१.
कैद में कवि
( वरवर राव के लिए)
___________________________
कहाँ कैद कर पायीं हैं एक कवि को
जेल की सलाखें
सरकारें उसे कैद करती हैं
वह भाषा का हथियार भाँजते हुए निकल आता है
अपनी देह के बाहर
और किसी पूर्व चेतावनी की तरह
फैल जाता है जनता के हृदयों में
सरकारें कैद करती हैं
कवि बड़ा हो जाता है
सरकारें हत्या करती हैं
कवि और बड़ा हो जाता है
मूर्ख सरकारें एक देह को कैद करती हैं
और सोचती हैं कवि को कैद कर लिया
भला कौन बाँध पाया है पानी
भला कौन भेद पाया है दिशाएँ
भला कहाँ कैद कर पायीं हैं कवि को
जेल की सलाखें ।
२.
सूर्य का नदी में डूबने की भाषा में विदा
_________________________________________
मैं जौनपुर में जन्मा और तुम सिमडेगा में
हम एक ही झण्डे तले दो देश में जन्मे
एक दिन नदी पार की धकधक वीरानी पर बैठे हुए
मेरी गोद से दूर होती हुई जब तुमने कहा-
जिसे तुम जंगल कह रहे हो वो मेरा घर है
तुम्हारी उस अर्थगर्भित रहस्यमयी मुस्कान से
मेरी आत्मा का आईना ताउम्र लड़ता रहेगा हंसदा
तुमने जिस महान करुणा से मुझे माफ़ किया था वह मुझे उम्र भर मुलायम रखेगी
अपने घर की याद में गिरा तुम्हारा एक चुप कतरा आँसू
मेरी ज़िंदगी भर की चीख पर भारी रहेगा हंसदा
पैरों में मेमने की उछल बाँधकर
कल परसों तक तुम चली जाओगी अपने घर की ओर
तब पिछले बरस की एक रात अंगुलियों से छूकर मेरी पीठ पर
तुम्हारे हाथों उगाये हुए जंगलों में तुम्हारा घर गुम हो जाएगा
तुमने कहा सिमडेगा में प्रेम कोई फल नहीं
जिसे खाया जाता हो
वहाँ यह एक फूल होता है
जिसे रोपना पड़ता है
अब जब कल परसों तक तुम अपने इतने बड़े घर में गुम हो जाओगी
तब नहीं देख पाओगी कि
तुम्हारी एक छुवन भर से लहलहा उठने वाला ये मन
न फल रहा न फूल
तुम कभी नहीं जान पाओगी कि सिमडेगा के पहाड़ी पर उतरी पूर्णिमा की ओट में
मेरे साथ तुम्हारी रति-केली की तमन्ना
मेरी कामेच्छा को उम्र भर सताती रहेगी
और बरसों बाद भी स्खलित घुप्प अकेले में उठती
मेरी सिसकियों के ऐन बीच-बीच तुम्हारे नाम की पुकार आती रहेगी हंसदा
हंसदा तुम मुझे इस निगाह से मत देखो जैसे देखा जाता है किसी को आखिरी बार
जैसे निश्चित हार की लड़ाई में जाता हुआ सिपाही देखता है अपनी बीमार बच्ची को
हंसदा, हमारा प्रेम दो देश की लड़ाई में कुर्बान नहीं जाएगा
वह सिमडेगा के जंगलों में फूलता रहेगा
जिसकी गंध बीच की दीवार पार कर एकदिन मेरे जौनपुर तक जरूर आएगी
तुमसे प्रेम के अपराध में मेरा देश लामबंद होगा और अपनी पुरातन घृणा से मार देगा
देश की सुरक्षा के मद्देनजर हुई मेरी हत्या की खबर सुनकर
तुम अपना हृदय जले हिरण की राख लपेटकर बिलख मत पड़ना
मेरी मृत्यु मेरे जंगल और तुम्हारे घर के फूल जितनी स्वाभाविक होगी
उस खोती हुई दिशा की बेला में आकाश को मृदंग बना लेना
और पहाड़ से उतरते हुए मद्धम आवाज में गाना अपने बाबा से सुना वही लोकगीत
जिसमें एक फूल पहाड़ बनता है
पहाड़ जंगल बनता है
जंगल घर बनता है
घर को कुछ नहीं बनना होता है
क्यों कि घर घृणा के विरुद्ध होता है।
४.
बहुत मामूली चीज है
___________________________
यदि मैंने जन्नत देखी होती
तो दावे के साथ कह पाता कि
तुम्हारे साथ बिताए हुए दिनों के आगे
जन्नत बहुत मामूली चीज है।
अब चूँकि मैंने नर्क देखा है
तब दावे के साथ कह सकता हूँ कि
तुम्हारे बिछोह के आगे
नर्क बहुत मामूली चीज है।
५.
प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी-1
________________________________________
कोई ऐसा शब्द कहो
जिसका सचमुच कोई अर्थ हो
कोई ऐसी नदी दिखाओ
जिसमें न बह रहा हो हमारी आँख का पानी
कोई ऐसा फूल उपहार में दो
जिसकी गंध बाज़ार में न बिकती हो
अपने प्रेम और घृणा के लिए दलीलें देना बंद करो
ताकि मैं भरोसे पर पुनः भरोसा कर सकूँ
अर्थ, रस, गंध और स्पर्श
सब अपनी सवारियों से पलायन कर रहे हैं
और यही इस दौर की सबसे विकराल महामारी है
अगर नहीं तो
एक ऐसे मनुष्य से मिलाओ
जिसे मनुष्य कहकर पुकारूँ और वह पलटकर जवाब भी दे।
६.
