Golendra Gyan

Friday, 18 September 2020

कोरोजयी कवयित्रियों का महत्वपूर्ण कोरोजीवी कविताएं {©corojivi kavita}


चर्चित कवयित्रियाँ और उनकी कोरोजीवी
 कविताएं


 

कोरोजयी कवयित्री डॉ.रचना शर्मा की कोरोजीवी प्रेम कविताएं :- निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ें

https://golendragyan.blogspot.com/2020/08/blog-post_10.html



कोरोजयी कवयित्री डॉ.शशिकला त्रिपाठी की कोरोजीवी कविताएं :- लिंक पर क्लिक कर पढ़ें 

https://golendragyan.blogspot.com/2020/09/shashi-kala-tripathi.html




कोरोजयी कवयित्री रश्मि भारद्वाज की कोरोजीवी कविताएं :-

१.

किसी अप्रेम-रात में (१)


प्रेम- घातों को किससे कहे लड़की

वह इश्क़ लिखे तो कागज़ पर फ़रेब उगे 

रोना मुफ़ीद नहीं किसी के सामने

प्याज काटने का बहाना हो या

नल की धार बहती हो बंद दरवाज़े के पार, 


85 नंबर की बस में रात के दस बजे बैठकर कहेगी 

कि कहीं की भी टिकट हो

तो शराबी कंडक्टर आँखें सेकेगा

ड्राइवर पीले दाँत दिखायेगा 

 ख़ौफ़ है कितना!

लेकिन घर पर रहने में ख़ुद से ही ख़तरा है 

बाएँ हाथ की नीली नस के साथ दाईं आँख भी फड़कती है


कनॉट प्लेस में भटकते शोहदे

बाज़ारू औरत समझकर दाम बताते हैं,

यहाँ-वहाँ हाथ मारकर भद्दे इशारे करते हैं

बिना प्रेम के सोना भी तो एक तय ग्राहक के साथ बैठना है


प्रेम-आघातों को किससे कहे लड़की 

हाथ-हाथ में तराजू है

बटखरे बहुत भारी हैं

लड़की की दलील हल्की पड़ जाती है 


वह प्रेम के लिए सब कुछ भूलती है

एक दिन सब कुछ के लिए यह अप्रेम भूल जाएगी

कहीं का नहीं सोचकर, कहीं के लिए नहीं चली है लड़की

कहीं पहुँच जाएगी 

अभी बच गयी तो बच जाएगी 


२.
दारुण दुखों को लिखने के लिए
तलाशना सबसे मनोहर शब्द
एक यंत्रवत भीड़ के कोलाहल में
घोल देना मन की सभी विरक्तियाँ 
छूटता हो ज़िन्दगी का स्वाद
फिर भी छूटे नहीं पेट भर भूख
मन भर आनंद, 
यह सोचना कि इन दिनों व्यर्थ सी है कविता
फिर कविता में ही उसे व्यक्त करना

और इस तरह जीते रहना 
खिले होने का आभास 

३.
वह सोचती है
कि जिस प्रथम पुरुष को उसने ख़ुद को सौंपा
उसने उसका हृदय भी देखा कि नहीं
या वह सिर्फ़ रही
अक्षत, अविचल
विजित की जाने वाली योनि मात्र
वह जो अंतिम पुरुष होगा
क्या वह भी उतनी ही कामना से भरा होगा उसके वरण हेतु
जब शुष्क हो जाएगी उसके भीतर की नदी

४.
यह हमें धरोहर में मिले वह सीताराम नहीं
जिसके उच्चारण से सोंधी गन्ध आती थी
भय प्रगट कृपाला गाते रोम -रोम पुलकित होता था

अब भी रोएँ सिहर जाते हैं
जब रौशनी और वैभव के अट्टहास के बीच 
उद्घोष होता है
किसी महान ईश्वर का

वह शबरी, निषाद की कुटिया से दूर
महल में स्थापित
ह्रदय विभेदकारी
एकाकी
विजेता
रक्तमंडित
धर्म रक्षक 
जय श्री राम हैं

५.
।। सृष्टि ।।
प्रथम रक्त स्त्राव से
शिशु जन्म के अपने उद्देश्य तक
सृष्टि का सारा भार वहन किया उसने
फिर भी एक स्त्री के लिए वर्जित रहा यह शब्द
उसे योनि को वहन करते हुए
योनि की इच्छाओं से मुक्त रहना था

६.
हो राम! चुन चुन खाए

उस घर से जाते हुए अंजुलि भर अन्न लेना
और पीछे की ओर उछाल देना
पलट कर मत देखना पुत्री, बन्ध जाओगी
तुम अन्न बिखेरो, पिता- भाई को धन धान्य का सौभाग्य सौंपो
और आगे बढ़ जाओ
ख़ुद को यहाँ मत रोपना 
हमने तुम्हें ह्रदय में सहेज लिया है

जिस घर आओ
दाएं पैर से बिखेरना अन्न का लोटा
रक्त कदमों की छाप छोड़कर प्रवेश लेना
श्वसुर-पति को धन- धान्य, वंश वृद्धि का सौभाग्य सौंपना
ताकि ह्रदय में तुम्हें रोप लिया जाए

जब तक स्वामी के अधीन हो
लक्ष्मी, अन्नपूर्णा 
राजमहिषी हो
आँगन में बंधी सहेजती रहो अनाज
तुम्हें आजीवन मिलता रहेगा
पेट भर अन्न, ह्रदय भर वस्त्र- श्रृंगार
परपुरूषों से सुरक्षा 
तुम्हारे निमित्त रखे गए हर अन्न के दाने पर यही सीख खुदी है

तुम इसे भूली
कि ह्रदय से उखाड़ी गयी 
अपने खूंटे से खुली कहलाई
खुली हुई स्त्री पर सब अधिकार चाहेंगे
वे चाहेंगे तुम्हारे ह्रदय में अपनी छवि रोप देना
तुम कभी किसी घर में नहीं रोपी जाओगी
किसी ह्दय पर तुम्हारा अधिकार नहीं होगा 

पूर्व कथा: यथार्थ या दुःस्वप्न

दादी की कथा की गोलमन्ती चिड़ैया
चौराहे पर खड़ी कहती थी
मेरा खूंटा पर्वत महल पर बना है
मुझे मेरे बच्चों सहित वहां से निकाल दिया गया
मैं और मेरे बच्चे भूखे मर रहे थे 
जिसके हिस्से का अन्न खा लिया मैंने
भूख से बिलखते बच्चों को खिलाया 
वह मुझे पकड़ कर ले जाए
हो राम! चुन चुन खाए
ज्यों मैंने उनका अनाज चुन चुन कर खाया था


७.
वे विक्षिप्त हैं
या कि उन्होंने ख़ुद को मुक्त किया है

शाम को टहलते हुए अक्सर
वह ख़ूब मुस्कुराते हुए फ़ोन पर बतियाता दिखता है
उसके पास दुनिया भर की बातें हैं 
हाथ नचा, स्वर के गम्भीर आरोह अवरोह में 
वह बोलता ही जाता है
ग़ौर से देखा तो पाया कि उसके हाथ मे ईंट का टुकड़ा है, 
मैं अपने सैकड़ों नम्बरों वाले स्मार्टफ़ोन को देखती हूँ
किसी को फ़ोन करूँ 
लेकिन कहूंगी कितना!

बाज़ार के चौराहे पर वह अपनी कथरी लपेटे 
मैली सी एक कॉपी में कुछ लिखती दिखाई देती है
आती जाती निगाहों और फब्तियों से बेख़बर, 
बस लिखती ही जाती है
उसे केले देते हुए मैं पूछ ही बैठती हूँ
क्या करती हो 
वह व्यंग्य से मुस्कुराती है, तुम क्या करती हो
सोचा कहूँ, मैं सच में लिखती हूँ
लेकिन सहम जाती हूँ 
क्या सच में! 

 वे जब भी नज़र आते हैं
मैं एक बेवकूफ़ सवाल उनसे पूछ लेना चाहती हूँ
आप ठीक तो हैं न !
सोचती हूँ जो उन्होंने पलटकर यही पूछ लिया
तो कहूँगी क्या!

