Saturday, 1 July 2023

हिन्दी कविता में स्तन : गोलेन्द्र पटेल / Breast in Hindi Poetry: Golendra Patel

हिन्दी कविता में स्तन : गोलेन्द्र पटेल

साहित्य, संगीत, सिनेमा एवं कला में स्तनों के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टिकोण रखना और उनकी शारीरिक, भावनात्मक और सांस्कृतिक महत्ता को समझना आवश्यक है। स्तनों का संबंध स्त्रीत्व, मातृत्व, ममता, स्नेह, प्रेम, प्रजनन, पोषण और पहचान ही नहीं, बल्कि सृजनात्मक शक्ति और सौंदर्य से भी है, लेकिन कहीं पर इनका वर्णन वात्सल्यवृत्ति में है, तो कहीं पर वासनावृत्ति में
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महान प्रेम मौन होता है, वह जितना कोमल है, उतना ही कठोर है, वह अपनी लघुता में विराट है, व्यापक है, विनम्र है, विशेष है, ब्रह्म है! अब जब जीवन में प्रेम का घनत्व कम होता जा रहा है। प्रेम की बात हो रही है, पर प्रेम जीवन से गायब है। प्रेम बाहर नहीं, भीतर की चीज़ है। वह तन नहीं, मन की वस्तु है, अर्थात् वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है; वह सम्पूर्ण आत्म-समर्पण है, इसलिए वह अपनी उदात्तता में भक्ति है, उसमें वह शक्ति है, जो अवगुणों को गुण बनाती है और असुंदर को सुंदर! प्रेम आंतरिक अनुभूतिप्रधान होता है। प्रेम व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से होता है। कवि मानवीय सौंदर्योपासक प्राणी है। संस्कृत साहित्य के मानवीय सौंदर्य की अनुगूँज हिंदी कविता में सुनाई देती है। कालिदास के साहित्य इसके सबसे सर्वोत्तम उदाहरण हैं। मुझे 'हिंदी कविता में स्तन' पर बोलना है, तो मैं सर्वप्रथम महाकवि कालिदास से अपनी बात शुरू करता हूँ। वे 'मेघदूत' में कहते हैं :-

छन्‍नोपान्त: परिणतफलद्योतिभि: काननाम्रै-
     स्‍त्‍वय्यरूढे शिखरमचल: स्निग्‍धवेणीसवर्णे।
नूनं यास्‍यत्‍यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्‍थां
     मध्‍ये श्‍याम: स्‍तन इव भुव: शेषविस्‍तारपाण्‍डु:।।

इस श्लोक में प्रकृति नायिका है, इसमें वे पीली पृथ्वी के स्तन की बात करते हैं। जिसका संबंध इसमें वर्णित पर्वत की चोटी से है। कविता में स्तन की चर्चा, मतलब मांसलता के मूल्य पर बातचीत। हिंदी में प्रेमानुभूति की मांसलता की जड़ें अंकुरणकाल (आदिकाल) के प्रेमपरक कविताओं में हैं क्योंकि वहाँ भी बहुत से प्रेमपरक कविताओं में प्रेम के नितांत दैहिक और उत्तेजक उरोज एवं नायिका के गुप्तांगों के शब्दचित्र सौंदर्य के साँचे में ढल कर नायक में 'कामेच्छा' को उदित करते हैं।

जीवन का प्रेम और सौंदर्य से अटूट संबंध है क्योंकि प्रेम के रंग और सौंदर्य की सुगंध जीवन के रंग और गंध हैं। देह प्रेम की जन्मभूमि है! देह के ही इर्दगिर्द प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यंजना होती है। देह में ही वासना के फूल खिलते हैं। देह से ही उत्तेजक उजास फूटते हैं। देह से ही मनोवेग को उद्दीप्त करने वाली प्रेमपरक कविताएँ उपजती हैं। प्रेम देव है, तो स्त्री-देह देवमंदिर। स्त्री-देह की सुंदरता पुरुष-देह को सदैव उसकी जवानी का आभास कराती है। शायद इसलिए प्रेम के कवि ख़ुद को हमेशा युवा महसूस करते हैं। याद है न? पाण्डित्य और अलंकारिक नीरसता के बीच केशवदास का रसिक व्यक्तित्व वाली छवि। जब वे बूढ़े हो जाते हैं, तो युवतियों के 'बाबा' संबोधन पर कहते हैं :-
"केसव केसनि अस करी बैरिहु जस न कराहिं।
चंद्रबदन मृगलोचनी 'बाबा' कहि-कहि जाहिं।।"