प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी-2
____________________________________
महामारी के दिनों में
सब लौट जाते हैं अपने-अपने घरों की ओर
अन्न गोदामों में लौट जाते हैं
और अधिक काले दिनों की प्रतीक्षा में
मनुष्य आत्मा के सभी पाट पर कुंडी देकर
लौट जाता है अपनी देह, अपनी हड्डियों में
पानी आँख से उतरने लगता है और जमा होता है भूख के आदिम अँधियारे कुण्ड के तलहट
फूल अपनी पंखुड़ियों में सिमटने की तैयारी करते हैं
और गंध से कहते हैं - विदा
देह की आसक्ति अपना निर्मम रहस्य खोलती है
और स्खलित उबकाई की भेंट चढ़ती है
जब सब के सब लौट रहे होते हैं उत्स, अपनी जड़ों में
तब यह मुमकिन नहीं कि चूहे न लौटें अपने खंदकों की ओर
इसी बीच संवेदना की परीक्षा के प्रश्न-पत्र जैसी ख़बर आती कि
मुसहरों ने भूख से आकुल घास खाना शुरू कर दिया है
ठीक इसी समय
मनुष्यता के मरघट की राख से सना मेरा अधमरा मन चीखना चाहता है-
जिसे आप मुसहर कहते हैं, दरअसल वे मनुष्य हैं।
७.
प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी - 3
_________________________________________
कुछ भूख से मरे, कुछ भय से
जो आस्तिक थे वे ईश्वर की कृपा से मरे
कुछ खुशी से मरे की छोटी होंगी अब बैंक की कतारें
जो हड्डियों के आखिरी हिलोर तक सरकार से सवाल करते हुए लड़ सकते थे
वे मरे सरकार की बेशर्म हिंसक हँसी से
महामारी से बचाव का घिनौना तर्क देते हुए पुलिस ने
जिनकी जर्जर पीठ पर लाठियों के काले-लाल फूल रोपे थे
उनके प्रियजन उस फूल की गंध से मारे गए
कुछ अपनी अश्लील आरामकुर्सी पर
लालच और लिप्साओं का ज़हर खाकर मरे पड़े मिले
कुछ तो सिर्फ यह देखकर मर गए कि
इस कब्रिस्तान में उनके लिए कोई जगह नहीं बची है
कुछ को घर लौटने के रास्तों ने मारा
इस तरह से वे उन मुठ्ठीभर लोगों में हुए
जो किसी मुहावरे के बाहर अब भी
प्रेम के लिए चुपचाप मर सकते थे
कुछ को घृणा ने मारा, कुछ को शक्ति ने
कुछ को ऐश्वर्य ने मारा, कुछ को भक्ति ने
महामारी में मरने वाले सब के सब लोग
महामारी से नहीं मरे थे।
८.
प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी- 4
_________________________________________
सभ्यता के दक्खिन में चारो दिशाओं से जिस रात धू धू धुँआ उठा
और देखते ही देखते मनुष्य से मवेशी तक
सब के सब राख में बदल गए
कहते हैं तब जसोदा चाची आठ माह पेट से थी
यह रहस्य उस अजन्में के साथ गया कि
घृणा की आग से उठते धुँए से दम घुटने लगे तो
करुणा का गर्भ हमें कब तक जिंदा रख सकता है
निरपत हरिजन का पूरा का पूरा गाँव सिर्फ इसलिए जला दिया जाता है कि
उन्होंने अपने मनुष्य होने के पक्ष में गवाही दी थी
यदि आपके गणित और समाजशास्त्र को जाति का गेंहुअन न डसा हो तो
सोचकर बताइये कि पिछली सदी की कोइलारी में
कोयला खोदते खदान में दफ़्न होकर आपकी कार का ईंधन हो गए लोग कौन हैं
बताइये तो जरा
वे लोग कौन हैं जो भरी जवानी में दिहाड़ी करने सूरत, बम्बई ,कलकत्ता, गुजरात गए
जिन्होंने आपके शहर की चिमनियों और मिलों को बंद नहीं होने दिया
और जो दुर्दिन में घर लौटते हुए सरकारी निर्देशों से मारे गए
क्या आप बता सकते हैं कि
जमींदार के भय की बेगारी करती हुई
हड्डियों की हवस के अँधेरे गोदामों तले
कितनी अवर्ण स्त्रियों के लिए बलात्कार दिनचर्या में शामिल कर दिया गया
क्या आप बता सकते हैं कि कितने भुइधर धोबी के पीठों पर
ब्याज के कोड़ों के निशान कभी नहीं धुले
खदानों में, मिलों में, मशीनों में समा गए लोग
कौन थे, कहाँ से आये थे
आपने कभी नहीं सोचा कि वे किस महामारी के शिकार हुए
यदि आपने भाषा पर डाका नहीं डाला होता तो वे बोलते-
जाति वह भीषण महामारी है
जो न गला पकड़ती है
न साँस जकड़ती है
न फेफड़ों को रोक देती है काम पर जाने से
यह आदमी के गुप्तांग में पेचकस घुसेड़ देती है
यह औरत के यौनांग में पत्थर घुसेड़ देती है
यदि आपका इतिहास चाँदी के चम्मच से घृणा का खीर खाकर नहीं जवान हुआ है तो
आप सोच पाएंगे कि
जाति की महामारी से मारे गए लोगों की तुलना में
जैविक महामारी में मारे गए लोगों की संख्या कुछ नहीं है।
९.
