Golendra Gyan

Saturday, 30 July 2022

प्रेमचंदनामा : गोलेन्द्र पटेल / प्रेमचंद पर कविताएँ / कथा सम्राट प्रेमचंद की 142 वीं जयंती पर स्मृति की कृति


 
प्रेमचंदनामा : गोलेन्द्र पटेल

1. प्रेम के प्रदीप प्रेमचंद


दुखिया चमार के चेहरे पर

दर्द का दाग है

उसे देखने वाली आँखों में आग है

जहाँ जड़ता की जड़ का फटना

सद्गति की सड़क पर अंतिम यात्रा करना है


संवेदना के श्यामपट पर लिखा है

सामंतवाद मुर्दाबाद!

प्रत्येक पंक्ति में प्रसव की पीड़ा है

कर्ज वह कीड़ा है

जो एक बार काट ले 

तो आदमी की मृत्यु निश्चित है

होरी इस बात का गवाह है


आज जो चरवाह है

वह सत्ता का चारा है

हर हलधर हालात का मारा है

आह! जीवन की रंगभूमि में खड़ा सूर

लाचार बेसहारा बेचारा है

मरजाद की बेड़ी से मुक्त किसान

हल्कू मजदूर

'पूस की रात' से हारा है


महाजनी व वर्णव्यवस्था का मुँह लाल है

जो क्रांतिकारिन धनिया के गाल का कमाल है

मालती व सोफिया प्रेम की ममतामयी मूर्ति हैं

मेहता व विनय की स्फूर्ति हैं

सिलिया वंचना के भीतर वंचना का शिकार है

विधवा झुनिया से गोबर को प्यार है

अपने मर्द द्वारा मार खाती स्त्री को 

उसकी छाती पर चढ़कर 

उसकी मूँछ उखाड़ने का अधिकार है


अब जब न्याय अमीर के लिए भोग है

गरीब के लिए रोग है

तब सब योग सोग है

यह शब्द और अर्थ का कैसा संयोग है!


बुधिया की चीख यह सीख है कि

भूख हर आदमी की मति हर लेती है

आह! घीसू और मावध 

असंवेदनशीलता की आँच में आलू भुनते रहें

शराब के नशे में कबीर के पद चुनते रहें


मुन्नी, गंगी, सोना, रूपा, सरोज, आनंदी, गोविंदी

मनोविज्ञान की दृष्टि से सार्थक पात्र हैं

सिमोन द बोउआर के प्रेमी-पथप्रदर्शक पॉल सा‌र्त्र हैं

(मालती व मेहता के बीच का संबंध

भारतीय व पश्चात संस्कृति की समन्वित गंध है)


'पंच परमेश्वर' के 'रामधन' का मन पढ़ना

असल में न्याय के पक्ष में खड़ा होना है

जाति और धर्म से मनुष्यता का बड़ा होना है


प्रेमचंद कहानी के छंद में प्रेम के प्रदीप हैं

करुणा की कसौटी पर कथा में कथ्य व कला की कीप हैं!


(©गोलेन्द्र पटेल

31-07-2022)


2. प्रेम-तीर्थ के पथ पर प्रेमचंद से प्रार्थना


प्रिय धनपतराय!

अपनी पीढ़ी की सीढ़ी पर चढ़ता हुआ

मेरा कवि मुझसे कह रहा है कि

काश कि सभी को पता होता कि

विश्वास के आकाश में गजब का प्रकाश है

पर भयभीत भाषा में यथार्थ का विनाश है!


हे रव के रवि!

क्या कथा में चरित्र की छद्म छवि

उद्देश्य की 'सौत' है?


जब भी देखा

जर्जर वस्त्र में देह का दीपक अधिक देखा

फटे जूते में अनंत 'समर-यात्रा' का पथिक देखा

शायद पिता अजायबराय प्रसिद्ध पोस्टमैन थे

बाल्यकाल में ही दुनिया के लेखकों से परिचित

कलम का सच्चा सिपाही देखा


जब भी सुना

'सूरा' और 'होरी' की तबाही सुना 

'गोबर' और 'धनिया' की गवाही सुना

'बुधिया' की चीख सुना

मनुष्यता की मिट्टी में उगी ईख की सीख सुना


और सुना

'सोजेवतन' में 'बलिदान' का गान 

सार्थक स्वर का स्वाभिमान

'अफसाना कुहन', 'कफ़न' ,'सद्गति', 'सेवादसदन', 'निर्मला' 

