हैं, तो कुछ विचार-विमर्श इसपर भी हो कि - आचार्य शुक्ल के इतिहास में कितनी ऐसी नई अन्तरदृष्टियाँ हैं, जिनकों लेकर नये-नये शोध , नये-नये विचार विमर्श और आलोचनाओं के मार्ग प्रशस्त होते हैं । मुझे तो आचार्य शुक्ल से ज़्यादा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'हिन्दी
साहित्य की भूमिका' में ऐसे नये शोध ,आलोचना,विमर्श के मार्ग मिलते हैं... मैं हिन्दी के विद्वानों को इस पर अपने विचार रखने के लिये आमन्त्रित करता हूँ।
हिंदी बौद्धिकजगत में   विवेकहीनता किस तरह चरम पर है उसकी झलक लेनी हो तो बस एकबार हिंदी के महान आलोचक रामचन्द्र शुक्ल के बारे में विगत दो दिनों में लिखी गयी अधिकांश फेसबुक टिप्पणियों को चुपचाप पढ़ जाइए।अनैतिहासिकता किस कदर हिंदी के बौद्धिक जगत में घर बना चुकी है।इसके आपको साक्षात अनुभव चंद मिनटों में ही हो जाएंगे।
“ईश्वर साकार है या निराकार, लम्बी दाढ़ी वाला है या चार हाथ वाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजने वालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठाने वालों से, इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे। इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है, उनके संबंध में प्राचीन पौराणिक कथाएं और कल्पनाएं (छः दिन में सृष्टि की उत्पत्ति, आदम हौव्वा का जोड़ा, चौरासी लाख योनि इत्यादि) हैं, वे अब ढाल तलवार का काम नहीं कर सकतीं।”__रामचंद्र शुक्ल (चिंतामणि-३ / पृ. – १८१)
''जाति संस्था ने प्रजाति की शुद्धता को सुरक्षित रखने का असफल प्रयत्न किया है। इतिहास का हर छात्र जानता है कि भारतीय रक्त शक, यवन, यूची, हूण, मंगोल, आर्य तथा द्रविड़ रक्तों का मिश्रण है। जाति व्यवस्था के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसने मनुष्य को स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है। इसके तथाकथित समर्थकों के किसी भी सदस्य द्वारा यह प्रति-संतुलित(Counter Balanced) नहीं की जा सकती।'' और ''भारतीय समाज की प्रगति में रामायण काल से ही भावशून्य वर्ण और जाति बहुत बड़ी बाधा रही है। जब तक यह अस्वाभाविक प्रणाली प्रचलित रहेगी, समाज का विनाश और उसके साथ हमारा भी विनाश है।''___रामचंद्र शुक्ल
(आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग -4, पृ.-२०२)
ये विचार उन्हीं रामचंद्र शुक्ल के हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा है और जिनपर जातिवादी और सांप्रदायिक होने के आरोप हैं। हाँ ये विचार उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों पूर्व लिखे लेखों यथा 'जाति व्यवस्था', 'धर्म का विकास' आदि में मौजूद मिलेंगे। मेरा यह कहना है कि किसी भी आलोचक के लेखन में वैचारिक विकास को भी देखा जाना जाहिए। आचार्य शुक्ल पर शोध-कार्य करते हुए मेरी निजी समझ यह रही कि वे अपने उत्तरवर्ती लेखन में खुद को बदलते हैं। जैसा कि किसी भी लेखक के साथ संभव है। यह बदलाव या विकास हम तब एकदम नहीं देखेंगे या नहीं देखना चाहेंगे जब सांप्रदायिक व जातिवादी का लेबल लगाकर उन्हें खारिज करने के अभियान में मुब्तिला होंगे।