स्त्री की सत्ता पुरुष की सत्ता से कहीं अधिक आगे है लेकिन अपभ्रंशकाल में हेमचंद्र की नायिका के स्तन इतने छोटे थे कि उसका नायक उसे प्यार नहीं करता है, उसमें उसका मन नहीं लगता है। बहुत प्रयत्न के बाद नायिका अपने स्तनों को बढ़ाने में सफ़ल हो पाती है। उसके स्तन इतने उत्तुंग हो जाते हैं कि उसका प्रिय उसके अधरों तक पहुँच नहीं पाता है। इसलिए वह स्वयं के अंगों को कोसने लगती है :-
"अइ तुगत्तणु जंग थणहं, सो छेदउ, न हु लाहु।
सहि जइ केम्वइ, तुडि-वसेण अहरि पहुच्चइ नाहु।।"
प्रेम और सौंदर्य का संबंध शाश्वत है। जीवन में सौन्दर्य प्रेम का प्राण है। मनुष्यता सौंदर्य की आत्मा है। प्रेम व सौन्दर्य मानवीय चेतना के उज्ज्वल वरदान हैं। ये दोनों अपने आप में व्यापक हैं। प्रेम व सौन्दर्य के चितेरे मैथिल कोकिल कवि विद्यापति नायिका के अंग–सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उसके स्तनों पर अपनी नज़र टिकाते हैं, वे कहते हैं :-
“पीन पयोधर दूबरि गता।
मेरू उपजल कतक-लता।।
ए कान्हु ए कान्हु तोरि दोहाई।
अति अपूरूप देखलि साईं।। ”

यही नहीं, विद्यापति सद्य:स्नाता नायिका के स्तनों का वर्णन पूरे रसिक मूड में करते हैं। वे रूप–सौन्दर्य ख़ासकर सद्यः स्नाता का वर्णन करने में सिद्धहस्त हैं। सरोवर से स्नान करके तुरंत निकली युवती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं :-

“कामिनि करत सनाने। हेरितहि हृदय हनय पंचबाने।।
चिकुर गरए जलधारा। जनि मुख ससि डर रोअए अंधकारा।।
कुचजग चारु चकेवा। निज कुल मिलि आन कौन देवा।।
ते शंका भुज पासे। बांधि धएल उडि जाएत अकासे।।”

प्रेमोन्मत्त नेत्रों में नायिका के कांतिमय शरीर का सुशोभित होना स्वाभाविक है। भक्तिकाल के सूफ़ी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावती के नखशिख वर्णन करते हुए उसके उभरे हुए उन्नत स्तन की क्या ख़ूब चर्चा की है। पद्मावती के स्तन और उनके अग्रभाग ऐसे हैं, गोया अनार और अंगूर फले हैं। उनकी नज़र में पद्मावती के हृदय रूपी थाल में दोनों कुच मानो सोने के दो लड्डू हैं, वे कहते हैं :-
"हिया थार कुच कंचन लाडू।
कनक कचोर उठे करि चाडू॥"
अपनी-अपनी भाषा में प्रेम, यौवन और सौंदर्य के कवि स्तन के आकर्षण की अभिव्यक्ति की है। नखशिख-वर्णन के अंतर्गत कवियों ने नायिकाओं के केश, मुखमण्डल, बाहु, स्तन, त्रिवली, रोमराजि, नाभिकूप, नेत्र, अधर, जघन, नितम्ब, चरण, रान, पीठ, पेट आदि का वर्णन किया है। स्तन नायिका का सर्वाधिक आकर्षक अंग होता है। इसीलिए संभवतः स्तन स्त्री-सौन्दर्यबोध का कोश है।

