Wednesday, 16 September 2020

कविता संग्रह : "कोरोजीवी कविता का कर्षित कृषक पुत्र हूँ" (©corojivi kavita)

 

१.

शबरी //

गुरुभक्ति से प्रसन्न हो

महर्षि मतंग दिए हैं वरदान

प्रभु की दर्शन हो गई


हे अनुज लक्ष्मण!

शबरी की जूठी बेर विशेष वात्सल्य है 

खाओ ख़ुशी से


यह हमारा सौभाग्य है

कि हमें माता शबरी का ममत्व और मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है

इस निर्जन वन में


हे कौशल्यानंदन! 

करुणासिंधु तीनों लोक के स्वामी

मुझे मुक्ति दीजिए


सत्य की पहचान

नवधाभक्ति का ज्ञान दे रहे हैं भगवान

(श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन)


आनंदित हैं आश्रम की कूची

शबरी का सब्र दे रहा है सीख

उपेक्षितों उम्मीद मत छोड़ना!

(©गोलेन्द्र पटेल

२७-०८-२०२०)



२.

"जोंक"
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रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!

चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं

साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!

टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं

आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!

प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!

अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!

इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
(रचना : ०८-०७-२०२०)




३.

तड़प 

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देखो!
इस अंधेरे में
चमगादड़ लौट रहे हैं
अपने नयन से अपने नीड़
और उनके हमसफ़र उल्लू भी!

अन्य पंक्षी
दिन के पथिक कैसे पहुँचेंगे अपने घोसला???

पूछ रही बहेलिया की बेटी
प्रसव-पीड़ा से लेटी
संसद के पथरीली पथ पर पिता से।...

बापू
क्या मेरा पुत्र पहुँच पायेगा घर???

इसे अभी धरती पर आये
कुछ ही क्षण हुए हैं
मेरे पेट में चार दिन से चूहे दौड़ रहे हैं

सूख चुकी है छाती
चाम चिचोर रहा है मेरा बच्चा।

चमचमाती धूप में आत्मा चौंधिया
सिसक सिसक कर रो रही है
दर्ज़नों दर्द देह में ढो रही है इस महारंक-रूप में

चुपचाप चीख सून रहे हैं नये नेता
नाक पर रुमाल डाल कर
हाय! और क्या कहूँ असहाय
मैं देखता रहा "तड़प"।।
(२५-०५-२०२०)



४.

कविता जनतंत्र के अखाड़े में 

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एक मेंढक टर-टराए

तो दूसरे का टरटराना स्वभाविक क्रिया है

उमस है

तो उम्मीद है बारिश का

भले ही बादल आएं और चले जाएं

खेत से दूर बहुत दूर

बंजर मरूस्थल हृदय के पास।


बेलमुर्गी चीं-चीं चीख रही है

जलकुंभी में छिप कर

एक दिल्ली के आदमी से डर


जो अभी अभी आया है गांव में

खेतिहर के वोट के ख़ातिर

चिड़ियों को चना देने बाकी को दाना

खेतिहरिन को लाई पसंद है

खाना नहीं!


एक कमीना देख रहा है

कूशे में टिटिहरी का अंडा

सुन रहा है हु-टि२-टि३...


गंवईं गवाह हैं

उक्त प्रतिरोध की ध्वनि कानों-कान जायेगी

कचहरी।


कचहरी के दिवारों से टकरा 

लौट आयेगी प्रतिध्वनि कविता के शरण में


कविता बगावत करेगी

बहादूरों से

जनतंत्र के अखाड़े में।

(रचना : १ जुलाई ,२०२०)



५.

सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी
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तिर्रियाँ पकड़ रही हैं
गाँव की कच्ची उम्र
तितलियों के पीछे दौड़ रही है
पकड़ने की इच्छा
अबोध बच्चियों का!

बच्चें काँचे खेल रहे हैं
सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है
मायूसी और मौन 

मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है
दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास
और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!

कोयल कूक रही है
शांत पत्तियाँ सुन रही हैं
सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं
क्रमशः हवा और पाखी का

चहचहाहट चार कोस तक जाएगी
फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से
फिर जाएगी ; चौराहों पर कुछ क्षण रुक
चलती चली जाएगी सड़क धर
सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!
(रचना : ०७-०८-२०२०)



६.

तिर्रें-तिर्रियों-तितलियों के साथ
बच्चों को खेलते देख ताज़े हो जाते हैं पके उम्र

बचपन की स्मृतियों में खो जाते हैं
बुढवा-बुढिया!

सनई फूली है
नेनुआ-तरोई चढ़ी हैं झोपड़ी पर
बाड़ा हरा है
और पीले चेहरों के ख़ुशी पीले पुष्प खिले हैं!

मक्का-मकई झूम रही हैं
गोहरा ढो रही हैं बहूएं

हल्दी-सूरन सोह रही है दादी
नीम पर चढ़े करैलों के कविताएँ सुना रहा हूँ दादा को!
( रचना : ०९-०८-२०२०)



७.

कविता के लिए

अज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैं

केदारनाथ धूल से

श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से 


पहला धूल है या फूल ; 

कह नहीं सकता

ताकना तुम

तर्क के तह में "सत्य" दिखेगा


दूसरा गुलाब है 

गंध आ रही है

नाक में

तीसरा नदी का नाव।



८.

