Thursday, 7 August 2025

‘स्त्री मुक्ति: ब्रालेस आंदोलन’ : गोलेन्द्र पटेल

 

स्त्री मुक्ति: ब्रालेस आंदोलन
—गोलेन्द्र पटेल 


1. बीजवपन:

देह न बंधन, देह न बोझा, 
देह न चुप रह जाए रोज़ा।
ब्रा न हो तो शिष्ट न मानी, 
कैसी यह मर्यादा प्रानी?

अमेरिका की लहर चली थी, 
सौंदर्य-बंधन हिलती डली थी।
“नो मोर मिस” का नारा फूटा, 
झूठी मर्यादा से नाता टूटा।

ब्रा नहीं तो कैसा शर्मीला? 
किसने बांधा स्त्री का जीला?
कॉर्सेट, मेकअप, ऐड़ी भारी, 
सब बंधन हैं तन की क्यारी।

‘फ्रीडम ट्रैश’ में फेंके धागे, 
टूटे तब जकड़े सब भागे।
शरीर न हो कैद-ख़यालों में, 
आज़ादी हो चाल-ढालों में।

भारत आया वह संदेशा, 
मगर यहाँ था भिन्न उपदेशा।
परिधान में बसी शालीनता, 
कपड़ों से मापी नारीता।

सोशल मीडीया ने स्वर लाया, 
कुछ ने ही वह ढाँचा हिलाया।
शहरों में थोड़ी चुप बग़ावत, 
गाँवों में अब भी विरासत।

बोल नहीं पर मौन विद्रोह है, 
निज इच्छा में जो अनुग्रह है।
नोब्रा, माईबॉडी बन नारा, 
स्त्रियों ने फिर सच उजारा।

पुरुष-दृष्टि की काई तोड़ी, 
लज्जा की सीमाएँ छोड़ी।
नारी अब अपनी परिभाषा, 
देह बने प्रतिकार की भाषा।

मुक्त नारी का तन है ध्वज सा, 
देह न हो झुकने लायक़ सा।
शरीर नहीं कोई अपराधी, 
लाज नहीं वह स्वप्न समाधि।

जो पहनें, उनकी भी वाणी,
जो न पहनें, उनकी कहानी।
चुप प्रतिकारों से यह धारा, 
बढ़ रही है नारी उजियारा।

2. आरंभ:

नारी मुक्ति का गीत सुनाऊँ,  
शरीर स्वतंत्रता की बात उठाऊँ।  
ब्रालेस आंदोलन उभरा जब,  
नारी अस्मिता ने पाया रब।  

साठ के दशक में पश्चिम जागा,  
मिस अमेरिका के बंधन भागा।  
स्वतंत्रता की कचरा पेटी में,  
ब्रा फेंक बेड़ी तोड़ी थी।  

पुरुष दृष्टि के मानदंड टूटे,  
नारी देह के बंधन रूठे।  
शालीनता की थोपी रीत,  
विरोध में उठी नारी प्रीत।  

भारत में यह लहर सीमित रही,  
रूढ़ि की दीवार ने रोकी सही।  
शहरी नारी ने उठाई बात,  
सोशल मीडिया पर जगी मुलाकात।  

आज़ादी की यह अलख जगाए,  
नारीवादी विमर्श को सजाए।  
शरीर पर हक़, स्वयं की चाह,  
नारी अस्मिता का नव परचम लहक।

ब्रालेस आंदोलन की बात निराली,  
नहीं बस ब्रा छोड़ने की गाली।  
स्त्री देह को यौनिकरण से मुक्ति,  
स्वायत्तता की चाह, स्वतंत्र भक्ति।  

भारत में परंपरा जड़ जमा गहरी,  
सामाजिक मानदंड बंधन की डोरी।  
यहाँ आंदोलन का रूप है न्यारा,  
स्वतंत्रता का सपना, मन उजियारा।