८.
प्रेम में स्त्री

वह जो असाधारण स्त्री है
वह तुम्हारे प्रेम में पालतू हो जाएगी
उसे रुचिकर लगेगी वनैले पशुओं सी तुम्हारी कामना
रात्रि के अंतिम प्रहर में
 तुम्हारे स्पर्श से उग आएगी उसकी स्त्री
पर उसे नहीं भाएगा
यह याद दिलाया जाना
सूर्य की प्रतीक्षा के दौरान

तुम्हें प्रेम करते हुए
वह त्याग देगी अपनी आयु
अपनी देह 
तुम देख सकोगे
उसकी अनावृत आत्मा
बिना किसी श्रृंगार के

वह इतनी मुक्त है
 कि उसे बांधना
उसे खो देना है
वह इतनी बंधी हुई है
कि चाहेगी उसकी हर श्वास पर
अंकित हो तुम्हारा नाम

तुम्हारे गठीले बाजू
उसे आकर्षित कर सकते हैं
पर उसे रोक रखने की क्षमता
सिर्फ़ तुम्हारे मस्तिष्क के वश में है

तुम्हारे ज्ञान के अहंकार से
उसे वितृष्णा है
वह चाहती है
एक स्नेही, उदार हृदय
जो जानता हो झुकना

उस स्त्री का गर्वोन्नत शीश
नत होगा सिर्फ़ तुम्हारे लिए
जब उसे ज्ञात हो जाएगा
कि उसके प्रेम में
सीख चुके हो तुम
स्त्री होना

९.
स्त्री-विमर्श के लिये प्रस्तुत
_________________________
कवयित्री:रश्मि भारद्वाज
कविता"रिक्त स्थान "का एक अंश 
________________________________

एक पुरुष ने लिखा प्रेम
रची गई एक नई परिभाषा 
एक स्त्री ने लिखा प्रेम
लोग उसके शयन कक्ष का भूगोल तलाशने लगे

एक पुरूष ने लिखी स्त्रियाँ 
ये सब उसके लिये प्रेरणाएं थीं 
एक स्त्री ने लिखा पुरुष 
वह सीढ़ियाँ बनाती थीं 

स्त्री ने जब भी कागज़ पर उकेरे कुछ शब्द
वे वहाँ उसकी देह की ज्यामितियाँ खोजते रहे

उन्हें स्त्री से कविता नहीं चाहिए थी
वे बस कुछ रंगीन बिम्बों की तलाश में थे ।।

( " मैनें अपनी माँ को जन्म दिया है " से)

१०.
"पति की प्रेमिका के नाम"                       

सोचती हूँ कि तुम्हें एक घर तोड़ने का इल्ज़ाम दूँ
या कि उस पुरुष के कहीं रिक्त रह गए हृदय को भरने का श्रेय 
जो घर गृहस्थी के झमेलों में 
शायद मेरे प्रेम को ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया था,
तुम्हारे और मेरे मध्य
एक-दूसरे से बंधने के कई कारण थे
हम उसी पुरुष से जुड़े थे
जो मुझे रिक्त कर 
तुममें ख़ुद को खाली कर रहा था

तुम्हारे पास जो आया था
वह मेरे प्रेम का शेष था
हमारे संबंध की बची रह गई
इच्छाओं का प्रेत,
यह कितना कठिन रहा होगा
कि तमाम समय मुझ सा नहीं होने की चेष्टा में
मैं मौज़ूद रहती होऊँगी तुम्हारे अंदर
और उसकी सुनाई कहानियों के साए
आ जाते होंगे तुम्हारे बिस्तर तक

तुम मुझसे अधिक आकर्षक
अधिक स्नेहिल 
अधिक गुणवती होने की अघोषित चेष्टा में
ख़ुद को खोती गई 
और मुझसे मेरा जब सब छिन गया
मैं ख़ुद को खोजने निकली

हमने जी भर कर एक-दूसरे को कोसा
एक-दूसरे के मरने की दुआएँ माँगी,
हमारे मध्य एक पुरुष के प्रेम का ही नहीं
घृणा का भी अटूट रिश्ता था

मेरे पास था 
एक प्रेम का अतीत
एक बीत गई उम्र
और एक बीतती जा रही देह के साथ
उसके प्रणय का प्रतीक
एक और जीवन 

तुम्हारे पास था
एक प्रेम का वर्तमान
यौवन का उन्माद
देह का समर्पण
अपने रूप का अभिमान
और मेरे लिए एक चुनौती

लेकिन अपना भविष्य तो हम दोनों ने
किसी और को सौंप रखा था

यह होता कि तुमने मेरा अतीत
और मैंने तुम्हारे वर्तमान का साझा दुख पढ़ा होता 
काश कि हमें दुखों ने भी बाँधा होता।   


११.
"माँ से कभी नहीं छूटता है घर"

माँ हमेशा कहती है
जब नहीं रहूँगी मैं
तब भी रहूँगी इस घर में
यहाँ की हवा में
अधखिले फूलों में
पत्तों पर टपकी ओस में
बेतरतीब हो गए सामानों में
पूजा घर में ठिठकी लोबान की ख़ुशबू में
तुलसी के पास रखे उदास संझबाती के दिये में
या मेरे चले जाने के बाद अनदेखे कर दिए गए
मकड़ी के जालों में

पौधों पर नन्ही कोई गिलहरी दिखे
तो समझना मैं हूँ
कोई नन्ही चिड़िया
तुम्हें बहुत देर से निहारे
तो समझना मैं ही हूँ।

हर शाम अकेली बैठी माँ
जपा करती है कुछ मन्त्र
और पास के एक बन्द पड़े मकान की खिड़की पर आ बैठता है एक बड़ी आँखों वाला उल्लू
बस चुपचाप देखा करता है, जाने क्या गुना करता है मन ही मन
माँ उससे बतियाती है, वह भी सर हिलाता है कि जैसे सब समझ पा रहा हो
छुट्टियों में आए अपने बच्चों को उससे मिलवाती, कहती है माँ
ऐसे ही चुपके से मैं आ बैठूँगी रोज़
देखूँगी इस घर को
याद करूँगी तुम सब को
तुम सब आओगे यहाँ कभी न कभी

माँ से कभी नहीं छूटता है घर
घर हमेशा ही छोड़ देता है माँ को!

१२.
वह जो चित्र उकेरा गया है
उसमें मौजूद औरत से मेरा चेहरा भर मिलता है, 

किसी को उतना ही देख सकना
जो आँखें दिखातीं हैं
कान संसार भर की आवाज़ें बटोर लाते हैं
इन्हें इंद्रियों की असमर्थता मत कहो
तुम्हें बंद आंखों से देखना नहीं आता था 
बिना सुने सोच सकने का अभ्यास नहीं था 

दृश्य, ध्वनि, शब्द के परे 
जो उपस्थित है 
तुमने उसे कितना देखा है 
या फिर बंद कर दी हैं खिड़कियाँ उकताहट से

मेरे पास आकर तुमने मुझे क्या देखा
मैं हमेशा तुम्हारे बनाए गए दृश्य के बाहर ही छूट गयी थी



कोरोजयी कवयित्री पंखुरी सिन्हा की कोरोजीवी कविताएं :-
१.
9/11/ एलिकट क्रीक/मेरा दिल
कुछ इस तरह धड़क रहा है
यह शहर मेरे भीतर
कि न लौटी तो न बचूँगी!

वह सड़क जिसपर
पहली बार निकल गयी थी
एक दोपहर अकेली
पहली या दूसरी दोपहर
मेरी अकेली
पहुँचने के लिए चलकर कहीं
पैदल, अकेली
कि ज़्यादा आती थी
मिटटी और पत्तों की खुशबू
इस तरह
और खुशबू साथ बहते एलीकट क्रीक की
फॉल का महीना था
उस रंग बदलते मौसम को
पतझड़ कहना कितना गलत है
लाल, कत्थई, गुलाबी, हरे. पीले
पत्तों की चादर पर
चलते चले जाना
और मुड़ जाना
कहीं पहुंचकर
कि अंत हीन था बुलावा
खाली, बाहें फैलाये सडकों का!

किसी पुरानी जिगरी दोस्त सी
फिर से बुला रही है
वही सड़क मुझे
आओ! जी भर कर
भर लो ताज़ी हवा
घुटन भरे अपने फेफड़ों में
बंद हो तीन से भी ज़्यादा
महीनों से
अपने घर के भीतर तुम
जूझती कोरोना संकट से
और मैं भी अपने पेड़ों से घिरी
निपट अकेली!

