Friday, 31 October 2025

धूमिल: क्रांति का प्रार्थना-पत्र // धूमिल की कविताओं में समय, समाज और संवेदना

// धूमिल: क्रांति का प्रार्थना-पत्र //

“बाबूजी सच कहूँ—मेरी निगाह में

न कोई छोटा है

न कोई बड़ा है

मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है

जो मेरे सामने

मरम्मत के लिए खड़ा है।” ("मोचीराम" से)

सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ (9 नवंबर 1936 - 10 फ़रवरी 1975) की कविताएँ हिंदी की नई कविता के तीखे प्रतिरोधी स्वर हैं। इनमें ‘समय’, ‘समाज’ और ’संवेदना’ तीनों एक-दूसरे में घुले-मिले हैं। धूमिल की कविताएँ समय के भ्रष्टाचार, समाज के शोषण और निम्नवर्ग की पीड़ा को तीखे क्रोध में उकेरती हैं। बाबू, रिक्शेवाला, दलित, शोषित, भिखारी, किसान, मज़दूर उनकी संवेदना के केंद्र हैं। “समय मर चुका है” जैसे बिंब सत्ता-विरोधी विद्रोह जगाते हैं—क्रांति का प्रार्थना-पत्र।


धूमिल की कविताएँ—‘पटकथा’, ‘मोचीराम’, ‘नक्सलबाड़ी’, ‘रोटी और संसद’ तथा ‘अकाल दर्शन’—अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय सच्चाइयों का तीखा दस्तावेज़ हैं। वे सत्तर के दशक के भारत की विडंबनाओं, अन्यायों और मोहभंग से उपजी बेचैनी को स्वर देती हैं। ‘मोचीराम’ में वर्ग और पेशागत पहचान के भीतर छिपे आत्मसम्मान की गूंज है—यह कविता साधारण आदमी के भीतर छिपे बौद्धिक विवेक को उजागर करती है। ‘पटकथा’ और ‘रोटी और संसद’ सत्ता, लोकतंत्र और आम जन के बीच की गहरी खाई को उजागर करती हैं, जहाँ भाषा और राजनीति दोनों ही आम आदमी के विरुद्ध काम करती दिखती हैं। ‘नक्सलबाड़ी’ में विद्रोह को एक नैतिक ऊर्जा के रूप में देखा गया है—यह शोषित जनता के भीतर उभरती क्रांति की चेतना का प्रतीक है। वहीं ‘अकाल दर्शन’ संवेदना के सूखते स्रोतों और भूख से जूझते जीवन की करुण त्रासदी का बिंब है। इन कविताओं में धूमिल का काव्य-स्वर आक्रोश, करुणा और बौद्धिक ईमानदारी से निर्मित है। वे समय के साक्षी कवि हैं, जिनकी संवेदना समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य के साथ गहराई से जुड़ी है—इस प्रकार धूमिल की कविता अपने युग का नैतिक और वैचारिक दस्तावेज़ बन जाती है। ‘पटकथा’ का समय अपना वर्तमान है:-

“हर तरफ धुआँ है

हर तरफ कुहासा है

जो दाँतों और दलदलों का दलाल है

वही देशभक्त है

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है—

तटस्थता। यहाँ

कायरता के चेहरे पर

सबसे ज्यादा रक्त है।

जिसके पास थाली है

हर भूखा आदमी

उसके लिये, सबसे भद्दी

गाली है।”

धूमिल की कविताएँ 1960-70 के दशक के भ्रष्ट जनतंत्र, नक्सल विद्रोह और आर्थिक संकट को तीखे व्यंग्य में उकेरती हैं। #समय को वे “पुरानी पटकथा” (पटकथा) मानते हैं—आजादी का वादा धोखा, जहाँ “समय मर चुका है”। #समाज शोषण का अखाड़ा है: "मोचीराम" में जूता सिलता मजदूर “न छोटा है, न बड़ा”—समानता की झूठी छवि उघाड़ी। "नक्सलबाड़ी" में संसद को “जंगल” कहा—किसान विद्रोह और सत्ता-दमन। "रोटी और संसद" में आर्थिक विषमता चित्रित: “एक बेलता है, एक खाता है, तीसरा खेलता है”—तीसरा सत्ता-खिलाड़ी। "अकाल दर्शन" में गांधी-छवि का दुरुपयोग, नेहरू युग का मोहभंग—“जनतंत्र की नग्नता”।

#संवेदना क्रोध में डूबी करुणा है। बाबू, मोची, किसान की पीड़ा कवि की पीड़ा बनती है। "मोचीराम" में संवाद से मानवीयता, "नक्सलबाड़ी" में संघर्ष-चेतना, "रोटी और संसद" में भूख की मार्मिकता। धूमिल पीड़ित को आवाज देते हैं—व्यंग्य हथियार, क्रोध जागरण। उनकी कविता “क्रांति का प्रार्थना-पत्र” है, जो पाठक को विद्रोह की प्रेरणा देती है। अंत में,

