Golendra Gyan

Tuesday, 19 July 2022

अभिषेक कुमार वर्मा की दो कविताएँ

                


अभिषेक कुमार वर्मा की दो कविताएँ

1). सत्ता से सवाल

बेबश जनता बर्बादी पर 
देखो कैसी आमादी है
क-ख-ग का ज्ञान न जिनको 
उन मूर्खों की आदी है
जनता की मेहनत से जेब भरें  
ऐसे वे जनवादी हैं
हिटलर के क़दमों चलकर भी 
बनते गांधीवादी हैं

भूख प्यास न जिन्हें सताए
मोटी रकमों से पेट भराएँ
बीच बजरिया अधनंगी जो
ऎसी जनता पर थर्राए
अरे, जिनके बल पर आज टिके हो
सत्ता की चौहद्दी पर
भूखी जनता टूट पड़ी गर
क्या बचे रहोगे गद्दी पर ?

ख़ूनी सत्ता से साँठ-गाँठ की
चोरबाजारी मिली-बांट की
असली चेहरा न दिखलाये
ऐसी उनने ठाठ-बाट की
रामराज्य के आदर्शों के 
वे पाखंडी ढोंगी हैं
भोगा भोग सदा है जिनने
पर बनते कितने जोगी हैं 

अंग्रेजों की ढाल बने जो
उनके रागों की ताल बने जो
सत्तावन की गलियों में 
जाकर खूनी दीवाल बने जो
साथ साथ हो लूटा जिनने
ऐसे सत्ताधारी हैं
जिनके चंगुल में फंसी आज
जनता भूखी बेचारी है

पशुओं सा है जीवन जीती
रूखा-सूखा, पानी पीती
फटे सुथन्ने पहन ओढ़ कर
फ़िर उनके धागों को सीती
गिरे हाल होकर भी जो 
बनी भाग्य की दाता है
उस जनता पर नजर गड़ाओ
वह अपनी भारत माता है

कर्कश बेतों की मार सहे है
दलबदलू तकरार सहे है
अंधी आँखों जो छड़ी चलाए
ऐसी निर्मम सरकार सहे है
जनता अपने पर आई गर
तो उहापोह (उथल-पुथल) हो जाएगा
कितनी मजबूती से खड़ा भवन हो
जड़सहित उखड़ वो जाएगा

आंतों में जिसके पंसुली हैं
हाँथों में तीखी बंसुली है
गेहूँ जिनसे उपजाती हो
ऐसे हसिया-फावड़-कुदली है
सबका पेट भरे हैं जो
उनसे बला मोल क्यों लेते हो ?
चेतो! अभी समय है, संभलो!
भला झोल क्यों देते हो ?

ऐसी जनता कहाँ मिलेगी
पूजे तुमको,कहाँ दिखेगी
लाख बुराई करते जाओ
सहते जाए, नहीं कहेगी
शर्म नहीं आती क्या तुमको
भोलेपन का लाभ उठाते ?
इसीलिए सारे जग में बर्बर 
तुम बदमाश कहाते ?


इधर उधर पैसा फिंकवाओ
जेबे अपनी स्वयं भराओ
असल जरूरत जिनको उसकी
उनसे दूरी नियत कराओ
आख़िर खोखा खेल तुम्हारा
कब तक चलने वाला है ?
एक समय आएगा, तय है
जब डाका पड़ने वाला है ?

ऐरी गैरी ताक़त के हाँथों
बेंच रहे हो संपत्ति सातों
जनता थी जिसकी हक़दार
उसे दे रहे घूसे लातों
किस हक़ से तुम उसके धन को
बेंच रहे हो नाप नाप के ?
क्या दादों का बैनामा था
जो वारिस तुम हुए बाप के ?

जनता! 
हर रोज प्रलय जो सहती है
नित धूप घाम से तपती है
उस जनता की भूखी चींखें
सूनी गलियों में बहती हैं 
सब कुछ उसने झेला है
दुःख दर्द आदि जो हो सकते
सुविधाओं में रहने वालों तुम
क्या मुकाबला कर सकते ?

जनता को तुम ठगते जाओ
और उसी से फलते जाओ
अग़र सवाल पूछ ले तुमसे
घर उसके डाके डलवाओ
अरे समय शेष है,उठो नींद से
भोगी सत्ताधारी!
जनता गंगा की वही धार है
जिसकी चाल पड़ेगी भारी

कितना ही तुम उसे छुपा लो
घर को तोपों से ढकवा लो
पहरे पर हों कितने सैनिक
सत्ता की चाभी छुपवा लो
भूल-भूलकर सही राह पर 
नहीं अगर तुम आओगे
सच कहता हूँ सत्ता वालों
नंगी मौत मराओगे !!!

जनता! लोहे के चने चबाती
जीवन बेड़ा ग़र्क कराती
झूठे वादे किये आपने
सही मान के सहती जाती
अरे सत्ता वालों नज़र घुमाओ
कहीं देर न हो जाए
जनता देखो द्वार खड़ी है 
अपना लट्ठ टिकाए...!!