२.
साफ़ दो टुकड़ों में बंटा 
दिखता हुआ 
इतना विभाजित 
शायद कभी नहीं हुआ 
बाद स्वतंत्रता प्राप्ति के 
यह देश 
क्या सम्भव नहीं 
इस स्वाधीनता दिवस की संध्या 
और आने वाली शामों में
शुरू किया जा सके 
बातचीत और विश्वास 
का नया सिलसिला एक 
शुरू की जा सके 
एक खुली बैठक 
जहाँ कुछ जगह हो 
खिलाफत और बग़ावत की 
मुंह न सिये जाएँ 
बाग़ियों के 
उन्हें बंद न किया जाए 
जेलों में
आज जबकि निकाली गयी है 
झांकी हर राज्य की 
सांस्कृतिक समृद्दि की 
जो दिखती रही हर कहीं 
यों सुजला, सुफला की 
संभावनाओं से भरे इस 
देश में 
हर कहीं यों ही 
क्या इस विराट उत्सव के दिन 
हम नहीं कर सकते 
ऐ मेरे देश!
एक और कोशिश 
दुनिया के सबसे बड़े 
सबसे जागरूक 
सबसे मनस्वी 
लोकतंत्र को बचा लेने की 
एक और कोशिश?

३.
क्या हर्ज़ होता 
अगर होता 
ठीक मस्जिद की बगल में मंदिर?
क्या ज़रूरत थी 
पहले मुग़ल बादशाह की 
बनवायी एक ऐतिहासिक 
ईमारत को तोड़ने की?
आखिर, यह मध्य युग तो नहीं! 
और ये सबूत भी नहीं पुख्ता 
कि एक मंदिर को तोड़ कर 
बनवाई बाबर ने यह मस्जिद
कृत्तिवास कृति हो या 
दक्षिण की सब रामायणें 
वाल्मीकि कथा हो 
या तुलसी प्रचारित लोक किस्सा 
कहीं नहीं लिखा अयोध्या में 
ठीक कहाँ पैदा हुए थे 
दशरथ पुत्र राम 
अज प्रपौत्र राम 
न हैं कोई प्रमाण 
पुरातत्व में खुदाई के 
फिर अगर बनाना ही था 
राम नाम का मंदिर 
बना सकते थे कहीं 
आसपास 
पड़ोस में 
बंद करके दोनों मंदिर 
मस्जिद के लाउडस्पीकर 
लगाकर दोनों के इर्द गिर्द ढेरों ढेर पेड़ 
आखिर, ऑक्सीजन बराबर 
चाहिए होता है 
मंदिर मस्जिद की लड़ाई लड़ते 
हिन्दू मुसलमान में बँटे 
हाड़ मांस की एक संरचना के इंसान को!

४.
बहत्तर घंटों का रेड अलेर्ट था 
लबालब थीं सारी नदियाँ 
शहरों की नालियाँ 
सड़कें डूबी थीं 
खेत पानी के नीचे 
बरस रहा था 
पुष्य नक्षत्र हुलस हुलस कर 
अकेली धरती खड़ी थी 
उसके स्वागत में 
लोग सब आतंकित!
विडम्बना कि प्यासी धरती के ऊपर भी 
आ सकती है बाढ़ 
ऐसा बढ़ा भी नहीं 
ज़मीनी पानी का स्तर 
और ज़मीन पर उतरने को 
मजबूर हुई नदियाँ 
कृशकाय नदियों में 
ठहरता नहीं पानी 
आर्द्रा मना कर 
खीर पूरी खाकर 
सब नक्षत्रों की ओर से
आश्वस्त बैठे थे लोग 
कि बिजली की कड़क 
और बादल की गरज के साथ 
बरसने लगा पुष्य 
उसके बारे में वैसे 
कहावत है 
'पूख न राखे रूख'
और सच, दिशायें 
गड्ड मड थीं 
रौशनी बुझी हुई 
बरसा था पुनर्वसु भी 
सब आशंकित थे 
क्या एक बार फिर 
डुबाना पड़ेगा गाँव?
तोड़कर बाँध?
किसी की ज़रूर 
कुबूल हुई प्रार्थना 
हुआ सूर्योदय 
तीन दिन तक चमकती रही धूप 
फ़िर भी शहर तक में 
बना रहा पानी
पानी है मेरे घर के 
ठीक सामने भी 
लेकिन 
अब तीन दिन की 
गर्मी, उमस 
ताप के बाद 
हो रही है 
अच्छी बरसात की चाहत 
टूटकर बरसे पानी!
आखिर, अब नहीं 
तो कब बरसेगा?
लेकिन, यह चाहना 
भी खतरे से खाली नहीं 
भर देता है 
अपराध बोध से 
कौन कौन डूबेगा?
कितने दिनों तक 
बंद रहेगी राहें ?
कैसे रहेंगे अपने टापुओं पर 
कुछ लोग दुबके हुए ?
इस कोरोना काल में 
कैसे फैलेगा संक्रमण?
कोई सुन भी रहा है 
अलग अलग रहने की बात?

लेकिन, बारिश!
उसका तो मौसम है 
बारिश नहीं हुई 
तो सूखा होगा 
चमकी बुखार 
बच्चों की खैर नहीं!
कोरोना नया काल है 
लेकिन, बारिश!

५.
1. 
परमानेंट बाशिंदगी की फंतासी

पाने में निजात उस भयानक दर्द से
भयानक तकलीफ से उस
कुछ सभालने में उसे
हज़ार किस्से, हजारों कहानियां
हज़ार तस्वीरों के खांचे
हज़ार फंतासियाँ चल कर उसके पास आयीं थीं
उसने बुलायीं थीं
पर जो सबसे कारगर था
उसका सपना वह
बसने का वहां
पाने का वह पहचान पत्र
बतौर बाशिंदा
परमानेंट पहचान पत्र
परमानेंट बाशिंदगी का पहचान पत्र
हर दम के लिए
हमेशा के लिए
ताकि फिर बदलना न पड़े घर
लेटे न रहना पड़े, सुबह उकड़ू
आधे आधे सपने, सवाल लपेटे
खाली, बिलकुल तन्हा
सिर्फ साथ उनका, जो बरसों से
ऐसे दफ्तरों की लाइनों में खड़े हैं
अधूरी अधूरी नागरिकताओं में ज़िन्दगी जीते
भयानक ठंढ में पार करते सड़क
थामे अपनी काँपती हुई रूह को
काँपते हुए वजूद को
दहल गए वजूद को
पाते भयानक सुकून
अचानक बगल में आ गए
उस वृद्ध के झुर्रीदार चेहरे में
जो है आपके पडोसी देश का
और जो देश बन गया है पर्याय
युद्ध का, युध्भूमि का।


2.
सिद्धांत की ज़मीन पे

बिल्कुल शिकस्त दी जा सकती है
प्रेम को
सिद्धांत की ज़मीन पे
ख़ास कर तब जब प्रेमी उनके साथ हो
कि प्रेम है वह तुम्हारा
पर क्या हर कुछ में है? 
हर कहीं?
सूरज का उगना उससे
डूबना उससे
सूर्योदय में वही
शाम में वही
या कि किरणों का मचलता रंग तुम्हारा भी है? 
तुम्हारी भी है शाम की पीताभ रौशनी?
आसमान तुम्हारा है? 
बरसात तुम्हारी?
भीगना भी अपना
गीले गीले गीत भी?
समय का क़तरा अपना
समय का टुकड़ा अपना
टुकड़े टुकड़े की अट्टालिका एक
कतरे कतरे की इमारत एक
कहता है वह
बीच में तुम्हारे और उसके है?