ये जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर  'जातिवादी व संप्रदायवादी' होने का मिथ्या आरोप मढ़ रहे हैं, यदि वे जाति शब्द से पूर्णतया परिचित होंगे तो उन्हें भी पता लग गया होगा कि उन सब का भी अब एक जाति बन गया है। मैं तो निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वे जाति शब्द से भलीभाँति परिचित हैं तभी कौओं की तरह कवाय रहे हैं। विद्वान कुतर्क व आरोप मढने के बजाय कर्म करते हैं जिससे उनकी अपनी इयत्ता स्वतः स्थापित हो जाती है।  आप कवाँते  रहिये, कुछ होने वाला नहीं है तब तक ,जब तक कि कोई शुक्लजी जैसा मनीषी उत्पन्न नहीं हो जाता। जो कि होने से रहा !!! शुक्ल जी वो आधार हैं जिससे हिंदी-साहित्येतिहासलोचन नामक भवन निर्मित है। ध्यान रहे इस युग पुरुष को ढहाने की कोशिस की तो भवन गिरना तय है। और इसी भवन की क्षत्रछाया में न केवल समूचा हिंदी साहित्य पनपा है ,और पनप रहा है बलकि अन्य साहित्यिक भी उनसे प्रेरणा-प्रेरित हैं।
मेरे प्यारे छोटे भाईयों ( बड़ो को ज्ञान दे सकूं इस लायक नहीं ) और बहनों         ( विशेषकर ) के लिए
स्त्री विमर्श का अर्थ "वामा- विलाप" नहीं है ...
एक दिन पहले शायर मिज़ाज छोटे भाई ने कहा कि " आचार्य शुक्ल की स्त्री दृष्टि पर भी लोग बोल रहे हैं |"
मेरा कहना था - " छोटे भाई इतना समय नहीं है कि केवल फेसबुक मेंटेन कर पाऊं | पोस्ट लिखना, तर्क- वितर्क करना और आजकल कुतर्क भी करना, फिर गोष्ठी बैठाकर एक- एक कमेन्ट पर विमर्श करना और उसके बाद कैसे "चापलूसी विधा" को आगे बढ़ाएं - इस पर अनुसंधान करना, माफ़ी चाहूंगी इतनी क्षमता मेरी नहीं है | मेरे लिए फेसबुक का अर्थ बस इतना है कि समय मिला तो देख लिया | कभी कुछ थोड़ा रोचक लगा तो डाल दिया | या फिर कभी मन न लगा तो ...बस इतना ही |
विस्तार में नहीं जाउंगी ...लेकिन दृष्टान्त हमारे पुरोधाओं को समझने के लिए काफ़ी है | ये है तो विवेकानंद का साक्षात्कार, जिन पर अभी मैं लेख लिख रही   थी | ये उस युग के विचारकों के मानसिक धरातल को और स्त्री सम्बन्धी दृष्टि को समझने के लिए बहुत आवश्यक है जिसमें आचार्य शुक्ल बड़े हुए थे | हो सकता है ये स्थापना साहित्य में न हो लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि ये सत्य ही नहीं है | इसके बाद भी आपत्तिजनक विपत्ति आ जाए तो एक बार दिनकर के लेखों को पढ़ लेंगे | इतनी विनती के साथ साक्षात्कार -       
इस सन्दर्भ को हम इस प्रकार समझ सकते हैं वर्ष १८९८ के दिसम्बर में प्रबुद्ध भारत के प्रतिनिधि ने स्वामी जी से स्त्रियों के विषय में कुछ प्रश्न पूछे | इनमें से कुछ प्रश्न और उनके उत्तर इस प्रकार हैं -
“ और इसलिए आपका विचार है कि हमलोगों में नारी की असमानता पूर्णतया बौद्ध मत के कारण है ?”
“जहाँ वह है निश्चय ही ऐसा है स्वामी जी ने कहा, “ पर हमें यूरोपीय आलोचना की अचानक आयी हुई बाढ़ और उसके कारण अपने में उत्पन्न हुई अंतर की भावना के वशीभूत होकर अपनी नारियों की असमानता के विचार को स्वीकार करने में अत्यधिक शीघ्रता नहीं करनी चाहिए | परिस्थतियों ने हमारे लिए अनेक शताब्दियों से नारी की रक्षा की आवश्यकता को अनिवार्य बनाया है | हमारे इस रिवाज का कारण इस तथ्य में है, नारी की हीनता में नहीं |”
“तो स्वामी जी आप हमारे बीच नारियों की स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट हैं ?”