◆रक्षाबंधन◆

एकजुआर रोती रोज़
नून-तेल-ईंधन नहीं
रोटी का पेट से बंधन

चूल्हा ताक रहा है - "भूख"
तवा उदास कड़ाही का दुख
डकची को सुना रहा है

चौका-बेलना बिलख रहे हैं
सून्ठा-सिल सिसक रही हैं
आँखें हरहरा नदी बन बही हैं

गरीब के गालों पर गंगा।

कुएँ का पानी विकल्प है
बच्चों के जीवन के लिए
आज नैहर जाना है - प्राणनाथ स्वर्ग से लौट आओ

बच्चों को नानी के घर
मिलेगा हलवा-पूरी मिठाई
सब उल्लास से उछल रहे हैं

भाईया पहले अपने ससुराल जाएंगे
फिर लौट कर आएंगे शाम को लेने
साँझ हो गई मामा कब आएंगे माँ

उम्मीद वक्त मांगता है बेटी
बस थोड़ा और इंतजार करो सब
मामा आ गए मामा आ गए बड़े मामा आ गए...

मुन्नी कैसी हो?
ठीक हैं
रात हो गई

दीदी रास्ते में गाड़ी खराब हो गई थी
सारे दुकान बंद थें "लॉकडाउन लगा है चारों ओर"
आदमी घर में रहते रहते लंगड़ हो गए हैं

चलो जल्दी करो माई फोन करवा रही है
विधवा बहन विशेष धागों के साथ पहूँची मायके
भौजाई बोली मिठाई नहीं केवल "रक्षाबंधन" है
(रचना : ०१-०८-२०२०)

९.

धूप का रोटियाँ
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हे श्रमिक!
लोकतंत्र के आँगन में
देखा मैंने

श्रम को सोखती

भूखी-प्यासी धूप
पसीना पी-पी परिश्रम से
सेक रही है - "रोटियाँ" ;

लोकसभा व लोकसेवा के मच्छरों के लिए

जो खून चुसते हैं
क्या उनसे उक्त रोटियाँ पचेगी
उनके अंतिम समय में।
(रचना : २९-०७-२०२०)



१०.

मेंढ़क के टर-टर में कजरी व कविता 

मेंढकएँ टर-टर के भाषा में कहते हैं
लड़ो नहीं
लोकतंत्र आ नहीं सकता
तुम्हारे पगडंडियों पर पैदल
लंगड़ है।

नहर-नाली टूट-फूट-पट चुकी हैं
सूखे हैं सारे सरोवर
ट्यूबवेलों को जले हुए कई साल हो गए
जहाँ मायूस मेंढ़क टर-टर करता था एक कविता
दोहराता था कजरी
जिसे सुनने जाता था रात में कुआँ के पास
उछल-उछल कूद-कूद फुदक-फुदक....

यदि तुम आशिक हो तो और भी सुनो
जब जुगनूँ जगत पर चमकते थे चमचम चमचम
तब हवा को किशोरियों का होठ चुमते देखा था
फेफड़ा उस वक्त चुम रहा था हवा को

आज हवा में विरहाग्नि अधिक है
इसके बाह्य स्पर्श से जले रहे हैं देह
अंतः से हृदय ; हरेक आशिकों का

कर्ज़ से लदे कृषक कहते हैं मेंढ़क से
प्रेम-म्रेम छोड़ो ; बादल को बुलाओ
बादल तुम्हारे टर-टर में त्राहि-त्राहि सुनते हैं
हमारे कराह नहीं ,आंतरिक आह नहीं....
(रचना : १९-०७-२०२०)



११.

मुसहर मित्र के घर
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लाल के लिए
मुसहरिन माता के मटके में पक रहा है
तोमड़ी का लाल तण्डुल
जिसे कृषक झरनहवाँ धान कहते हैं।

लाल मेरा मुसहर मित्र है
अभी अभी लौट कर आया है भूख के भयंकर जंगलों से
जहाँ जाने पर पेट के भीतर जम जाते हैं बबूल के पेड़
उड़ने लगते हैं रेगिस्तानी पंक्षी।

लाल के पिता चूहे भून रहे हैं
उसके चाचा चार गोहटों के तेल नीकाल रहे हैं
उसकी चाची घोंघे ताल रही हैं
ड्योढ़ी पर बैठी दादी दौरी बीन रही है
छोटे छोटे बच्चे चेहरे पर नाक-पोटा चिपोरे
चूल्हे की ओर ताक रहे हैं

मैं उसके दादा के स्मृतियों में ढुँढ रहा हूँ
समय के लिए उलाहना
तिरपाल के नीचे नाली का गंध
क्यों...???
(रचना : २७-०७-२०२०)



१२.

1.
जब आकाश से गिरते हैं
पूर्वजों के संचित आँसू
तब खेतिहर करते हैं मजबूत
अपनी मेंड़

मेड़ तो मजबूत हुई नहीं
पर फरसी-फरसा लाठी-लाठा झोटी-झोटा मारी-मारा उठा-पटक....
अंत में थाने!

2.
रोपनी के समय
रोटी के लिए
संडा जब कबारते हैं मजदूर
तब रक्त चूसती हैं - "जोंक"

दोहरे दोहित दलित दुबली पतली देह
विश्राम जब करती हैं बिस्तरे पर
तब शेष शोणित - "खटमल"

३.
मेंड़ पर सोए शिशु को च्यूँटे काट रहे हैं
चीख सुन रहे हैं मालिक मौन
मजदूरनी माँ कहती है शांत रह लल्ला
अभी एक पैड़ा और बचा है
रोप लेने दे

बच्चे के पास पहुंचा तो देखा
एक दोडहा व दो बिच्छूएँ
एक केकड़ा थोड़ा दूर

पैर में काट लिया है बर्र
घिंनाते-घिंनाते उसे उठाया
वह अपने मल-मूत्र से तरबतर था

तुरंत बर्रों के मंत्रों का पाठ किया
फिर अपनी चाची को बुलाया -
बिच्छू झाड़ीफूकी
चमरौटी से बुलाया बुढउ दादा को -
जो दोडहा झाड़ेफूके

बिच्छू-दोडहा तो तसल्ली के लिए झाड़ा गया
गाँव में सभी को पता है कि कुछ मंत्र जानता हूँ मैं
(बर्र-भभतुआ-थनइल-नज़र-रेघनी...)
सीखा तो बिच्छू-साँप का भी था
पर उसे तभी भूल गया जब विज्ञान का विद्यार्थी था
जो स्मृतियों में जीवित हैं उसे भी भूल गया
ऐसा कहता हूँ मैं।

मंत्रों से आँखें कचकचाएँ
होठों की हँसी हृदय में हर्ष से हहराएँ
फूंकने पर केश लहराएँ
कर्षित कली का मेंड़ पर

आज मुझे लग रहा है मंत्र सीखना सार्थक रहा
हे समय!
(रचना : ०५-०७-२०२०)



१३.