६.
याद ही नहीं आ रहा 
कौन सी रात थी 
जब पहली बार तुम्हें 
छत पर बंद किया 
तब शायद तुमने ही चाहा था 
खुली हवा थी 
बहुत प्यारी रात
फिर शायद 
बारिश हुई 
और अगली शाम 
तुम उचक उचक कर 
खिड़की से 
कहती रहीं 
भीतर बुला लिये जाने के लिए 
काश! काश!
मैंने बहुत देर 
वहाँ खड़े होकर 
सोचा भी 
लेकिन तुमने खूब 
किया था आक्रमण
बाकी दोनो पर 
तुम खेलती भी थीं 
प्यार से 
अब लगता है 
वो लम्हा 
दुबारा आ जाता 
लेकिन ऐसा नहीं होता 
और उसकी अगली शाम 
मैंने देखा 
तुम्हारा झुकता हुआ सिर 
मुझे लगा शायद 
नींद है 
कुछ तो गड़बड़ 
लगा मुझे 
मुझे होना चाहिए था 
और सचेत 
तुम एक खूबसूरत उपहार की तरह 
एक नायाब तोहफ़े की तरह 
आयी थी मेरे पास 
उजाली रखा 
मैंने तुम्हारा नाम 
और तुम्हें रोक नहीं सकी 
अपने पास 
चले जाने दिया 
वापस उसके पास 
आखिर, इतना क्रूर क्यों है ईश्वर?
आखिर, उन्हीं तीन रातों को 
क्यों हुई 
इस तरह बारिश 
जब तुम छत पर थी?
दुख कलेजे पर 
रखा एक पत्थर है 
और मेरे कमरे में 
तुम्हारी जगह 
एक दम खाली 
सन्नाटा है 
तुम्हारी आवाज़ की जगह 
और गुज़ारिश है 
उस परवर दिगार से कि 
एक बार फिर 
तुम्हें भेजे मेरे पास 
तुम बेशकीमती 
किसी गिफ्ट की तरह 
आई थी मेरे पास 
तुम्हारे ही रंग के 
दो काले सफ़ेद 
कुत्तों के जाने के बाद 
बर्फ़ी और लड्डू का दुख भी 
ताज़े दर्द सा चुभ रहा है 
दुख आंखों से बहती धारा है 
दुख हथेली पे रखा 
गर्म मोम 
एक बार फिर से 
आ जाओ उजाली 
कितने किस्मों की 
स्थितियों में 
बंद किया तुम्हें छत पर 
कितनी बहस की 
तुम्हें घर के भीतर 
लाने के लिए 
एक बार फिर आ जाओ 
उजाली 
मदद करो मेरी 
जीतने में ये जंग 
जो कि है दर असल 
बहुत बड़ी 
ये बनता जा रहा है 
मनुष्य का तकाज़ा 
कि प्रेम का अर्थ है 
केवल मनुष्य से प्रेम!
वह भुगत रहा है 
खमियाज़ा भी इसका 
जूझता नित्य नई आपदा से 
लेकिन अहंकार 
मनुष्य होने का 
बड़ा है उसकी बुद्धि से 
ये लड़ाई कहीं ज़्यादा 
बड़ी है 
मुझसे, तुमसे 
हमारी इस छोटी सी छत से 
लेकिन, मदद करो मेरी 
और आ जाओ जल्दी 
कहीं से भी 
कैसे भी 
उजाली!

७.
अच्छी पार्टी और प्रेम
प्रेम भी इन दिनों एक जुमला है 
नफरत की तरह 
हालाकि, केवल विलोम नहीं हैं वे 
एक आधारभूत अंतर है 
उनमें 
बहुत आसान है 
नफरत करना 
और बहुत कठिन प्रेम!

या मुमकिन है यह 
पूरा पूरी सही न हो 
बस भीड़ बहुत हो 
और इसी से मारा मारी 
फिर, कितनी भलमनसाहत 
बची हुई है अभी! 

बस, वो बेच रहे हैं नफरत 
अफीम की तरह 
समय मार्क्स के बहुत बाद का 
और बहुत ख़राब है

मुमकिन है, यदि प्रगतिवादी 
या बुद्धिजीवी 
विरोध न करें लगातार 
तो हिन्दू वाहिनी जैसी 
संस्थाएं लोगों को बाहर 
निकालें अपने ही घरों से 
और मुमकिन है 

नागरिकता रजिस्टर 
उपक्रम हो उसी का 
लेकिन, इससे यह साबित नहीं होता 
कि दूसरी पार्टियां प्रेम करती हैं 
जनता से 
बस, कम नफरत 

वैसे बहुत से सबूत हैं 
मेरे पास इस अच्छी पार्टी के 
लोगों के निजी प्रेम प्रसंगों में 
दाखिल हो जाने के 

फिलहाल, हतप्रभ हूँ 
कि सोशल मीडिया पर ठीक तब
नफरत का धंधा करने वालों पर 
इलज़ाम लगा है 
प्रेम की परिभाषाएं गढ़ने का 
प्रेम में हस्तक्षेप का 
जब कि, तथाकथित 
अच्छी पार्टी का पक्ष 
न लेने पर 
सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है 
एक संभावित प्रेमी ने 
एक लम्बा वक़्त जाया करने के बाद 
बातें करते

कितना वक़्त है पुरुषों के पास 
उन्हें लगता है 
अनंत और समय से परे है 
उनकी प्रजनन की क्षमता 

और वक़्त ही नहीं 
कितनी ताकत है 
उन पुरुषों के पास भी 
जो कितनी नफासत 
कितनी खूबसूरती से 
खींचते हैं विवाहित 
अविवाहित स्त्रियों को
प्रेम में अपने 
अपने बाहुपाश में 

वे प्रेम कर रहे होते हैं 
जब बार बार वे बुलाते हैं 
खुद से बीस साल छोटी लड़की को 
अपने शयनगार में 
और यकीन मानिये 
बहुत कुशल प्रेमी होते हैं वे 
उदारवादी, क्रांतिकारी 
विचार धाराओं के बुर्जुआ

उनकी पुकार उद्वेलित करती है 
उनकी प्रेमिकाओं को 
जब वे तैयार कर रही होती हैं 
खुद को अपनी ज़िन्दगी के लिए 

और दोस्तों, हम गिनिथ पैल्ट्रो की 
फिल्म,' द परफेक्ट मर्डर' के 
सेट पर 
नहीं बिताते जीवन 
लेकिन, जीवन में 
पुरुषों के बीच 
एक अद्भुत संधि वार्ता होती है 
नियंत्रण को लेकर 
वे स्त्रियों के हाथों में 
आने ही नहीं देना चाहते 
उनकी अपनी चाभी 
कई बार 

स्त्रियां इसे भी नहीं समझतीं 
आपसी प्रेम की भी 
बढ़ती ही जाती हैं 
जटिलताएं
विडम्बनाएं

प्रेम तो ऐसा होता है 
जिसमें कोई जान ले ले 
किसी की 
और जान लेने की क्रिया 
दोनों जगह दंडनीय है 

चाहे वह प्रेम में हो 
या नफरत में 

चलिए, चलते चलते 
कुछ और हिमायत प्रेम की

कम जानें ली जा सकती हैं 
प्रेम में 
नफरत में हत्या की बनिस्पत 
लेकिन, ज़रा सोचिये 
इतने किस्मों की 
माप तौल 
राजनैतिक गोटीबाज़ी के बीच 
कितना बौना 
कितना तुच्छ 
कितना बेचारा है प्रेम!

८.
गाहे बगाहे याद आते हैं पिता 
रस्ते पैरे 
आम के आने पर 
लीची के टूटने पर

अमरुद वाले की हाँक पर 
भरवां करेले की फांक पर 

बिकने आने पे सब्ज़ी और मखान 
कभी घर ले आने पे पान 

जब करने को ज़िद 
मचलता हो मन 

लड़कपन के अभिनय में 
सबसे शांत दिखता हो जीवन

पिता की आती है याद 
हर पल, हर क्षण 
लेकिन जन्मदिन पर पिता 

जैसे कहते हुए 
एक बार फिर 
जाओ, कर लो पार्टी 
और ख़त्म करो जल्दी 
इधर भी भेजना केक 
और मत भेजना ठंढा मिल्क शेक 

क्या क्या बना है खाने में? 
और 
क्या नया मुझे सुनाने में?