बसंत आ गया है और मुझे किसी का इंतजार नहीं
_________________________________________
यह सोचना मेरे रक्त में सफेद बालू घोल देता है कि
बसंत आ गया है और मुझे किसी का इंतजार नहीं
मैंने जिस फूल की कली को चूमकर देवताओं को मुँह चिढ़ाया था
वह हवा के साथ चली गयी
जिन रातों को बिताया था उसकी नंगी कमर को ताकते हुए
उन सबका अँधेरा मेरे कमरे के दरवाजे पर आवारे कुत्ते की तरह बैठा रहता है
अब कैसा तो मुर्देपन की भूमिका से भर गया हूँ कि एक शख्स मेरा हक़ मुझे नहीं दे रहा
और मैं इसके लिए चुपचाप इंतजार कर रहा हूँ
जबकि मेरी आँखों में निरंतर धधक रहे मेरे परिजनों की लाशें गवाह हैं कि
कितनी ही बार मैंने मृत्यु के हलक़ से अपने जीवन को छीन लिया और वह लड़खड़ाकर नर्क में गिर पड़ी है
उद्विग्नता का साँप गले में नहीं बदन में दौड़ता है
उदासी की नदी आँख के आँगन से होकर गुजरती है
सूनापन नींद तक पीछा नहीं छोड़ता
यह बसंत का लहलहाता हुआ मौसम
खिलते हुए कँटीले फूल
यह चिड़ियों के ब्याह का लाजवाब मौसम
मुझे इस विचार ने आश्चर्यजनक मुश्किल में डाल दिया है कि
बसंत आ गया है और मुझे किसी का इंतजार नहीं
न सुबह का, न भूख का
न प्रेम का, न न्याय का
न घृणा का , न शांति का
न जीवन का, न मृत्यु का
अभी तो मैं बस
एक लाचार लड़की के हाथों जंगली नदी के निर्जन धार पर छोड़ा गया प्रार्थनाओं का दीप हूँ
इसी बीच मझधार में
गूलर के सूखे पत्ते पर हिडोले खाता बसंत आ गया है
और मुझे किसी का इंतजार नहीं।
१०.
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ
_________________________________________
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ
यहाँ से आगे
अतिरिक्त नींद के स्वप्न में तितली का अमलतास को न चूम पाने का कपासी दुख नहीं होना है
यहाँ से आगे
महुआ के गंध से देस के विस्थापन का घाव भर लेना नामुमकिन होगा
यहाँ से आगे
ठुमरी पर बजता पखावज सदियों दूर से आती मानुष-चीख में बदल जाएगा
यहाँ से आगे
कत्थक करते कमल-दल से पाँव मानुष-लोहू में डूबने लगते हैं
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ
यहाँ से आगे
घृणा की आग में जली बस्तियाँ आएंगी
मध्यकालीन मर्द के मस्तिष्क के मवाद से मरी बच्चियाँ आएंगी
परिवार के कोल्हू में कच्ची तीसी सी पेर दी गईं स्त्रियाँ आएंगी
बीमार मनुष्यता के लिए जंगल से सन्नाटे की औषधि बटोरते हुए पहाड़ो में ज़िंदा दफनाए गए मुण्डा और टोप्पो आएंगे
अवर्णों की हड्डियाँ उनके लहू में घिसकर चंदन लगाने वाली संस्कृतियाँ आएंगी
मजलूमों का रक्त पीकर जवान हुई सभ्यताएं आएंगी
वध की भाषा में क़त्ल की कथाएँ आएंगी
यहाँ से आगे ऐसा बहुत कुछ आएगा
जिससे निबटने के लिए यहाँ से बहुत-बहुत पीछे जाना होगा
यहाँ से आगे
लाशों से पटे धर्मस्थलों के गर्भगृह में बर्बरता की करुणा से तर्कयुद्द लड़े जायेंगे
यहाँ से दुःख नहीं, दुःख के कारण आएंगे
यहाँ से आगे बहसों का अंधड़ आएगा
यहाँ से आगे पुनर्व्याख्याओं की लू चलेगी
जिनकी चेतना के गुणसूत्र अनुकूल नहीं हैं ऐसे मौसम के लिए
वे लौट जाएँ
बहुत भीषण है यहाँ से आगे कलाओं की दुनिया
बहुत दुर्गम है यहाँ से आगे संवेदनाओं के रास्ते
यहाँ से बदलते हैं कहानी के पात्र
यहाँ से बदलती है कविता की भाषा
यह इस नयी सदी और सभ्यता का आखिरी मोड़ है
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं , लौट जाएँ ।
११.
करुणा की ठिठोली से झूलता देहयात्री था प्रेम
______________________________________
- तुम कहते हो तुम्हारी पीठ पर जन्म के पहले से ही हजार कोड़ो के निशान हैं?
