१.
धोबिन //
दोपहर में दोपाये
तपती पथरीली पथ पर पैदल चल रहे हैं -
घर!
गजब की गति है
गाँव की ओर
लदी है
गदही की पीठ पर गठरी
शहर की!
पोखरी की तट पर है
एक पत्थर
(पटिया)
जिस पर पीट रही है धोबिन
खद्दर की धोती-कुर्ता
मछलियां पी रही हैं शांत पानी में
परिश्रम से टपक रहे पसीने को
रोहू बीच में उछल रही है
पाँव में धर रही है जोंक
और खोपड़ी का खून चूस रही है जूँ
सूर्य सोख रहा है शक्ति
थके श्रमिक निगल रहे हैं थूक
रुक रुक कर
पटक रही है पटिया पर खादी
कर्ज़ की क्रोध!
उसे डर है
कि कहीं फटे न साहब की कपड़ें
साहब छठी की दूध याद दिलाते हैं
पति को
और पति मार मार कर मुझको -
नानी का!
कोरोजीवी कविता सुन रही हूँ जब से
तब से उम्मीद की घोड़ी दौड़ रही है उर में
रेह से वस्त्र समय पर साफ हो या न हो
पर तुम्हारी कविताओं से मन साफ हो रहा है
हे कोरोजयी! हे संत साहित्य संवाहक कवि!
(©गोलेन्द्र पटेल
०८-०८-२०२०)
२.
नदी बीच मछुआरिन //
जलदेवी की तपस्या से
मछुआरे को मिल गया है मोक्ष
नदी बीच स्थिर है नाव
मछुआरिन फेंकती है जब जाल
तब केकड़े काट देते हैं
मछलियाँ कहती हैं
माता मुझे अभी मुक्ति नहीं चाहिए-
नदी से!
(©गोलेन्द्र पटेल
०१-०९-२०२०)
३.
सावधान //
-----------------------------
हे कृषक!
तुम्हारे केंचुओं को
काट रहे हैं - "केकड़े"
सावधान!
ग्रामीण योजनाओं के "गोजरे"
चिपक रहे हैं -
गाँधी के 'अंतिम गले'
सावधान!
विकास के "बिच्छुएँ"
डंक मार रहे हैं - 'पैरों तले'
सावधान!
श्रमिक!
विश्राम के बिस्तर पर मत सोना
डस रहे हैं - "साँप"
सावधान!
हे कृषका!
सुख की छाती पर
गिर रही हैं - "छिपकलियाँ"
सावधान!
श्रम के रस
चूस रहे हैं - "भौंरें"
सावधान!
फिलहाल बदलाव में
बदल रहे हैं - "गिरगिट नेतागण"
सावधान!
(©गोलेन्द्र पटेल
रचना : १८-०७-२०२०)
४.
पृथ्वी पर पहला प्रेम ही पहला दुख है
बुद्ध की कथन-
दुनिया में दुख ही दुख है
हे विशाखे!
एक से प्रेम करोगी तो एक दुख होगा
दो से तो दो दुख
तीन से तो तीन दुख
साठ से तो साठ दुख
सत्तर से तो सत्तर दुख
असी से तो असी दुख
अब तुम्हें ज्ञात हो गया
कि दुख की हेतु है प्रेम
तृष्णा का त्याग ही
दुख की दवा है
इसे त्यागने की मार्ग है-
अष्टांगिक मार्ग!
©गोलेन्द्र पटेल
("विसाखथेरी गाथा" से)
2018
इन्द्रियों का इंडिया //
दृग दुखी है
दर्द हो रहा है कान में
जीभ में पड़े हैं छाले
जुल्म के जुकाम से ज़ख़्मी है नाक
त्वचा नाराज़ है
स्पर्श से
देह को पता है
दयनीय दृश्य दौड़ रहा है भीतर
दुनिया दोहरा रही है
दोना-सा
घाव घर-घर है
डॉक्टर देवता की जिन्दगी है दाँव पर
देवी(दिल्ली) देख रही है
चुपचाप
जनता जानती है जहर
क्या है?
(©गोलेन्द्र पटेल
२३-०९-२०२०)
७.
बारिश के मौसम में ओस नहीं आँसू गिरता है //
एक किसान
मूसलाधार बारिश में
बायें हाथ में छाता थामे
दायें में लाठी
मौन जा रहा था
मेंड़ पर
मेंड़ बिछलहर थी!
लड़खड़ाते-सम्भलते...