2).
       " ओ मेरे भावी हृदय सुन..."

दे रहा हूँ रौशनी मैं जल रहा हूँ दीप होकर
प्राण मेरे हैं तुम्हारे  खो रहा हूँ मीत होकर

स्मरण होता तुम्हें हो नाम मेरा गर कभी जो
धन्य होकर ही रहूँगा आस  मेरी है अभी तो

मैं अकेला फिऱ रहा हूँ जोगि बन नदियों किनारे
हूँ  खड़ा मैं  राह  तकता आस  में केवल तुम्हारे

प्राण मुझमें शेष जब तक देखता हूँ राह तेरी
हलचलें मुझमें अभी हैं कह रही है आह मेरी

रेत ज्यों तन हो गया है प्रीत  बनकर रह  गया हूँ
मैं दिवस को पार करके रात्रि के संग आ गया हूँ

हूँ अकेला तो हुआ क्या काल से मैं लड़ पड़ा हूँ
आ रही  है  सांध्य  बेला मैं  अकेला ही खड़ा हूँ

रात्रि का भय नहीं  मुझे है  और न भय रात्रिचर का
जिस तरह मैं जी रहा हूँ भय नहीं मुझको मरण का

हाँ, रार मैंने ठान ली है गांठ  मैंने बाँध ली है
ले करों में प्राण फ़िरता मृत्यु मैंने मान ली है

भय मुझे बस एक ही है  वो मेरे संग रो रहा है
अस्त होने को हुआ मैं क्या मुझे वो खो रहा है

कल जहां तुम ख़ोजते थे  मैं वहीं पर आ गया हूँ
देख लो खुलकर प्रणय को मैं दिखाने आ गया हूँ

मैं धरा को निज पगों से नापता फ़िरता चला हूँ
देख ली मैंने कसक है  मैं  यहाँ  जलता रहा हूँ

अन्य के होंगे चरण वे  जो यहाँ  आकर थमे हैं
हो गए पाषाण सम जो जो यहाँ आकर बँधे हैं

मैं नदी के वेग सा हूँ  हाँ, सदा  बहता  चला हूँ
धार के शाश्वत क्रमों में हो लहर लहरा चला हूँ

उस  नदी  का  छोर  पाकर  हर क़दम बढ़ता गया हूँ
क्या ग़लत और क्या सही है छोड़ सब चलता गया हूँ

चल रही हों आँधियाँ भी  मेघ गर्जन कर रहे हों
पूर्ण क्षमता से स्वयं को वो उपस्थित कर रहे हों

ढक लिया हो पूर्ण नभ को स्याह छाया ने भले ही
कांपती  धरती  धमा-धम  सिंधु  के  पैरों  तले ही

आ रही हो यामिनी भी  निज  प्रबलता साथ लेकर
भर रही हुंकार स्वयम में  तीव्र मद का नाद  लेकर

हस्तियों के पद चलन से धमधमाती यह धरा हो
मच रहा कंपन जगत में सिंह गर्जन कर रहा हो

क्रुद्ध निज में हो समय भी  देखकर परिधान सारा
अंत होने को हुआ अब नियति का व्यवधान सारा

मिल रहा हो शून्य में सब मौन धारा बह रही हो
और नीरव छा रहा हो  जीव की रुकती गति हो

किन्तु फ़िर भी तन तना है शक्ति से पूरा गुंथा हूँ
इस तरह कुछ और भी हो झेल लूँगा मैं खड़ा हूँ

और मेरे हृदय मणि में  श्रोत  अक्षय बह रहा है
द्वन्द्व करता मैं चलूँगा निज सभी से कह रहा है

पांव मेरे नहीं थमेंगे  मार्ग  पर बढ़ते चलेंगे
तू गरजता ही भले हो ये गरजते भी चलेंगे

सांस का क्रम नहीं रुकेगा न रुकेगी गति हृदय की
आत्म  मेरा  कह  रहा  है  हार होगी ही समय की

वर्ष  कितने  बीत  जाएं  शूल  कितने  ही  सताएं
शोध मेरा शेष जब तक क्यों बंधूँ नित फ़ाश आएं

ओ मेरे भावी हृदय सुन हो जहाँ तुम मैं नहीं हूँ
किन्तु मैं आ ही गया हूँ तुम जहाँ थे मैं वहीं  हूँ

एक अंतर शेष हमारे  है उपस्थित मध्य होकर
कर रहा व्याकुल मुझे है सालता है मर्म होकर

                          ©अभिषेक कुमार वर्मा   
  
       नाम- अभिषेक कुमार वर्मा     
  परास्नातक छात्र,हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
              ईमेल : abhishekmr201@gmail.com
पता-ग्राम व पोस्ट गौसगंज, जिला- हरदोई, उत्तर प्रदेश।
                     

नाम : गोलेन्द्र पटेल {प्रसिद्ध कवि, लेखक व संपादक}

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