“कदापि नहीं” , स्वामी जी ने कहा,  “ पर हमारा हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल शिक्षा का प्रचार कर देने तक ही सीमित है | हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें | उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए | और हमारी भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भांति इसे करने की क्षमता रखती है |”
“वह बुरा प्रभाव, जिसका कारण आप बुद्धमत को बताते हैं, क्यों आया ?”
“वह केवल धर्म के क्षय से आया |”
स्वामी जी ने कहा, “प्रत्येक आन्दोलन अपने कुछ असाधारण लक्षणों के कारण विजय प्राप्त करता है , और जब वह गिरता है, तो यही गर्व का विषय उसकी दुर्बलता का मुख्य तत्व बन जाता है | भगवान् बुद्ध, मनुष्यों में महानतम, अद्भुत संगठनकर्ता थे, और उन्होंने इस साधन से संसार को विजित किया | पर उनका धर्म भिक्षुओं का धर्म था|  इसलिए इसका बुरा प्रभाव यह पड़ा कि स्वयं भिक्षुक का वेश ही आदर का पात्र हो गया | उन्होंने पहली बार धर्म- स्थानों पर सामूहिक जीवन का भी आरम्भ किया और उससे नारियों को अनिवार्यत: नरों से हीन बना दिया; क्योंकि महा भिक्षुणियाँ कुछ विशिष्ट भिक्षुओं की सलाह के बिना कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकती थीं | इससे उनके तात्कालिक उद्देश्य, धर्म की दृढ़ता, की तो पूर्ति हो गयी; पर आप देखते हैं कि उसके जो दूरगत परिणाम निकले, वही शोचनीय हुए |”
“ पर संन्यास को तो वेदों की स्वीकृति प्राप्त है! ”
“निश्चय ही है ; पर उसमें नर और नारी के बीच कोई भेद नहीं किया गया है | आपको याद होगा कि राजा जनक की सभा में याज्ञवल्कय से किस प्रकार प्रश्न पूछे गए थे ? उनकी मुख्य प्रश्न करने वाली थी, वाचक्नवी, वाग्मी कन्या – ब्रह्मवादिनी, जैसा उन दिनों कहा जाता था | वह कहती है, “ मेरे प्रश्न एक कुशल धनुर्धर के हाथ में दो चमकदार तीरों के समान हैं |” उसके नारी होने की चर्चा भी नहीं की गयी है | और फिर क्या वनों में स्थित हमारे पुरातन विश्वविद्यालयों में लड़कों और लड़कियों की समानता से अधिक पूर्ण कुछ और हो सकता है | हमारे संस्कृत नाटकों को पढ़िए, शकुंतला की कहानी पढ़िए और देखिए कि क्या टेनीसन की ‘प्रिंसेज’ हमें कुछ सिखा सकती है ?” 