अंततः गिरते ही देखा एक शब्द
घास पर पड़ा है
उसने उठाया
और पीछे खड़े कवि को दे दिया
कवि ने शब्द लेकर कविता दिया
उसने उस कविता को एक आलोचक को थमा दिया
आलोचक ने उसे कहानी कहकर
पुनः किसान के पास पहुँचा दिया
उसने उस कहानी को एक आचार्य को दिया
आचार्य ने निबंध कहकर वापस लौटा दिया
अंत में उसने उस निबंध को एक नेता को दिया
नेता ने भाषण समझ कर जनता के बीच दिया
जनता रो रही है
किसान समझ गया
यह आकाश से गिरा
पूर्वजों की आँसू है
जो कभी इसी मेंड़ पर भूख से तड़प कर मरे हैं
बारिश के मौसम में ओस नहीं
आँसू गिरता है!
(©गोलेन्द्र पटेल
२७-०८-२०१९)
८.
भावनाभूख //
मैंने प्रेम किया अपने उम्र से
मुझसे प्रेम कर बैठी बड़ी उम्र
स्नेह की स्तन से फूट पड़ी दूध की धार
लोग कहते हैं इसे हुआ है तुझसे प्यार
दुनिया देख रही है दिल में दर्द-ए-दुख
दृश्य दृष्टि से बाहर दौड़ रहा है निर्भय
देह का दयनीय दशा दर्पण में मुख
ममत्व की मन निहार रहा है वात्सल्य
नादान उम्र नदी बीच नाव पर है भावनाभूख
हिमालय पर हवा का होंठ चूम रहा है हृदय
संवेदना सो रही है शांत सागर में चुहकर ऊख
वासना बेना डोला रही है अविराम मेरे हमदम।
मैंने प्रेम किया.....
©गोलेन्द्र पटेल
रचना : 2017
(बेना=बिजना)
९.
रंग //
देश की दशा देख
देह का दर्द
संवेदना की संगोष्ठी में
कह रहा है :-
झूठ बोलना
काला नहीं लाल
सत्य छुपाना
सफेद नहीं सतरंगा
गंध सूँघना
गुलाबी नहीं गोबराहा
चीख सुनना
कर्कश नहीं केसरिया
दृश्य देखना
हरा नहीं पीला
स्वाद चखना
नीला नहीं नारंगी
स्पर्श करना
सागरीय नहीं आसमानी!
(©गोलेन्द्र पटेल
०३-०५-२०१९)
१०.
ऊख //
(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब
रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
(©गोलेन्द्र पटेल
०५-०६-२०२०)
११.
चेतना की चाय //
सुबह नयी है
यादें पुरानी
केतली के भीतरी सतह की
मैलें हैं
संभावनाएं
प्याले की भाप
उम्मीद का उड़ान भरती है ऊपर
खाट पर
ठाट बैठा रह जाता है नीचे
गंवईं गंध है
चर
शहर से आया है
अख़बार
ख़बर है
उसमें गायब है
अक्षर
गाँव की
हर समय
शब्द की शहनाई बजती है
संसदीय सड़क पर
चुसकियों के बीच
चीखें सुनती हैं
श्रुति
पकी उम्र चौराहे पर
चर्चा-परिचर्चा करती है
आँखें बरस रही हैं
ऊँची से ऊँची दीवारें ढहेंगी
दिल्ली में
दुखी आत्माएं देश की दयनीय दशा देख कर
चुपचाप चाय पी रही हैं
एक रिपोर्टर
"कवि दादा" से चुप्पियों का दवा लेने चला-
काव्य-परिसर
वहाँ उसे पीने को
दादा से संवेदना के कप में मिला-
चेतना की चाय!
(©गोलेन्द्र पटेल
२५-१२-२०१९)
१३.
चेतना की चिता
(तुम्हारी शुभचिंतक संवेदना) //
दाँत काट लग गया है
जिह्वा चिपक गई है तालु से
आत्मा की अनुभूति कैसे व्यक्त करे कवि
शब्द सट गया है कंठ से
आँखों में किचर है
कानों में खूँट
श्वासनली के बाहर ही श्वास से संबंध गया है टूट
नदी शांत हो रही है
धूप रोशनी खो रही है
संवेदना सो रही है
सड़क रो रही है
हवा ढो रही है
गठरी का गंध गाँव की ओर
भूख ऐंठ रही है आँत
भात बिखर गया है पटरी पर
महानगर में मालिक के घर मज़दूरी गयी है छूट
लौटती जनता का जेब है खाली
सफ़र बीच चेतना की चिता जल रही है
धुआँ उठ रहा है ऊपर
गमी की गूँज है गली गली
फिर भी है सन्नाटा
इस सन्नाटे के विरुद्ध सोहर गा रहे हैं काले कौएँ
बाँसुरी बजा रहा है बाज़
गरुड़! गंवईं गौरैया को पता है
अक्सर फिल्मों में मरने के बाद
राजा देता है रोटी का आश्वासन
उल्लू लौट रहा है अपने घोंसले में
उठो संवेदना जागो संवेदना हो रहा है भोर
दुधमुँही का चावल पकना है
चेतना को चढ़ना है
चेतना तुम्हारी सगी चाची थी
उठो संवेदना बेटी
देखो! सुनो! महसूस करो!