'प्रेरणा', 'कायाकल्प', 'सवा सेर गेहूँ', 'प्रेम-पचीसी',

'ईदगाह', 'पंच-परमेश्वर', 'परीक्षा' , 'बालक' , 'नमक का दरोगा', 'प्रेमाश्रम'

'बड़े घर की बेटी', 'दो बैलों की कथा', 'रंगभूमि', 'गोदान', 'गबन' व 'कर्बला'

'आत्माराम'! इनमें भारतीय आत्मा की आवाज़ है

सारे संसार की स्याह संस्कृति का संपूर्ण समाज है


तुम्हारी स्वतंत्रता की चाहत में 

एक अलग तरह का स्वराज है

'सोफिया' से लेकर 'मालती' तक, 'विनय' से लेकर 'मेहता' तक

सभी के बीच 'गोविंदी' के गुणों की चर्चा है

बहुत मिठी मिठाई मर्चा है

कुर्सी पर 'जॉन' की जगह 'जयसिंह' का परचा है

स्वच्छंद, निस्पृह और विचारशील व्यक्ति की दृष्टि

सृष्टि की सेवा में दृश्य धुनती है

और सुबह-शाम सागर में मोती चुनती है

जहाँ विचारोत्कर्ष है सौंदर्य का वास्तविक शृंगार


'सर्वहारा वीर' तो तुम नहीं थे

दिशाहारा तो तुम नहीं थे

राहहारा तो तुम नहीं थे

हे गद्य के तुलसी! हे कथा सम्राट! हे कहानीकार!

थे तुम 'बलिदान-पथ' के चिरंजीवी चिंतक

तुम्हारे सोच की सृजन में शामिल रहे

'गोर्की' और 'लूशुन' के विचार


हे दलित के दीपक! हे गाँव के गायक!

हे नर के नायक!

दोस्त-दुश्मन की पहचान थी तुम्हें खूब

बूढ़ी महाजनी सभ्यता और 

मरजाद की बेड़ियों को काटने की कला

भला कौन नहीं सीखना चाहता है?

तुमने सीखाया क्रांति के पक्ष में खड़ा होना

तुमने सीखाया बुरे वक्त में बुद्धि से बड़ा होना


हे चेतना के चिराग!

तुमने लगाई शोषकों के महल में आग

तुमने गाया सदा रोशनी का राग

तुमने सीधी-साधी बात सीधी-साधी जनता को

सरल-सहज-सरस भाषा में समझाया


हे सत्य के साधक!

परिवर्तन के युद्ध के बुद्ध!

स्नेह, समता, न्याय से प्रतिबद्ध, साहित्य के सूर्य!

ज़िन्दगी की तान के तूर्य!

तुम्हारी कथा की धमनियों में धरती की धुन,

खेतों की ख़ुशबू, विविध फूलों के रंग, नदी की उमंग

और भोर का भक्त नक्त है, संवेदना सशक्त है

शहर का राजनीतिक रक्त है, वाया वक्त है


हे 'शतरंज के खिलाड़ी'!

अँधेरे में मानवता की मणि!

गगन भी गाता है तुम्हारा गौरव गीत, हे मुंशी मीत!

लमही से आ रही है जय की लय

तुम्हारे शब्द दुख की दुपहरी में वृक्ष बन गए

और तुम्हारी प्रोक्ति 'लाल फीता' का बंधन तोड़ने की 'प्रेम-प्रतिज्ञा'

तुमसे हर आदमी आदमी होने का हुनर हासिल करता है


हे 'प्रेम सरोवर' के अरुण कमल!

तुम स्वप्न, संघर्ष व साहस के स्रष्टा हो

तुम भविष्य द्रष्टा हो

तुमने बताया, 'एक गिलास पानी' का महत्व 

____'नवजीवन' का तत्व

चारों ओर दुविधा और दहशत का धुआँ है

'गंगी' के पति 'जोखू' के सामने मौत का कुआँ है

जी हाँ, जो एक 'ठाकुर का कुआँ' है


हे ऋषि-कथाकार प्रेमचंद!

कहानी के अद्वितीय छंद!