न केवल ब्रा से मुक्ति बात,  
देह न हो यौनिक सौगात।  
शारीरिक हो निज अधिकार,  
यह आंदोलन दे पुकार।

भारत में है रूप अनोखा,  
जहाँ नियमों ने गढ़ा रोखा।  
संस्कृति की गहरी हैं जड़ें,  
पर चेतनाएं रचें लहरें।

स्त्री देह को जिस्म समझाया,  
सभ्य दिखे, ऐसा ठहराया।  
ब्रा में बंधन, अस्मिता खोई,  
पितृसत्ता की जंजीरें रोई।

नारी को समझा तन का रूप,  
उसकी देह बनी है भूप।  
मात्र यौनता, केवल सौंदर्य,  
भोग्य बनी वह, छिन गया गौरव।

स्तनों को कसती ब्रा की पीर,  
बाँध दिए जो देह के तीर।  
स्वाभाविकता का वह हरण,  
पहनाया असहज आवरण।

दो कप सिले, बेमेल बनाए,  
स्त्रीत्व के प्रतीक घृणित सजाए।  
नारी हृदय की स्वतंत्र चाहत,  
ब्रा ठुँसे, दबे वह राहत।

3. वस्त्र और पितृदृष्टि:

देह सभ्य हो, यह चाहत क्यों?  
क्यों हर दृष्टि में दाहत क्यों?  
शब्द न बोले, बोली देह,  
इस मौन यंत्रणा की प्रेय।

सभ्यता की जो है परिभाषा,  
वह पितृसत्ता की अभिलाषा।  
कपड़े हों 'शालीन' सदा,  
कब तक ढोएँ ये विधि-खदा?

भारत देश में रूढ़ि गहरी,  
परंपराएँ बंधन की जंजीरी।  
साड़ी-कमीज में ब्रा अनिवार्य,  
स्वास्थ्य-आराम पर नियम भारी।

साठ के दशक, पश्चिम जागा,  
स्त्रीवादी लहर ने बंधन भागा।  
ब्रा बनी दमन का एक प्रतीक,  
जलाए गए, उभरा वह गीत।

4. ब्रालेस आंदोलन का स्वर:

ब्रालेस मूवमेंट, बंधन तोड़े,  
सामाजिक नियमों को झटकोरे।  
नारी स्वायत्त, स्वीकारे देह,  
सौंदर्य प्राकृत, न मानदंड नेह।

उठा सवाल यह स्त्रियों से,  
क्या ब्रा जरूरी है कद-कद से?  
कसावट, जलन, रक्त प्रवाह,  
स्वास्थ्य बना अब प्रतिरोध राह।

‘नो ब्रा डे’ की लहर चली,  
स्त्रियों की टोली में जली।  
‘फ्री द निप्पल’ हुआ प्रतीक,  
बोला ‘अब न सहें अधिक’।

मिस अमेरिका में विरोध हुआ था,  
दमनकारी वस्त्र जलाना चाहा।  
हालाँकि जलना था अतिशयोक्ति,  
स्वतंत्रता की थी वह सत्य भक्ति।

आइसलैंड में छात्राएँ जागीं,  
टॉपलेस होकर, बंधन को त्यागीं।  
नो ब्रा डे, तीस देशों में गाया,  
हैशटैग से नारी ने ठहराया। 

सबीना बोली, घुटन है ब्रा में,  
स्वतंत्र देह की चाहत सदा में।  
निप्पल सबके, शर्म कैसी आए,  
चुनाव नारी का, वह स्वीकार लाए।  

5. भारत में आंदोलन की गूंज:

भारत में चुनौती, नजरें ताने,  
‘अश्लील’ कह समाज ठहराने।  
सुरक्षा का डर, उत्पीड़न भारी,  
स्त्री की राह में रुकावट सारी।

परंपराओं की भूमि यह भारी,  
जहाँ लाज बनी है संसारी।  
साड़ी के भीतर भी अनिवार्य,  
ब्रा न हो तो अश्लील विचार।

घूरा जाता, कहा बेहया,  
स्त्री है क्या कोई दशा?  
‘संस्कृति’ का पहरा भारी,  
नारी कैसे हो खुदचारी?