अंधेरे में रोशनी रोपना 

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नहीं रोपना चाहती
नई पीढ़ी
धान का संडा
छोटे हो रहे खेत में!

बंजर सिर्फ आँसुओं से नहीं
रक्त से सिंचा है 
जिसे कुदाल-फावड़ा से नहीं
कर्ज़ के कर से कोड़ा है
कर्षित किसान!

हम तैयार हैं
अंधेरे में रोशनी रोपने के लिए

उर्वर उम्मीद को उगाता है
कवि शब्द को उठाता है
सड़क से ; और पहुँचाता है संसद भवन!

वृक्ष पर लटकते लोकतंत्र को देख
प्रायः प्रातः पंक्षी चहचहाना छोड़ देते हैं
पर "कविता" नहीं!
(रचना : ०४-०७-२०२०)



१४.

दुःख-दर्द के दर्पण में संवेदना का प्रतिबिंब हूँ
जो कहता कविता का कर्षित कवित्व बिंब हूँ
भुवन में भावनाओं का भूखा कवि वही हूँ मैं
काव्यशाला में कुछ विशेष बात का बही हूँ मैं

साहित्यिक तर्पण के लिए दहीकौर कहीं हूँ
खुली आँखों में खुला आकाश और मही हूँ
प्रातः पूज्य काव्यपरंपरा गाने वाला छही  हूँ मैं
पद्य को गद्य के करीब पहुँचाने वाला नहीं हूँ मैं

कृति कहे आज कवि नहीं कवयित्री की आत्मा हूँ
दया करुणा प्रेम गीत गुलाब गंध की परमात्मा हूँ
बौद्धों के निर्वाण जैनों के कैवल्य की काव्यात्मा हूँ मैं
शब्दों के समुच्चयों में सृष्टि के सत्य की धर्मात्मा हूँ मैं

प्रत्येक प्यासे व्यक्ति के लिए निर्मल सितल सरिता हूँ
काव्याचार्य! काम-क्रोध-मद-मोह से मुक्त कविता हूँ
पुरुषों को पुरुषार्थ पथ पर भेजनेवाला पथप्रदर्शक हूँ मैं
समकालीनता में श्रेष्ठ साहित्यिक दिव्यदृष्टि का दर्शक हूँ मैं
(रचना : ०४-०१-२०२०)
【"कविता का कर्षित कृषक पूत्र हूँ" से】


१५.

लक्ष्य के पथ जाना है

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लक्ष्य के पथ जाना है

आँधी आये दीप बुझे ;

फिर भी रुक नहीं सकता

मणि है साथ जो!

आगे बढ़ चला 

साहित्य के घर चला!

आदित्य की तरह जला

काव्य-परिसर में आ जो पला!



१६.

काव्य-खेत का खेतीहर हूँ

धान गेहूँ  बाजरा  रहर  हूँ

पूज्य पूर्वजों का वंशजचंद्र हूँ मैं

हिंदी कविता का हरिशचंद्र हूँ मैं


सरसों तीसी चना मटर हूँ 

ककरी केराव मसूर टमाटर हूँ

नेनुआ केदुआ चढ़ानेवाला घर हूँ मैं

महाकृति का मधुर स्वर हूँ मैं


मीर्च लेहसुन प्याज चुकंदर हूँ

चौराई पालक धनिया क्षर हूँ

आदेश्वर कवि का अक्षर हूँ मैं

आदि   से   ही   अमर   हूँ  मैं


आलू गोभी मूली गाजर हूँ

तरबूज़ खीरा बेल कटहर हूँ

आम अमरुद बेर का पेड़ हूँ मैं

पके ताड़ खजुर का पेड़ हूँ मैं


कौमुदी कमल गुलाब गुड़हल हूँ

खाड़ गुड़ चीनी  मिश्रित कल हूँ

दिव्य सरिता निर्मल शीतल हूँ मैं

साहित्य का सोमरस  जल हूँ मैं

   【"कविता का कर्षित कृषक पूत्र हूँ" से】



१७.

दिल से  दिल का  दीपक जला  रहा  हूँ ।

युवा संदेश साध हाथ हल चला रहा हूँ ।

सृष्टि संकेत शोषितों का सूत्र हूँ मैं

कविता के खेत का कृषक पुत्र  हूँ मैँ।


करुणा से उपजा साहित्य का सागर हूं।

महामना मानवता का पुण्य एक घर हूं।

कविता व संगीत के परिवार का सदस्य हूँ मैं।

सार्थक शब्द समुच्चय की उठती हुई लय हूँ मैं।


गन्ना-धान के पत्तों पर पड़ी ओस मणि हूँ ।

गौ  गाँव गंगा व गुरु से खड़ा जोश  हूँ ।

आज एक  आँसू का जन कवि बना हूँ मैं।

जगत जीव दर्द की संवेदना हूँ मैं।


साहित्यकार से पहले विद्यार्थी हूँ 

समय और समाज का सारथी हूँ 

मनुष्य के मुक्ति का अभिव्यक्ति हूँ मैं।

शिष्याचार्य परम्परा की शक्ति हूँ मैं।


ऊपर सदैव उठने वाला उमंग हूँ 

जीवन के जगमग  समुद्र की तरंग हूँ

कवियों के प्रयोगशाला का अंग हूँ मैं।

काव्यगुरु श्रीप्रकाश शुक्ल के संग हूँ मैं।


हवनकुण्ड का ह्रस्व स्वर मंत्र हूँ 

भविष्य हविष्य हृदय का लोकतंत्र हूँ 

कालजयी काव्यकला का तंत्र हूँ मैं।

कविता का कर्षित कृषक पुत्र हूँ मैं।

 【"कविता का कर्षित कृषक पूत्र हूँ" से】



१८.