नदी में है हलचल
धूप में ताप , सड़क पर शोर
हवा में हिमालय की स्पर्श-स्नेह-गंध
ओस का ओंठ चूम रहा है प्रातःकालीन प्रकाश
आकाश में उड़ रही है उम्मीद की चिड़िया
चहचहाहट है चारो ओर
उठ कर कही वह अनुभूति से
ओह माता! सरसराहट जा रही है संसद की ओर
भूख से मरी है चेतना
भूखी है आत्मा
राजा सावधान रहना
(चेतना मरती नहीं है मारती है कुछ समय बाद अपने शोषक को)
-तुम्हारी शुभचिंतक संवेदना
(©गोलेन्द्र पटेल
११-०८-२०२०)
१४.
रेप //
आह दर्द!
इतिहास में दर्ज पहला दुष्कर्म कब हुआ
किसके साथ हुआ
मुझे नहीं पता
पर पहली पीड़िता जो भी रही हो
वह मेरी माँ थी
वर्तमान में जिनका दर्ज हो रहा है
वे मेरी बहनें हैं
भविष्य में जिनका दर्ज होगा
वे हमारी बेटी होंगी
और मैं यह होने नहीं दूँगा
-अब-
आह सर्ग!
मुल्क की मर्द और मीडिया मौन क्यों हैं?
जबकि चिता की गर्द गर्म है
सर्द के विरुद्ध
चीख सुनाई दे रही है निर्वात में
हवा का गंध है गवाह
बढ़ियाई आँसुओं के नदी बीच नाव पर
चाँद है
पीड़ा का पतवार थामा
बेचैनी है
बलात्कृत बेटी की वकील
पहरे पर पिता खड़े हैं
पुरुषार्थ के पर्वत पीछे चल रहे हैं
-रब-
न्यायालय में प्रकृति पूछ रही है
पतझड़ से पहले ही
हरी पत्तियाँ क्यों झड़ रही हैं?
अनुभूतियाँ अपने ही अंदर
जुगनूँ की रोशनी में जंग क्यों लड़ रही हैं?....
शर्म से
सत्य का सिपाही सूर्य छुप गया है
पथ्वी झुक गई है
न्याय की आशा कैसे/किससे करूँ
-साहब-
जज ताकता रहा जब मुँह
तब कवि के भीतर की स्त्री बोलती है
"रेप" शब्द से काँप जाती है रूह
आह वर्ग!
उठो और बोलो बेटियों के पक्ष में
तुम बोलोगे तभी रुकेगा यह दर्ज का दर
तुम्हारे बोलने से ही बच सकेंगी
बेटियाँ बीच जंगलों में ,अंधेरी गलियों में
और यहाँ-वहाँ हर जगह
विचर सकेंगी स्वतंत्र-निर्भय।
-सब-
(©गोलेन्द्र पटेल
०१-१०-२०२०)
१५.
रोष की रोशनी
चुल्हे के भीतर
जला रहा है - भूख ;
तपते रोड पर
रोज़ी का तवा
रोज़ रोज़ के रुदन रस से
सना
रोटी का आटा
पका रहा है - कर्षित कुक!!...
-गोलेन्द्र पटेल
"कर्षित कुक" से
१६.
नीम का दतुअन //
आज भी भूजूर्ग किसान
प्रायः प्रातःकाल उठ
गाँव के नहर पर
लोटा ले पहुँच जाते हैं
निपटने!
गर्मियों के दिन में
नहर सूख जाते हैं वैसे
जैसे एक वृद्ध किसान का नस
धरती फट जाती है कर्षित कृषका के देह में दरार देख!
लोटे में पानी भर लेते हैं घर
दतुअन करने के लिए ग्रामीण जन
चिचिहड़ी
कबार नोच चोथ करते हैं दतुअन
कुछ नीम का कुछ बबलू का कुछ भी मिले सब चलेगा दतुअन में!
नीम तो किसानों का प्रीय दतुअन है ही
साथ में बाँस के नर्म नवंकुरित कईन भी
जिससे जिभ छोलनी काम आसानी से ले लेते हैं!
नीम का दुआर पर होना
देवी का होना है
जो हर कष्ट को दूर कर देती है
सिर्फ एक लोटा पानी ले
नवरातर में माँ से!