“जो मैं चाहता हूँ—

वही होगा। होगा—आज नहीं तो कल

मगर सब कुछ सही होगा।”

★★★


टिप्पणीकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/ युवा जनकवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
मोबाइल नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com


Wednesday, 8 October 2025

कवि रामेश्वर : जीवन, साहित्य और वैचारिक यात्राएँ || तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी

कवि रामेश्वर : जीवन, साहित्य और वैचारिक यात्राएँ


जन्म और प्रारंभिक जीवन :- कवि रामेश्वर का जन्म १६ जुलाई १९४४ को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के ग्राम पिसौर में हुआ। यह गाँव वाराणसी के सांस्कृतिक और साहित्यिक परिवेश से गहराई से जुड़ा हुआ है। रामेश्वर का बचपन भारतीय गाँवों की सादगी, लोकसंस्कृति और संघर्षशील जीवन के बीच बीता। यही ग्रामीण जीवनबोध आगे चलकर उनकी रचनात्मक चेतना का मूल स्रोत बना। वर्तमान में वे ग्राम भवानीपुर (पोस्ट-पिसौर, शिवपुर, वाराणसी – २२१००३) में निवासरत हैं।

शिक्षा और अध्यापन :- रामेश्वर ने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। उन्होंने एम.ए. (हिन्दी), बी.एससी. और बी.एड. की उपाधियाँ अर्जित कीं। विज्ञान और साहित्य — इन दो पृथक धाराओं का समन्वय उनकी सोच और लेखन में स्पष्ट दिखाई देता है। वे लंबे समय तक शिक्षक रहे और सेवानिवृत्ति के पश्चात वर्तमान में स्वाध्याय एवं लेखन में संलग्न हैं। शिक्षा जगत में बिताए वर्षों ने उन्हें समाज के गहरे अनुभव दिए, जिन्हें उन्होंने अपनी कविताओं और गद्य में रूपांतरित किया।

रचनात्मक यात्रा और प्रमुख कृतियाँ :- रामेश्वर की रचनाएँ जीवन, समाज, राजनीति और लोक के जीवंत अनुभवों से गुँथी हुई हैं। उनकी रचनात्मकता में जनपक्षधरता और लोक-संवेदना केंद्रीय तत्व हैं। वे अपने समय के आम आदमी की पीड़ा, प्रतिरोध और आकांक्षा को स्वर देते हैं।

प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ :- ब्यूहजयी (खण्ड काव्य), नये मुहिम पर (काव्य संग्रह), घेराव टूट रहा है (कविता संग्रह), कटीले तारों के बाड़े (गद्य संकलन), ठहराव से मुठभेड़ लेते हुए (कविता संग्रह), आलोचना का लोक-चित्त (समीक्षात्मक लेख), लोक-संस्कृति का सफेद और स्याह पक्ष (लोक-तत्व और लोक-बोध पर आधारित आख्यान), अग्निपक्षी ! एक दंशगाथा (आत्मकथा), अग्निपक्षी ! एक दंशगाथा (आत्मकथा भाग-दो)

इन कृतियों में जीवन के संघर्ष, समाज की विषमता और बदलाव की चाह गहराई से व्यक्त हुई है। विशेष रूप से ‘अग्निपक्षी! एक दंशगाथा’ उनकी आत्मकथा होते हुए भी उनके युग का दस्तावेज़ बन जाती है — एक ऐसे व्यक्ति की कथा जो ज्वालामुखी के समान भीतर से धधकता है।

सम्पादन और पत्रकारी योगदान :- कवि रामेश्वर ने ‘सार्थवाह’ नामक त्रैमासिक पत्रिका का संपादन किया। यह पत्रिका उनके वैचारिक और जनसांस्कृतिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है। इसके माध्यम से उन्होंने अनेक रचनाकारों को मंच दिया और साहित्यिक विमर्श को लोक-केन्द्रित दृष्टि प्रदान की।

उनकी कविताएँ, समीक्षाएँ और संस्मरण जनपक्ष, जनमुख, कृति ओर, चौथी दुनियाँ, चौराहा साप्ताहिक, उत्तर प्रदेश, निष्कर्ष, हांक, अभिनव कदम, आइडियल एक्सप्रेस, स्वतंत्र भारत 'दैनिक' जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

पुरस्कार और सम्मान :- रामेश्वर की साहित्यिक सेवाओं को अनेक मंचों पर सराहा गया है। उन्हें प्राप्त प्रमुख सम्मान हैं —'मदर हलीमा अवार्ड' (प्रथम), निगार-ए-बनारस, 'हिन्दी साहित्य' एवं 'समाज-सेवा' सम्मान वाराणसी।

