दीपक शर्मा
कवि परिचय-दीपक शर्मा का स्थाई निवास जौनपुर के ग्राम-रामपुर(पो.-जयगोपालगंज केराकत) उत्तर प्रदेश में है। आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय से वर्ष २०१८ में परास्नातक पूर्ण करने के बाद पद्मश्री पं.बलवंत राय भट्ट भावरंग स्वर्ण पदक से नवाजे गए हैं। फिलहल विद्यालय में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।आपकी जन्मतिथि २७ अप्रैल १९९१ है। बी.ए.(ऑनर्स-हिंदी साहित्य) और बी.टी.सी.( प्रतापगढ़-उ.प्र.) सहित एम.ए. तक शिक्षित (हिंदी)हैं। आपकी लेखन विधा कविता,लघुकथा,आलेख तथा समीक्षा भी है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ व लघुकथा प्रकाशित हैं। शर्मा जी की लेखनी का उद्देश्य-देश और समाज को नई दिशा देना तथा हिंदी क़ो प्रचारित करते हुए युवा रचनाकारों को साहित्य से जोड़ना है।विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा आपको लेखन के लिए सम्मानित किया जा चुका है।कविताएँ :-
१.
होरियों ! सावधान हो जाओ
देश के होरियों !
सावधान हो जाओ।
"फैसला तुम्हारे हित में हुआ है"
मन की बात नहीं सुनी तुमने?
न्यूनतम समर्थन मूल्य
निजी कम्पनियां तय करेंगी अब।
तुम्हारे ही खेत में
वे जब चाहेंगे चाय उगवायेंगे
जब चाहेंगे काॅफी, जूट, मशालें
तुम जीओगे उन्हीं की शर्तों पर
हुकूमत हमेशा कहती रही
"भला होगा तुम्हारा"
इस झूठे छलावे में
झँसते और फँसते रहे हर बार तुम।
राय साहब तो एसी में बैठे हैं
वे क्या जाने तुम्हारे खून पसीने की कमाई
वे तुम्हारी आत्महत्या को भी
देशहित के मापदंड से देखेंगे
आय दोगुनी तो दूर
अपनी सोना और रूपा की शादी के लिए
पैसे भी नही जुटा पाओगे खेती से
गोबर से कहो
परदेश में ही रहे वो।
धनिया मूर्ख नहीं थी
जो तुम्हें
चापलूसों से हर बार सावधान करती रही।
क्या तुम नहीं जानते
सरपंच का फैसला सर्वोपरि ही होता रहा है हमेशा
सच या झूठ।
२.
इन्द्र देवता हैं?
इन्द्र देवता हैं?
नहीं!
मर गया था
उनका उसी दिन देवत्व
जिस दिन
अवैध रूप से किया था उन्होंने
अहिल्या के घर में प्रवेश
किया था उनके साथ दुराचार।
उनका वह कर्म
छल, कपट व एक स्त्री के इच्छा के विरुद्ध था
किंतु वे स्वर्ग के राजा थे
इसीलिए स्वर्ग की कामना करने वाले लोग
ऋषि, मुनि, गंधर्व, देवता, पंडित, पुरोहित
किसी ने नहीं किया इन्द्र से सवाल
किसी ने नहीं की उनकी तीखी आलोचना
किसी ने नहीं दिया उन्हें कठोर दण्ड
किसी ने नहीं समझा उनके कुकृत्यों को पाप
उल्टे अहिल्या को ही शाप देकर
बना दिया गया उन्हें पत्थर
जबकि वह निर्दोष थी
ऋचाओं में गाया गया-
यत्र नार्यस्तु पुज्यंते, रमंते तत्र देवता।
हमारे पुरोहित
यज्ञ में, पुजा में, कथा और प्रवचन में
गाते हैं इन्द्र की महिमा का गान
जबकि अहिल्या की पूजा उन्होंने कभी नहीं की।
३.