तुलसी माता को माता
सूर्य देव को पिता
एक लोटा पानी दे
अपने बच्चों के लिए सब कुछ माँग लेते हैं गाँव में
ख़ास कर अब नौकरी
चमकने के लिए
जैसे चमकता है नीम के दतुअन से दाँत!
-गोलेन्द्र पटेल
रचना : २१-०५-२०२०
१७.
प्रतिभा //
अनुभूति
आकृतियों का बीज
अंकुरित है
रेत में
स्वच्छता
(धोबिन का धूप)
उम्मीद का गंध है
रेह में
प्रज्ञा
अभ्यास की अक्ल है
चेत में
दृष्टि
झुर्रियाँ हैं
देह में
भूख
सलफास की फ़सल है
खेत में
संवेदना
सुख है
स्नेह में
प्रभा
कला की जननी है प्रतिभा
काव्य-
केत में।
(©गोलेन्द्र पटेल
०२-०६-२०१७)
१८.
छौंक से छींक
(नाव में घाव) // गोलेन्द्र पटेल
भीतर की सागर सूख रहा है
आत्मा पक रही है खौलते कड़ाही में
स्वप्न तल रहा है तवे पर
अदहन की आवाज़ आ रही है
और अहरा के आग में आँखें भूनी जा रही हैं
त्वचा तप रही है
उम्मीद उबल रही है
ढिबरी भभक-भभक कर जल रही है
चावल की बुदबुदाहटीय चीख है चूल्हे के पास
छौंक से छींक
रोजमर्रा की रोग है ख़ास
प्यास पी रही है ख़ून
भूख खा रही है हृदय
हथेली में लेकर पकौड़े की भाँति!
दुःख है बासी
थके हुए का थाती
है उसकी खाँसी
तड़प है ताज़ी
मृत्यु है राज़ी
सड़क पर सेवा हेतु
नहर से आती चीख
खेत में नहीं उगाती ईख
खेतीहर को ही नहीं सभी को पता है
नाव में घाव खोद रहे हैं कौए
(नाविक का घाव)
नाविका के आह से निकला-
शब्द तोड़ रहा है सत्ता का सेतु
नदी नाराज़ नहीं है
सेतु के टूटने से!
रचना : २४-०५-२०२०
१९.
मौन के विरुद्ध मंत्र //
दूर की दुर्गंध
सूँघ लेती है नाक
झाग
आँखों में लगता है
आँसू
टप टप टपकती है
जिह्वा जानती है-
स्वाद
जिन्दगी का जंग है-
तीखा!
कान कटता है-
कौन
हाशिए के हँसिए को पता है
मौन
गर्भवती है आख़िरी आवाज़
तुम्हारे विरुद्ध
जन्म लेगी-
चीख
मिर्च और प्याज़ से-
सीख
मौन के विरुद्ध-
मंत्र
लिखा!
©गोलेन्द्र पटेल
उर्वी की ऊर्जा //
उम्मीद का उत्सव है
उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है
उपज के ऊपर
उर है उर्वर
घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर
ऊन बुन रही है
उमंग चुह रही है ऊख
ओस बटोर रही है उषा
उल्का गिरती है
उत्तर में
अंदर से बाहर आता है अक्षर
ऊसर में
स्वर उगाने
उद्भावना उड़ती है हवा में
उर्वी की ऊर्जा
उपेक्षित की भरती है उदर
उद्देश्य है साफ
ऊष्मा देती है उपहार में उजाला
अंधेरे से है उम्मीद।।
(©गोलेन्द्र पटेल
१५-१०-२०२०)
२२.
दस दस बीस
(जहाँ पाँव रेत में और जूते हाथ में) //
ऊपर
धूप खड़ी है
नीचे
अपने ही छाया में कैद कवि
जनतंत्र के जूते को
कर में लटकाए
टहल रहा है
रेत पर!
भीतर स्मृति है
बाहर आकृति अनंत
हवा हँस रही है
नाव पर बैठा संत
नज़र गड़ाया
नदी में डूबते
ऐत पर!
देखा
दुःख-सुख के बीच का सेतु है
रक्तिम रेखा
जिस पर
हर नर की घड़ी रुक गयी
पर समय चलता रहा किनारे
जिजीविषा की नाव
इस पार से
उस पार पहुँच गयी
खेत पर!
पेट के लिए
पुदीना की पत्ती पीस
दस दस बीस लिख दिया हूँ
फावड़ा-कुदाल के
बेत पर!
©गोलेन्द्र पटेल
10-10-20
संपर्क सूत्र :-
Whatsapp : 8429249326
E-MAIL : corojivi@gmail.com
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