९.
मित्रों! चोरी हो गया है यह आम!
आज सुबह के अखबार में 
चौक की बातों की खखार में 
चाहे जो भी रही हो 
ताज़ा खबर 
खबर केवल यह है 
कि मेरे बाग़ के इकलौते पेड़ से 
चोरी हो गया है 
मेरा सबसे प्यारा आम! 
वह जिसकी निगरानी हर आंधी 
ही नहीं, ज़रा सी तेज़ हवा की 
बयार पर, बारिश की फुहार 
और बौछार पर 
बाहर निकल निकल कर की………..
जिसमें बारिश से पहले 
पानी दिया 
खड़े होकर मच्छरों के बीच……
ऐन नाक के नीचे से 
तोड़ लिया गया है वह

याद आयी उदय प्रकाश की कहानी 
'तिरिछ', दो चार गालियां देकर चोर को 
निकाली कुछ मन की भड़ास
मिली थी चोरी की सूचना 
ऐन माँ की टहल के बाद 
ढ़ाली थी ठीक तभी 
चाय की अपनी प्याली 
भरी थी पहली घूँट 
और बजाए उतरने के खुमार 
आ गया पूरी देह में उबाल 
ज़ायका ख़राब हुआ 
किरकिरा मज़ा

दिन भर का स्वाद 
होता हो या न होता हो 
तय, चाय की पहली चुस्की से 
वह होती है माँ और माशूक जैसी प्यारी 
पिता सी कड़क न हुई 
तो क्या चाय हुई? 
मैं यों भी नहीं पीती 
दूध की चाय में शक्कर 
चाहती हूँ उसमें रहे 
वातावरण की मिठास 

फूलों, फलों, लोगों की नर्मदिल 
बातों का एहसास 
ओस की ठंढक रहे पास 
खौलती चाय को थामे हाथ के 

किसने की होगी चोरी? 
फांदी होगी दीवार! 
छड़पी होगी मुंह अँधेरे! 
छड़पने में जो क्रिया 
और भाव का अतिरेक है 
नहीं है खड़ी बोली हिंदी के 
और किसी शब्द में! 

मुंह अँधेरे हुई होगी चोरी 
होने से पहले भोर 
क्या किसी परिचित की ही 
सीनाजोरी? 
हाय! मैंने उसे तोड़ क्यों न लिया? 
अब क्या होगा? 
बात केवल फल के स्वाद 
उसके भक्षण की नहीं 
फल तोड़ने के आनंद 
पेड़ से जुड़ाव की है 
मुझसे माँगा होता
बाज़ार के आम के दाम दे देती! 

हाय! मैंने उसे तोड़ क्यों न लिया?
करके सब लोगों की अवज्ञा 
कि जुलाई में पकती है 
आम्रपाली! 
अब क्या होगा?
कैसे होगी तहकीकात?

मेरा तो अमेरिकी ग्रीन कार्ड 
चोरी हो गया
और हुई नहीं कोई तहक़ीक़ात!
लेकिन, चोर और मुंहजोर हुआ जाता है! 
वही नहीं है एक अकेला 
चोरों के हैं कितने खेमे 
कितने दंगल! 

अब क्या होगा?
बुद्धम शरणम गच्छामि!
शांति इसी में है 
कि मान लिया जाए 
शहर के सबसे भूखे
बेबस व्यक्ति को 
दान किया मैंने 
सबसे प्यारा आम 
जिसमें सबसे ज़्यादा था 
पीला रंग भी आया हुआ 

किन्तु, अगर शहर के 
सबसे लुच्चे 
और टुच्चे व्यक्ति ने छीन लिया 
तो भी क्या कर सकती हूँ? 

बुद्ध शरणम गच्छामि!
ऊँची करवाउंगी 
चहरदीवारी 
लगवाउंगी कटीले तार 
लेकिन दोस्तों!
यह समय 
सुरक्षा 
खुलेपन और 
घेरेबंदी पर बहुत बड़ा विमर्श है!

१०.
जिया हुआ प्यार

प्यार बहस है
मेरे तुम्हारे बीच की
शर्त कि कोई तीसरा न आए!
प्यार सबकुछ जो तय नहीं
चौंकना भी पाकर
उसे घर में अचानक
अपरिचित दखल
बातें
काटकर कुछ अपना वक़्त
बिना रजामंदी
तुम्हारी पसंद की सब्जी
तुम्हारे आने का इंतजार
प्यार उन्नीदी शाम
ऊँघती रात
अफरातफरी की सुबहें
प्यार ढेरो ढेर थकान
जिया हुआ प्यार फरक
सिर्फ किये हुए से। 


११.
मदर इंडिया 

कितनी मायें चलीं 
शुरू होने के बाद 
लॉक डाउन 
उठाये अपने बच्चों के साथ 
टिनही कटोरी, कड़ाही 
छीपा, लोटा और कनस्तर 
शायद उन्हीं के आटे की 
वह रोटी थी 
गोल गोल
जो यों बिखर गयी 
पटरियों पर 
जब गुज़री पदयात्रा की थकान के ऊपर 
व्यवस्था की रेल 

कितना रोई होंगी 
इन मज़दूरों की मायें 
मदर'स डे की ईव पर 
और कितना रोई होंगीं 
उनके बच्चों की मायें 

लेकिन ठहरिये 
रेल का गुज़रना 
एक अलग कविता है 
हादसों के इस देश में 
कितने बढ़ गए हैं 
रेल हादसे 
और अब कोई 
लाल बहादुर शास्त्री 
नहीं होता मिनिस्टर!

भटकने लगीं हैं 
मज़दूरों को उठाये 
ट्रेने सरेआम 
जिससे उतरी हैं 
लाशें
लेकिन, क्या फ़र्क़ पड़ता है?

अब खुलने जा रहे हैं 
मॉल और बैंक्वेट हॉल 

कुछ समय पहले
झूम झूम कर 
मनाया गया है 
देश में मदर'स डे 
शायद बलाएं भी लेने के लिए 
कि इस कोरोना काल में 
एक बेहद असुरक्षित देश में 
सलामत रह जाएँ 
सबकी ज़िंदगियाँ

फिलहाल, आंकड़ों का बना है जीवन 
कुछ गलत सही हैं आंकड़े 
स्वीकार लिया गया है 

सूचना मुताबिक हैं 
सब गतिविधियां 
साक्षरता है अपने 
कंप्यूटर की खट खट 
मनुष्य भौंचक है 
इतना मशीनी होकर भी 
वह रह गया 
केवल मनुष्य…………………….




कोरोजयी कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कोरोजीवी कविताएं :-
१.
मैं सपने देखती हूं
 .....................
एक ऐसी दुनिया के सपने देखती हूं मैं
जहां किसी तरह की सीमा ना हो
पर हर आदमी जाने 
कि उसकी सीमा क्या है ।।

२.
कपड़ा पहनने वाले लोग
...............................
वे जो पूरा कपड़ा पहनते हैं
पूरे कपड़े में आए
और दरवाजा तोड़कर मेरे घर में घुस आए
मैं अपने कमरे में आधे कपड़ों में घूम रहा था
वे मुझे देखते ही बोले 
अधनंगे! अविकसित! असभ्य!

मैं उनसे इतना ही कहना चाहता हूं
किसी के घर में 
दरवाज़ा तोड़कर घुसना असभ्य होना है
सभ्यता की बात करने से पहले  
बस, दरवाज़ा खटखटा कर आना सीख लें ।।

३.
प्रेम जब पेड़ हो जाता है
...............................
प्रेम में होकर भी तुम
क्यों प्रेमी की तरह नहीं लगते?

वह कहता है
प्रेम में कोई पेड़ हो जाए
फिर उसका प्रेमी भर होना, बहुत छोटा होना है

तुम छोटी चिड़िया की तरह लगती हो
रोज कहीं ना कहीं उड़ जाती हो
मैं पेड़ की तरह यहीं खड़ा रह जाता हूं
सिर्फ़ तुम्हारे लौटने का इन्तजार करता हूं
तुम लौटकर आती हो, बहुत चहचहाती हो
और मैं चुपचाप सुनता हूं

पर एक दिन चिड़िया नहीं लौटी, कहीं मर गई फिर?