संकल्प के अभियान में तब्दील होना

असल में आगामी प्रलय की प्रयोगशाला में पुरखों को बोना है

हवा नहीं है अनुकूल

परिवेश है प्रतिकूल

मैं तुम को बो रहा हूँ कविता की क्यारी में किसान की तरह

तन-मन से बहुत जतन से, साधना के सपूत! 


हे मानस के हंस!

'नवनिधि' के 'मंगल सूत्र'!

नये 'संग्राम' में 'प्रेम की वेदी' पर चढ़ने की शक्ति दो मुझे!

मैं 'कर्मभूमि' में 'पूस की रात' का 'हल्कू' हूँ

'प्रेम-प्रमोद' की गोद में ले लो मुझे

आज 'प्रेम-पंचमी' है परसों नागपंचमी

'प्रेम-तीर्थ' के पथ पर 

मुझ अबोध पाठक की यही प्रार्थना है रोज़

कि हर सुबह हर घर खिले 'सप्तसुमन' व 'सप्त सरोज'!


(©गोलेन्द्र पटेल

30-07-2022)

3. यथार्थ के पार्थ प्रेमचंद


हे आकाशधर्मा अध्यापक! शिवरानी के सोहाग!
बहुत दिनों के बाद मिला है यह सौभाग्य
कि मैं लिखूँ काव्य में तुम्हारी रोशनी का राग
जाग! जाग!! महात्याग तू जाग!
अंतःकरण में आग लगी है लेकिन जल रही है लाग
भाग! भाग!! झाग तू भाग!
धारा की विपरीत दिशा में अनवरत
तैरने की कला है तेरे साथ
और हिम्मत के हाथ भी

हे उदात्त कलाकंद!
अवनि की आत्मा की आँख और आकाश का
पसंद---- प्रेमचंद!
तुम महाजनी मानसिकता एवं सामंती सोच के विरुद्ध
युद्ध हो
शांति की क्रांति का बुद्ध हो
जीवन के रंगमंच पर सामाजिक चित्त के चित्रकार हो
सांस्कृतिक टिप्पणीकार हो
भाषा में उदार हो
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के मंत्र हो
असली लोकतंत्र हो
प्रत्येक पाठक की पुतली हो

तुम्हारे सामने कल्पना और विचारधारा क्षुद्र सिद्ध हो चुकी हैं
आलोचना के अस्त्र-शस्त्र हो रहे हैं बेकार
तुम वेदना के वेत्ता व बुद्धि की वृष्टि हो
नवोन्मेषी इतिहास-दृष्टि हो
नवजागरण की सृष्टि हो

अंधेरे में 'आपका चित्र' आलोक है
'ख़ून सफे़द' दूध जैसा आर्यसमाज का श्लोक है
तुम्हारी लय का व्यापक लोक है
तुम प्रगतिशील जिज्ञासा के जहाज़ हो
तिमिर की तान के ताज हो

हे समय के शब्द! सत्य के स्वर!
मानवीय मशाल! स्मृति के बरगद विशाल!
काल-त्रिकाल सब मानते हैं कि तुम्हारी कृति अमर है
क्या ख़ूब किया तुम ने
समोज्ज्वल संवाद का इस्तेमाल!
सर्वप्रथम तुम ने देखा 'मनुष्यता का अकाल'
सत्ता से पूछा सवाल

हे संवेद्य, संवेदन, संवेदना व संवेदनशील के चतुष्टय!
अनुभव, ज्ञान, संकल्प व चेतनाधारी नज़र के नंद
--- प्रेमचंद!
मन की हिलोरें हँस रही हैं मंद-मंद
मैं डूब रहा हूँ तुम्हारे पसीने में जहाँ श्रम की सुगंध है
पहुँच गया हूँ 'कल्पकाया' के भीतर
ओ हो! यहाँ नीति और नीयत के बीच नियति है
मगर मष्तिष्क में मौजूद मति है

हे प्रयत्न के रत्न! यथार्थ के पार्थ!
तुम वैश्विक विश्वास हो
आधुनिक भारत का महाभारत लिखने वाले व्यास हो
सच कहूँ तो तुम एक अतृप्त प्यास हो
परम अभिव्यक्ति आलोकित आत्मा-सम्भवा हो
प्रत्येक पुनरुक्ति में पुनर्नवा हो

मैं चाहता हूँ____
तुम मुझे सृजन के 'संग्राम' में दाँव-पेंच सीखाओ!
मैं चाहता हूँ____
मैं तुम्हारे सम्मुख 'प्रेम प्रतिज्ञा' लूँ
कि अब 'नवजीवन' की 'कर्मभूमि' में श्रमरत रहूँगा!!