मैंने रीतिकालीन नायिकाओं पर चर्चा करते हुए कई बार यह बात कही है कि रीतिकाल की नायिकाएँ तरल रबड़ की हैं। वे विरह में कभी इतनी दुबली हो जाती हैं कि उनकी कानी अँगुली की अँगूठी उनके बाँह से होते हुए कमर से सरक जाती है। वे साँस लेती-छोड़ती हैं, तो कई हाथ आगे-पीछे हो जाती हैं। कभी वे इतनी तंदुरुस्त होती हैं कि उनके जोबन से ज्योति फूटी है अर्थात् उनके अंग-अगं से प्रकाश की किरणें फूटी हैं। यानी रीतिकालीन कविता में देह-दीप्ति की चर्चा है। रीतिकाल में नायिकाओं के स्तनों का क्या ख़ूब वर्णन प्रेम की पीर के कवि घनानंद ने किया है! वे कहते हैं कि छलकत जोबन अंग...! खैर, स्तनों के वर्णन में बिहारी का कोई सानी नहीं है। जहाँ उर्दू के शायर अपनी नायिकाओं के स्तनों को गुंबद (गुंबज) कहते हैं, वही बिहारी पर्वत शिखर कहते हैं। वे कहते हैं :-
"कुचगिरि चढ़ि अतिथकित ह्वै चली डीठि मुंह चाड़।
फिरि न टरी परियै रही परी चिबुक की गाड़।।"
इस शृंगारपरक छंद में स्तनरूपी पर्वत की चर्चा है। ऐसे वर्णनों की भावाभिव्यक्ति और अर्थ अपनी जगह पर है। लेकिन मैं जब भी नायिकाओं के गोपनीय अंगों का अगोपनीय वर्णन से गुज़रता हूँ , तो मैं सोचता हूँ कि मेरे साथ में पढ़ने वाली छात्राएँ जब इन वर्णनों को पढ़ती होंगी, तो उनके मन में विद्रोह की अग्नि धधक उठती होगी। वे इन कवियों की अपनी कल्पना में अच्छी ख़बर लेती होंगी। क्या सलेब्स (पाठ्यक्रम) बनाने में गुरु माताओं की राय नहीं ली जाती है? क्या वे अपने सगे बच्चों को भाषा के नाम पर ऐसे वर्णनों को पढ़ने के लिए कहती हैं? या फिर गुरु कहते हैं?

नायिकाओं के गोपनीय अंगों के बारे में सोचने का अर्थ है मानस में उनका नंगा उपस्थित होना, मन में उनकी काल्पनिक छवि की उपस्थिति का तन पर क्या प्रभाव पड़ता है इससे तो शायद सभी लोग परिचित हैं ही। खैर, मैं ऐसे वर्णनों को पोर्नोग्राफ़िक इमेज़ कहता हूँ। जिनको पढ़ने के बाद बाज़ारवाद की आँखों में वस्तु हो चुकी स्त्री नज़र आती है। ख़ासकर वे नायिकाएँ भी दिमाग़ में नाचने लगती हैं जो अपनी संस्कृति से कोसों दूर हो चुकी हैं। जो थोड़े से पैसों के लिए नंगा होती जा रही हैं। जो ग्राम की लड़कियाँ रीलस् के चक्कर में इंस्टाग्राम लेकर टेलीग्राम तक पर नंगी नज़र आती हैं, वे सब दिमाग़ में नाचती हैं।

मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे वर्णनों से गुज़रने से बचता हूँ। हो सकता है मेरी बात आपको सतही चीज़ लगे। मगर मुझे बारिश में भींगी हुई किसी ऐसी नायिका को देखना अच्छा नहीं लगता है, जिसके अंग वस्त्रों के बाहर झाँकते हैं अर्थात् गोपनीय अंग दिखाई देते हैं। क्योंकि ये नायिकाएँ स्वप्न में पीछा करती हैं। इस प्रसंग को आगे हम प्रगतिवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल के वर्णन से समझेंगे। स्वकीया-प्रेम और परकीया-प्रेम का ऐसा वर्णन हर काल के कवियों ने अपने-अपने ढंग से किया है। अग्रवाल जी सुंदर रूप और सौंदर्य से अभिभूत होने वाले कवि हैं। उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ स्त्री-सौंदर्य शारीरिक दृष्टि से द्रष्टव्य है :-
"जहाँ कुएँ की जगत पर
मेरे घर के सामने
पानी भरने आती थीं
गोरी-साँवरि नारि अनेकों
गोरी रूप कमान समान तने तनवाली
प्रबल प्रेम की करती दृढ़ टंकार थी
और जहाँ मैं रात में
सपने के संसार में
दिन में जिन्हें कुमारी कहता और रात में प्रेमिका
जिन्हें अकेला सोता पाकर
मैं बाहों में कस लेता था
ओठों और कपोलों पर चुम्बन लेता था
अपना नाम कुचों पर जिनके
मीठे चुम्बन से लिखता था
जिनकी छाती बड़े से धक्-धक् करने लग जाती थी।"

अब आप ही बताइए कि केदारनाथ अग्रवाल के इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद किस पाठक को सुंदरता और प्रेम की प्यास नहीं लगेगी! जबकि पाठक स्नातक या परास्नातक का शिक्षार्थी हो!

नब्बे के दशक के प्रकृतिप्रेमी कवि निलय उपाध्याय अपनी कविता 'ताजमहल' में बेड़न औरतों के स्तनों की तुलना गुंबद से करते हुए कहते हैं :-
"गुंबदों के निमार्ण में दक्ष कारीगर
टर्की...बेड़न औरतों के स्तन पर बाहर से पड़ी नज़र
अब तक रचित गुंबद नक्काशी में छोटे हो चुके थे।"
स्तन का वर्णन वासना और वात्सल्य दोनों रूपों में होता रहा है लेकिन प्रेमपरक कविता में स्तन का वर्णन करते वक्त मांसलवादी कवि स्त्री की अस्मिता को ताख़ पर रख देते हैं, क्योंकि उन्हें सौंदर्य का आकर्षण अंधा बना देता है। वे शृंगार रस के नशे में वात्सल्य रस को भूल जाते हैं। उनके मानवीय संस्कार घास चरने चले जाते हैं। बहुत सारे स्त्रीवादी कवियों ने भी रीतिकालीन कवियों की भाँति स्तन का वर्णन किया है।
छायावाद प्रेम और वेदना का काव्य है। जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' के 'श्रद्धा' सर्ग में श्रद्धा के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं :-

"नील परिधान बीच सुकुमार,
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
मेघवन बीच गुलाबी रंग।।"

कामायनी के इन पंक्तियों का आशय चाहे जो भी हो! लेकिन अभिधार्थ तो यही है कि श्रद्धा नीले परिधान को धारण की है फिर भी उसका अधखुला सुकुमार व सुकोमल अंग दिख रहा है अर्थात् उरोज दिख रहा है।  अब उरोज को देख कर नायक (मनु) की स्थिति क्या होती है? कल्पना में भी नायिका के उरोज को देखकर नायक की कामाग्नि और अधिक प्रज्वलित हो उठती है न? यदि पाठक (छात्र) नायक से तादात्म्य स्थापित कर लेता है, तो उसके साथ क्या होता है? इन प्रश्नों के जवाब वयःसंधि पर खड़े पाठक से अधिक बूढ़े शिक्षक जानते हैं क्योंकि वे भाषा में जवान हैं।
प्रसाद की उक्त अभिव्यक्ति को पद्माकर की निम्न पंक्तियों से समझा जा सकता है :-
"अधखुली कंचुकी उरोज अध-आधे खुले,
अधखुले वेष नख-रेखन के झलकैं।"