मिट्टी का चूल्हा
1
जब आया था
मेरे घर में
उज्ज्वला योजना के तहत
गैस सिलेंडर और चूल्हा
तब हमने भी देखा था
आधुनिक भारत के विकास का सपना
कि लकड़ी पर
मिट्टी का तेल गिराकर
मिट्टी का चूल्हा
अब नहीं जलाना पड़ेगा
मुँह और नाक से
कालिख और धुआं नहीं खाना पड़ेगा
शर्द में गोइठे पर भूसी छिड़कर
आंच नही बढ़ाना पड़ेगा
ताल वाले पोखरा से
पोतनी मिट्टी लाकर
हर बरस नया चूल्हा
नहीं बनाना पड़ेगा
मेरी अम्मा और दादी को
गोहरी, गोइठा, खोइया, संठा, रहट्ठा
और बगीचे से लकड़ियां
नहीं जुहाना-जुटाना पड़ेगा
जैसा कि जुहा-जुटाकर
और उसे सुखाकर
रखती थी वे
बड़े जतन से
घर की अटारी पर
जैसे रखी जाती है
कुण्डा और भूसा में अनाज,
मसहरी और पलंग के नीचे
विछाकर सुखी सब्जियां
जाड़े और बरसात में
मिट्टी का चूल्हा जलाने में
यही ईधन बड़ा काम आता था।
अब आये दिन दिख जाती है अखबार में
गैस सिलेण्डर के दाम बढ़ने की
मोटी-मोटी सुर्खियां
तब लगता है माँ को
घर में
मिट्टी का चूल्हा ही कारगर था
क्योंकि गैस के चूल्हे पर खाना बनाना
अपने हर दिन के
घरेलू खर्च से कटौती करना है।
2
जब पहली बार
आदिमानवों ने खोजी होगी आग
तब उन्होंने सबसे पहले बनाया होगा
मिट्टी का चूल्हा और मिट्टी का वर्तन
उनकी सभ्मता की यह नीव
आज गैस सिलेंडर के ज़माने में भी
कायम है
कारगर है
और ताकतवर भी।
४.
किराये पर कमरा
मैं बनारस पढ़ने आया था
शहर के एक मकान में
किरायेदार था
और आंटी जी मालिकिन
मकान का नियम सख़्त था
जैसा अरब के देशों में होता है कानून
रात में समय से आ जाना
कमरे से आँगन तक गंदगी तनिक न हो
पानी और विजली कम खर्च करना
हमेशा चमकता रहे शौचालय
मकान के भीतर पार्टियों पर प्रतिबंध
गुटखा, सिगरेट, गांजे पर प्रतिबंध
प्रेस, कूलर, हिटर पर प्रतिबंध
छत पर देर तक फोन से बात करने पर प्रतिबंध
आसपास किसी लड़की से
मिलने पर प्रतिबंध
मांस-मदिरा वर्जित
तेज आवाज में गाना-बजाना वर्जित
बगैर अनुमति किसी को
कमरे पर बुलाना वर्जित
ये सारे नियम मौखिक थे
जो आरम्भ में ही हमें बता दिया गया था
इसमें से एक भी नियम टूटने पर
आंटी जी हिटलर की तरह हाज़िर हो जाती थीं
या छत से ही बकबकाना
शुरू कर देती थीं
साफ-सफाई रहने पर भी
कुछ न कुछ नुस्खे निकाल ही लेती थी
मुझसे मिलने कोई कमरे पर आता
तो पूछती-
कौन आया था
क्यों आया था
कहाँ से आया था?
आंटी की नजर हम पर
हमेशा रहती थी
हम कब सो रहे
कब जाग रहे हैं
कब खा रहे हैं
कब बाथरूम जा रहें
कब क्या कर रहे हैं
आदि
इन नियमों के विरुद्ध
मैंने कई बार ऐतराज किया
विवाद हुए
झगड़े हुए
और हर बार मुझे मिली
मकान खाली करने की धमकियां
मैंने अन्यत्र कमरे देखें
किंतु हर जगह नियम ऐसे ही थे
या किराया ज्यादा था
मेरी अवकात से ज्यादा
मेरे पास पैसे कम थे
इसलिए उसी कमरे में
रहने के लिए मजबूर था
५.
