काशी के अपने त्रिलोचन // श्रीप्रकाश शुक्ल
१.
अधिभूत /
मदन के शर केवल पाँच हैं
बिंध गए सब प्राण, बचा नहीं
हृदय एक कहीं, अधिभूत की
नियति है, यति है, गति है, यही ।
२.
आकांक्षा /
सुरीली सारंगी अतुल रस-धारा उगल के
कहीं खोई जो थी, बढ़ कर उठाया लहर में,
बजाते ही पाया, बज कर यही तार सब को
बहा ले जाएँगे, भनक पड़ जाए तनिक तो ।
३.
कठिन यात्रा /
कभी सोचा मैं ने, सिर पर बड़े भार धर के,
सधे पैरों यात्रा सबल पद से भी कठिन है,
यहाँ तो प्राणों का विचलन मुझे रोक रखता
रहा है, कोई क्यों इस पर करे मौन करूणा ।
४.
कल के अभ्यासी /
कहेंगे जो वक्ता बन कर भले वे विकल हों,
कला के अभ्यासी क्षिति तल निवासी जगत के
किसी कोने में हों, समझ कर ही प्राण मन को,
करेंगे चर्चाएँ मिल कर स्मुत्सुक हॄदय से ।
५.
कातिक का पायन /
कातिक पयान करने को है, उठाया है
दाहिना चरण, देहरी को लाँघ आया है,
लेकिन अँगूठा अभी भूमि से लगा नहीं,
ऊपर ही ऊपर है, जैसे जगा नहीं ।
६.
जो है सो है /
खिले फूलों से ही खिंच कर रमे जो भुवन में
अभावों की छाया पकड़ कर भावांत उन का
दिखाएगी, क्या है ललित रचना, शून्य मन की.
यहाँ जो है सो है विवश पद की धूल बन के ।
७.
भाषा की लहरें /
भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहन
मैंने किया। मुझे मानव–जीवन की माया
सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहन
सुन सुनकर धाया–धूपा, मन में भर लाया
ध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पाया
शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनि–रूप हो गया ।
मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,
जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।
सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।
भाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गया
कवि मानव का, जगा नया नूतन अभिलाषा ।
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है
८.
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल /
भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझा था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को; जाकर पूछा
'भिक्षा से क्या मिलता है; 'जीवन' 'क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं' 'दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा' 'मुझे आप से
ऎसी आशा न थी' 'आप ही कहें, क्या करूँ,
खाली पेट भरूँ, कुछ काम करूं कि चुप मरूँ,
क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
९.
कहेन किहेन जेस तुलसी तेस केसे अब होये /
कहेन किहेन जेस तुलसी तेस केसे अब होये।
कविता केतना जने किहेन हैं आगेउ करिहैं;
अपनी अपनी बिधि से ई भवसागर तरिहैं,
हमहूँ तौ अब तक एनहीं ओनहीं कै ढोये;
नाइ सोक सरका तब फरके होइ के रोये।
जे अपनइ बूड़त आ ओसे भला उबरिहैं
कैसे बूड़इवाले सँग–सँग जरिहैं मरिहैं
जे, ओनहीं जौं हाथ लगावइँ तउ सब होये।
तुलसी अपुनाँ उबरेन औ आन कँ उबारेन।
जने–जने कइ नारी अपने हाथेन टोयेन;
सबकइ एक दवाई राम नाम मँ राखेन;
काम क्रोध पन कइ तमाम खटराग नेवारेन;
जवन जहाँ कालिमा रही ओकाँ खुब धोयेन।
कुलि आगे उतिरान जहाँ तेतना ओइ भाखेन।
१०.
धर्म की कमाई /
सौंर और गोंड स्त्रियाँ चिरौंजी बनिए की दुकान
पर ले जाती हैं। बनिया तराजू के एक पल्ले पर नमक
और दूसरे पर चिरौंजी बराबर तोल कर दिखा देता है
और कहता है, हम तो ईमान की कमाई खाते हैं।
स्त्रियाँ नमक ले कर घर जाती हैं। बनिया
मिठाइयां बनाता और बेचता है। उस की दुकान
का नाम है। अब वह चिरौंजी की बर्फी बनाता है,
दूर दूर तक उस की चर्चा है। गाहक दुकान पर
पूछते हुए जाते हैं। कीन कर ले जाते हैं, खाते और खिलाते हैं।
बनिया धरम करम की चर्चा करता है। कहता
है, धरम का दिया खाते हैं, भगवान् के गुण गाते हैं।
रचनाकाल:02.11.2002
११.
पवन शान्त नहीं है /
आज पवन शांत नहीं है श्यामा
देखो शांत खड़े उन आमों को
हिलाए दे रहा है
उस नीम को
झकझोर रहा है
और देखो तो
तुम्हारी कभी साड़ी खींचता है
कभी ब्लाउज़
कभी बाल
धूल को उड़ाता है
बग़ीचों और खेतों के
सूखे तृण-पात नहीं छोड़ता है
कितना अधीर है
तुम्हारे वस्त्र बार बार खींचता है
और तुम्हें बार बार आग्रह से
छूता है
यौवन का ऎसा ही प्रभाव है
सभी को यह उद्वेलित करता है
आओ ज़रा देर और घूमें फिरें
पवन आज उद्धत है
वृक्ष-लता-तृण-वीरुध नाचते हैं
चौपाए कुलेल करते हैं
और चिड़ियाँ बोलती हैं
आओ श्यामा थोड़ा और घूमें फिरें
१२.