लोहारिन का लक्ष्य//

सिर के सिस्टम में छुपे
जूँ काट रहे हैं

माथे से टपटप टपटप चू रहा परिश्रम
चिंगारी पैरों पर गिर रही है

हाथों के छाले
हथौड़ा चला रहे हैं
लोहारिन के लक्ष्य पर।

पेट की पुकार सुन
सटीक प्रबल प्रहार
बार बार कर रही भूख
एक वक्त के आहार के लिए।

आग बुझ रही है आँसू से
पत्थर तप कर टूट रहा है
लोहा ढल रहा है समय के साँचे में
हलक माँग रहा है पानी -
सूखे कुएँ से।
(रचना : ०९-०८-२०२०)



१९.

कोहारिन काकी की कला

लटक रहा है
मानस के सिकहर पर
मक्खन से भरा
मथुरा का मार्मिक मटका

इस पर उत्कीर्ण है
कोहारिन काकी की कला।

गंध सूँघ रहा है बम-बिलार
बिल्ली थक कर बैठी है नीचे

मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
चूहे चढ़ कर चाट रहे हैं मक्खन

अंततः बम-बिलार फोड़ दिया घर का घड़ा।

पूर्वजों ने ठीक ही कहा है
कला का महत्व मनुष्य जानते हैं
जानवर नहीं।

जानवर तो अपना ही जोतते रहते हैं

काकी ठीक कहती हैं
भूख कला को जन्म देती है।

कुछ भी हो
बम-बिलार बलवान के साथ साथ चतुर भी है
क्योंकि वह मक्खन और चूहे को एकसाथ खा रहा है।
(रचना : ११-०८-२०२०)



२०.

मूर्तिकारिन //

राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली -
दिल्ली!
(रचना : १२-०८-२०२०)



२१.

हे महर्षि अगस्त्य!

कोरोजीवी केवल काव्य संज्ञा ही नहीं है
बल्कि संकटों के सप्तसागर को सोखने वाला सूत्र भी है

इसे  गढ़ें हैं हमारे काव्यगुरु
समतामूलक साहित्यिक समाज के लिए

जो आम आदमी के आत्मसंघर्ष के आचार्य हैं
एक चिकित्सक की भाँति!

महामारी का नेवाला है मृत्यु
जनता मुँह ताक रही हैं महंगी दवाओं का
सस्ते मंत्र सेहत गिरा रहे हैं - मौन मजदूर

चुप्पियों के गर्भ से जन्मी है कोरोजयी कविता!

सत्ता के विरुद्ध शंखनाद करती कह रही है
                          मैं हूँ
समकालीन शब्दसत्ता की क्रांतिकारी चेतना!

दुनिया का दिल धड़क रहा है
दिख रही हैं दया-करुणा कैद घरों में
और ममत्व-स्नेह सोशल मीडिया पर

सहृदय साँस नहीं ले पा रहे हैं
बच्चों की रोटियाँ छीन  रहे हैं काले कौएं
अभी भी सड़क पी रही हैं राहगीरों के रक्त!

खेतों के हरे फ़सल चर रहे हैं साँड़
नीलगाय हाँक रही हैं खेतिहरिन

रेगिस्तानी जहाज थउस रहे हैं बीच सफ़र में!

बाढ़ आई है चारों ओर
और प्यास से मर रहे हैं पंक्षी
एक चतुर चिड़िया उड़ान भरी है -
दिल्ली की दिशा में

हे महा मुनि!
उसे वहाँ न्याय तो मिला नहीं
अलबत्ता मेरे प्रिय कवि मदन कश्यप हो गए हैं निरीश्वर!

सुभाष राय से लेकर अनिल पाण्डेय  तक
सभी काव्य कृषक सोह रहे हैं कोरोजीवी क्यारी
                  
उम्मीद है
नयी सुबह के लिए उगेगी उचित उत्तम उपज

श्रीप्रकाश शुक्ल के संग साथ सींच रहा हूँ मैं भी
कुएँ से पानी खींच रहा हूँ
मौन!

कोरोजीविता का सूत्र हूँ
कविता का कर्षित कृषक पुत्र हूँ मैं!!
(रचना : १४-०८-२०२०)




२२.

चुड़िहारिन //


बूढ़ी पत्तियाँ हर वर्ष 

नयी पत्तियों को अपना जगह देती हैं सहर्ष


आकाश का शासक शिकारी है 

टहनियों पर चुपचाप बैठी हैं चिड़ियाँ


चुड़िहारिन चिल्ला रही है

संसद के सड़क पर -

चुड़ी ले लो....!


चुचकी चूचुक चूस रहा है शिशु

खोपड़ी का खून पी रही हैं जूँ


चमचमाती धूप चमड़ी जला रही है

चौंधियाई आँखें अचकचा रही हैं 


टोकरी में जीवन का बोझ ढो रही है

लोकतंत्र की लोकल लड़की....!