अंत में यही कहूंगी यदि तर्क की ही आवश्यकता है तो उसका स्तर भी श्रेष्ठ होना चाहिए | केवल मैं स्त्री हूँ या मैं "अमुक" हूँ ...यह कहकर छूट नहीं लेनी चाहिए |
दूसरी बात 'विरोध के लिए भी अध्ययन उतना ही मजबूत होना चाहिए और हम सब अभी निर्माण की स्थिति में हैं |
तीसरी बात यदि मेरा स्वपन आदरणीय डॉ. शिव प्रसाद सिंह के 'नीला चाँद' की तरह लिखने का है और यदि यह मैं पूरा नहीं कर पायी तो मुझे कोई हक नहीं कि वामा-विलाप के नाम पर पुरुषों को सर पकड़कर और छाती पीटकर गाली देने लग जाऊं | हाँ  हमारे लिए रास्ते कुछ ज्यादा कठिन हैं मैं मानती हूँ | हिम्मत भी बढ़ानी ही होगी |
यह देखकर आश्चर्य होता है और दुख भी कि हिन्दी के किसी स्थापित लेख़क को निशाना बनाकर उसकी अत्यंत आपत्तिजनक छवि पेश कर देते हैं।उसके विशाल साहित्य से प्रसंग, संदर्भ को काटकर और समयच्युत कर प्रतिपक्ष हिस्से को प्रस्तुत कर दिया जाता है।अथवा बिना ऐसा किये भी फतवा की शक्ल में कुछ टिप्पणी जड़ दी जाती है।अब फेसबुक पर जिसकी प्रकृति ही संक्षिप्त  तात्कालिक और क्षणिक होती है, आप चाहकर भी वास्तविकता नहीं बता सकते।इसके लिए आप पढ़िये, उस पर लिखा पढिये और फेसबुक पर जवाब लिखिये।जाहिर है यह तो संभव नहीं,फिर यह बात कम पढ़े लिखे या युवाओं के भीतर उतर जाती है। फिर इसे ही परम सत्य मानकर पढ़ते ही नहीं।यह प्रवृत्ति बहुत ही घातक है।कहना यह चाहिए कि इस पर ये ये पढ़िये और अपनी सोच बनाइये।जैसे,तुलसीदास वर्णव्यवस्था के पोषक हैं, वे दो कौड़ी के हैं। निराला जी ब्राह्मण थे उनमें हिन्दुवाद है।रामचन्द्र शुक्ल रियेक्शनरी हैं। हम कहते हैं तुम ये ये पढ़ो। इनकी रचनाओं में जो श्रेष्ठ है, रचनात्मक है,उसकी पहचान करो।जो आपत्तिजनक है, उसकी आलोचना करो।अब तुम इस तरह अपना आलोचनात्मक विवेक विकसित नहीं करोगे तो बौद्धिक विकलांग बनकर रह जाओगे।फेसबुक पर शुरू हुए हो,फेसबुक पर ही मिट जाओगे।जर्मन उपन्यासकार हापमैन हिटलर का समर्थक था।उसने द बुअर नाम से एक अमर उपन्यास लिखा।उसे नोबेल पुरस्कार मिला।उसी तरह बालजाक हैं, टालस्टाय हैं। इनका जीवन पढ़ो तो चकित रह जाओगे। मगर इनकी महानता ऐसी कि जब तक यह धरती रहेगी,ये रहेंगे। इसलिए युवाओं तुम्हारे पास दिमाग है,विवेक है तो किसी की मत मानो।खुद पढ़ो,उस पर आलोचना पढ़ो। आलोचनात्मक विवेक से पढो।खुद की समझ विकसित करो।अगर राजनीतिक छेछड़ई वाली अक्ल से साहित्य और बौद्धिकता हासिल करोगे तो इस इलाके के छेछड़ ही बन कर रह जाओगे। जो मन करे,सो  करो।हमारा क्या बिगाड़ लोगे--खाक?
प्लाखानोव बाद में कम्युनिस्ट विरोधी हो गये थे।छात्र जीवन में स्टडी सेंटर में बताया गया था कि तब भी लेनिन मार्क्सवाद को ठीक से  समझने के लिए उनकी की किताब बताते थे।संग्रह और त्याग का विवेक नहीं है तो साहित्य और बौद्धिकता से बाहर चले जाइये।पंसारी की या पकौड़े की दुकान खोलिये अथवा किसी पार्टी का झंडा ढोइ...

मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूँ तो क्या हुआ! इतिहास का तो हूँ! और सम्प्रति आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जिस कृति पर बहस छिड़ी हुई है, वह रचना है - "हिन्दी साहित्य का इतिहास"। स्पष्ट है कि बहस के लिए इसमें हिन्दी साहित्य और इतिहास दोनों ही विषयों के विद्यार्थीयों की आधी-आधी हिस्सेदारी बनती है। ऐसे में, मैं आधे के हिस्सेदार की हैसियत से कुछ कहना चाहता हूँ। इससे हिन्दी साहित्य वालों का ईगो हर्ट नहीं होना चाहिए।

पहली बात तो यह कि बउआ विहाग ने जो बात कही है, वह कोई नई बात नहीं है। मेरा प्रणाम उनको है जो विहाग द्वारा फेंके जाने के साथ ही उसे लपक लिया और च्विंगम की तरह चबाने लगे।
पहले वाक्य में बउआ ने कहा कि"रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास साम्प्रदायिक और जातिवादी है।" ठीक बात है। लेकिन इसीलिए तो हमारे इतिहास का विषयानुशासन(Discipline) कहता है कि इतिहास की कोई पुस्तक पढ़ने से पहले, उसके लेखक को पढ़ो और उस लेखक को भी पढ़ने के पहले उस पृष्ठभूमि का अध्ययन करो, जिसमें वह लेखक लिख रहा है। (मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा कि विहाग 0को इतनी सी बात पता नहीं होगी। लेकिन हरेक पता बात को आत्मसात कर लेना आसान नहीं होता। उसमें हमारी पक्षधरता आड़े आती है). माने कि यह मानकर चला जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने युग के बन्धनों और अपने निजी चेतना-अवचेतना व पूर्वाग्रहों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता है।
1929 में शुक्ल जी के "हिन्दी साहित्य का इतिहास" के प्रकाशित होने के समय तक भारत में साम्प्रदायिकता का अच्छा-खासा खेल खेला जा चुका था। ऐसे में किसी भी लेखक द्वारा अपने साम्प्रदायिक पक्ष का बिल्कुल तिरोहण सम्भव था क्या! ऐसी ही बात कम से कम एक एक उत्तर भारतीयों की जातीय चेतना के विषय में कही जा सकती है।
बउआ ने दूसरे वाक्य में कहा कि "हिन्दी अकेडमिया को तुरंत इसका (शुक्ल जी रचित"हिन्दी साहित्य का इतिहास"का) विकल्प खोजना चाहिए और इस इतिहास को इतिहास के संग्रहालय में डाल देना चाहिए।"
इस सम्बंध में मेरा मानना है कि केवल शुक्ल जी के इतिहास को ही क्यों इतिहास के संग्रहालय में डाल देनी चाहिए! मैं तो कहता हूँ कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले लिखे गए सारे इतिहास के कृतियों को इतिहास के संग्रहालय में डाल दिये जायें। प्रत्येक पीढ़ी को अपना इतिहास स्वयं लिखना और पढ़ना चाहिए। तभी इतिहास का अध्ययन हमारे किसी काम आएगा। वरना पढ़कर केवल स्नातक-स्नातकोत्तर की परीक्षाओं को पास करने के लिए तो शुक्ल जी का इतिहास भी काफी है।...
हिन्दी के आलोचक- जिनकी आज पुण्यतिथि है.-1
आलोचक प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री 
राजनीति, साहित्य और समाज-सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाले प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री (2.5.1929 - 17.4.2005 ) की ख्याति एक कुशल वक्ता और आदर्श शिक्षक की भी है. वे भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं.  ‘कवि निराला की वेदना तथा अन्य निबंध’, ‘तुलसी के हिय हेरि’, ‘अनंत पथ के यात्री : धर्मवीर भारती’, ‘अनुचिन्तन’, ‘कुछ चंदन की कुछ कपूर की’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष’, ‘भक्ति और शरणागति’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं. उनकी कृतियों का संग्रह ‘विष्णुकान्त शास्त्री : चुनी हुई रचनाएं’( 2 खंड ) प्रकाशित है जिसके प्रथम खण्ड में आलोचनात्मक निबंध हैं. इसमें क्रमश: कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर और सर्वेश्वर का मूल्यांकन किया गया है. चार निबंधों का विवेच्य विषय है- काव्य का वाचिक संप्रेषण, आधुनिक हिन्दी कविता और छंद, गीत और नवगीत तथा बांग्लादेश की संग्रामी कविता.