(©गोलेन्द्र पटेल
01-08-2022)



कवि : गोलेन्द्र पटेल

🙏संपर्क :

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


Friday, 29 July 2022

प्रेम-तीर्थ के पथ पर प्रेमचंद से प्रार्थना : गोलेन्द्र पटेल / प्रेमचंद पर कविता


 *प्रेम-तीर्थ के पथ पर प्रेमचंद से प्रार्थना*

प्रिय धनपतराय!
अपनी पीढ़ी की सीढ़ी पर चढ़ता हुआ
मेरा कवि मुझसे कह रहा है कि
काश कि सभी को पता होता कि
विश्वास के आकाश में गजब का प्रकाश है
पर भयभीत भाषा में यथार्थ का विनाश है!

हे रव के रवि!
क्या कथा में चरित्र की छद्म छवि
उद्देश्य की 'सौत' है?

जब भी देखा
जर्जर वस्त्र में देह का दीपक अधिक देखा
फटे जूते में अनंत 'समर-यात्रा' का पथिक देखा
शायद पिता अजायबराय प्रसिद्ध पोस्टमैन थे
बाल्यकाल में ही दुनिया के लेखकों से परिचित
कलम का सच्चा सिपाही देखा

जब भी सुना
'सूरा' और 'होरी' की तबाही सुना 
'गोबर' और 'धनिया' की गवाही सुना
'बुधिया' की चीख सुना
मनुष्यता की मिट्टी में उगी ईख की सीख सुना

और सुना
'सोजेवतन' में 'बलिदान' का गान 
सार्थक स्वर का स्वाभिमान
'अफसाना कुहन', 'कफ़न' ,'सद्गति', 'सेवादसदन', 'निर्मला' 
'प्रेरणा', 'कायाकल्प', 'सवा सेर गेहूँ', 'प्रेम-पचीसी',
'ईदगाह', 'पंच-परमेश्वर', 'परीक्षा' , 'बालक' , 'नमक का दरोगा', 'प्रेमाश्रम'
'बड़े घर की बेटी', 'दो बैलों की कथा', 'रंगभूमि', 'गोदान', 'गबन' व 'कर्बला'
'आत्माराम'! इनमें भारतीय आत्मा की आवाज़ है
सारे संसार की स्याह संस्कृति का संपूर्ण समाज है

तुम्हारी स्वतंत्रता की चाहत में 
एक अलग तरह का स्वराज है
'सोफिया' से लेकर 'मालती' तक, 'विनय' से लेकर 'मेहता' तक
सभी के बीच 'गोविंदी' के गुणों की चर्चा है
बहुत मिठी मिठाई मर्चा है
कुर्सी पर 'जॉन' की जगह 'जयसिंह' का परचा है
स्वच्छंद, निस्पृह और विचारशील व्यक्ति की दृष्टि
सृष्टि की सेवा में दृश्य धुनती है
और सुबह-शाम सागर में मोती चुनती है
जहाँ विचारोत्कर्ष है सौंदर्य का वास्तविक शृंगार

'सर्वहारा वीर' तो तुम नहीं थे
दिशाहारा तो तुम नहीं थे
राहहारा तो तुम नहीं थे
हे गद्य के तुलसी! हे कथा सम्राट! हे कहानीकार!
थे तुम 'बलिदान-पथ' के चिरंजीवी चिंतक
तुम्हारे सोच की सृजन में शामिल रहे
'गोर्की' और 'लूशुन' के विचार

हे दलित के दीपक! हे गाँव के गायक!
हे नर के नायक!
दोस्त-दुश्मन की पहचान थी तुम्हें खूब
बूढ़ी महाजनी सभ्यता और 
मरजाद की बेड़ियों को काटने की कला
भला कौन नहीं सीखना चाहता है?
तुमने सीखाया क्रांति के पक्ष में खड़ा होना
तुमने सीखाया बुरे वक्त में बुद्धि से बड़ा होना