सफ़र अभी शेष है

अँतड़ी में आँधी चल रही है


सूरज ढल रहा है

रात्रि आ रही है 


खटिया का खटमल जाग रहे हैं


विश्राम कहाँ करें कर्षिता -

हे बाज़!


चहक कर पूछ रही हैं चुप्पी चिड़ियाँ

उत्तर दो!!

रचना : १८-०८-२०२०



२३.

गोड़िन //

कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं

चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल
नलकूपों को नगद चाहिए पैसे ;

गोड़िन का गोड़ भारी है
गला सूख रहा है!

निःशुल्क है नदी का पानी

भरसाँय झोंक रही है भूख
आग पी रही हैं आँखें

कउरनी कउर रही है कविता ;

जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं
उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में

और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना
वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में

मेरा मक्का मटर भून गया
चना चावल बाकी है!

कोयरी टोला में कोई टेघर गया है
अर्थी का पाथेय -
लाई भून रही हैं

जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में
भूख के विरुद्ध!

सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला
आदमी जवान है
डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं
चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....

उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप
हे देवी-देवताओं!
देहात की देहांत दृश्य देख दिल दहल गया

आह विधवा व्यथा!
गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी
गोड़िन के नयन से निकली है गंगा
प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध!
(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १९-०८-२०२)



२४.

बुनकर की बेटी //

राजा के पास धरोहर है चाभी
हथकरघों के हाथों में लगा है हथकड़ी
हरेक की हेकड़ी
शांत सड़क पर सीधी कर रही है कमर

करहा देना बंद है
कराह गाँव दर गाँव गूँज रही है

दिल्ली देख नहीं पा रही है छवि -
कर्षित-शोषित-दोहित जनता की
इसलिए हृदय के यज्ञ में हवि छोड़ रहा है कवि

रवि रुक कर कह रहा है
लोकतंत्र की लाठी लेना चाहती है बूढ़ी भूख

माँ काट रही है सूत
गाँधी की चरखा चला रही है बेटी
बुनकर पिता बुन रहा है बाधी वाला खाट
बेरोजगार बेटा बेबस खींच रहा है रिक्शा

रिश्ता बड़ी मुश्किल से बड़ी बहन के लिए आया है
कोविड कहर के समय में शहर से

बुनकर की बेटी बहू बनी है
लोहटा के लोकल लक्ष्मी के घर
जो लोरस-जरजेट जैसी तीखी हैं

नरी भरते वक्त अक्सर अँगुलियाँ कट जाती हैं
लोरस जरजेट की धागों से

फिर भी सहोदरी ससुराल में
सिल पर सुबह शाम मसाला पीसती है
और अपने क्रोध को दाँतों तले पीस कर जीवित रखती है उम्मीद

आज नहीं तो कल
पति का प्रेम पेट से बाहर आएगा
बनेगा सेठउरा ससुर ख़ुश हैं अपने पुत्र से

डाट रहे हैं
अपने औरत को
कि बहू से काम धाम मत कराया करो
नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा

पहली बहू फांसी लगाकर जब से मरी है
कितना ताना सहता हूँ समाज का
कारण तो तुम्हें भी पता है

हे प्रिये!
वह तो तुम्हें सौतेली नहीं मानती है
मम्मी कहती है
पाँव दबाती है
तुम्हारी जूठी बर्तन धोती है
और कचारती है प्रतिदिन तुम्हारी साड़ी
फिर तुम सौतेली क्यों???

माँ बनो बहू की
बेटा मानता है तुम्हें सगी माँ!

(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : २५-०८-२०२०)



२५.

खटकिन //

बेटी सब्जी बेच रही है
आवारे कुत्ते पड़े हैं पीछे

खटकिन की खोपड़ी पर है
एक  टोकरी
जिसमें है -
जातीय जीवन!

गवईं गर्भवती पूछती
खट्टा खाद्य इमली है?

भूख के बगीचे में
खटिक खुरपी से छील रहा है घास

खुला खर्च खुरच रहा है ख़ास-
घर का घाव!

खड़े हैं
चौराहे पर यमराज दूत -
कोरोनापॉजिटव

प्यासा पुत्र ठेला पर रस पेर रहा है
दूसरों के लिए

बहू बतखों को चारा डाल रही है
मुर्गा-मुर्गी कैद हैं
दरबों में!

सूअर सड़क पर घूम रहे हैं

गंदगी से दूर बैठ
पोते खेल रहे हैं खेल
गोटियाँ उछाल रही हैं पोतियाँ

और कवि अचकचा कर देख रहा है चुपचाप
दर्द-दृश्य-दयनीय दशा!
(©गोलेन्द्र पटेल
२७-०८-२०२०)





 २६.

धोबिन //


दोपहर में दोपाये

तपती पथरीली पथ पर पैदल चल रहे हैं -

घर!


गजब की गति है

गाँव की ओर


लदी है

गदही की पीठ पर गठरी

शहर की!


पोखरी की तट पर है

एक पत्थर

(पटिया)

जिस पर पीट रही है धोबिन

खद्दर की धोती-कुर्ता


मछलियां पी रही हैं शांत पानी में

परिश्रम से टपक रहे पसीने को


रोहू बीच में उछल रही है

पाँव में धर रही है जोंक

और खोपड़ी का खून चूस रही है जूँ


सूर्य सोख रहा है शक्ति

थके श्रमिक निगल रहे हैं थूक


रुक रुक कर

पटक रही है पटिया पर खादी

कर्ज़ की क्रोध!


उसे डर है

कि कहीं फटे न साहब की कपड़ें


साहब छठी की दूध याद दिलाते हैं

पति को

और पति मार मार कर मुझको -

नानी का!