ये सम्मान उनके जनसरोकारों और सृजनात्मक प्रतिबद्धता की सार्वजनिक स्वीकृति हैं।

वैचारिक आधार और साहित्यिक प्रभाव:- “रामेश्वर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर जितना प्रभाव पुरखे कवि कबीर का है, उतना ही प्रभाव कथा सम्राट प्रेमचंद का भी है।”

वास्तव में, रामेश्वर की रचनाओं में कबीर का निर्भीक लोकस्वर, प्रेमचंद की सामाजिक दृष्टि और कार्ल मार्क्स के प्रगतिशील चिंतन — तीनों की संगति देखने को मिलती है। उनकी कविताएँ वर्गीय अन्याय, धार्मिक पाखंड और सामाजिक दमन के विरुद्ध प्रतिरोध का दस्तावेज़ हैं।

वे अपने समय के जनकवियों की परंपरा में आते हैं— तथागत बुद्ध, कबीरदास, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, गोरख पाण्डेय, राजशेखर, धूमिल, पाश और ध्रुवदेव मिश्र पाषाण तक की यह परंपरा उन्हें गहराई से प्रभावित करती है।

रामेश्वर का नाम विशेष रूप से सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ की मित्र परंपरा में भी उल्लेखनीय है। यह निकटता न केवल आत्मीय, बल्कि वैचारिक और कविताई धरातल पर भी महत्वपूर्ण रही है। दोनों कवियों में व्यवस्था-विरोध और जनपक्षीय चेतना समान रूप से विद्यमान है।

रचनाशैली और विषय-विस्तार :- रामेश्वर की कविता का स्वर संघर्षशील, ईमानदार और संवेदनशील है। वे कविता को केवल भावाभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक हस्तक्षेप का माध्यम मानते हैं। उनके यहाँ लोकजीवन की गंध है, किसानों-मजदूरों की पीड़ा है और सत्ता के विरुद्ध आक्रोश भी। उनके गद्य में आलोचनात्मक सूझ और लोक-संस्कृति के जटिल पक्षों की व्याख्या मिलती है।
उनकी भाषा सधी हुई, प्रवाहपूर्ण और सच्ची लोकभाषा के स्वाद से युक्त है।

समकालीन महत्त्व :- आज जब कविता का केन्द्र शहरों में सीमित होता जा रहा है, ऐसे समय में रामेश्वर जैसे कवि लोक और जन के स्वर को कविता में प्रतिष्ठित करते हैं। वे ‘घेराव टूट रहा है’ जैसी रचनाओं से आशा जगाते हैं कि साहित्य अभी भी संघर्षरत समाज के साथ खड़ा हो सकता है।

कवि रामेश्वर की रचनाएँ साहित्य के साथ-साथ समाज की आत्मा की दास्तान हैं। वे परंपरा और आधुनिकता, लोक और विचारधारा, संवेदना और विवेक — इन सबको एक ही धरातल पर जोड़ने वाले कवि हैं।
उनकी रचनात्मक दृष्टि भारतीय जनजीवन के लिए उसी तरह अनिवार्य है जैसे मिट्टी के लिए जल।

उनका जीवन-संदेश स्पष्ट है — “कविता का अर्थ केवल शब्द नहीं, बल्कि परिवर्तन की चेतना है।”

(कवि धूमिल की प्रतिमा, कवि रामेश्वर और गोलेन्द्र पटेल)

रामेश्वर जी की कृति तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी विचार, संस्मरण और समीक्षा का संगम है। इसमें कवि रामेश्वर के बहुआयामी रचनात्मक संसार की झलक है, जिसमें कविता, संस्मरण, समीक्षा, व्यंग्य और जनचिंतन का समावेश है। यह “नाजी फॉसिज्म के ख़िलाफ़ कविता” से लेकर “संस्मरण: संगीत, कला, साहित्य और धर्म पर ग़ज़ल गायक उस्ताद ‘गुलाम अली’ की सोच” तक कुल 39 इकाइयों और 111 पृष्ठों में है। इस पाथेय पुस्तक के लिए प्रिय पथप्रदर्शक व आत्मीय कवि रामेश्वर त्रिपाठी जी को हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनायें सह सादर अभिवादन।

प्रथम संस्करण: 2025
मूल्य: 150₹
पृष्ठ: 111
प्रकाशक: सार्थवाह प्रकाशन, भवानीपुर, शिवपुर, वाराणसी-221003


★★★


टिप्पणीकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/ बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com


कवि गोलेन्द्र पटेल से संवाद : एक विशेष साक्षात्कार (कविता, दर्शन, समय और समाज पर विस्तृत वार्ता)

  कवि गोलेन्द्र पटेल से संवाद : एक विशेष साक्षात्कार (कविता, दर्शन,  समय और समाज पर विस्तृत वार्ता) प्रश्नकर्ता: अर्जुन पटेल  &  इंद्रजी...