हे चेतना के चिराग!
तुमने लगाई शोषकों के महल में आग
तुमने गाया सदा रोशनी का राग
तुमने सीधी-साधी बात सीधी-साधी जनता को
सरल-सहज-सरस भाषा में समझाया

हे सत्य के साधक!
परिवर्तन के युद्ध के बुद्ध!
स्नेह, समता, न्याय से प्रतिबद्ध, साहित्य के सूर्य!
ज़िन्दगी की तान के तूर्य!
तुम्हारी कथा की धमनियों में धरती की धुन,
खेतों की ख़ुशबू, विविध फूलों के रंग, नदी की उमंग
और भोर का भक्त नक्त है, संवेदना सशक्त है
शहर का राजनीतिक रक्त है, वाया वक्त है

हे 'शतरंज के खिलाड़ी'!
अँधेरे में मानवता की मणि!
गगन भी गाता है तुम्हारा गौरव गीत, हे मुंशी मीत!
लमही से आ रही है जय की लय
तुम्हारे शब्द दुख की दुपहरी में वृक्ष बन गए
और तुम्हारी प्रोक्ति 'लाल फीता' का बंधन तोड़ने की 'प्रेम-प्रतिज्ञा'
तुमसे हर आदमी आदमी होने का हुनर हासिल करता है

हे 'प्रेम सरोवर' के अरुण कमल!
तुम स्वप्न, संघर्ष व साहस के स्रष्टा हो
तुम भविष्य द्रष्टा हो
तुमने बताया, 'एक गिलास पानी' का महत्व 
____'नवजीवन' का तत्व
चारों ओर दुविधा और दहशत का धुआँ है
'गंगी' के पति 'जोखू' के सामने मौत का कुआँ है
जी हाँ, जो एक 'ठाकुर का कुआँ' है

हे ऋषि-कथाकार प्रेमचंद!
कहानी के अद्वितीय छंद!
संकल्प के अभियान में तब्दील होना
असल में आगामी प्रलय की प्रयोगशाला में पुरखों को बोना है
हवा नहीं है अनुकूल
परिवेश है प्रतिकूल
मैं तुम को बो रहा हूँ कविता की क्यारी में किसान की तरह
तन-मन से बहुत जतन से, साधना के सपूत! 

हे मानस के हंस!
'नवनिधि' के 'मंगल सूत्र'!
नये 'संग्राम' में 'प्रेम की वेदी' पर चढ़ने की शक्ति दो मुझे!
मैं 'कर्मभूमि' में 'पूस की रात' का 'हल्कू' हूँ
'प्रेम-प्रमोद' की गोद में ले लो मुझे
आज 'प्रेम-पंचमी' है परसों नागपंचमी
'प्रेम-तीर्थ' के पथ पर 
मुझ अबोध पाठक की यही प्रार्थना है रोज़
कि हर सुबह हर घर खिले 'सप्तसुमन' व 'सप्त सरोज'!

(©गोलेन्द्र पटेल
30-07-2022)

नाम : गोलेन्द्र पटेल
🙏संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com




Tuesday, 19 July 2022

अभिषेक कुमार वर्मा की दो कविताएँ

                


अभिषेक कुमार वर्मा की दो कविताएँ

1). सत्ता से सवाल

बेबश जनता बर्बादी पर 
देखो कैसी आमादी है
क-ख-ग का ज्ञान न जिनको 
उन मूर्खों की आदी है
जनता की मेहनत से जेब भरें  
ऐसे वे जनवादी हैं
हिटलर के क़दमों चलकर भी 
बनते गांधीवादी हैं

भूख प्यास न जिन्हें सताए
मोटी रकमों से पेट भराएँ
बीच बजरिया अधनंगी जो
ऎसी जनता पर थर्राए
अरे, जिनके बल पर आज टिके हो
सत्ता की चौहद्दी पर
भूखी जनता टूट पड़ी गर
क्या बचे रहोगे गद्दी पर ?

