Friday, 27 March 2020





**मजदूरीन का साईकिल**
हे मौन शूर
महामजदूर!

पसीना तूर
घरेलू  घूर
फेंकते दूर।

मजबूर
कर्षित हूर
भरपूर

रोटियाँ झूर-
अमचूर
खाती घूर।

पीती पतिपीर
नयननीर-क्षीर
फटीं चीर

ढपी शरीर
नदी तीर
ताकती नूर

साईकिल से
शाम को जाती है
अन्तःपूर

प्रातः प्रायः आती
वापस चुल्हे का दर्द देख
नदीतट पर धूप सोखने

भावी शिशु के लिए
उम्मीद उमंग तरंग की तरह
रह-रह कर मजदूरीन में

राजनीति के खिलाफ
विद्रोही आवाज़ भरती
धुएँ की तरह सड़क से संसद तक

हवा के विपरीत चली जाती
भूख के अदहन का भाप!
जानते हो आप??

खदकते चावल से
चुनाव का नाव
डगमगा जाती नदी बीच।

हाँ बन गई मैं माँ!
इतना सब कुछ सुनने के बाद भी
चुप्पी साधे बैठें हो नाथ

निर्जन द्वीप की तरह
क्यों?बताओ प्रियतम!
कुछ तो बताओ....

अगला पहिया पत्नी
पिछला पति
इसलिए आपके गति में मेरा गति

हे जीवन के साईकिल!
उठो! जागो! ऊँचा बलो! चलो!
बच्चों के लिए ,अपने बच्चों के लिए।
-युवा कवि गोलेन्द्र पटेल

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