मेरे स्कूल के बगल से नदी
मेरे स्कूल के बगल से
एक नदी बहती है
जो इनऊझ ताल से
आदिकेशव घाट तक पहुंचने में
कई बार थकती है
कई बार रुकती है
इस गांव में
दस-बीस घरों में
केवल एक ही हैंडपंप मिलता है
जिसका पानी सिर्फ पीने के लिए ही
उपयोग में लाया जाता है
शेष आपूर्ति नदी के जल से होती है
मल-मुत्र-गोबर के बावजूद
उनके लिए जीवनदायिनी है यह नदी
जो शहर तक पहुंचते-पहुंचते
नाले में तब्दील हो जाती है
मेरे स्कूल के बच्चे
अक्सर ही मिलते हैं
नदी के पास
वे स्कूल से भी चले जाते वहां
शौच के बहाने
या रेसस में,
आते-जाते वे
अक्सर ही दिख जाते हैं
नदी में नंगे नहाते हुए
या मछली पकड़ते हुए
उनकी देह से आती है
मछली की गंध
मुझे आश्चर्य होता है
इतनी छोटी-सी उम्र मे
तैरते हुए
ये बच्चे कैसे पार कर जाते हैं नदी
नाव चलाने में भी कुशल हैं वे
किनारे पर
बाल सुखाती
या कपड़ा कचारती हुई
दिख जाती हैं कुछ औरतें
बरसात के दिनों में
जब उफान मारती है नदी
तब भी
इन बच्चों और उनकी मांओं को
नहीं लगता भय
उन्हें विश्वास होता है कि
नदी की धार उन्हें नहीं डूबोयेगी
इस नदी में
जवान, वृद्ध महिलाएं भी नहाती हैं
नदी के आसपास
झुरमुट और झाड़ियां हैं
औरते और लड़कियां
झुरमुट की आड़ में
कपड़े बदल लेती हैं
इन झाड़ियों को
कभी काटा नहीं जाता
क्योंकि उनके शौच के लिए
यही एक मात्र उपयुक्त स्थान है
कभी-कभी
इन झाड़ियों में छिपकर
कोई कुंती
किसी कर्ण को
दे जाती है
चुपके से जन्म
झाड़ियों के पीछे कभी-कभी
सुनाई दे जाती है
दुर्धर्ष इंसानी जानवरों द्वारा
हत्या और बलात्कार जैसी कुछ अप्रत्याशित घटनाएं
घटना के बाद
खून नदी के गंदले पानी में समा जाता है
मुंह में कपड़े ढूंसकर
दबा दी जाती है चीख
दिन में भी नहीं पहचाने जाते
हत्यारों के चेहरे
खबर अदालत या कचहरी तक नहीं जा पाती
६.
बिटिया के लिए तीज
आषाढ़ बीतने के बाद
शुरू होता है सावन
माँ चढ़ा आती है
मन्दिर मन्दिर पूड़ी और हलवा
हर साल की तरह।
पेड़ों पर पड़ जाते हैं झूले
रिमझिम फूहारोः के बीच
मेरे गाँव की युवतियां
झूला झूलते हुए गाती हैं कजरी
इस बीच माँ को
बिटिया की बहुत याद आती है
वर्षों पहले जिसे
अपने द्वार से
डोली में बिठाकर
विदा कर चुकी होती हैं,
वह जुटाने लगती है
बिटिया के लिए तीज का सामान
वह खरीद लाना चाहती है
बाजार से
सबसे अच्छी लगने वाली साड़ी
सबसे महंगी विदिया, कुमकुम, लिपस्टिक
तेल, साबुन, काजल, क्रीम
अंदरसा, फल, मिठाई
और बहुत-सी चीज़ें
जिसे देने की अभिलाषा कभी पूरी नहीं हुई,
ताकि बिटिया ससुराल में खुश रह सके
यह समय होता है
मेरा और छोटे भाई के एडमिशन का
स्कूल से फीस रसीद आते ही
आ जाती है
माँ के सिर एक और जिम्मेदारी
हर बार की तरह
इस बार भी
बिटिया के लिए
माँ की इच्छा अधूरी रह जाती है
2
बिटिया को तीज का सामान
बाँथते हुए
माँ ने दिखायी मुझे
अटैची और पोटली
ये कहते हुए कि
कल जब मैं
नहीं रहूंगी इस संसार में
तुम बहन को
ऐसे ही बाँधकर
ले जाना तीज।
७.
सुनसान त्रिवेणी का तिराहा
बहुत दिनों से
सुनसान है त्रिवेणी का तिराहा
जहाँ
गाहे-बगाहे
अक्सर ही दिख जाते हैं
एक लड़का और एक लड़की
करते हुए प्रेमालाप
उस तिरहे से गुजरने वाले लोग
घंटो करते हैं
वहाँ का महिमामंडन
किसी पुलिया पर
कैंटीन में
या हाॅस्टल में
बैठकर
दोस्तों के साथ ।
त्रिवेणी का तिराहा जानता है
युवा मनोभाव
और जन-आलोचना
वह जान चुका है
कैसे बनायी जाती है
प्रेम की भूमिका
हर रोज उसने देखा है
एक प्रेमी और प्रेमिका
कैसे खींचे चले आते हैं
एक-दूसरे के पास?
कैसे छू लेते हैं
एक-दूसरे का हाथ?