- हाँ हैं, ये कोड़े मेरे पुरखों ने खाये थे
- अपनी शर्ट उतारो, मुझे देखने हैं
- तुम हँस सकती हो पर शर्म आती है मुझे
- बकवास मत करो, उतारो भी
- पीछे मुड़ो... अब तुम इन्हें देख सकती हो
- अरे हाँ ! ये निशान सच में हैं ; रुको, रुको इन्हें छूने तो दो जरा
- तुमने मेरी नंगी पीठ देखी, अब तुम भी मुझे अपनी नंगी पीठ दिखाओगी
- माँ कहती है अपनी आँखों से अपने घाव नहीं देखने चाहिए, पीड़ा बढ़ती है।
१२.
बहुत मामूली सी चीजें चाही थी उन्होंने
_______________________________________
मेरे पुरखों ने एक छत चाही थी
धूप, सर्द और बारिश से जो छुपा सके सिर
बच्चे जब थरथराते थे ठंड से
तो पिता की आत्मा कटे पतंग सी काँपती हुई गिरने लगती थी पीड़ा के महासागर
खेत का इतना भर टुकड़ा चाहते थे वे
कि मुठ्ठीभर भूख की मक़तलनुमा हवेली पर बँधुआ हुए बगैर
परिवार को ज़िंदा रखा जा सके
और न्यूनमत आत्माभिमान का सौदाकर लाये गए अन्न से
बच्चों की क्रूरतम मृत्यु को स्थगित किया जा सके
जबकि वे जानते थे मनुष्य के नंगेपन के आगे देह का नंगापन कुछ भी नहीं, फिर भी
बच्चों का, बीवी का तन ढँक जाए
कि सभ्यताएँ बची रह जाएँ नंगी होने से
इतना भर वस्त्र चाहा था मेरे पुरखों ने
कुछेक थे जिसने इन सबसे उबरकर एक देस चाहा था
कोड़ों से क़त्ल हुए बगैर जिसे वे अपना कह सकें
पर धर्म की आग पर पके अजन्मी पीढ़ियों के गर्भ-शिशु खाये शराबी की उल्टियों की तरह
तुम्हारी सभ्यता सदियों दूर से गंधाती है मुझे
मैं देखता हूँ कि वहाँ, अय्यास इतिहास के कोटरों में
अकूत अनाज सड़कर बजबजा रहा है
सड़ी सभ्यता के संग्रहालय में रखी वह जड़ीदार शेरवानी
मेरे पुरखों की हड्डियों से बनायी गयी हैं
एक भूख सदियों से मेरा पीछा करती है
एक आदिम कराह सीने में सारंगी की तरह बजती रहती है
तुम ध्यान से देखोगे तो
तुम्हें मेरी पीठ पर कोड़ों के हजार निशान मिलेंगे
माँ कहती है जन्मजात हैं ये निशान
भूख भर अन्न
धूप भर छत
प्यास भर पानी
बहुत मामूली सी चीजें चाही थी मेरे पुरखों ने
पर घृणा के मवाद का खाद पाकर लहलहाती हुई तुम्हारी सभ्यता ने उन्हें
भूख में डुबोकर मारा
पानी से बाँधकर मारा
इतिहास की छत बनवाई और छत में चुनवाकर मारा ।
१३.
अपनी आत्मा को खूब सुखा दो पहले
फिर अपनी रीढ़ की हड्डी निकालकर सौंप आओ
हत्यारों, आतताइयों और धार्मिक उन्मादियों के हाथ
अपने मस्तिष्क में धर्म का धुआँ भर लो इस कदर कि
तुम अपनी बेटियों, पत्नियों और माँओं के लिए
कुतिया, रण्डी और छिनाल जैसे सम्बोधनों का समर्थन कर सको
और सोच सको कि
मेरा प्रधानमंत्री इसके समर्थन में है
तो अवश्य ही अपूर्व गौरव की बात है
अपने हृदय को
फूल से बच्चों की जली लाश की राख से लीप लो
कर लो बिल्कुल मृत्यु-सा काले रंग में
और इन बच्चों की हड्डियों में
वह रंग विशेष का झण्डा लहराकर
पूरे हृदय से भारत माता को करो याद
अपने कानों में ठूँस लो हत्या समर्थन के सभी तर्क-पुराण
और उन गला सुजाकर रोती माँओं की चीख़ को
भजन या राष्ट्रगान की तरह सुनो
जिनके ईश्वर जैसे बच्चे
स्कूल और अस्पताल से नहीं लौटे आज की शाम
जुबान को काटकर रख आओ सत्ता के पैरों पर
आँखों का पानी बेच आओ सम्प्रदाय की दुकान में
आने के पहले थोड़ा लाश हो जाओ
थोड़ा-थोड़ा हो जाओ पत्थर
फिर तो स्वागत है तुम्हारा इस देश में
एक देशभक्त और सम्मानित नागरिक की तरह।
१४.