कबीर और तुलसी की तुलना करते हुए उन्होंने जो लिखा हैं उससे उनकी दक्षिणपंथी वैचारिक दृढ़ता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है, “मैं यह तो मानता हूं कि प्राचीन कवियों और उनकी कृतियों को आधुनिक दृष्टियों की कसौटी पर भी कसना चाहिए, इससे उनके नए पहलू उजागर होते हैं, किन्तु ऐसा करते समय उनकी मूलभूत निष्ठा को विस्मृत कर देना उचित नहीं है. ऐसा हुआ तो हम अंतरंग की उपेक्षा कर बहिरंग को ही प्राधान्य दे देंगे. आखिर इसपर तो विचार करना ही चाहिए कि कबीर और तुलसी बुनियादी तौर पर क्या थे? क्या उनकी पहली पहचान समाज सुधारक, लोकनायक आदि की हो सकती है? सच्चाई यही है कि कबीर और तुलसी दोनो मूलत: भक्त थे.  दोनो परम तत्व से अपना संबंध निष्काम प्रेम के द्वारा जोड़ना चाहते थे. दोनों की वास्तविक निकटता या दूरी इसी मुद्दे के ऊपर प्रकट किए गए उनके भावों, विचारों से तै की जा सकती है. मेरा नम्र निवेदन है कि इस क्षेत्र में दोनो में अस्सी प्रतिशत से भी अधिक साम्य है.” ( तुलसी के हिय हेरि, पृष्ठ -253)
शास्त्री जी की आलोचना का फलक विस्तृत है. उनकी जीवन- दृष्टि और इसीलिए आलोचना- दृष्टि भी बहुत कुछ तुलसी की जीवन-दृष्टि और काव्यादर्श से प्रेरित और प्रभावित सी लगती है. उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और रामस्वरूप चतुर्वेदी पर विस्तार से लिखा है. इनपर लिखते हुए शास्त्री जी ने इनसे अपनी सहमतियों और असहमतियों- दोनो को पूरी ईमानदारी से व्यक्त किया है.
डॉ. रामचंद्र तिवारी ने उनकी आलोचना की विशेषताओं को बड़े व्यवस्थित ढंग से रेखाँकित किया है. वे लिखते हैं, “ शास्त्री जी के आलोचना-कर्म की पहली सामान्य विशेषता यह है कि वे आलोच्य विषय से सम्बद्ध समस्त ज्ञातव्य तथ्यों को सामने रखकर पूरी तैयारी के साथ आलोचना-कर्म में प्रवृत्त होते हैं. इसे उन्होंने अपनी पूर्णता-ग्रंथि कहा है. इस ग्रंथि के चलते उनकी आलोचना में अनुशीलन के तत्व भी संश्लिष्ट हो गए हैं. पंत, दिनकर, महादेवी और सर्वेश्वर की आलोचनाएं अपवाद हैं. संदर्भ- गर्भत्व इन आलोचनाओं में भी है किन्तु वह विविध संदर्भ –स्रोतों से नीत न होकर लेखक के आलोचक व्यक्तित्व में रचा- बसा और उसका सहज अविभाज्य अंग बनकर सामने आया है. दूसरी विशेषता यह है कि शास्त्री जी का पूरा लेखन संतुलित है. न तो उन्होंने किसी को एकतरफा खारिज किया है न आसमान पर चढ़ाया है. आलोच्य कवि या आलोचक की सीमाओं का उल्लेख भी बड़ी विनम्रता के साथ किया है.  