किसी नायिका की अवस्था से स्तन के सौंदर्य का घनिष्ठ संबंध है। जब नायिका यौवनावस्था में होती है, तो उसके उरोज उन्नत होते हैं, जो उसके रूप को आकर्षक बनाते हैं, जो उसके नायक को आकर्षित करते हैं और वे नायक में काम-भावना को उद्बुद्ध करते हैं। जब नायिका अधेड़ावस्था में होती है, तो उसके स्तन से नायक का मोहभंग होना शुरू हो जाता है और नायिका की उम्र की ढलान पर नायक का स्तनों से एकदम मोहभंग हो जाता है क्योंकि मनुष्य एक निश्चित समय के बाद रूप सौंदर्य से मुक्त हो जाता है और सौंदर्य की मुक्ति से मनुष्य वासना से वैराग्य की ओर चला जाता है। जिसे आप ओशो के शब्दों में संभोग से समाधि की ओर जाना कह सकते हैं। दुनिया के साहित्य में नायिकाओं की भिन्न-भिन्न अवस्था में उनके स्तनों का अनूठा वर्णन हुआ है। हिंदी में भी स्तनों का मार्मिक वर्णन हुआ है। आदिकाल में स्तनों के वर्णन में अग्रणी कवि विद्यापति हैं, तो रीतिकाल में बिहारी। इसलिए एक सहपाठी शिक्षार्थी का प्रश्न है कि बिहारी की कविता में कितने प्रकार के स्तनों की चर्चा है! यह प्रश्न जितना सरल या हास्यात्मक है उतना ही कठिन या विचारणीय है। शास्त्रों में नायिकाओं के विभिन्न भेद हैं। जैसे; भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार नायिका के आठ भेद हैं- वासकज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनपतिका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका एवं अभिसारिका। अग्निपुराण" के अनुसार नायिका के आगामी भेद हैं- स्वकीया, परवीकया, पुनर्भू एवं सामान्या। बहरहाल, आयु, गुण, रूप, शरीर, शास्त्र आदि के कई आधारों पर ये भेद नाटक या महाकाव्य या महाकाव्यात्मक उपन्यास की नायिकाओं के हैं। लेकिन इन विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के स्तनों के प्रकार की चर्चा तो साहित्यशास्त्र में नहीं हुई है, हो सकता है कामशास्त्र में हो! आयुर्वेद एवं चिकित्सा विज्ञान के ग्रंथों में बनावट एवं आकार के आधार पर कुछ प्रकार स्तनों की चर्चा सामने आती है। जैसे कि असिमेट्रिक शेप ब्रेस्ट, एथलीट शेप ब्रेस्ट, बेल शेप ब्रेस्ट, साइड सेट शेप ब्रेस्ट, स्लेंडर शेप ब्रेस्ट, स्लेंडर शेप ब्रेस्ट, टियर ड्रॉप शेप ब्रेस्ट, टियर ड्रॉप शेप ब्रेस्ट, राउंड शेप ब्रेस्ट, रिलैक्सड शेप ब्रेस्ट एवं ईस्ट- वेस्ट शेप ब्रेस्ट। खैर, बिहारी तो मुक्तक काव्य के कवि हैं। वे नायिका की विभिन्न अवस्थाओं में उसके स्तनों का वर्णन किये हैं, अब यह उनके पाठक की मनोवृत्ति पर निर्भर है कि उन्हें उनकी नायिका के स्तन कैसे दिखाई देते हैं। जिस दोहे में जैसे दिखाई देगें, वैसे स्तन होंगे, यानी वे उक्त प्रकारों में से कोई प्रकार बता सकते हैं।