यह मनुष्य की मनुष्य को मनुष्यता की पुकार है
_____________________________________
किस ख़बर का इंतजार है आपको
किस हत्या के बाद आपकी नसें तन जाएंगी
किस लाश को कंधा देने निकलेंगे आप अपनी हड्डियों से बाहर
कविता में कह चुका हूँ पहले भी
सात समंदर घृणा से उपजे हत्यारों की कृपा पर पल रहे देश को कत्लगाह में बदलते देर नहीं लगती
क्या आपको अपनी संतान की सरकारी हत्या का इंतजार है
क्या आपने तय किया है कि जबतक खून का समंदर आपका दरवाज़ा नहीं खटखटाता
तब तक आप अपने दड़बों में पड़े रहेंगे
आप मेरी माँ और पिता हैं तो कहना चाहता हूँ -
आपके बदन का दूध और पसीना जो मेरी देह में रक्त बनकर दौड़ रहा है
वह ख़तरे में हैं
आप मेरे भाई हैं तो फिर अनंतिम हताशा में साहस बनकर उभरने वाला कन्धा कभी भी पुलिस की लाठी से तोड़ा जा सकता है
आप मेरी प्रेमिका हैं तो याद रखें यह मुलाकात हमारी आखिरी मुलाकात हो सकती है
फिर चीख में लिथड़े मरे प्रेमी के बेज़ान होंठ चूमने के अलावा कुछ नहीं बचेगा
स्वर्ग कहीं नहीं होता , नर्क होता है
नर्क की दीवारें नहीं होतीं
नर्क का दरवाजा कहीं से भी खुल सकता
आप अपनी देह, अपनी हड्डियों से बाहर निकलें
किसी रिश्ते के लिए नहीं
यह मनुष्य का मनुष्य को मनुष्यता की लड़ाई के लिए पुकार है
इसके पहले की आप किसी अपने को फोन करें और आपको उसके सरकारी मौत की ख़बर मिले
सरकार हत्यारों के ख़िलाफ़ लहराते हुए अपने बाजू
आप अपनी देह, अपनी हड्डियों से बाहर निकलें ।
१५.
सभ्यता की अदालत में तटस्थता एक अपराध है
_____________________________________
यदि आप हत्यारे के विरोध में होना नहीं चुनते
तो हत्यारे आपको अपना समर्थक मान लेते हैं
यदि आप भूखे का साथ नहीं देते
तो आप अय्यास सम्पन्नता के साथ हो जाते हैं
यदि आप मनुष्य होने के लिए नहीं होते लालायित
तो अमानुषों की सेना आपको गिन लेती है अपने में
यदि आप प्रेम को नहीं चुनते
तो घृणा आपको चुन लेती है
सभ्यता की अदालत में तटस्थता एक अपराध है
यदि आप नहीं खड़े होते स्वतंत्रता, समानता, न्याय और प्रेम के पक्ष में
तो तमाम मृत तर्कों के बावजूद
आप इनके विरोधियों में हो चुके होते हैं शामिल ।
१६.
कुछ लड़ाइयाँ अटल और अनिवार्य होती हैं
_________________________________________
कुछ लड़ाइयाँ अटल और अनिवार्य होती हैं
जिन्हें हमारे पुरखे
या तो हारे होते हैं
या लड़े नहीं होते
वे मृत्यु की तरह अटल और अनिवार्य होती हैं
घृणा और बदले के सिंहासन पर बैठी सरकारें
अपनी कारुणिक विनम्रता में भी
क़त्लेआम की शांति-व्याख्याओं की हद तक निर्मम होती हैं
फिर यहाँ तो सामूहिक हत्याओं को भी
सदी के विकास-क्रम का अनिवार्य चरण बताया जाता है
मुसोलिनी और हिटलर, इदी अमीन और पॉल पॉट
बहुत कम हत्यारों को राज करने का दुयोग होता है
पर जब होता है तो देश को मक़तल में बदलते देर नहीं लगती
तब सड़कों , आँगनों और दिमागों में
खेतों , जंगलों और विश्वविद्यालयों में
संसदीय नीति-पत्रों और पुस्तकालयों में
चारो तरफ खून ही खून पसर जाता है
सभ्यता के कोढ़ की तरह जन्मे हत्यारों को देशभक्त के तमगे से नवाजा जाता है
शांति-दूतों की तस्वीरों से पुर्नहत्या का किया जाता है अभ्यास
तब मानवद्रोहिता और अमानुषिकता की एक प्रतियोगिता शुरू होती है
जिसमें बहुत बड़ी आबादी निकृष्टतम होने के लिए गिरती चली जाती है
पर इसी बीच कुछ जिंदा ज़ेहन लोग निकलते हैं अपनी अपनी देह से बाहर
और सरकार की गोली खाकर मरी संतान की ताजी चिता से उठा लाते हैं मुठ्ठी भर आग
सीने में छिपा लेते हैं प्रमथ्युस की विरासत
और आग को जिलाए रखने के मुहावरे से बाहर लाते हैं
दोस्तों ! बहुत काम की चीज होती है आग
जाति का ज़हर ज़ेहन में चढ़ जाए तो
लगा दी जाती हैं चमारों की बस्तियों में
बलात्कारियों के हत्थे चढ़ जाए तो
फूँक दी जाती है चीखती हुई औरत
यह धर्म-शास्त्रों में शस्त्र की तरह फैलती है
और राख हो जाता है मुहल्ला , पुरवा, प्रदेश
आग का प्रयोगधर्मी हत्यारा यदि हो जाए प्रधानमंत्री
तो धू-धू कर जलने लगता है पूरा देश
तब आग जंगल की तरफ से नहीं संसद की तरफ से फैलती है
पर नहीं दोस्तो!