कोरोजीवी कविता सुन रही हूँ जब से

तब से उम्मीद की घोड़ी दौड़ रही है उर में


रेह से वस्त्र समय पर साफ हो या न हो

पर तुम्हारी कविताओं से मन साफ हो रहा है

हे कोरोजयी! हे संत साहित्य संवाहक कवि!

(©गोलेन्द्र पटेल

२८-०८-२०२०)




२७.

चिढ़ //

१.
जनता है
जनतंत्र की जूते की धूल

रेगिस्तानी राह पर रिरियाती
चुप्पियों का चप्पल
चिह्न छोड़ रही हैं

जिसे देख कर
चिरकुटों को है -
चिढ़!

२.
ककड़ी कहीं काट रहे हैं मूस
द्वेष की दही चाट रहे हैं चापलूस

चीड़ की चोटी पर चढ़ी है चिखुरी
चिड़चिड़ाहट चढ़ रही है चिखुरा की चक्षु पर
चिखुरा नेता है!

बबूल पर बैठी बुलबुल गा रही है
प्रकृति का पीड़ा -
नाले बह रहे हैं नदियों में
पत्थरप्लांट चीर रहे हैं पर्वतों का सीना
किसानों में बढ़ रहा है कर्ज़ रूपी कैंसर
शोषक-सेवी सम्पन्न हो रहे हैं दिन प्रतिदिन
जीव-जंतुओं की जीवित इच्छाएँ डूब रही हैं
महामारी के बाढ़ में

भूख लटक रही है युकेलिप्टस पर
पगडंडियों पर गिर रही हैं गौरैया
चित्र चिंता चोट कह रही हैं अब चिता तैयार कर
गिद्ध नोच रहे हैं गाँव का गाल
गरुड़ बन गए हैं बाज़
बुलबुलें हैं बेहाल

घोंसला को है घृणा
साँप से
और कोयल के कूक से
कौओं को है -
चिढ़!

गीत सुनने वाला वृद्ध वृक्ष क्या करे???
(©गोलेन्द्र पटेल
२९-०८-२०२०)



२८.

नदी बीच मछुआरिन //


जलदेवी की तपस्या से

मछुआरे को मिल गया है मोक्ष

नदी बीच स्थिर है नाव

मछुआरिन फेंकती है जब जाल

तब केकड़े काट देते हैं


मछलियाँ कहती हैं

माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए-

नदी से!

(©गोलेन्द्र पटेल

०१-०९-२०२०)



२९.

नट की नायिका //

नट की रात
आँधी-पानी , जाड़ा-गर्मी-बरसात
हर मौसम की प्रभात
शाम तक सीमित सपने ले
संघर्ष की संसदीय सड़क पर चलते हैं

न ठहराव न ठिकाना
न ही रुकने की कोई स्थायी स्थान
अपने ही धुन में मस्त हैं
व्यस्त हैं

राजनीति की रस्सियों पर
नृत्य करती होंठों की हँसी
हिमालय से आती हेमंती हवाओं से
हर हाल में जीने की कला सीख लेती हैं

महरूम मुरझायी मायूसी मौन मुस्कुराहटें
झकझोर देती हैं
सहानुभूतियों के सच को

गहरी सांवली देह पर
रंग-बिरंगी फटी फ्राक और सलवार
सवाल है सरकार

कुछ लड़कियाँ लकड़ियाँ बिनती हैं
पर इसके लघु हाथों में लोकतंत्र की लम्बी लाठी है
जिसे कहते हैं भूख को हाँकने वाली पैना

कमर कसी है
करतब को साध लेने की उम्मीद

थाली में दो कौर
जुटाने की मशक्कत और जद्दोजेहद
जीवन को जुनून देती हैं

नामर्द नायक नाहक ही पिट रहे हैं विकास का ढोल
बजनिया , ब्रजवासी बाज़ीगर की नायिका
नाराज़ है नटराज
श्मशान से क्यों लौटती हैं अधजली लाशें
नटिन की आत्मा पूछ रही है
हे संविधान संरक्षक!
(©गोलेन्द्र पटेल
०२-०९-२०२०)



३०.

हिरण्यकश्यपीय राजनीति का वध //

सन्नाटा है संसदीय सड़क पर
साँड़ हग रहा है थाने के सामने
फ़ैक्टरियाँ मूत रही हैं नदियों में
और दिल्ली दीया जलवा रही है जनता से

थाली की चीख ठहरी है कानों में
मंदिरों में कैद , मूर्तियाँ भूखी हैं
कुछ मुँह पी रहे हैं मेरे हिस्से का माँड़
और मीडिया मुझे देख कर मुस्कुराता है-
मौन!

संवेदनशील धेनु की खुर बढ गए हैं
नाउन नाउम्मीदी का निर्जीव नाख़ून काटो

भूखाग्नि दहकती है जब पेट में
तब बच्चे नहीं पूछते दूध किसने दुहा है
और प्यास घुसेड़ती है जब कंठ में कंकड़
तब कौए भी नहीं पूछते घड़े में पानी कम क्यों है

संकट के सफ़र में नवजात शिशु
सूखे शरीर से चिपक कर चिचोड़ता है जब चूचुक
तब माँ की आत्मा पूछती है-
कौन?

देवता है दिल्ली में

हिरण्यकश्यपीय राजनीति का वध करना है
नृसिंहनी को चाहिए नाख़ून
नारियाँ कर रही हैं प्रार्थना
हे नाउन! उम्मीद का नाख़ून मत काटो।।
(©गोलेन्द्र पटेल
२०-५-२०२०)




३१.

मेरे मुल्क की मीडिया //

बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!

गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं

टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी

गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगाय नृत्य कर रही हैं

छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की....

अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में

और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क की मीडिया!
(©गोलेन्द्र पटेल
०४-०९-२०२०)




३२.