और कैसे पहुंच जाता है
धीरे-धीरे
एक-दूसरे के होठों पर होठ?
अब वह नहीं देख रहा
उनकी हँसी और खिलखिलाहट
वह नहीं देख रहा
एक -दूसरे का पोछते हुए आँसू
वह नहीं देख रहा
किसी युवती को
जमीन पर रगड़ते हुए एड़ियां
वह नहीं देख रहा
वहाँ किसी के इंतजार में
किसी को दाँत से काटते हुए नाखून
वह नहीं देख रहा
किसी लड़की के
उभरे उरोज और नितंब की
गोलाइयों पर
टकटकी लगाये
किसी लड़के का छिछोरापन
बस वह देख रहा है
उदास सड़के
उदास कलियाँ
और उदास पंछी
और सच कहूँ तो
त्रिवेणी तिराहा भी बहुत उदास है।
८.
मेड़ बनाती धनिया
जब घर में
बहू बनकर आयी झूनिया
बीमार होने की डर से
बारिश में भीगकर
बाहर नहीं निकलना नहीं चाहती
तब
वह पैसठ बरिस की धनिया
साड़ी का पल्लू मोड़कर
धान के खेत में
बना रही होती है मेड़ |
खेत का पानी
कहीं दूसरे के खेत में
न उतर जाये
इसलिए वह जल्दी-जल्दी
चलाती है
अपना झूर्रियों वाला हाथ
वह घंटे दो घंटे तक
काम में लगी रहती
पर नहीं थकती
उसे धान रोपने
या खेत से पानी
उतर जाने से ज्यादा चिंता है
घर में
नाती-पोतों के पेट भरने की
उनकी पढ़ाई और दबाई के खर्च की
क्योंकि
वह
जानती है कि
परदेश में रहने वाले
गोबर की कमाई से
परिवार का खर्च
नहीं चलता।
९.
पहुंच जाने दो हमें हमारे गाँव
हम सड़कों पर
सैर करने नहीं निकले हैं साहेब
हम जाना चाहते हैं अपने गाँव
मेरी पत्नी के पेट में
बहुत दर्द है
उसे थोड़ा विश्राम चाहिए
मेरा शिशु भूखा है बहुत
उनकी माँ के स्तन में
दूध नहीं बचा है
चलते-चलते मांसपेशियां छिल गयी है
पड़ गये हैं पैरों में छाले
धूप से चेहरे हो गये हैं काले
जल गयी है देह की खून
हड्डियों की बदौलत
खींच रहे हैं हम धरती
लाठियाँ रख दो साहेब
यहीं तो बचा है मेरे पास
बस आदमी जिंदा है
खिच लो मेरी तस्वीर
अच्छा तो नहीं आयेगा
लेकिन अच्छा जरूर लगेगा
क्योंकि इससे आपकी खबरें
हाईलाइट होगी
कहते हो रुक जाये यही?
रुके तो थे दो महीना
क्या मिला?
कमाये जितना
वह भी सफा हो गया
कितने दिन दिया गया हमें खाना?
कितने दिन दिया गया हमें पानी?
बस सोते रहे हम
आसमान की छत ओढ़कर जमीन पर
जाने दीजिए साहेब
पहुँच जायेंगे हम
कुछ दिनों में अपने गाँव
हुक्मरान मेरी सुने न सुने
लेकिन मेरे पड़ीसी
मुझे दो रोटी देने में
संकोच नहीं करेंगें
"किराया नहीं लिया जायेगा
मजदूरी मिलती रहेगी
दवा पहुँचती रहेगी"
रहने दो साहेब
आपकी केवल एक बात मानेंगे-
आत्मनिर्भर बनेंगे
हाँ, आत्मनिर्भर ही बनेंगे
बस किसी तरह
पहुँच जायें अपने गाँव
लाॅकडाउन टू प्वान्ट जीरो
लाॅकडाउन थ्री प्वान्ट जीरो
लाॅकडाउन फोर प्वान्ट जीरो
टेलीविजन की ये बहस
सबसे अश्लील चित्र लगने लगी है
इस बार
मुनिया के लिए
खिलौना नहीं खरीद पायें
न ही खरीद पाये
बाबूजी के लिए चप्पल
न माँ के लिए साड़ी
कल शराबी ट्रक का ड्राइवर
पाँच सौ किमी यात्रा का
पाँच हजार माँग रहा था
बीबी ने मंगल-सुत्र उतार दी
किंतु मेरा सफर
पूरा नहीं हुआ साहेब
विशेष वाहन विशेष लोगों के लिए है
आसमान से फूल बरसाती जहाजें
मेरे घिसटतें पाँवों को
चिढ़ा रही हैं
खिड़कियों से बजती तालियां
मेरे कानों को बेध रही है
मेरा वो साथी
जो सोया था
रेल पटरियों पर
भोर की नींद में
टुकड़ों में बटा है
उसकी बूढ़ी माँ
कलेजा पीट रही है
और उनकी कुँवारी बहन
उन्हीं की बदौलत
देख रही थी सुहाग के सपने
रधवा के काका
अधमरा पड़ें है सड़क पर
उनकी सांसे फूल रही है
गोद को तरसता बच्चा
ट्राली पर ही सो गया है
कैसे-कितना-क्या बतायें साहेब
पहुँच जाने दो बस
हमें हमारे गाँव।
१०.