स्त्री-पुरुष दोनों अपनी अपूर्णता में एक समान हैं। उनकी अपूर्णता उन्हें एक दूसरे की ओर आकर्षित करती है। स्त्री अपनी नकारात्मकता को पुरुष की सकारात्मकता से और पुरुष अपनी नकारात्मकता को स्त्री की सकारात्मकता से संतुलित करते हैं। ताकि वे पूर्ण हो सकें। प्रेम परिणय के पथ पर स्त्री-पुरुष को पूर्णता प्रदान करता है। खैर, आज भी स्त्री अपनी देह में सिमटी हुई है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उसे देह तक सिमेट दिया गया है! अलंकार उसको अपनी ओर आकर्षित करता है और उसके स्तन पुरुष को अपनी ओर। पुरूष को स्‍त्री के पूरे शरीर की अपेक्षा उसके स्‍तनों से अधिक प्रेम है। यही कारण है कि पुरुषों के द्वारा रचित काव्‍य, साहित्‍य, चित्र, चलचित्र व मूर्तियाँ सब कुछ स्त्री के स्‍तनों से जुड़े हैं। स्तन तन-मन की ध्वन्यात्मकता के केंद्र हैं।
आदर्श अनुराग में त्याग का राग होता है। सौन्दर्य के उपासक देह से संवाद करते हैं। प्रेम सृष्टि को अपनी रागात्मकता से सींचता और संवर्धित करता है। प्रेम नैसर्गिक होता है, इसलिए उसमें निर्बंधता होती है कुंठा नहीं। प्रेम पराधीनता का प्रतिपक्ष रचता है, वह जीवन की स्वतंत्रता का स्वर है। लौकिक प्रेम की खेती देहभूमि में होती है। देह से गुज़रे बिना संभव नहीं है लौकिक प्रेम करना। न ही देहभाषा जाने बिना संभव है लौकिक प्रेम को समझना।
लौकिक प्रेम को नाटककारों एवं उपन्यासकारों ने भी अपने प्रेमपरक नाटक व उपन्यास के गीतों में रेखांकित किया है। प्रेमयुद्ध के लिए नायिका के स्तन हथियार होते हैं। वे आँखों से पहले स्तन की चमक से नायक को घायल करती हैं। नायक प्रेमक्रीड़ा में नायिका के इन्हीं हथियारों से सर्वप्रथम लोहा लेता है और पराजित हो जाता है। यही नहीं, इन हथियारों पर एकाधिकार के लिए जगत प्रसिद्ध लड़ाइयाँ लड़ी गयी हैं। इनके चक्कर में कितने नायकों के सर कटे हैं, इतिहास की ओर आँखें करने पर पता चलता है। सर कटने का प्रसंग उठा है, तो मैं बता दूँ कि कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध नाटककार गिरीश कारनाड ने 'हयवदन' नाटक के एक गीत में कहा है :-
"दोनों स्तनों पर एक-एक शीश
दोनों आँखों के लिए एक-एक पुतली।
दोनों बाँहों से दोनों का
अलग अलग आलिंगन
जिसकी मुझे न लज्जा है, न चिंता।
धरती के अंतर में रक्त बरसता है
आकाश में गीत की कोंपलें फूटती हैं।"

उन्मुक्त प्रेमकाव्य, प्रेम व मस्ती के काव्य, वैयक्तिक अनुभूतियों का चित्रण एवं प्रणयानुभूति की मधुर अभिव्यक्ति प्रेम, यौवन और सौंदर्य के पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। कविता में प्रेम के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा है। जब प्रेम का उदात्तीकरण होता है, तो वह भक्ति में तब्दील हो जाता है। इस संदर्भ में हमें रामचंद्र शुक्ल की आगामी सूक्ति याद आ रही है कि श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। इस सूत्र को समझने में हमें रसखान और मीरांबाई की कविताएँ मदद करती हैं। जिसकी विधिवत चर्चा हम कभी करेंगे।