सब का अपना आकाश /
शरद का यह नीला आकाश
हुआ सब का अपना आकाश
ढ़ली दुपहर, हो गया अनूप
धूप का सोने का सा रूप
पेड़ की डालों पर कुछ देर
हवा करती है दोल विलास
भरी है पारिजात की डाल
नई कलियों से मालामाल
कर रही बेला को संकेत
जगत में जीवन हास हुलास
चोंच से चोंच ग्रीव से ग्रीव
मिला कर, हो कर सुखी अतीव
छोड़कर छाया युगल कपोत
उड़ चले लिये हुए विश्वास
जयंती विशेष//
बनारस के अपने त्रिलोचन....
प्रगतिशील काव्यधारा के कवि के रूप में त्रिलोचन
( मूल नाम बासुदेव सिंह) (जन्म:20/08/1917-मृत्यु:09/12/2007) यूँ तो रहने वाले सुलतानपुर के थे लेकिन उनका एक लंबा समय बनारस में गुजरा है और आज उनकी जन्मतिथि पर उनकी याद का आना स्वाभाविक है।अपनी शब्द सजगता और भौगोलिक भास्वरता के कारण बनारस में रहते हुए उन्होंने न केवल बनारस को जीया है बल्कि इसे एक काव्य खनिज के रूप में इस्तेमाल भी किया है। 'बाढ़ में दशाश्वमेध','देख रहा हूँ गंगा के उस पार', 'चांदनी चमकती जाती है गंगा बहती जाती है','काशी का जुलाहा' जैसी कुछ ऐसी महत्वपूर्ण कविताएं हैं जहां कबीर,तुलसी,गंगा व गालिब की उपस्थिति से बनारस का कोना कोना अपनी संपूर्णता में आलोकित हो उठता है।इस संदर्भ में उनकी कविता की जड़ें तुलसी से जुड़ती हैं और उसके फल के रूप में आज ज्ञानेंद्र पति की उपस्थिति दिखाई देती है।
इसी शहर में वे 1930 से 1975 के बीच लगभग 45 साल रहे।इसी शहर में प्रेमचंद के संपर्क में आकर 1930 में सरस्वती प्रेस से निकलने वाली पत्रिका हंस में प्रूफ रीडरी की।ट्यूशन पढ़ाकर पेट पाला।कम पैसे में नागरी प्रचारणी सभा में काम किया जहां बीएचयू के हैदराबाद कालोनी स्थित अपने शिक्षक पुत्र जय प्रकाश सिंह के आवास से नागरी सभा तक लगभग 15 किलोमीटर रोज पैदल आते जाते रहे।इसी शहर में 1945 में मुक्तिबोध तो 1962 में धूमिल से सत्संग किये।1937 में प्रगतिशील लेखक संघ के काशी इकाई की स्थापना भी किये और शिवदान सिंह चौहान,रामविलास शर्मा,हजारी प्रसाद द्विवेदी ,नंद दुलारे बाजपेयी के साथ नामवर सिंह व केदारनाथ सिंह से घंटों साहित्य चर्चा किये।
आज उन्हें याद करते मेरे सामने निज के बचपन का एक बिम्ब उभरता है कि मैं बार बार अमरूद के एक पेड़ से फल तोड़ने के लिए उचक रहा हूँ और वह फल है कि हाथ आ नही रहा।जितना ही उछलता हूं,उतना ही परेशान होता हूँ लेकिन फिर भी हार नहीं मानता।फल हाथ लगा कि नहीं ,यह तो याद नहीं लेकिन बड़े होने पर जिस कवि की यह कविता'ललक' हाथ लगी,उसका नाम त्रिलोचन था।यह कविता भी अपनी प्रदीर्घ यात्रा में कालिदास तक जाती है और हमें अपने जीवट से भर देती है।यह कवि की पवित्र महत्वाकांक्षा की सूचक तो है ही,अपने पाठक को भी उसकी लघुता से मुक्त कर आत्म विश्वासी बनाती है।कविता है--
'हाथ मैंने उचाये हैं /उन फलों के लिए/जिनको बड़े हाथों की प्रतीक्षा है/डरा नही /हंसा जाऊँगा।".
तो ,त्रिलोचन ऐसे ही भाव सम्पन्न लोक चेतना के विलक्षण कवि हैं.जो नए मनुष्य के प्रति विश्वास व्यक्त करते हैं। पता नहीं क्यों,उनके बारे में इतना कुछ लिखते हुए इस बनारस में तुलसी की याद आती है।तुलसी से भाषा सीखने की बात तो वे खुद करते हैं,कहीं जीवन स्थितियां भी तो समान व सामान्य नहीं थी!सोचना तो होगा ही!
आज उनकी जयंती पर मुझ काशी सेवी का उन्हें प्रणाम।
संपर्क सूत्र : corojivi@gmail.com
मो.नं. : 8429249326
काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल
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