उनके वैष्णव संस्कार आलोचना में ज्ञात- अज्ञात रूप में सक्रिय रहे हैं. किन्तु विशेष बात यह कि निर्णय के स्तर पर उनकी विनम्रता ने कहीं कोई समझौता नहीं किया है. निराला की भक्तिकाव्य संबंधी रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और नंदकिशोर नवल की आलोचनाओं को उद्धृत करने के बाद लेखक ने अपना निर्णय इन शब्दों में दिया है, “ मैं इन मतों को मार्क्सवादी आलोचना की स्थूलता और विफलता का उदाहरण मानता हूँ.” इससे लेखक की आस्थामूलक दृढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है. शास्त्री जी की आलोचना की तीसरी विषेषता है, निरंतर सक्रिय बुद्धि और हृदय की सहभागिता. यदि बुद्धि आलोच्य विषय के चयन, विश्लेषण, तुलनात्मक परीक्षण और निष्कर्ष –बिन्दु तक पहुंचने की दिशा में सक्रिय रहती है तो हृदय उसके साथ सहभाव बनाए रखकर आलोच्य विषय में अंतर्भूत, कोमल कठोर भाव –स्थितियों को धारण करने वाले मर्मक्षणों के उद्घाटन में प्रवृत्त. कहा जा सकता है कि शास्त्री जी की आलोचना में पुरुष और प्रकृति दोनो का स्वर समान भाव से मुखरित है. उनमें समरसता है, प्रतिद्वन्द्विता नहीं. हृदय से अनुप्रेरित होकर ही उनकी बुद्दि आलोचना-कर्म में प्रवृत्त हुई है. यह और बात है कि वह भी उनके अंतरतम में संचित संस्कारों से अनुप्राणित है. शास्त्री जी की आलोचना की चौथी विशेषता यह है कि परंपरा और शास्त्र का आधार लेते हुए भी न तो वह परंपराग्रस्त हैं, न शास्त्रबद्ध. उनका विश्वास, परंपरा की पुनर्व्याख्या में है. इसलिए पुराने कवियों की आलोचना करते समय भी उन्होंने आधुनिक मानसिकता वाले पाठकों का ध्यान रखा है.  ( विष्णुकान्त शास्त्री अमृत महोत्सव : अभिनंदन ग्रंथ, खण्ड-3, पृष्ठ 119)
   शास्त्री जी अपने व्यवहार और आचरण में भी अत्यंत सौम्य और उदार थे किन्तु वैचारिक दृढ़ता में संघ की विचारधारा के प्रति पूर्ण आस्थावान. 1992 ईं में तथाकथित बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय कार सेवक के रूप में प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री भी अपनी टोली के साथ अयोध्या पहुंचे थे.
शास्त्री जी बहुत उच्च कोटि के शिक्षक थे. राजनीति में रहते हुए भी उनके भीतर राजनीति के छल-प्रपंच, झूठ-फरेब आदि अवगुण नहीं थे. राज्य- सभा के सदस्य रहते हुए अनेक बार वे दिल्ली से कोलकाता हवाई अड्डे पर आते और वहाँ से सीधे विश्वविद्यालय में अपनी कक्षा में होते. विरोधी विचारधारा के लोगों से भी मैंने अनेकश: उनकी प्रशंसा सुनी है. ‘राम जी की कृपा से’ कहकर वे अपने प्रत्येक कार्य ‘राम’ पर छोड़ देते थे और स्वयं को निमित्त मात्र मानते थे.
  फिलहाल, संस्मरण शास्त्री जी की रचना- धर्मिता की केन्द्रीय विधा है. उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी. अपने विरोधी विचारधारा के कवि नागार्जुन की भी दर्जनों कविताएं उन्हें याद थी.
शास्त्री जी का निधन 17 अप्रैल 2005 को ट्रेन में हृदयगति रुक जाने से हो गया था. हम उनकी पुण्यतिथि पर समाज के लिए किए गए उनके योगदान का स्मरण करते हैं और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं...


-गोलेन्द्र पटेल【बीएचयू】

नोट : यह लेख मेरा नहीं है......बस अपने लिए है।

No comments:

Post a Comment