कविता : दिल्ली से देहात की ओर
ईश्वर के यहाँ देर है अंधेर नहीं
लगे रहिए/ चलते रहिए
मैं ईश्वर को मानता हूँ
सच कहूँ
तो मैं अपने दुःख का कारण जानता हूँ
बुरे वक्त में सुखद क्षण को रोता देखकर
मुझे पता चला कि
मैं खुद को दूसरों से बेहतर जानता हूँ
हम किसी के चेले नहीं, विवेकी हैं
बोल रहे हैं चौराहे पर चिल्ला चिल्ला कर
चुप रहो --- न दायें , न बायें
इधर चलना है
नहीं नहीं उधर चलना है
सन्नाटे में साथ चलना अच्छा होता है
चल रहे हैं पैरों के बल पर पथरीली पथ को नापते हुए
दिल्ली से देहात की ओर
दोपहर में दोगुनी शक्ति से देखता है सूरज
कोई नहीं ठहरना चाहता
किसी अजनबी छाँव में
सब चल रहे हैं
भूखे-प्यासे थके-हारे उम्मीद के सहारे
सारे मजदूर लौट रहे हैं गाँव में
आह! कोई कहीं गिर रहा है
कोई कहीं चिर रहा है किसी पहाड़ की छाती
कोई कहीं सो रहा है
कोई कहीं ढो रहा है अपना मृत बच्चा
हे मजदूर मजबूर मुसाफिर!
आखिर जाना है वहीं जहाँ सब जा रहे हैं
तो फिर तुम क्यों नहीं पहुँच पाये अपने घर
मैं इसका मूल वजह मानता हूँ
भूख को जन्म देने वाली सारी व्यवस्थाएँ हैं
फिर भी मैं चुप हूँ
कि घुप रौशनी से अच्छी धूप है
जिसमें साफ दिख रहा है
शोषक भूप है/और अपना शोषित रूप है/ सूखा कूप है/ उदास सूप है/
मन की पीड़ा पसेरी भर नहीं,
केवल कुछ पौन है
और यह सदैव साथ रहना चाहती है
मैं उजाले में अचानक आँखें बंद करने वाले को भी पहचानता हूँ
कि वह कौन है?
©गोलेन्द्र पटेल
ईमेल : corojivi@gmail.com
कविता श्रृंखला : "दिल्ली से देहात की ओर" से
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