सोशल मीडिया ने दी नई सैर,  
फ्रीथेनिपल बनी आवाज़ गैर।  
नारी देह को यौनिकरण मुक्त,  
स्वायत्तता की राह बनी सुखद।

नाइजीरिया में नियम अनघट,  
ब्रा बिना परीक्षा में रट।  
आक्रोश जगा, बहस छिड़ी भारी,  
नारी स्वतंत्रता की पुकार सारी। 

भारत में धारा दो नौ चार,  
‘अश्लील’ कह, देती उत्पीड़न मार।  
उर्वशी बुटालिया, लेखन में बोली,  
देह पर नियंत्रण, पितृसत्ता खोली।

मिशेल रॉबर्ट्स ने ठहराया,  
ब्रा बंधन, समाज ने बनाया।  
कैद की कहानी, देह की सजा,  
नारी अस्मिता का दर्द बजा।

ब्रालेस होना, स्वतंत्रता गाना,  
देह को अपनाना, मुक्ति ठाना।  
स्त्री की चाहत, बिना बंधन जीना,  
प्राकृतिक सौंदर्य, उसे अपनाना। 

6. वस्तुकरण और प्रतिरोध:


स्तनों को बना जो बाज़ार,  
उनकी देखभाल बना व्यापार।  
सुंदरता की एक कसौटी,  
ब्रह्मण-पावन ब्रा की बोटी।

पर नारी ने यह ठाना,  
अब निज तन पर ही है थाना।  
न होंगे झुकाव से परिभाषित,  
न ही वस्त्रों से अनुशासित।

आइरिस यंग की बात सुनाए,  
ब्रा बाधा, देह को मिटाए।  
प्राकृतिक हिलन, स्तन का सौंदर्य,  
नारी की चाहत, बने वह मंदर।

7. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

कंचुकी पुरानी, क्रोचेट भारी,  
रीढ़ को तोड़े, देह को मारी।  
विश्वयुद्ध में धातु की कमी आई,  
कपड़े की ब्रा, तब मुक्ति लाई।।  

कारखानों में नारी ने गाया,  
ब्रा की जरूरत, सबने ठहराया।  
सूती-नायलॉन, रेशम की सैर,  
आत्मविश्वास की बनी वह गैर।

औशवित्स में कैदी की पीड़ा,  
बोरे से सिली, ब्रा की क्रीड़ा।  
एस.एस. ने सजा दी थी भारी,  
नारी देह पर पितृसत्ता सारी।

क्रोचेट, कंचुकी, तार-पिंजरा,  
ब्रह्मा ने यह कब चाहा ज़रा?  
रीढ़ दबे, पर देह दिखे,  
यही था सौंदर्य का निकष लिखे।

युद्धों में भी औरत जिए,  
बिना सुविधा, चुपचाप सहे।  
कैंपों की पीड़ा, बोरे की ब्रा,  
क्या यह मानवता की कथा?

8. स्त्री का आत्मबोध:

पहला हुक जो पुरुष खोले,  
स्मृति बनी वह तन-मन तोले।  
वह क्षण, वह अनुभव की आंच,  
देती है नारी को पहचान।

स्त्री जो देह को समर्पित करे,  
उसमें लाज नहीं, बस विश्‍वास भरे।  
वह प्रेम हो या आत्म-प्रसाद,  
देह न बने कोई अपवाद।

एम्मा वॉटसन ने दी थी हुंकार,  
स्त्रीवाद है विकल्प, न मार-संघार।  
स्वतंत्रता की राह, समानता आधार,  
स्तन से क्या, मुक्ति का संसार।

सवाना ब्राउन की यूट्यूब सैर,  
‘फ्री द निप्पल’ बनी पुकार गैर।  
लीना एस्को ने फिल्म बनाई,  
नारी मुक्ति की राह दिखाई।