फिर मैं भी धीरे-धीरे मर जाऊंगा
पुरखों की आत्माओं के बीच
होगी वह जहां कहीं, वहीं उससे मिल जाऊंगा

उन सारे लोगों के बारे क्या कहोगे?
जो अपने हिस्से का प्रेम करते हैं मुझसे

वे सब जो अपने हिस्से का प्रेम करते हैं तुमसे
उनका भी कृतज्ञ हूं मैं
आसान नहीं होता प्रेम करना
धरती उनके ही प्रेम से बची हुई है

बहुत देर उसे देखती हूं
सोचती हूं 
आदिवासी दुनिया में कैसे 
प्रेम भी पेड़ हो जाता है ।।

४.
यह किसका नाम है ?
...........................
मैं सोमवार को जन्मा
इसलिए सोमरा कहलाया
मैं मंगवार को जन्मा
इसलिए मंगल, मंगर या मंगरा कहलाया
मैं बृहस्पतिवार को जन्मा 
इसलिए बिरसा कहलाया

मैं दिन, तारीख़ की तरह 
अपने समय के सीने पर खड़ा था
पर वे आए और उन्होंने मेरा नाम बदल दिया
वो दिन, तारीखें सब मिटा दी
जिससे मेरा होना तय होता था

अब मैं रमेश, नरेश और महेश हूं
अल्बर्ट, गिलबर्ट या अल्फ्रेड हूं
हर उस दुनिया के नाम मेरे पास हैं
जिसकी ज़मीन से मेरा कोई जुड़ाव नहीं
जिसका इतिहास मेरा इतिहास नहीं

मैं उनके इतिहास के भीतर 
अपना इतिहास ढूंढ़ रहा हूं
देख रहा हूं, पूछ रहा हूं
दुनिया के हर कोने में, हर जगह 
क्यों मेरी ही हत्या आम है?
क्यों हर हत्या का कोई न कोई सुंदर नाम है?

५.
कैसी कविता मैं दे सकूंगी 
................................
कविता में बहुत बिम्ब, प्रतीक, छंद मांगते लोगों को
अब मैं ऐसी कोई कविता नहीं दे सकूंगी

ऐसी कविता ही दे सकूंगी 
जो गांव में लेदरा सिलती 
मेरी मां के हाथों की सूईं की तरह हो
सीधी और नुकीली

इसी तरह हर कटी-फटी चीजें जोड़ी जा सकती हैं
और हर गलत सिलाई उधेड़ी जा सकती हैं  ।।


६.
भाषा से नीचे गिरते लोग
..............................
अपनी भाषा से नीचे गिरते हुए
कोई यह कहता है
वह दूसरों को उनकी ही भाषा में जवाब देता है
तो मैं समझती हूं
असल में वह किसी को जवाब नहीं देता है
सिर्फ़ अपनी भाषा पर से अपना भरोसा खो देता है
और अपनी ज़ुबान पर जिसका भरोसा ना हो
उससे ज्यादा असहाय और कौन होता है ?

७.
पूजा स्थल की ओर ताकता देश
....................................
जिस देश के भीतर देस  
भूख, गरीबी, बीमारी से मरता है
और देश अपने बचे रहने के लिए 
किसी पूजा स्थल की ओर ताकता है
तब असल में वह अपनी असाध्य बीमारी के
उस चरम पर होता है
जहां खुद को सबसे असहाय पाता है

ऐसा असहाय देश 
अपनी बीमारी का ईलाज 
अगर किसी पूजा स्थल में ढूंढता है
तब उसे अपने ही हाथों
मरने से कौन बचा सकता है ?


८.
मेरा आदिवासी होना
........................
ना साड़ी, ना खोपा
ना गोदना, ना गहना
कुछ भी नहीं पहनती 
फिर कैसी आदिवासी हो तुम?

अक्सर लोग पूछते हैं मुझसे
पर मैं उनसे कहना चाहती हूं
धरती के क़रीब रहना ही आदिवासी होना है
प्रकृति के साथ चलना ही आदिवासी होना है
नदी की तरह बहना 
और सहज रहना ही आदिवासी होना है
भीतर और बाहर हर बंधन के ख़िलाफ़ 
लड़ना ही आदिवासी होना है
और अपने सुंदर होने के सारे चिन्हों के साथ 
ज्यादा मनुष्य होना ही आदिवासी होना है

पर किसी के मन में सिर्फ़ रह गया हो
कोई गहना, गोदना 
और कोई नहीं समझ पाता हो 
क्या होता है आदिवासी होना
तो मैं चाहती हूं बदले समय में नए सिरे से
प्रतीकों में फंस गए हर भ्रम को तोड़ देना 
इसी आदिवासियत के साथ बचा रह सकता है 
धरती पर किसी का आदिवासी होना ।।


९.
पश्चाताप
..............
मां से बाबा ने कभी प्रेम नहीं जताया
इसलिए हम भी कभी बाबा से प्रेम नहीं कर पाए
इस बात के लिए भी उन्होंने 
हर बार मां को ही ज़िम्मेदार ठहराया

एक दिन हमने महसूस किया
बाबा को माफ़ किया जाय
अपना दिल साफ़ किया जाय
इसलिए, जब वे बूढ़े होने लगे
हमने उनको फिर से संभाल लिया 
और लगा इस तरह पश्चाताप किया

पर बहुत दिनों तक एक बात सोचते रहे 
हर स्त्री हर बार हर आदमी को 
इसी तरह माफ़ करती है
उनके लिए अपना दिल साफ़ करती है
पर वे जो इस धरती पर जीवन भर 
स्त्रियों के साथ इंसाफ़ नहीं करते हैैं
आख़िर वे किधर जाकर पश्चाताप करते हैं ?


१०.
आदिवासी क्यों प्रतिरोध करता है?
..........................................
अगर कोई यह कहता है 
कि आदिवासी इस देश में सिर्फ़ प्रतिरोध करता है
तो हां वह प्रतिरोध करता है
इसलिए नहीं कि प्रतिरोध करना उसकी आदत है
इसलिए कि उसका हक जो छीन लिया गया 
इसी देश के विकास के नाम पर
उस देश में वह सिर्फ़ अपना हिस्सा चाहता है
ज्यादा कुछ नहीं मांगता है

आदिवासी इस देश से कुछ पूछता है
इसलिए नहीं कि उसे सिर्फ़ सवाल पूछना आता है
इसलिए कि सिर्फ़ उसी से कोई नहीं पूछता
कि वह क्या चाहता है

अब अगर यह देश समझता है
कि आदिवासी इस देश का विकास नहीं चाहता 
इसलिए प्रतिरोध करता है
सत्ता के खिलाफ रहता है
तो यह समझना चाहिए 
कि यह देश अपने लोगों को
सीधे-सीधे और साफ़-साफ़ यह नहीं बताता 
कि विध्वंश को विकास बताने वाला यह देश 
शाकाहार बचाए रखने वाला यह देश 
पेड़ और पशु की पूजा करने वाला यह देश
जब आदिवासियों की बली चढ़ाने आता है 
उनको जिबह करने से ठीक पहले  
खुद जबरन अंधा और बहरा बन जाता है
ताकि उसे किसी की आवाज़ सुनाई ना दे
बोलता हुआ कोई आदिवासी दिखाई ना दे 

ऐसे अंधे और बहरे देश में
ऐसे नरभक्षी देश में
अगर कोई आदिवासी 
अपने जीवित रहने के हक के लिए लड़ता है
तो क्या ग़लत करता है ?

११.
दुनिया बदलने का सपना दिखाते लोग
..............................................
जो दुनिया को बदलना चाहते थे
वे जंगल में छिपने आए
वे छिपने आए, सीखने नहीं आए
वे भी आदिवासी दुनिया को समझ नहीं सके
उनको ठोक-ठाक कर कुछ बनाने लगे
आदिवासी कुछ बन तो नहीं सके
पर उनके लिए ढाल ज़रूर बन गए

अब ढाल ही गोली खाता है, पीटा जाता है
और इस बारे कुछ भी बोलता है
तो जंगल के भीतर और बाहर 
दोनों जगह मारा जाता है

आदिवासी जो जंगल से भाग जाते हैं
एक दिन फिर लौट आते हैं
लौट कर उजड़ा घर फिर से सजाते हैं
बचा जंगल ही फिर से बचाते हैं
बोलने की जगह गीत गाते हैं
काम को करने की जगह उसे जीते हैं
और खुद के बचे रहने के लिए
पूरी ताक़त के साथ लड़ते हैं, मरते हैं

पर उन्हें कुछ ना कुछ सिखाते रहने
कुछ ना कुछ बताते रहने
दुनिया बदलने के सपने दिखाते रहने
और कुछ सीखने से खुद को बचाते लोग
जब भी इधर आते हैं 
सबसे पहले उनकी ही दुनिया
उजाड़ने के सिवा और क्या कर पाते हैं ?