आग रोटी भी पकाती है
अच्छे दिनों की तमन्ना
दुर्दिन में आग बनकर उभरती है और इंसान को बेख़ौफ़ कर देती है
तब आग को जिलाए रखने के मुहावरे से बाहर लाकर
मनुष्य ललकार कर लड़ जाता है हत्यारों से , सरकारों से
फिर वह हक़ और हुकूत के लिए जिरह नहीं करता
सामने से आती हुई सरकार की गोली को चूम लेता है
क़ैदखानों में यारों के साथ मुक्ति-गीत गाता है
तानाशाह की बौखलाहट पर हँसता है
और हँसते हुए फाँसी तक चढ़ जाता है
वह बहुत अच्छे से जानता है कि
यह लड़ाई वह नहीं लड़ेगा तो उसकी आने वाली पीढ़ियों को लड़नी होगी
और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी
वह बहुत अच्छे से जानता है कि
कुछ लड़ाइयाँ मृत्यु की तरह अटल और अनिर्वाय होती हैं ।
१७.
इसी देश में रहेंगे
________________________________________
इसी धरती के गर्भ का जल बदन में लहू बनकर दौड़ता है
इसी खेत का उपजा अन्न माँस-मज्जा बनकर बढ़ता है
कभी काम के कोल्हू से बँधी माँ ने उतारा तो
इसी धरती की गोद में बेफिक्र पसर गए
अपने घावों पर इसकी मिट्टी का थाप दिया और सब ठीक हो जाने के भरोसे से जिंदा रहे
पर धर्म की घृणाएँ कत्लेआम से भी नहीं जातीं
वो अजन्मी पीढ़ियों तक का पीछा करती हैं
अब जब संगठित घृणा-वंशज हमसे बाशिंदगी का सबूत माँगते हैं
तब मैं एक ऐसे लैब को ढूँढता फिर रहा हूँ जो मेरी रूह का एक्सरे कर सके
पर नहीं
नागरिकता रूह नहीं जिस्म का मसअला है
और जिस्म को गोली मारी जा सकती है
सरकार की गोली , घृणा का बारूद बेशक हमें खत्म कर सकता है
पर हम लड़ेंगे , थकेंगे , टूटेंगे , रो पड़ेंगे
अपनी कब्र खोदेंगे और पुरखों के बगल में जा सो पड़ेंगे
पर हम कहीं नहीं जाएंगे
इसी देश में जन्मे थे इसी देश में मरेंगे
यहीं अपनी देह ,अपने देश में रहेंगे ।
१८.
करुणा के कंठ में स्मृतियों की लाश बाँध
___________________________________
वर्षों पहले जो तुमने उपहार में दिया
मेरी कलाई उसी घड़ी के लिए बनी थी
मेरे पाँव बने थे
तुम्हें पाने की अंतहीन यात्राओं के लिए
मेरा गला बना था
करुणा के कंठ में स्मृतियों की लाश बाँध
पुकारते रहने के लिए तुम्हें
जंगल-जंगल , रेती - रेती , बस्ती-बस्ती
बदन में दौड़ता मेरा गाढ़ा रक्त बना था
तुम्हारे पाँव में महावर लगाने के लिए
मैं तो बना था सभ्यता के उस विषण्य दुर्गंधयुक्त कुँए को पाटने के लिए
जिसमें भूख और शोषण से लड़ते हुए मर गए
मेरे पुरखों की असंख्य लाशें पड़ी हैं
पर मेरा मन !
मेरा मन बना था तुम्हें प्यार करने के लिए
और उम्र भर अपनी पीठ पर बँधुआ मजूर सा
तुम्हारा बिछोह ढोने के लिए
तुम्हारी चाह रोने के लिए ।
१९.
रक्तबीज
_________________________________________
कौन नहीं जानता कि इतिहास और गाथाएँ उनकी होती हैं
जिनके एक हाथ में कलम
और दूसरे हाथ में विरोधियों का कटा हुआ सिर होता है
ऐसे में रक्त-चूसकों की कथाएँ क्यों बताएंगी कि रक्तबीज कौन था
और इतिहास के किस पन्ने पर छटपटा रहा है उसका कटा हुआ सिर
कथा कहती है रक्तबीज को वरदान था कि
उसके लहू का एक भी कतरा अगरचे गिरता है धरती की कोख पर
तो उतना ही विराट , उतना ही विस्तृत दूसरा रक्तबीज पैदा हो जाएगा वहीं , उसी दम
यानि कि रक्त की हजार बूंदे हजार रक्तबीज को जन्म देती रहेंगी
रक्त-चूषकों , आततायी बुर्जुआ देवताओं की नौकरानी हुईं दुर्गा
जब नहीं कर पायीं रक्तबीज का सामना
तब काली चंडिका की क्रूर विभत्स माया को रच डाला और काली पी गयी रक्तबीज का आखिरी कतरा-कतरा खून
यह कथा यहीं पर उसकी हो जाती है जिसके एक हाथ में कलम और दूसरे में रक्तबीज का कटा हुआ सिर है
पर सच की आदत है
वह सदियों , भाषाओं और सभ्यताओं को पार कर चुपचाप
किसी रोज उभरता है जिद्दी दूब और बेहया के फूल सा
रक्तबीज का एक आखिरी कतरा लहू
चण्डिका की आत्मा से होते हुए जमीन पर गिर पड़ा था
मैं उसी रक्तबीज का वंशज हूँ
तब से लेकर आज तक दुनिया में जो कहीं भी , कभी भी
रक्तचूषक , आततायी , अन्यायी की आँखों में आँखें डालकर
अधिकार , न्याय और समानता के लिए
बेधड़क लड़ जाता है
रक्तखोरों के खिलाफ सदियों पार से जुलूस जुटाकर
राजमार्ग की तरफ बढ़ जाता है
प्राण को अपनी देह के हरेक कतरे में बाँटकर
बुर्जुआ देवताओं की छाती पर चढ़ जाता है
वह रक्तबीज का वंशज है
कथा को ऐसे भी समझें कि
रक्तबीज देह की नहीं रक्त की सवारी करता है
जिनके पुरखे किसी अन्याय और शोषण के विरुद्ध लड़ते हुए क़त्ल हुए
उनके नवके उस लड़ाई को लड़ते रहे
कथा के इसी अर्थात में
मेरे बाबा रक्तबीज के वंशज थे
मैं रक्तबीज का वंशज हूँ
मेरी पीढ़ी रक्तबीज की वंशज होगी ।
२०.
