Wednesday, 24 September 2025

लोकोक्ति–मुहावरा : लोकबुद्धि और व्यंग्य का संगम —गोलेन्द्र पटेल

 मैं भाषा वैज्ञानिक नहीं, विद्यार्थी हूँ। निम्नलिखित कविता अपने जनपद के गाँवों में बोली जाने वाली लोकोक्तियों और मुहावरे पर केंद्रित है, एक कहावत है कि "कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी।" अतः हो सकता है कि आपके यहाँ इसमें प्रयुक्त लोकोक्तियों और मुहावरों का अन्य रूप प्रचलित हो।

लोकोक्ति–मुहावरा : लोकबुद्धि और व्यंग्य का संगम

              —गोलेन्द्र पटेल 

एक हाथ की लौकी, 
नौ हाथ का बिया।
किसने तलवार से, 
फटा पजामा सिया।

गधे के सिर पर सींग न पाया,
अंधे के घर दीपक किसने जलाया।
खोदा पहाड़ निकला चूहा,
नौ सौ चूहे खाकर भूखा।

ऊँट के मुँह में जीरा डाला,
बंदर ने काजल हाथ से हाला।
घर की मुर्गी दाल बराबर,
साँप भी मरे लाठी सुस्थिर।

आम के आम गुठलियों का दाम,
सोने पे सुहागा अद्भुत काम।
जिसकी लाठी उसकी भैंस,
मूरख नाचे बिना परवेस।

चोर की दाढ़ी तिनका बोले,
माँग का खोट कहाँ तक टोले।
उल्टा चोर कोतवाल डाँटे,
राखी चुनरिया भीतर बाँटे।

साँप निकल लाठी को पीटा,
कुएँ का मेढ़क भीतर सीता।
नाच न जाने आँगन टेढ़ा,
खिसियानी बिल्ली खंभा घेड़ा।

थोथा चना बाजे गली,
साँप-छछूंदर दशा भली।
धोबी का कुत्ता घर न गली,
लाला जी पर्वत राई गली।

निंदक घर बैठे माला जपे,
अंधों में काना राजा थपे।
नकली सिक्का चले बाजार,
हाथ कंगन को आरसी पार।

पढ़े-लिखे को फारसी क्या,
कौआ हंस की चाल सिया।
नदी में डूबे काग नहाए,
तिल का ताड़ राई चढ़ाए।

आधा तीतर आधा बटेर,
नक्कारखाने में तूती ढेर।
डूबते को तिनका सहारा,
आगे कुआँ पीछे खाई प्यारा।

आसमान से गिरे खजूर पे अटके,
भैंस के आगे बीन खटकें।
तेल देखो तेल की धार,
रस्सी जलि पर बल न हार।

बाँझ गाएँ बछड़ा जने,
ऊल जलूल की बातें गढ़े।
नौकर से बैर नहीं भाता,
चोर-उचक्का माला गाता।

सिर मुँडाते ही ओले पड़ें,
आटे दाल बराबर झगड़ें।
ऊँची दुकान फीका पकवान,
चलती चक्की देखे इंसान।

बूँद-बूँद से घड़ा भरे,
एक अनार सौ बीमार धरे।
ओखली में सिर दिया जो,
मूसल से डर काहे को।

नेकी कर दरिया में डाल,
काजल की कोठरी काजल हाल।
चिट्ठी आई साँप निकल गया,
बकरे की माँ कब तक जिया।

नहीं माया तो क्या रैन बसेरा,
रंग-बिरंगा तोता चेरा।
लंगड़ी बिल्ली ऊँचा फाँद,
गागर में सागर बिन बाँध।

भेड़चाल सब दौड़ लगाएँ,
अंधी नागिन सीढ़ी चढ़ाएँ।
नौ दिन चले अढ़ाई कोस,
राम भरोसे ढोलक रोस।

दाने-दाने पर लिखा नाम,
रस्सी का साँप बना गुलाम।
आटे में नमक बराबर,
निंदक सिर पर धरे सितार।

जाके पैर न फटी बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई।
घर फूँके भगवान मिले,
अंधा बाँटे रेवड़ी खेले।

घी के दीये बिना न दीपे,
लाख करे पर ढाक न सीपे।
एक पंथ दो काज सजे,
साँच को आँच कहाँ तक भजे।

आखिर यही सिखावन प्यारी,
लोकोक्ति–मुहावरा बुद्धि हमारी।। 

★★★


रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/ जनकवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
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व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

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