१२.
जीत
.........
झूठ और बेईमानी का सहारा लेते हुए
अपनी पूरी ताक़त लगाकर 
कुछ लोग प्रतियोगिता जीत भी जाएं 
तो भी उस जीत का कोई क्या करे?
जब प्रतियोगिता ही
सबसे पहले धरती की क़ब्र खोदने की हो।।

१३.
चांद पर यक़ीन करते लोग
.................................
दुनिया भर के लोग 
जो एक दूसरे को ठीक से नहीं जानते
अपनी-अपनी छत से एक दिन 
एक साथ चांद देखते हैं
और उस चांद पर यक़ीन करते हैं 

पर यक़ीन नहीं कर पाते तो उसपर
जो दिन-रात उनके ही आस-पास रहता है
और छत पर आकर आवाज़ भर देने से
जो दौड़ कर बाहर आ सकता है

इस धरती पर लोग 
क्यों चांद पर भरोसा करते हैं?
जो किसी के लिए भी कभी
ज़मीन पर नहीं उतर सकता है
पर उस पर भरोसा नहीं कर पाते
जो पीढ़ियों से पड़ोस में रहता है ।।

१४.
जब कोई कवि वरवर राव होना चाहे
............................................
एक कवि जो जेल नहीं जा सका
उसे सिर्फ़ वरवर राव हो जाने के लिए 
जेल जाने के सपने क्यों देखना चाहिए ?
और किसी कवि वरवर राव को हमेशा
किसी जेल में क्यों होने देना चाहिए?

कवि ईट-पत्थर के बने जेल में होगा
फिर जीवन के जेल में 
कैद लोगों की बात कौन करेगा?

कोई कवि जब भी वरवर राव हो जाना चाहेगा
वह इधर ही ज़मीन पर
जीवन के जेल में कैद
हज़ारों लोगों की मुक्ति की बात कहेगा 

पर कोई कवि इधर भी 
हमेशा अपने ही जेल में रहे
वह उधर जेल में रहकर भला क्या करेगा ?
सिर्फ़ कविता करेगा, कवि रहेगा
वह कोई वरवर राव कभी न हो सकेगा ।।

१५.
शहर की भाषा 
.....................
मां-बाबा जंगल से जब शहर आए
उनके पास अपनी आदिवासी भाषा थी
जीभ से ज्यादा जो आंख की कोर में रहती थी
पानी की तरह
कोई भी पढ़ सकता था उनका चेहरा
पर इस शहर ने
शहर की भाषा नहीं जानने पर 
जंगली कहा
उनका मज़ाक उड़ाया, उन्हें नीचा दिखाया

एक दिन हम बड़े हुए
मां-बाबा ने गांव की भाषा छिपा ली
और शहर में जिंदा रहने के लिए
हमें सिर्फ़ शहर की भाषा दी
पर इस शहर ने फिर
अपनी मातृभाषा नहीं जानने पर 
हमारा मज़ाक उड़ाया, हमें नीचा दिखाया

एक दिन हमने जाना
दरअसल बात यह नहीं है कि
हम क्या जानते और क्या नहीं जानते हैं
असल बात यह है
कि इस शहर को एक ही भाषा आती है
अपने से भिन्न हर मनुष्य को 
हमेशा नीचा दिखाने की भाषा 

आज हम दुनिया की तमाम भाषाओं में
कहना चाहते हैं अपनी बात
पर संदेह है कि यह शहर समझता है
अपने से भिन्न किसी भी भाषा की बात ।।


काशी की कोरोजयी कवयित्री अंकिता खत्री ( अंकिता "नादान" ) की कोरोजीवी कविताएं :-
१.
चलने लगती हैं हवाएं 
छाने लगती हैं घटाएं 
हर शय चहकने लगती है 
महकने लगती हैं फिजाएं 

अरमां जाते हैं मचल, आह जाती है निकल 
जब वो गाते हैं "चल मेरे साथ ही चल... 
ए मेरी जान - ए - ग़ज़ल" 

उनकी हर सांस तरन्नुम, हर लफ्ज़ है तराना  
वो सुरों में बह चलें तो बना देते हैं अफ़साना 

असर ऐसा जैसे हो जादू-सा कोई 
अंदाज़े बयां तो जां निकाल देता है 
खुशबू उनके किरदार की है ऐसे रौशन   
हर सुर इक रूहानी ख्याल देता है
  
आ रहें हैं बन के मेहमां हमारे 
करने महफ़िल हमारी आबाद 
हुसैन बंधुओं की शां में सर झुका के  
तहे दिल से हम करते हैं आदाब...

२.
चोट खाई थी दिल पे
क्यों ज़ख्म कुरेदे जा रहे हो
बड़े "नादान" हो 
फिर प्यार करने जा रहे हो

धोखा मिला था अभी
नया वादा निभाने जा रहे हो
बड़े "नादान" हो
फिर ऐतबार करने जा रहे हो

छोड़ गया वो मोड़ पर
किसकी राह निहारे जा रहे हो
बड़े "नादान" हो
फिर इंतज़ार करने जा रहे हो

मुश्किल से संभले थे
जल्द बेताब हुए जा रहे हो
बड़े "नादान" हो
फिर इज़हार करने जा रहे हो

३.
बेवफ़ा की फ़ितरत है बदल जाना
जो कभी हमारा था अब तुम्हारा ना रहा...

जबसे छोड़ गया वो मेरे मोहल्ले का घर
छत पर कटी पतंग लूटने का बहाना ना रहा...

इंतज़ार करते थे इश्क़ में सदियों तलक
ना वो दीवाने ही रहे अब वो ज़माना ना रहा...

उसके नूर की रौशनी की चाहत सबको
जल जाए उसकी ख़ातिर वो परवाना ना रहा...

दौलत और ताकत का नशा चढ़ा जिनको
फ़कीरी में क्या है सुरूर उन्हें कभी पता ना रहा...

कोई शिकवा गिला शिकायत नही बाकी
मिला जब मुझे ये जहाँ मैं इस जहाँ का ना रहा...

डूब ही जाते बीच भंवर में तो अच्छा था
मिलता था जिससे सहारा वो किनारा ना रहा...

इस मुल्क की चिंता सता रही उन्हें 'नादान'
जिस मुल्क की बेहतरी से कभी उनका वास्ता ना रहा...


४.
कच्चे करौंदे सा कड़क इश्क़ मेरा
तुम्हारी दीवानगी के छौंके से गलता है...

ज़रा सा जीरा तुम्हारे इरादों का
थोड़ा सा नमक झूठे वादों का
चुटकी भर हल्दी मर्यादा की
हरी मिर्च शोखी की ज़्यादा सी...

धीमी आंच में गले है 
तेज़ कर दो तो जले है
देखो खुला ना छोड़ना
ढांक कर ही रखना...

धीरे धीरे करौंदे का हर रस बाहर आएगा
तुम्हारी मसालेदार बातों में लिपट जाएगा...
भांप बनकर खुशबू का धुआँ फैल जाएगा
क्या पक रहा है, सबको पता चल जायेगा...

चटक, चटपटा , झटपट बना
मेरे तुम्हारे प्यार का ये अचार
ज़िंदगी की सादी दाल रोटी में 
स्वाद का चटकारा भरता है...
 
कच्चे करौंदे सा कड़क इश्क़ मेरा...
तुम्हारी दीवनगी के छौंके से गलता है...


५.
उसकी बातों के जादू से बाहर आऊँ कैसे
मैं मन को मनाऊँ , तो मनाऊँ कैसे...

उड़ चला है दिल दूर किसी और दुनिया में
मैं वापस बुलाऊँ , तो बुलाऊँ कैसे...

लाखों रंगों से रंगा सुहाने ख्वाबों का मंजर
मैं तुम्हे दिखाऊँ , तो दिखाऊँ कैसे...

बेताबियाँ पढ़ लो मेरी आँखों में झांककर
मैं खुद बताऊँ , तो बताऊं कैसे...

वो ठहरा निपट "नादान" रूठता भी नही
मैं उसे मनाऊँ , तो मनाऊँ कैसे...

६.
"मैं वापस आऊँगी..."

किसी डाली का फूल बन
तुम्हारा आंगन महकाऊंगी...
या फिर तितली बन शायद
उस फूल पर मंडराऊंगी...

मैं वापस आऊंगी...