ख़ूनी सत्ता से साँठ-गाँठ की
चोरबाजारी मिली-बांट की
असली चेहरा न दिखलाये
ऐसी उनने ठाठ-बाट की
रामराज्य के आदर्शों के 
वे पाखंडी ढोंगी हैं
भोगा भोग सदा है जिनने
पर बनते कितने जोगी हैं 

अंग्रेजों की ढाल बने जो
उनके रागों की ताल बने जो
सत्तावन की गलियों में 
जाकर खूनी दीवाल बने जो
साथ साथ हो लूटा जिनने
ऐसे सत्ताधारी हैं
जिनके चंगुल में फंसी आज
जनता भूखी बेचारी है

पशुओं सा है जीवन जीती
रूखा-सूखा, पानी पीती
फटे सुथन्ने पहन ओढ़ कर
फ़िर उनके धागों को सीती
गिरे हाल होकर भी जो 
बनी भाग्य की दाता है
उस जनता पर नजर गड़ाओ
वह अपनी भारत माता है

कर्कश बेतों की मार सहे है
दलबदलू तकरार सहे है
अंधी आँखों जो छड़ी चलाए
ऐसी निर्मम सरकार सहे है
जनता अपने पर आई गर
तो उहापोह (उथल-पुथल) हो जाएगा
कितनी मजबूती से खड़ा भवन हो
जड़सहित उखड़ वो जाएगा

आंतों में जिसके पंसुली हैं
हाँथों में तीखी बंसुली है
गेहूँ जिनसे उपजाती हो
ऐसे हसिया-फावड़-कुदली है
सबका पेट भरे हैं जो
उनसे बला मोल क्यों लेते हो ?
चेतो! अभी समय है, संभलो!
भला झोल क्यों देते हो ?

ऐसी जनता कहाँ मिलेगी
पूजे तुमको,कहाँ दिखेगी
लाख बुराई करते जाओ
सहते जाए, नहीं कहेगी
शर्म नहीं आती क्या तुमको
भोलेपन का लाभ उठाते ?
इसीलिए सारे जग में बर्बर 
तुम बदमाश कहाते ?


इधर उधर पैसा फिंकवाओ
जेबे अपनी स्वयं भराओ
असल जरूरत जिनको उसकी
उनसे दूरी नियत कराओ
आख़िर खोखा खेल तुम्हारा
कब तक चलने वाला है ?
एक समय आएगा, तय है
जब डाका पड़ने वाला है ?

ऐरी गैरी ताक़त के हाँथों
बेंच रहे हो संपत्ति सातों
जनता थी जिसकी हक़दार
उसे दे रहे घूसे लातों
किस हक़ से तुम उसके धन को
बेंच रहे हो नाप नाप के ?
क्या दादों का बैनामा था
जो वारिस तुम हुए बाप के ?

जनता! 
हर रोज प्रलय जो सहती है
नित धूप घाम से तपती है
उस जनता की भूखी चींखें
सूनी गलियों में बहती हैं 
सब कुछ उसने झेला है
दुःख दर्द आदि जो हो सकते
सुविधाओं में रहने वालों तुम
क्या मुकाबला कर सकते ?

जनता को तुम ठगते जाओ
और उसी से फलते जाओ
अग़र सवाल पूछ ले तुमसे
घर उसके डाके डलवाओ
अरे समय शेष है,उठो नींद से
भोगी सत्ताधारी!
जनता गंगा की वही धार है
जिसकी चाल पड़ेगी भारी

कितना ही तुम उसे छुपा लो
घर को तोपों से ढकवा लो
पहरे पर हों कितने सैनिक
सत्ता की चाभी छुपवा लो
भूल-भूलकर सही राह पर 
नहीं अगर तुम आओगे
सच कहता हूँ सत्ता वालों
नंगी मौत मराओगे !!!

जनता! लोहे के चने चबाती
जीवन बेड़ा ग़र्क कराती
झूठे वादे किये आपने
सही मान के सहती जाती
अरे सत्ता वालों नज़र घुमाओ
कहीं देर न हो जाए
जनता देखो द्वार खड़ी है 
अपना लट्ठ टिकाए...!!

2).
       " ओ मेरे भावी हृदय सुन..."