दम तोड़ता पिता
दम तोड़ते हुए
पहली बार एक पिता ने कहा -
"छोटकी बड़ी हो गयी है!"
बेटे ने पहली बार सुनी
पिता के कंठ से 'आह' का स्वर
पहली बार अहसास हुआ
जिम्मेदारी का बोझ।
११.
जुलिया नहीं जान पाई प्रेम
जुलिया जवान हो चुकी है
प्रेम करने की उम्र में
वह उठाती है गोबर
माँ के साथ
मनरेगा में करती है मजदूरी
बाबू-बाबुवानों की
काटती है गेहूँ
ढोती है बोझा
रोपती है धान
काटती है सरसो
खीचती है सगड़ी
शादी-व्याह में उठाती है पत्तल
धोती है जूठे वर्तन
पर नहीं सोचती कभी प्रेम
उसे किताबों से तो
पाला ही नहीं पड़ा कभी
सो तर्क करना नहीं जानती
सिद्धांत गढ़ना नहीं जानती
और नहीं समझती ज्ञानियों की भाषा
उसके नानी के यहाँ से फोन
पड़ोस के मोबाइल पर ही आती है
मैंने उसे
न कभी हँसते देखा है
न रोते देखा है
देखता हूँ उसे हमेशा
जीवन के प्रति उदासीन
किसी की नजरे उसे आकर्षित नहीं करती
भद्दी गालियां और गंदी बाते सुनना
उसके जिंदगी के साथ चलती है
नहा-धोकर कभी
ठीक-ठाक कपड़े पहन लेती
तो छुछमाछर गिद्ध लड़के
उसके आस-पास रेउछियाने लगते हैं
पर नहीं करता
कोई उससे प्रेम
स्कूटी से स्कूल जाती लड़कियों-सी
ललक नहीं उसमे
न ही मन में आया कभी
बाहों में बाहें डालकर
किसी प्रेमी के साथ
पार्क में बैठने का सपना
सच तो यह है
कि सपना देखने का
अवसर ही नहीं मिला उसे
जैसे कोख में ही
किसी ने
मिटा दी हो उसके भाग्य की रेखा
जुलिया जवान हो चुकी है
किंतु नसीब नहीं होता उसे
महावरी में पैड
उसके देह पर वही कपड़े हैं
जिसे बाबू-बाबुवानों की बेटियाँ
सैकड़ों बार पहन कर
देह से उतार चुकी होती हैं
जुलिया की माँ ने
शादी की सिर्फ पहली रात
जाना था प्रेम
महसूस किया था
माथे पर चुम्बन
उसी दिन वह पहनी थी
अपने जीवनकाल का
सबसे सुंदर वस्त्र
लगायी थी माथे पे बिंदी
बालोंं मे जूरा
आँख में काजल
हाथ में मेहदी
पैरों में महावर
किंतु अब तक
जुलिया नहीं जान पाई
किसी प्रेमी का निश्छल प्रेम
१२.
ये मजदूर औरतें -दीपक शर्मा, जौनपुर, उत्तर प्रदेश-मजदूर दिवस विशेष
ये मजदूर औरतें
दिन रात करती हैं काम
नहीं जानती आराम
चलाती हैं फावड़ा
खोदती हैं मिट्टी
पाथती हैं ईंट
छाती के बल खीचती हैं सगड़ी
दूधमूँहें बच्चे को
लादकर पीठ पर
ढोती हैं ईंट,
खाती हैं खैनी
पीती हैं बीड़ी,
ये मजदूर औरतें
न जाने किस काठ की बनी होती हैं
ईंट को ट्रैक्टर पर लादती हैं
उसे गंतव्य स्थान तक पहुँचाती हैं
यही काम बार-बार दोहराती है
फुरसत मिलते ही
फिर पाथने लगती हैं ईंट
इनके नंग-धड़ंग बच्चे
गिली मिट्टी
या धूल में
बहलाते हैं मन
रोते हैं जब
वे काम रोककर
पिला आती हैं
दूध,
या पानी,
और सुला आती हैं
जमीन पर
किसी भीत की छांव में।
ये मजदूर औरतें
बीमार नहीं होतीं
होतीं भी हैं तो
इनकी सुधि कौन लेता है
और बीमार नहीं होते
इनके बच्चे
प्रसव पीड़ा में
इनके साथ कौन होता है?