सत्ता खोना नहीं चाहता बाज़
चुप्पी चिड़िया चुनाव चिह्न है
कौआ काँव-काँव चिल्लाता है
चील्होर-चील को चाहिए आकाशीय ताज़

गिद्ध गगन में गऊगोश्त बटवाता है
पी कर मदिरा प्रजा पंक्षी प्रसन्न हैं

विजेता गरुड़ के सभा में
मोरनी नृत्य करती है
गौरैया गज़ल गाती है
बुलबुल गीत सुनाती है
कोइलीया कविता पढ़ती है
कचकचीया कथा कहती है
टिटिहरी तुरही बजाती है
हुऽ टि टी टी३............!

हारा हुआ हंस हर्षित है
बगल में बैठा बकुला व्यंग्यकार है

और सभा में उपस्थित
उल्लू उपन्यासकार है
चमगादड़ चित्रकार है
नीलकंठ नाटककार है
कबूतर कथाकार है
शुतुरमुर्ग संगीतकार है
सुग्गा संस्मरणकार है
पनडुब्बी प्रशस्तिकार है
(प्रथम महिला प्रशस्तिकार)

आकाश में शब्दसत्ता का सुशासन स्थापित हुआ है
गरुड़ से विष्णु जी क्षीरसागर में सोते वक्त कहे हैं
वत्स तुम तब तक राज करोगे
जब तक तुम्हारे सभा में साहित्यकार रहेंगे

तमसा के कल कल में क्रौंची का करुण कलरव है
प्रजा परंपरा की प्रातःकाल में सुनती आ रही है
महाराजाकाशाधिराज कुछ बोलते ही हैं कि
 का सेवा स्वर टूट जाता है
शोषित सिरोईल को अपने अंडे की चिंता होती है
(©गोलेन्द्र पटेल
०५-०९-२०१९)



३३.


गुलेल है

गाँव का गांडीव

चीख है

शब्दभेदी गोली


लक्ष्य है

दूर दिल्ली के वृक्ष पर!


बाण पकड़ लेता है बाज़

पर विषबोली नहीं


गुरु

गरुड़ भी मरेंगे 

देख लेना

एक दिन

राजनीति के रक्त से बुझेगी 

ग्रामीण गांडीव की प्यास!

©गोलेन्द्र पटेल

रचना : 2019



३४.

नदी में नाव का निर्वाण //

मुक्ति के मार्ग में
सच को छुपाना झूठ से बड़ा पाप है

झूठ के रंग
रक्तिम रश्मियों के संग
सच के सरोवर में
सुबह से शाम तक तैरते हैं

इस पार
नाव में बैठी हैं इच्छाएँ

उम्मीदें उमंग के तरंग पर पैदल चलती हैं
पाँव में पतवार बाँध
उस पार!
(©गोलेन्द्र पटेल
१०-०९-२०१९)




३५.

कवि कोविड और काशी //
(©गोलेन्द्र पटेल)

कोरेंटाइन कथा की भाँति कवि की कविता मूक नहीं है

देखो बदल रही है सृष्टि
दर्द दृश्य दुह रहे हैं दृष्टि
कालजयी काशी कुहुक रही है 

मंदिरों में मास्कविहीन मौन हैं मूर्तियाँ
घर घर से घाट पर आती चीख सुन रहे हैं घंटें
कैद शिव सो रहे हैं
बंदी नंदी बैल रो रहे हैं
सनिटाइज़र साथ लेकर संत साँड़ सड़क पर घूम रहे हैं-
कोरोना पॉज़िटिव!

गुरु
वरुणा व असी दुःखी हैं
विद्या के केंद्र में ख़ुशी है
किंवदंतियों में
मोक्षदायिनी काशी महाकाल के त्रिशूल पर टिकी है
गंगा की गोद में बसी है

यहाँ
हर किसी के होंठों पर
विष्णु और बुद्ध का दिया हुआ हँसी है
रिक्शे वालों के ज़बान पर कबीर-रैदास-तुलसी हैं
केला बचने वालों के कंठ में केदार-प्रसाद-मुंशी हैं

भूखी जनता मांग रही है आटा
महामारी में काट रहा है माटा
कर्षितों के कराह कानों में कोंच रही है काँटा
दिल्ली गायों के गालों पर मार रही है चाँटा

कवि कोविड और काशी क्या कहें कविता में?
यह संवेदनाओं को सूप से पछोड़ने का समय है
धूप में धैर्य के साथ सफ़र तय करने का समय है!
(©गोलेन्द्र पटेल
१३-८-२०२०)




३६.

सावधान //
-----------------------------
हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं - "केकड़े"
                सावधान!

ग्रामीण योजनाओं के "गोजरे"
चिपक रहे हैं -
गाँधी के 'अंतिम गले'
                   सावधान!

विकास के "बिच्छुएँ"
डंक मार रहे हैं - 'पैरों तले'
                    सावधान!

श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं - "साँप"
                  सावधान!

हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं - "छिपकलियाँ"
                  सावधान!

श्रम के रस
चूस रहे हैं - "भौंरें"
                 सावधान!

फिलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं - "गिरगिट नेतागण"
                  सावधान!

(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १८-०७-२०२०)


३७.

भूखे को भाषा नहीं भात चाहिए //

आलोचना के ओखली में कविता कूट रही है
महामारी का मूसल

कवि लेखक पाठक श्रोता भूखे हैं
कवयित्री के कड़ाही में करुण कथाएँ पक रही हैं

नाटक का दृश्य है दिल्ली में
कैदी काल्पनिक यात्रा तो किया नहीं

उम्मीदें उपन्यास रच रही हैं
सड़क पर बिखरे हैं संस्मरण

डायरी डॉक्टर के पास है
कर्षित की कटोरी में रेखाचित्र रख दिया है कोविड

निबंध में कह रहा है नेता
भूखे को भाषा नहीं भात चाहिए।
(©गोलेन्द्र पटेल
०८-०९-२०२०)




३८.