हमारे चेहरों पर चीखों के धब्बे हैं
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पिछली चौबीस रातों से मेरे स्वप्न में आने वाला
नालंदा के राजगीर पहाड़ी पर बलत्कृत स्त्री के यौनांग से रिसता खून
और छह पुरुषों के लिंग से बहता सभ्यता का वीर्य
मेरे मष्तिष्क में मवाद की तरह जम रहा है
इतिहास हत्यारों के दलाल की तरह सच छुपाने का आदी है
वह कभी नहीं कहेगा कि आशीर्वाद से और खीर खाकर गर्भवती हुईं स्त्रियाँ
वस्तुतः उन गलीज़ आत्माओं वाले महात्माओं और ऋषिओं द्वारा बलत्कृत औरतें हैं
त्रिशूलधारी त्रिपुंडमण्डित रक्तखोर इतिहास से मुझे उम्मीद भी नहीं
वह तो सदियों से नालंदा के राजगीर पर्वत पर बह रहे छः पुरुषों का वीर्य पोछने में लगा हुआ है
तो क्या राजगीर के पत्थरों पर एक बलत्कृत स्त्री और उसके असहाय प्रेमी को छोड़कर हम चाँद पर चढ़ जाएं ?
फिर इतिहास हमें हत्यारों का दलाल कहेगा !
अरे भाड़ में जाए इतिहास
भाड़ में जायें हत्यारे
और भाड़ में जाएँ उसके दलाल
सवाल एक बलत्कृत स्त्री और क्षत-विक्षत हुई सभ्यता का है
सवाल ये है कि
इसे लेकर हम किस अस्तपताल में जा सकते हैं
किस रसायन से धुल सकता है हमारे सूख चुके रक्त की शक्ल का पत्थरों पर पड़ा यह सदियों पुराना दाग
किस भाषा में , दुनिया की किस अदालत में दायर किया जा सकता है ये मुकदमा ?
अब समय आ गया है कि
सृष्टि के सभी प्राणियों , जंगलों , पर्वतों और नदियों की सामूहिक पंचायत से यह तय कर लिया जाए कि
इस दुनिया में पुरुष रहेगा कि मनुष्य
मैं चौबीस दिनों से सुन रहा हूँ कि वह लड़की
मुझे कातर आवाज लगाए जा रही है
इतिहास के चंगुलों में फँसा उसका प्रेमी
मुझे मेरे मनुष्य होने का वास्ता दे रहा है
स्वप्न और स्वप्न से बाहर
ये आवाजें दिन रात मेरा पीछा करती हैं
इन दिनों मेरा बदन
क्रोध , हताशा , चिंता और शर्म से अक्सर थरथराने लगता है
और बारहा मैं महसूस करता हूँ कि ये आवाजें
सिर्फ चौबीस दिन से नहीं
बल्कि सदियों से मेरा पीछा कर रही हैं ।
- 19 अक्टूबर 2019
२१.