उदात्त प्रेम हमेशा से बल और बुद्धि पर भारी रहा है। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि अलौकिक प्रेम ज्ञान पर विजय प्राप्त करता है जैसा कि सूरदास या रसखान के यहाँ है। लेकिन हयवदन में तो लौकिक प्रेम है फिर भी बल-बुद्धि पर भारी है। यहाँ दो नायक (देवदत्त व कपिल) एक नायिका (पद्मिनी) के प्रेम के चक्कर में ख़ुद को नष्ट कर लेते हैं, जो कि एक दूसरे के सच्चे मित्र भी हैं। बहरहाल, कभी-कभी पुरुषों की क्रूरता के सामने अपराजिता नायिका स्वयं अपने स्तन अपनी देह से अलग कर देती है। इस संदर्भ में आप केरल की 'नंगेली' को याद कर सकते हैं। जिसने 19वीं सदी में कुप्रथा 'ब्रेस्ट टैक्स'(स्तन कर) से मुक्ति पाने के लिए अपने स्तन काटे थे।

भारतीय संस्कृति का कहना है कि स्तन की पुकार दो ही व्यक्ति सुनते हैं। एक पति (प्रेमी) और दूसरा पुत्र (नवजात शिशु)। जब तक नायिका माँ नहीं बनी होती है, तब तक उसका नायक ही पुत्र की भूमिका में होता है। वह उसके स्तनों को निकोटता-बिकोटता-चिचोड़ता है, उससे खेलता है और उसको प्यार करता है। नायिका से दूर होने पर भी नायक को स्तनों की याद आती है। पास होने पर तो बात ही क्या! शमशेर बहादुर सिंह एक कविता में नायिका/प्रेयसी के स्तनों के पुलकने की बात करते हैं, वे कहते हैं :-

"आँखें अनझिप
खुलीं
वक्ष में।
स्‍तन
पुलक बन
उठते और
मुँदते।"

शमशेर एक और अपनी कविता 'गीली मुलायम लटें' में स्तनों को बिंबित होते हुए दिखाते हैं, वे लिखते हैं :-

"गीली मुलायम लटें
आकाश
साँवलापन रात का गहरा सलोना
स्तनों के बिंबित उभार लिए
हवा में बादल
सरकते
चले जाते हैं मिटाते हुए
जाने कौन से कवि को..."
मैं आगे वात्सल्य रस के दायर में स्तन की चर्चा करूँगा। ख़ाकसार उन स्तनों की चर्चा, जो भयंकर गरीबी की वजह से उघड़े हुए होते हैं, सूखे हुए होते हैं और चमड़ी की थैली की भाँति छाती से झुल रहे होते हैं। फिर भी माँ अपने भूखे नवजात शिशु को अहिंसा का दूध पीलाती है। दूध नहीं, सिर्फ़ सांत्वना पीलाती है और शिशु भूखा ही सो जाता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ऐसे ही माँओं का सजीव चित्रण करते हुए कहते हैं :-

"पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।"

ये मजदूर माँएँ भारत माता की सच्ची बेटियाँ हैं। दुनिया की सभी माँएँ एक समान पूजनीय हैं क्योंकि सबकी छाती में अपने बच्चे को देखकर ममता की नदी उमड़ती है। उनके स्तनों से अमृत की बूँदें टपकने लगती हैं। माँएँ मधु-स्तन-दान देती हैं। माँ कुरूप हो सकती है लेकिन कुमाता नहीं। रामायणकालीन कैकेयी भी राम की नज़र में कुमाता नहीं है। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत अपनी कविता 'अप्सरा' में माँ की महानता को रेखांकित करते हुए कहते हैं :-

"शैशव की तुम परिचित सहचरि,
जग से चिर अनजान
नव-शिशु के संग छिप-छिप रहती
तुम, माँ का अनुमान;
डाल अँगूठा शिशु के मुँह में
देती मधु-स्तन-दान,
छिपी थपक से उसे सुलाती,
गा-गा नीरव-गान।"
सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट हैं उनके यहाँ माता यशोदा अपने आँचल से ढककर बाल कृष्ण को स्तनपान कराती हैं, इस संदर्भ में सूर का निम्नलिखित पद दर्शनीय है :-

"किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिम्ब पकरिबैं धावत॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरने चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत॥
कनक-भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति॥"(क्रमशः)
संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com


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