दे रहा हूँ रौशनी मैं जल रहा हूँ दीप होकर
प्राण मेरे हैं तुम्हारे  खो रहा हूँ मीत होकर

स्मरण होता तुम्हें हो नाम मेरा गर कभी जो
धन्य होकर ही रहूँगा आस  मेरी है अभी तो

मैं अकेला फिऱ रहा हूँ जोगि बन नदियों किनारे
हूँ  खड़ा मैं  राह  तकता आस  में केवल तुम्हारे

प्राण मुझमें शेष जब तक देखता हूँ राह तेरी
हलचलें मुझमें अभी हैं कह रही है आह मेरी

रेत ज्यों तन हो गया है प्रीत  बनकर रह  गया हूँ
मैं दिवस को पार करके रात्रि के संग आ गया हूँ

हूँ अकेला तो हुआ क्या काल से मैं लड़ पड़ा हूँ
आ रही  है  सांध्य  बेला मैं  अकेला ही खड़ा हूँ

रात्रि का भय नहीं  मुझे है  और न भय रात्रिचर का
जिस तरह मैं जी रहा हूँ भय नहीं मुझको मरण का

हाँ, रार मैंने ठान ली है गांठ  मैंने बाँध ली है
ले करों में प्राण फ़िरता मृत्यु मैंने मान ली है

भय मुझे बस एक ही है  वो मेरे संग रो रहा है
अस्त होने को हुआ मैं क्या मुझे वो खो रहा है

कल जहां तुम ख़ोजते थे  मैं वहीं पर आ गया हूँ
देख लो खुलकर प्रणय को मैं दिखाने आ गया हूँ

मैं धरा को निज पगों से नापता फ़िरता चला हूँ
देख ली मैंने कसक है  मैं  यहाँ  जलता रहा हूँ

अन्य के होंगे चरण वे  जो यहाँ  आकर थमे हैं
हो गए पाषाण सम जो जो यहाँ आकर बँधे हैं

मैं नदी के वेग सा हूँ  हाँ, सदा  बहता  चला हूँ
धार के शाश्वत क्रमों में हो लहर लहरा चला हूँ

उस  नदी  का  छोर  पाकर  हर क़दम बढ़ता गया हूँ
क्या ग़लत और क्या सही है छोड़ सब चलता गया हूँ

चल रही हों आँधियाँ भी  मेघ गर्जन कर रहे हों
पूर्ण क्षमता से स्वयं को वो उपस्थित कर रहे हों

ढक लिया हो पूर्ण नभ को स्याह छाया ने भले ही
कांपती  धरती  धमा-धम  सिंधु  के  पैरों  तले ही

आ रही हो यामिनी भी  निज  प्रबलता साथ लेकर
भर रही हुंकार स्वयम में  तीव्र मद का नाद  लेकर

हस्तियों के पद चलन से धमधमाती यह धरा हो
मच रहा कंपन जगत में सिंह गर्जन कर रहा हो

क्रुद्ध निज में हो समय भी  देखकर परिधान सारा
अंत होने को हुआ अब नियति का व्यवधान सारा

मिल रहा हो शून्य में सब मौन धारा बह रही हो
और नीरव छा रहा हो  जीव की रुकती गति हो

किन्तु फ़िर भी तन तना है शक्ति से पूरा गुंथा हूँ
इस तरह कुछ और भी हो झेल लूँगा मैं खड़ा हूँ

और मेरे हृदय मणि में  श्रोत  अक्षय बह रहा है
द्वन्द्व करता मैं चलूँगा निज सभी से कह रहा है

पांव मेरे नहीं थमेंगे  मार्ग  पर बढ़ते चलेंगे
तू गरजता ही भले हो ये गरजते भी चलेंगे

सांस का क्रम नहीं रुकेगा न रुकेगी गति हृदय की
आत्म  मेरा  कह  रहा  है  हार होगी ही समय की

वर्ष  कितने  बीत  जाएं  शूल  कितने  ही  सताएं
शोध मेरा शेष जब तक क्यों बंधूँ नित फ़ाश आएं

ओ मेरे भावी हृदय सुन हो जहाँ तुम मैं नहीं हूँ
किन्तु मैं आ ही गया हूँ तुम जहाँ थे मैं वहीं  हूँ

एक अंतर शेष हमारे  है उपस्थित मध्य होकर
कर रहा व्याकुल मुझे है सालता है मर्म होकर

                          ©अभिषेक कुमार वर्मा   
  
       नाम- अभिषेक कुमार वर्मा     
  परास्नातक छात्र,हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
              ईमेल : abhishekmr201@gmail.com
पता-ग्राम व पोस्ट गौसगंज, जिला- हरदोई, उत्तर प्रदेश।
                     

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