इनके बच्चों के मरने से
दुःख किसको होता है?
हम दिखाते हैं
देश को विकास का माॅडल।
ये मजदूर औरतें
करती हैं खुले में
शौच और स्नान,
इनके मालिक
बुझा लेते हैं
इनके जिस्म से
अपने जिस्म की प्यास,
इनकी बेटियाँ
व्याही नहीं जाती
अक्सर,
किसी दलाल के हाथों
बेच दी जाती हैं,
भगा ली जाती हैं,
चुरा ली जाती हैं,
या उठा ली जाती हैं,
यौवन झर जाने के बाद
वापस आ जाती हैं,
किसी भट्ठे पर करने मजदूरी,़
इनके यहाँ
रश्म रिवाज नहीं होता
बिना दिशाशूल जाने कहां-कहां
चली जाती हैं
एक गाँव से दूसरे गाँव,
इन्हें माना गया है अछूत,
नहीं पीते हैं कई इनके हाथ का पानी,
वे भूल जाते हैं,
मन्दिर की ईटें,
और उनके आलीशान बंगले से
चिपका होता है
किसी मजदूर स्त्री का श्रम,
हड़प्पा, मोहनजोदड़ों की सभ्यता के विकास में
था किसी मजदूर स्त्री का योगदान,
लाल किला, कुतुबमिनार, ताजमहल
और संसद की दीवारों से
आती है इनके पशीने की बू,
स्कूल की दीवारें इसलिए नहीं हिलती
क्योंकि इसमें सना होता है
किसी तपित मजदूर स्त्री का लहू,
ये मजदूर स्त्रियाँ
रहती हैं सदैव हाशिए पर,
पर इनके बिना
विकास का रास्ता नहीं खुलता,
पर, इन्हें नहीं मिलता
लाॅकडाउन में कोई मुआवजा।
इन्हें नहीं मिलता
विधवा या वृद्धा पेंशन
कहने को तो ये भी कहती हैं –
सरकार माई-बाप हैं
सरकारे आती हैं
सरकारे जाती हैं
मगर ये पाथती रहती हैं
किसी भट्ठे पर ईंट दर ईट।
१३.
कुछ ही दिनों की तो बात है
कोरोना
वुहान से चलकर
विश्व-भ्रमण करते हुए
आया जो भारत
जहाज में बैठकर।
और दे दिया हमें
चुपचाप
युद्ध की चुनौती।
हम लड़ेगे
और उसे हरायेंगे
विना किसी बारूद के
अपने घरों में बैठकर।
कुछ ही दिनों की तो बात है
नहीं मिलेंगे किसी दोस्त से
नहीं खेलेंगे स्टेडियम में क्रिकेट मैच
नही जायेंगे सिनेमाहाल
नवरात्रि का समय है
घर में ही करेंगे
देवी माता की आराधना
फूरसत का पल है
आलमारी मे रखी हुई सारी किताबें
पढ़ डालेंगे
भाई की शादी के लिए कपड़े
बाद में बनवा लेंगे
इस बार बिट्टी के जन्मदिन पर
केक नहीं काटेंगे।
कुछ ही दिनों की तो बात है
तब तक दोस्तों से
फोन पर ही करते रहेंगे बाते
घर में ही बच्चों को सिखायेंगे
हिंदी-अंग्रेजी वर्णमाला
उनके साथ खेलेंगे लूडो
और गुड्डा-गुडी का खेल
दादा-दादी से कहेंगे-
"पड़ोसी के घर न जाकर
देखिये टेलीविजन पर रामायण
सुनाइये बच्चों को कहानियाँ"
और हे प्रिये!
