जिस समय देश के स्वंतत्रता सेनानी एकजुट होकर साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ रहे थे, स्वंतत्रता आंदोलन निर्णायक भूमिका की तरफ कदम बढ़ा रहा था उस समय गाँधी और अंबेडकर में आजादी के स्वरूप को लेकर बहस भी चल रही थी। अंबेडकर अंग्रेजों के साथ ही जातिवादी और सामंतवादी ताकतों के शोषण से वंचित समाज की मुक्ति चाहते थे। ये वही ताकतें थी जिन्होंने वंचित समाज का सदियों से शोषण किया था। गाँधी इसको घर की आंतरिक समस्या मानकर बाद में इसके समाधान की बात कर रहे थे। अंबेडकर वंचित समाज की इस गुलामी को अंग्रेजों से मुक्ति के साथ ही खत्म करने की बात कर रहे थे और निरंतर वंचित समाज की आवाज बनकर संघर्ष कर रहे थे। उस समय यह देखना जरूरी हो जाता है कि साहित्य का आलोचक, इतिहासकार और चिंतक वंचित समाज के बीच से निकलकर आने वाली रचनाओं को किस रूप में देख रहा था। खासकर कबीर और रैदास की रचनाओं के प्रति उसका क्या रुख था। ये वही रचनाएँ हैं जो वंचित समाज की संवेदना और पीड़ा से परिचित कराती हैं। यदि चिंतक और इतिहासकार की दृष्टि में इनकी कविताएँ कविता की सीमा रेखा के बाहर नजर आती हैं तो उस इतिहास और चिंतन पर प्रश्न खड़े करना जरूरी हो जाता है। यदि उस समय का चिंतक और इतिहासकार वंचित समाज के कवियों से नहीं टकरा रहा है और उनकी संवेदना से कोई सरोकार नहीं स्थापित कर रहा है तो स्वाभाविक है कि वह नये तरह के साम्राज्यवाद को रचने की कोशिश कर रहा है। आज यह जरूरी हो जाता है कि उस समय के इतिहास और चिंतन का फिर से सचेत मूल्यांकन किया जाय और उसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किया जाय। इससे किसी को किसी तरह का परहेज नहीं होना चाहिए।
-गोलेन्द्र पटेलSaturday, 18 April 2020
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