।। सौर मंडल में स्त्री ।।
पृथ्वी ने जन्म लिया किसी स्त्री की तरह।
किसी ने नहीं नोट की उसकी जन्म तिथि,
पता नहीं सूरज खुश भी हुआ था कि नहीं
अपनी इस नई संतान के जन्म से।
मैं नहीं गिन सकता उन शून्यों को
जो बनाती हैं पृथ्वी के जीवन के वर्ष,
वैज्ञानिकों ने भी किया होगा
कुछ वैसा ही जोड़ तोड़,
जैसा मैंने कराची में जन्मी अपनी माँ का
पासपोर्ट बनवाते हुए किया था,
उसकी अनुमानित
जन्म तिथि की गणना करने के लिए।
सौर मंडल में घूमते हुए
उल्का पिंडों, निहारिकाओं और न जाने कितने
अणु-परमाणुओं की टकराहटों और विस्फोटों से
जन्मी होगी हमारी पृथ्वी,
जैसे हमारे घरों में जन्म लेती हैं लड़कियाँ।
शायद इसी लिए दुनिया की
बहुत सारी भाषाओं में
पृथ्वी आज भी स्त्रीलिंग है।
स्त्री होना एक सुखद अनुभूति
रही होगी पृथ्वी के लिए,
उसने धीरे-धीरे समझा होगा अपना शरीर,
हो सकता है हरे भरे जंगल उगे हों उसके रोम-छिद्रों से,
उत्तुंग पर्वत उभरे हों उसके स्तनों की जगह,
पसीने की बूँदों से बह निकली हों नदियाँ
और समुद्रों का जल हो उसकी धमनियों में बहता रक्त।
बार बार रजस्वला हुई होगी पृथ्वी
किसी स्त्री की तरह।
वायु के संसर्ग से उसने जन्म दिया होगा
कीट पतंगों, असंख्य जीव-जंतुओं
मछलियों और मानवों को।
सृष्टि चक्र चलाए रखने के लिए
सभी श्रेणियों में रहे होंगे नर और मादा,
क्या ऐसे ही हमारी दुनिया
नहीं चला रहीं हैं स्त्रियाँ करोड़ों वर्ष बाद भी।
आज भी भूचाल में काँप जाती है पृथ्वी
क्योंकि उसका स्त्री मन टिका है शेषनाग के फन पर।
आज भी चमकती हैं बिजलियाँ,
बरसते हैं बादल मूसलाधार
धोने के लिए पृथ्वी का अनावृत शरीर,
सिहर सिहर जाती है स्त्री।
आसमान में चमकता है चाँद
अपनी मादक कलाओं के साथ,
तेज़ी-से चलने लगती है पृथ्वी की साँस,
डाँवा-डोल होता है समुद्र,
बड़ी मुश्किल से संभलती है पृथ्वी
भावनाओं के ज्वार में बही किसी स्त्री की तरह।
शताब्दियों बाद भी
हमारे सौर मंडल और आकाश गंगा में
अकेली ही स्त्री है पृथ्वी;
स्त्रियाँ अकेली ही होतीं हैं
अपने निर्माण और सृजन में।
-------- राजेश्वर वशिष्ठ
चित्र सौजन्य : गोलेन्द्र पटेल
संग्रह : सोनागाछी की मुस्कान से।
पृथ्वी ने जन्म लिया किसी स्त्री की तरह।
किसी ने नहीं नोट की उसकी जन्म तिथि,
पता नहीं सूरज खुश भी हुआ था कि नहीं
अपनी इस नई संतान के जन्म से।
मैं नहीं गिन सकता उन शून्यों को
जो बनाती हैं पृथ्वी के जीवन के वर्ष,
वैज्ञानिकों ने भी किया होगा
कुछ वैसा ही जोड़ तोड़,
जैसा मैंने कराची में जन्मी अपनी माँ का
पासपोर्ट बनवाते हुए किया था,
उसकी अनुमानित
जन्म तिथि की गणना करने के लिए।
सौर मंडल में घूमते हुए
उल्का पिंडों, निहारिकाओं और न जाने कितने
अणु-परमाणुओं की टकराहटों और विस्फोटों से
जन्मी होगी हमारी पृथ्वी,
जैसे हमारे घरों में जन्म लेती हैं लड़कियाँ।
शायद इसी लिए दुनिया की
बहुत सारी भाषाओं में
पृथ्वी आज भी स्त्रीलिंग है।
स्त्री होना एक सुखद अनुभूति
रही होगी पृथ्वी के लिए,
उसने धीरे-धीरे समझा होगा अपना शरीर,
हो सकता है हरे भरे जंगल उगे हों उसके रोम-छिद्रों से,
उत्तुंग पर्वत उभरे हों उसके स्तनों की जगह,
पसीने की बूँदों से बह निकली हों नदियाँ
और समुद्रों का जल हो उसकी धमनियों में बहता रक्त।
बार बार रजस्वला हुई होगी पृथ्वी
किसी स्त्री की तरह।
वायु के संसर्ग से उसने जन्म दिया होगा
कीट पतंगों, असंख्य जीव-जंतुओं
मछलियों और मानवों को।
सृष्टि चक्र चलाए रखने के लिए
सभी श्रेणियों में रहे होंगे नर और मादा,
क्या ऐसे ही हमारी दुनिया
नहीं चला रहीं हैं स्त्रियाँ करोड़ों वर्ष बाद भी।
आज भी भूचाल में काँप जाती है पृथ्वी
क्योंकि उसका स्त्री मन टिका है शेषनाग के फन पर।
आज भी चमकती हैं बिजलियाँ,
बरसते हैं बादल मूसलाधार
धोने के लिए पृथ्वी का अनावृत शरीर,
सिहर सिहर जाती है स्त्री।
आसमान में चमकता है चाँद
अपनी मादक कलाओं के साथ,
तेज़ी-से चलने लगती है पृथ्वी की साँस,
डाँवा-डोल होता है समुद्र,
बड़ी मुश्किल से संभलती है पृथ्वी
भावनाओं के ज्वार में बही किसी स्त्री की तरह।
शताब्दियों बाद भी
हमारे सौर मंडल और आकाश गंगा में
अकेली ही स्त्री है पृथ्वी;
स्त्रियाँ अकेली ही होतीं हैं
अपने निर्माण और सृजन में।
-------- राजेश्वर वशिष्ठ
चित्र सौजन्य : गोलेन्द्र पटेल
संग्रह : सोनागाछी की मुस्कान से।
No comments:
Post a Comment