तुम्हें शिकायत रहती थी न
कि मैं समय से घर नहीं आता हूँ
छुट्टियों के दिन भी गायब रहता हूँ
अब सारा दिन करूंगा
तुमसे बाते
तुम्हारी आँखों का काजल
माथे की विदिया
और कानों की बाली को
देर तक निहारूँगा
तुम्हारे जुरे को
गाछना सीख जाऊँगा
मेरे विखरे हुए बालों को
तुम भी संवार दो ना
कुछ ही दिनों की तो बात है
हम फिर मिलायेंगे
गर्मजोशी से हाथ
और देखेंगे
प्रेमी जोड़े में
घास पर गिरा हुआ गोल चुम्बन
कैंटिंग में बैठकर
फिर उड़ायेंगे हँसी के फव्वारे
सजायेंगे महफिल
कर सकेंगे
कवि सम्मेलन
प्रातःकालीन बेला में
चलो सिवान घूम आते हैं
देख आते हैं
गेहूँ के खेतों में
मृदुल हवा के साथ
झूमते हुए बालियों को
महकते हुए धनिये को
फिर वही से मापेंगे
धरती-आसमान के बीच की दूरी
और पगडण्डी पर बैठकर
लिखेंगे सुंदर-सी कविता
कुछ ही दिनों की तो बात है
ये महामारी चली जायेगी
हम सब का संकट कट जायेगा
तब तक अपने घर के
खिड़कियों से देखिये
विचरण करते हुए पंछियों को
और पता करते रहिए
कि हमारे पड़ोस में
कोई भूखा तो नहीं
ज़रूरतमंद को
पहुंचा आइये
अनाज और सब्जियां
फल और साबून
और रखिये देश को खुशहाल
कुछ ही दिनों की तो बात है
स्कूल, दफ़्तर, दुकाने , कारखाने
सब खुल जायेंगे
रेलगाड़ियों के पहिये
जो थम गये हैं
फिर से दौडने लगेंगे
अपनी पटरियों पर
और हम लोग भी
आ जायेंगे सड़क पर
लेकर साइकिल
सिर आसमान पर उठाकर
देख सकेंगे उड़ते हुए जहाजों को
और गायेंगे गीत-
"विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।"
१४.
नेताजी
मंच पर बैठे नेता जी
सुनकर मेरी कविता
खूब मुस्कुरायें,
खिलखिलायें.
तालियाँ बजायें,
फिर बुलाकर मुझे मंच पर
थपथपायें मेरी पीठ,
थमाकर सौ रुपये का नोट
बढ़ाये मेरा हौसला।
फिर धीरे से बोले :
"ये लो मेरा कार्ड
पड़े जब जरुरत
नि:संकोच करना मुझे याद
मैं जरुर आउँगा आपके काम।"
मैं हो गया गदगद
सुनकर नेताजी की बात
सोचा -
जरुर करुँगा
नेताजी से मुलाकात।
एक दिन
समय निकालकर
मैं नेताजी के घर आया,
उन्हें एक अर्जी-पत्र थमाया,
पत्र विना पढ़े
नेताजी ने किया सवाल-
"आपके घर कितने सदस्य हैं जनाब?
इलेक्शन में
हमें कितने वोट दिलवा सकते हैं आप?
अपने परिवार से
हित, नात, परिचित, रिश्तेदार से।"
मैंने कहा -
"सिर्फ एक ..."
नेताजी अर्जी-पत्र दिए फेक ।
१५.