बन जाऊंगी बारिश का पानी
बूंद-बूंद तुमपर बरसाऊंगी...
बैठूंगी किसी सीप के भीतर
मोती बन मुंदरी सजाऊंगी...

मैं वापस आऊंगी...

हवा का झोंका बन गई अगर
चुपके से पास तुम्हारे आऊंगी ...
जब रातों को करोगे याद मुझे
खुशबू जैसे सांसों में समाऊंगी...

मैं वापस आऊंगी...

सूरज की किरण बनकर
नया सवेरा कर जाऊंगी...
उदास शाम को गंगा किनारे
चांदनी बन बिखर जाऊंगी...

मैं वापस आऊंगी...

७.
मेरा हर दर्द हर्फ़ बन जाएगा
आह से निकलेगी काव्य की राह
तड़प सुलगयेगी नित नई रचनाएं
आंसू स्याही बन दास्तां लिख जाएंगे...

आंखों के नीचे का कालापन
सफ़ेद पन्नों पर काले अक्षरों जैसा
झुर्रियों की गहरी लकीरें लिए चेहरा
पोले गाल में भी awesome कहलायेंगे...

शायद कैनवास पर रंग बिखेरेंगे
कोई पुरानी फ़िल्म का गाना गाएंगे
dance number पर पांव थिरकेंगे
या बगिया में नए - नए फूल खिलाएंगे...

दौड़ नही सकें तो सहारा ले चलेंगे
बोल नही सकें तो इशारे से बतियाएंगे
जा नही सकेंगे महफिलों में तो क्या
अपनी यादों की ही महफ़िल सजायेंगे...

जो भी हो इतना तो तय है "नादान" 
के ज़िंदगी! तेरे हर एक पल को
आज हो या आने वाला कल हो
दिल से जिया है और जीते जाएंगे...


८.

आया वो बादलों के पार से
सपने रूमानी दे गया...
चलते साथ तो बनते किस्से कई
जाते हुए एक कहानी दे गया...

चार दिन के इस जीवन में
दो पल ज़िंदगी भर गया...
ज़िंदा थे पर अब जी उठे हम
जाने ऐसा क्या कर गया...

सोई थे हम नींद के आगोश में
कानों में गुरुबानी कह गया...
दुनिया की समझ परे ही रह गई
कोई "नादानी" सा रह गया...



कोरोजयी कवयित्री प्रतिभा श्री की  कोरोजीवी कविताएं :- 
१.
कोराजीवी कविता

हां 
हमें इसी के साथ जीना होगा
 तब तक 
जब तक
 सब कुछ सामान्य ना हो जाए ।
बेशक यह दौर मुश्किल का दौर है ,
क्या करोगे?
 पहले भी सब कुछ इतना आसान न था।
 जानते हो मैं जब सपने में 
खुद को देखती हूं मास्क पहने हुए 
तो लगता है 
मेरा स्वप्न  भी करोजीवी भी हो गया है।
 जब मैं इस महानगर के 
दस बाइ दस के कमरे में बैठकर कविता लिखती हूं 
तो समझ में नहीं आता कि क्या लिखूं ?
 सब कुछ बंद है
 सब अपने-अपने घरों में कैद हैं।
मैं अपने खिड़की से देखती हूं 
कुछ लोग रोज सुबह सुबह
अपने जीवन को दांव पर लगाकर 
बचाने जा रहे हैं  न जाने कितनी जिंदगियाँ
उन्हें मालूम है कि -
यह देश सिर्फ नेताओ से नहीं चलता।

२.
वापसी

वे ऐसे  लौट रहे हैं ...
 जैसे किसी तूफान के उठने से पहले,
 पंछी लौट जाना चाहते हैं ,
अपने घोसले में।

वे लौट रहे हैं ,
अपनी जिंदगी की सारी कमाई 
गठ्ठरी में बांधे 
नंगे पांव ....

लहूलुहान है उनके पैर 
सड़कें खून से रंग गयी हैं,
समय की आग से,
 झुलस गए हैं उनके चेहरे I

जिन्होंने सभ्यता के विकास में 
अपना श्रम और पसीना दिया है 
आज उनसे उनका लहू भी 
मांगा जा रहा है
वे लहू भी देने को तैयार हैं क्योंकि-
 वह जानते हैं 
लोकतंत्र में " मजदूरी" का पर्याय "मजबूरी" होता  है,
 वे मजबूर हैं....

जिन सडको को बनाया है उन्होंने 
वही सड़के,
 उनके खून की प्यासी हो गई हैं ,
रेल की  पटरियों के आगोश में ,
समा चुकी है कई जिंदगियां I

धरती अपने अक्ष से हिल गई है 
मानो वह कह रही हो -
 यह विस्थापित युग है ,
निर्वासित युग हैं। 

 इस "भेड़तंत्र" में 
जन प्रतिनिधि को 
जनता ने "विधाता" की संज्ञा दी है।
और उसी "विधाता"ने  उनके भाग्य में लिख दिया है -
 "निर्वासन","पलायन" ,"दमन"और "शोषण"
वे बार-बार अपनी "जन्म कुंडली" टटोलकर देखते हैं ,
और निराश हो जाते हैं I

वे लौट रहे हैं क्योंकि
 उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है ।
 इससे पहले कि वह दूसरे शोषण के शिकार हो
वे लौट जाना चाहते हैं 
अपने गांव
 इसी वादे के साथ कि -
अब वे दोबारा लौट कर नहीं  जाएंगे।

३.
-:उतर -कोरोना:-

कविता -निर्वासित 
मनुष्य- बेघर 
जिंदगी -उधार की 
वादे -अपूर्ण 
रास्ते-टेढ़े मेढ़े 
तलाश -मंजिल की
 अनुभव - कोरी
 शिक्षा -अधूरी 
लब -खामोश 
बच्चे- शापित 
दलित -शोषित 
गरीब- भूखा
रोटी -सूखा
 नारी- विवश
सभ्यता -खंडित 
मानव -दंडित
कलयुग -आरंभ
 जीवन- बेदम

४.
रोटी

पहली बार बनाई गई ,
हर टेढ़ी मेढी रोटी की शक्ल,
भारत के मानचित्र जैसी नही होती।
अक्सर ,
उसकी शक्ल
बहुत कुछ मिलती है,
 भूख से !


५.
-:संस्कार:-

सदियों पहले,
जिन्होंने हमारे घर की इज्जत को ,
अपनी हवस के खातिर,
बिठा दिया "कोठे" पर।
 आज उसी घर में
अपने पिता द्वारा संस्कारित बेटियों ने ,
और उनके घर की औरतों ने,
 अपने घर के पुरुषों का अनुकरण करते हुए ,
अपनी हवस  के खातिर,
अपने घर को "कोठा"बना लिया है।

६.
-:सोना :-

दादी कहा करती थी-
 सोना बहुत महंगा होता है।
 बहुत महंगा 
और यदि सोना खो जाए तो 
अपशगुन होता है।

 मैं इसे महसूस करती हूं 
जब इस महानगर के
 दस बाई दस के कमरे में 
मुझे रात रात भर नींद नहीं आती

तब  लगता है 
 हां ,सोना सचमुच बहुत महंगा होता है।
और सोना का खोना,
 बहुत ज्यादा ही अपशगुन ।



के.एम. रेनू एक कविता :-

१.

              "ख्वाहिश"
उसकी हर ख्वाहिश पर 
कुर्बान हो गये
अपनी गुलामी 
हर कदम-कदम पर
 स्वीकार कर गये
उसने शिक्षा से वंचित किया
रोटी भी छीन लिया
घर से बेदखल कर दिया
तुम्हें बेचकर 
बादशाह बन गया
पत्थर पर खींची 
हर लकीर तोड़ गया
उसने क्या -क्या किया ?
क्या बचा रह गया ?
सपने तुम्हारे
काँच की तरह तोड़े गये
बिखेरे गये मोतियों की तरह
तुम्हारी हर कोशिशों पर 
पानी फिर गये
फिर
तुमने हर लम्हें हँसकर 
ही गुजारे 
और
उसने इस कदर घायल कर दिया
कि
घाव उसके नासूर बन गये 
                   के.एम.रेनू
                    शोधार्थी
                   हिंदी विभाग
             दिल्ली विश्वविद्यालय


बीएचयू , हिंदी विभाग की शोधार्थी रंजना गुप्ता की कोरोना काल की कविताओं का लिंक :-


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