वे सारे मेरे अपने हैं
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जो सभ्यता के इतिहास में अवर्णित रहे
जिनका होना , न होने से बिल्कुल भी अलग नहीं रहा
जो हवा और पानी की तरह चुपचाप अपने काम पर गए
और वापस लौटकर गुम हो गए ब्रह्माण्ड के किसी कोने में
जिनका उल्लेख भाषा में कहीं भी नहीं पाया जा सकता
इतिहास जिनके नामों के पीठ पर लदकर हम तक आता है
वे उनके सिपाही हुए
हरक्यूलिसों और अशोकों की निर्मम महानता के लिए
उनकी हवस के लिए
लड़े और बेनाम दफ़्न हो गए युद्धभूमि की कोख में
वे सारे मेरे अपने हैं
जिनकी मृत्यु का मुआवजा अदद दो आँसू की मेहरबानी के लिए तरसता रहा
इतिहास जिन्हें विराट शौर्यजीवी योद्धा कहता है
उनकी जमीन की तरफ देखिये
वे मेरे पुरखों की लाशों की ढेर पर खड़े हैं
साफ और सम्मानजनक प्यास को घाव भरे पीठ पर लादकर वे जीवन भर भटकते रहे
बैलों की तरह जुतते रहे बैलों के साथ
और बैलों से कम मजूरी मिली जिन्हें
बैलों के गोबरों से जिन्होंने रोटियाँ बनायीं
जो ताजमहल बनाए और क़त्ल हो गए
जो भूख भरी थाली को बगल खिसका
किसी पुरवासी का छप्पर उठाने के लिए दौड़ गए बेशर्त
वे सभ्यता की सड़ चुकी लाश को कंधे पर लाद गाथाओं की मुर्दहिया तक पहुँचाते रहे
वे सारे मेरे अपने हैं
वे ज्यादातर श्यामवर्णी मेहनतकश बलिष्ठ हुए
इतिहास ने उन्हें राक्षस कहा और वध किया
पहाड़ की मानिन्द जीवट और रुई की तरह मुलायम
पूँजी के अभाव में सीने में पल रहे मृत्यु को छिपा ले गए
और पीढ़ी की पहली स्कूल जाती बेटी की लाल चोटी पर फिदा होकर बिफर पड़े
वे किसी की महानताओं के लिए झंडा उठाते रहे
सभा में झाड़ू लगाते रहे
पुल के लिए लोहा काटते रहे
सड़क के लिए गिट्टी तोड़ते रहे
पानी के लिए जमीन खोदते रहे
वे किसी भी वर्णन के आदि-आदि हुए
सभ्यताएं जिनके पसीने को सोखकर हरी होती रहीं
महानताएँ जिनके रक्त से ऐश्वर्य पाती रहीं
गाथाएँ जिन्हें राक्षस कहती रहीं
वे सारे के सारे मेरे अपने हैं।
२२.
रुलाई
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वह कभी भी आ सकती है
कहीं भी किसी भी बात पर
किसी को भी
बैठे - बिठाए अचानक से वर्षों पुरानी कोई बात
आँख में पानी की तरह चमक सकती है
उदास शाम की टेक लेकर
चौराहे पर सिग्नल खुलने के इंतजार में खड़े
या पुश्तैनी पीड़ाओं के संग्रहालय , गाँव में अपने
अधिया खेत से काटकर लाते हुए बरसिम
माँ की दशकों पुरानी थकान का अंदाजा लगा
आ सकती है रुलाई
पहले दिन के स्कूल से लौटती हुई
दो हाथ के अमलतास के फूल सी बेटी को देख
छलछला सकती हैं आँखे
या मुठ्ठीभर भात की भूख को हत्या की भीख में बदलते देश की
अय्यास और निर्मम संपन्नता देख
वह आ सकती है
होलिका दहन में शामिल होते हुए
हॉस्टल के कमरे में बैठे हुए बीहड़ अकेले को ओढ़
दोस्त को देते हुए प्रेम-विवाह की बधाईयाँ
मनरेगा से लौटे हुए बासठ बरस के बाबा का धुलाते हुए हाथ
कालीन पर लेटे हुए कालीन बीनते दिनों को याद कर
अपनी ही किसी कविता का करते हुए पाठ
(आवाज थरथरा सकती है , आँखे भरभरा सकती हैं)
मेट्रो में चढ़ते ही
वर्षों पहले गुजर गए भाई की शक्ल का कोई लड़का देख
हवाई जहाज में उड़ते हुए बहन के विवाह की चिंता में
पहाड़ पर चढ़ते हुए
जंगल में घूमते हुए
नदी में तैरते हुए
मॉल में टहलते हुए
चाँद पर उतरते हुए
रुलाई कहीं भी , कभी भी और किसी को भी आ सकती है
कई बार वह नहीं आती है
जैसा होना है उसका आना , वैसे नहीं आती है
पिछले बरस चौंतीस की उम्र में चाचा जब मरे
तब दादा नहीं रोये
भीड़ को छाँट-छाँट बीच-बीच मे देख जाते रहे
दरवाजे पर नीम नीचे पड़ी जवान बेटे की लाश
वे बस चुप रहे , हमेशा के लिए चुप रहे
जब सब रोकर अपने जीवन में लौट आए
तब भी वे चुप ही रहे
भव्य अतीत के जर्जर खण्डहर मानिंद
कभी - कभी राह चलते गिर जाते हैं और खुद उठ नहीं पाते
कहने को कहा जा सकता है कि वे नहीं रोये
पर मेरे दोस्त
सच किसी गद्दार के दिल में
पचपन बर्छियों का छेद करता है
हम रोने के लिए कन्धा चुनते हैं
और इधर निर्लज्जता के नए नए प्रतिमान
कोई कंधे के लिए किसी का रोना चुनता है
हमारे आँसू तक गिरवी रखे जा चुके हैं
पड़ोसी की हत्या कर
सांत्वना बँधाकर
लाश को कन्धा देकर
करुणानिधि और प्रिय बना जा सकता है
भाषा को बेगार खटाने के लिए माफ़ी चाहूँगा दोस्त
कहता तो बस इतना भर था कि
वह तो रुलाई है
वह कभी भी आ सकती है
कहीं भी , किसी भी बात पर
पर अपने ही क़त्ल के लिए
क़ातिल की कृतज्ञता पर रुलाई कभी नहीं आती ।
© Vihag vaibhav
कवि परिचय : -
विहाग वैभव अभी बीएचयू से हिंदी विषय में पीएचडी कर रहे हैं।
इन्हें 'भारत भूषण अग्रवाल सम्मान -2018' से सम्मानित किया गया है।
संपादक परिचय :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल {बीएचयू ~ बी.ए.}
संपर्क सूत्र : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com
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