तेरहवीं का विहान
कल मेरे पड़ोसी
गंगू चाचा के पिताजी की तेरहवीं थी
ब्रह्मभोज में भीड़ खूब जुटी थी
पहले ब्रह्मणों ने भोग लगाया
दक्षिणा ग्रहण किया
फिर देर तक चलता रहा भोज
गाँव के खड़ंजे पर
साइकिल, मोटर साइकिल, पैदल
कार, स्कार्पियो के आने जाने से चहल-पहल थी
खद्दरधारी, काले कोट, सायरन
व नीली बत्ती वालों के लिए
वीआईपी व्यवस्था थी
अंत में
उत्तीर्ण कहने के बाद
सबने कहा - मृतक आत्मा को शांति मिली
सुबह घर के पिछवाड़े
जुठे पत्तलें
चाटते हुए कुत्ते दिखें
विखरे अन्न को
टोड़ से उठाते पंछी
और खिड़की के पीछे
शराब की अनेक खाली बोतलें
हलवाई नशे में अब तक बुत्त पड़ा है
रग्घू काका का पैंट पेशाब से
खराब हो गया था
यह बात उन्हें सुबह मालूम हुई
गाँव के दक्षिणी टोला में
मुसहरों की बस्ती थी
हाथ में लोटा, थाली, भगोना लेकर
औरतें और बच्चे
द्वार पर आ चुके थे
जिन्हें कल के भोज में
निमंत्रण नहीं था
उनमें कुछ डेरा डालकर
रहने वाले वासिंदे थे
वे झारखण्ड या छत्तीसगढ़ से
पलायन आदिवासी हैं
दाल में खटास आ गया था
पर वे लेने से मना नहीं कर रहे थे
सब्जी में गिरे कॉकरोच को
सावधानी से निकालकर
बाहर फेक दिया गया था
पुड़ियाँ कठोस हो गयी थी
चावल लिजलिजाने लगा था
किंतु उन्हें लेने में हिचक न थी
वरन् अत्यधिक प्रसन्नता थी
बुनिया के डेग को ढककर
ओसारे में खिसका दिया गया था
जो कि मुसहरों के हिस्से में न था
उत्तरी टोला के लिए
जो भोजन
बेकार और बेस्वाद हो चुका था
दक्षिणी टोला के लिए वही भोजन
विशेषाहार था
आज उन्हें रोटी के लिए
सोचना नहीं पड़ेगा
गेहूँ के खलिहान में
मुसकइल में हाथ डालना नहीं पड़ेगा
पेड़ पर बैठी पंछी पर
गुलेल से निशाना लगाना नहीं पड़ेगा
बच्चों को आगे करके
किसी के आगे
हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा
आज जो मजदूरी कर लेंगे वे
उनकी एक दिन की बचत होगी।
१६.
जनता और जन प्रतिनिधि
कुछ लोग
मंच पर बैठे हैं
और कुछ लोग
मंच के नीचे थे
मंच पर बैठे लोग
जन-प्रतिनिधि थे
और मंच के नीचे
आम जनता थी
जन-प्रतिनिधि लोग
बता रहे थे
इतिहास में दर्ज
अपने पुरुखों की कहानियाँ
दिखा रहे थे
फ्रेम में मढ़ाये उनके चित्र
और चित्र के नीचे उनके स्वर्णिम नाम
वे नाम
राजा के थे
मंत्री के थे
सलाहकार और मनीषी के थे
एक दूसरा मंच था
जिस पर बैठे
कविगण, लेखक और दार्शनिक
उनकी महिमा का
प्रशस्ति-गान कर रहे थे
मौन जनता
उन चित्रों में
इतिहास में
गायन में
ढूँढ़ रही थी
अपने पुरुखों का नाम
जिन्होंने सबसे आगे बढ़कर
सबसे ज्यादा दी थी कुर्बानियाँ
वे प्रजा थी
आम सैनिक थे
सेवक थे
वे तब भी
मंच के नीचे थे
और आज भी नीचे ही हैं
विभिन्न शिलाओं और इतिहास के पन्नों पर
उनके नाम
न तब थे
न अब हैं।
१७.
भुट्टा
भुट्टे तो हमने
बाजार में बहुत खाये हैं
ढेलों, चट्टी, चौराहों पर
इसके लिए भीड़ लगी रहती है
अब लोग
भूट्टे भूख के लिए नहीं
अपितु, शौकियां खाते हैं
मगर घर पर
जब माँ
बोरसी में
गोइठे की आग पर
भूँगती है भुट्टे के बाल
बहन पीसती है
सीलबट्टे पर नमक, मिर्च, अदरक
और दादी बताती है
देश में गेहूँ आने से पहले
पेट के लिए
भुट्टे का महत्व
तो मन
भुट्टे-सा
दुधिया हो जाता है।
१८.
अलग अलग चेहरा
मैंने देखा है
इंसानों का अलग-अलग चेहरा
उनकी मूँछों के भीतर छुपी गम और हँसी
चेहरे ढकने वाले लोग
हमारे सैलून पर आकर
हटा लेते हैं
चेहरे का नकाब
जो कुछ स्पष्ट नहीं होता
साबुन से धोकर
उस्तरे से मैल की परत हटाकर
पढ़ लेता हूँ
उनके चेहरे का भाव
बिल्कुल साफ-साफ
एक नाई के अलावा
इंसानों के चेहरे का असली रंग
कौन जानता है?
चेहरे की छुर्रियों और चमक को
पढ़कर जान लेता हूँ
मनुष्य का अंतःकरण
मैंने इंसानों के चेहरे पर
गोलियाँ और चुम्बन का निशान
दौनो एक साथ देखा है।
©दीपक शर्मा
जौनपुर उत्तर प्रदेश
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