9. विज्ञापन और संस्कृति का यथार्थ:

विज्ञापन कहते, ब्रा है जरूरी,  
‘अपूर्ण’ बिना इसके नारी पूरी।  
दोहरा मापदंड पुरुष-नारी में,  
लैंगिक असमानता सदा भारी में।

बिना ब्रा हो ‘अपूर्ण’ दिखाई,  
यह सोच बनी है साजिश भाई।  
स्त्रीत्व की बनावट झूठ,  
जिससे हो नारी सदैव लूट।

विज्ञापन का झूठा रूप,  
नारी को बाँध रहा है खूब।  
बाजार बना है निर्णयकर्ता,  
स्त्री बने बस उपभोक्ता।

फिर भी बदला, जागी नारी,  
स्वास्थ्य की राह, बनी सारी।  
डिजाइनर कपड़े, बिना ब्रा सजे,  
आराम-स्वतंत्रता, अब वह बजे।

10. पितृसत्ता और अपराधबोध:

ब्रा न पहनने पर हो दंड,  
पता चले कौन है प्रचंड।  
धारा 294 से दफा,  
पहनावा बना अपराध वफा।

घरों में कपड़े सुखाए छिपा,  
स्त्री दिखाए नहीं तन-निपा।  
पुण्य न देखे मातृत्व में,  
लाज खोजे बस वस्त्र में।

स्त्री की निर्वस्त्रता, दर्द गहरा,  
लज्जा ढँकी, पत्तों से पहरा।  
सभ्यता ने बंधन को अपनाया,  
नारी के सौंदर्य को ठहराया। 

पुरुष नग्नता, पौरुष का गान,  
स्त्री की लज्जा, बनी बाजार ठान।  
म्यूजियम में, वस्त्र ना दिखाए,  
नारी सम्मान को, मृत्यु में पाए।।  

11. आत्मनिर्णय की चेतना:

नारी कहे यह मेरा तन,  
न ही कोई है वस्त्र-बंधन।  
क्या पहनूँ और क्या न पहनूँ,  
इसका निर्णय स्वयं में गहनूँ।

पितृसत्ता कहे यह राजनीति,  
हर आंदोलन को कहे कृति।  
पर आत्मा की यह पुकार,  
तन पर अधिकार हो खुद धार।

प्रेमी के लिए, देह का उपहार,  
सम्मान में बंधा, स्नेह आधार।  
स्त्री की प्रकृति, प्रेम में जीना,  
पितृसत्ता को, उसने ना साधा।

12. भविष्य का आह्वान:

धीरे-धीरे बदलेगा समय,  
फूटेगा तम का अंतर्द्वंद्व।  
कपड़े नहीं बनेंगे परख,  
स्वीकृति होगी नारी स्वच्छ।

स्त्री बन सकेगी वह जो चाहे,  
बिना झिझक और बिना राहे।  
नारीवाद न हो सिर्फ़ बात,  
बने व्यवहार में नई जात।

ब्रा का हुक, पहला स्पर्श प्यारा,  
नारी हृदय में, स्मृति वह न्यारा।  
संतान को दूध, देह की सैर,  
आत्मविश्वास में, नारी गौरव गैर।

13. मुक्ति की पुकार:

स्त्री मुक्ति की राह बनाए,  
ब्रालेस मूवमेंट, बंधन मिटाए।  
नारी अस्मिता, स्वतंत्रता गाना,  
समानता का, सपना सजाना।  

नारी की देह न हो पहरा,  
उस पर हो उसका ही बसेरा।  
ब्रालेस हो या वस्त्रयुक्त,  
स्वतंत्रता का हो यह युक्त।

बोलो साथ – “अब देह हमारी”,  
नहीं किसी की निगरानी सारी।  
हमें न चाहिए स्वीकृति, शपथ,  
बस देह की हो निज़ामत स्पष्ट।

★★★

रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


संदर्भ ग्रंथ सूची:-

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