◆सत्ता का सेतु◆

महानगरों के उर पर बन रहे हैं पुल

न नल-नील हैं
न बंदरों की सेना
न राम नाम का कोई पत्थर

आश्चर्यचकित है गिलहरी

नेताओं के फेंके पत्थर तैर रहे हैं
आँसुओं के सागर में ;

जनतंत्र की जीसीबी तोड़ रही है
घर
संसदीय सड़कें चौड़ी हो रही हैं
शहर दर शहर है
डर

भयभीत भूखी जनता कूद कर मर रही है सत्ता के सेतु से
क्योंकि उसे चाहिए जीव!
(©गोलेन्द्र पटेल
०२-०२-२०१९)



३९.

खर जीउतिया पूजन //

एक माँ की स्मृति जीवित होती है
जीवित्पुत्रिका व्रत से
दुआएँ द्वार पर आती हैं
संतानें साँपों से बच जाती हैं सफ़र में
विषम समय की विष सोख लेते हैं सूर्य

जगत पर टिमटिमाते जुगनुओं के रोशनी में
अढ़ाई अक्षरों के प्रेमपत्र को पढ़ किशोरियाँ
किलकारियों के कचकचाहटीय स्वर में गाती हैं कजरियाँ

"सर्वे भवंतु सुखिनः' सिद्धांत है हवा के होंठों पर
ऐ सखी सृष्टि में फूल मरता है
पर उसका गंध नहीं
कलियाँ कंठों-कंठ कानों-कान सुनती रहती हैं
भ्रमरियों के गुनगुनाहटें"

अंधेरी आँधियों में मणियों का मौन चमकना
सर्पों के संग सर्पिणियों के संयोग का संकेत है
ओसों से बुझती दूबों की प्यास

पेड़ को पता है
पत्तियों के पेट में जाग रही है भूख

आश्विन-कृष्णा अष्टमी को
जीमूतवाहन जन्नत की वास
छोड़ पृथ्वी पर आते हैं
गरुड़ गगन गंगा में मलयावती के साथ नौका विहार करते हैं

नयन नीर की नदियों में शांति है
रस से लबालब भरा गिलास है खारा
समुद्र की नीलिमा बढ़ी है

गर्भवती अनुभूतियाँ जन्म देती हैं स्मृतियों को
जिसे जीवित रखती है जिउतिया
छत्तिस घंटे तक

यह वर्ष प्रेम में नजदीकियों को नहीं
दूरियों के तनाव को स्वीकार किया है
स्पर्श से दिलों में दरारे पड़ रही हैं

पर्व को परवाह नहीं किसी के जीवन से
मृत्यु नहीं रुकती मास्क से
नहीं रुकती खुद से खुद की दूरियाँ बनने से

गंवईं मृत्यु के गंध को सूँघ रहे हैं
मरने से पहले
एकसाथ एकत्र हो एक ही अगरबत्तियों के धुएं को
फेफड़े तक पहुंचा

बूढ़ी औरतें नयी नवेली बहुओं को उपदेश दे रही हैं
उपवास उम्मीद है
उज्ज्वल भविष्य की

चील्होर था या उल्लू फुसफुसा रही है भीड़
परात का प्रसाद लौट रहा है
चूल्हे के पास

बच्चे हैं
कि गोझिया आज ही खाना चाहते हैं
खर व्रतधारी समझा रही हैं
जिउतिया माई रात भर खईहन
हम सब सवेरे
(अर्थात् बासी)

बच्चे कह रहे हैं माई हमार हिस्सा हमें दे दे
नाहीं त रतिया के जिउतिया माई कुल खा जईहन
आज शायद ही छोटे बच्चे सो पाएंगे ठीक से
(©गोलेन्द्र पटेल
१०-०९-२०२०)





४०.

धुआँ उठता है ऊपर //

आज हर आदमी को पता है कि
अनेक अस्मिताएँ झेल रही हैं औरतें

दिल्ली में दया जग रही है दुधमुंही के दिन

अँतड़ियों में दहक रही है आग
नाड़ियों से निकल रही है भाप
भूख बैठी है चूल्हे के पास

आँसू टपक रहा है तवा पर
भात का बुदबुदाहट सुन रहा है पेट

आँखें देख रही हैं
रोटी खा रहा है सेठ

अंत में अक्सर चिता से उठता है धुआँ
और उठता ही रहता है ऊपर!
(©गोलेन्द्र पटेल
२०-९-२०१८)



कवि परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल
जन्म : ०५-०८-१९९९
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी ,चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
शिक्षा : बीएचयू , बीए में अध्ययनरत
माता-पिता : श्रीमती उत्तम देवी-श्री नन्दलाल
पेशा : कवि-लेखक व आलोचक
काव्यगुरु : श्रीप्रकाश शुक्ल

संपर्क सूत्र :-

मो.नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

YouTube :

https://www.youtube.com/c/GolendraGyan

Facebook : 

https://www.facebook.com/golendrapatelkavi


नोट : इस पेज़ पर अहिंदी भाषी साथियों के लिए समकालीन साहित्य से संबंधित अध्ययन समाग्री भेजा जाता है । अतः आप भी इस अहिंदी भाषी साथियों के पेज़ पर अपनी रचना साझा कर सकते हैं इसके लिए निम्न नंबर या ईमेल पर अपनी रचना भेजें। आपकी रचनाओं का आत्मिक अभिनंदन और सहृदय सादर स्वागत है।

(8429249326 , corojivi@gmail.com)

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