क्या आज घूमने चलना है अजंता और एलोरा की गुफाएँ?
या फिर कोणार्क मंदिर?
मुँह क्यों लटकाए हो?
क्या हुआ?
बोलते क्यों नहीं?
चुप क्यों हो?
चुपचाप
उसने देश का प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्र
दिया मेरे हाथों में
दृश्य दर्दनाक है!
अख़बार का कोई चित्र
चिर रहा है दिल
दुख दुसाध्य है जो
मुक्ति की शिक्षा देता है
बुरे वक्त में परीक्षा लेता है
अपनों का अपने वह
दुखहरन दृष्टिकोण में
मित्र!
जूते बताते हैं
कैरेक्टर
जैसे चप्पलें बताती हैं
चरित्र
निःसंदेह
देह का दर्शन है विचित्र!
मन में बहुत रेह है
रूह की ऊह नेह की भाषा में
गेह की कूह है
लोकलय और शब्द के अध्ययन का प्रतिमान
संगीत में संस्कृति का गान है
आँखों की बारिश में अंतःकरण की कौंध
पीड़ा की पौध है
आँसू की बूँदों के इंतज़ार में
पसीने की बूँदें
आह की राह तक रही हैं
साँसें सन्नाटे में बहक रही हैं
आसमान में आत्मा की आकृति है
धरती पर खड़े
सदी के बड़े चित्रकार की
जो कभी-कभी जीवन के रंगमंच पर
किसी भावी नाटक का नायक घोषित होता रहता है
अँधेरे में मुसाफ़िर के माथे पर
पाथेय का प्रदीप जलाना
अपने पुरखों के पास जाना है
समुद्री चश्मे से देख रहा हूँ मैं
मछलियाँ जल के भीतर
सोने में असमर्थ हैं
कबूतर का अपने खोते में लौटना
बाज़-चील-गिद्ध को खलता है
शहर की प्रार्थना सुनकर
बरफ़ का पर्वत पिघलता है
और गाँव डूब जाता है
जहाँ अपना सपना जलता है
और प्रश्नों के पट पर पटकथा चलने लगती है
इस धरती के जीवन की और इस धरती की!
तो क्या
आज घूमने नहीं चलोगे?
घूमना! घू...म...ना!!
घूम तो हम रहें
पर,
कर्ज की कील की नोक पर
रोज़ मर-मर
डर-डर
हम किसान-मजबूर है न!
किसानों का घूमना केवल मेंड़ पर
लिखा है
और मजदूरों का घूमना मजदूरमंडी में
या फिर मकान के मुरेड़ पर
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर में नहीं
वहाँ तो वे जाते हैं जो मोटे हैं
हम तो छोटे हैं
हमारे घूमने का अर्थ है
अपने बच्चों का पेट काटना!
यह क्या इस पृष्ठ पर तो खेल खेलने वालों को
नौकरी देने की चर्चा है
एक क्रिकेटर को सेनापति
एक पहलवान को रेल का अधिकारी
एक हॉकी प्लेयर को इंस्पेक्टर
इस खेल के खिलाड़ी को यह पोस्ट
उस खेल के खिलाड़ी को वह पोस्ट
किसान को केवल खेत
और मजदूर को केवल बेत
वाह रे सरकार!
मित्र!
इस यात्रा में बहुत खर्चा है
मैं नहीं चलूँगा
मेरे जिगर के जेब में सदियों पुरानी
बेगमपुर की चिट्ठी
और रामराज्य का पर्चा है
जिसे आज पढ़ना है
स्वयं को गढ़ना है
सत्ता से शब्द को लड़ना है
लड़ना है लड़ना है लड़ना है...!!
बिना कहे भी जानते हैं शब्द
कि उसकी पीठ पर सूरज
कितना तपता है
कि उसकी कई क्रियाओं की किरणें
दिन-दिन भर
दुखते हुए द्वीप पर कई विशेषण के साथ
गतिशील हैं, अक्सर
उसका अर्थ आकाश छूता हुआ
नज़र आता है
उम्र की ढलान से ऊपर एकदम ऊपर
उम्मीद से ताकने पर
किसी ठूँठ पेड़ पर दो-चार पत्तों का हिलना
भाषा में सम्भावना के सुमन का खिलना है
उसकी नंगी डाल से झूलता हुआ
बुद्ध पूर्णिमा का चाँद
गोया गाय की नाँद में रो रहा है
क्या आप विश्वास करेंगे
खूँटे से खुर की दूरी
हवा में हड़प्पाकालीन हड्डियों के हँसने की मजबूरी है
तत्सम को तदभव में रूपांतरित करने
से पहले जरूरी है
कि कारक की बेचैनी कोई बात हो
जुगनुओं की रात अपनी रात हो
मैं पूरी ताकत के साथ फेंकना चाहता हूँ
दोस्त का दुखड़ा
उस दिशा में उधर
जिधर मुक्ति का मार्ग जाता है
समय स्वयं कोई गीत गाता है
गूँगे स्वर में गूँजहीन तिमिर की तान
इस ज्योति की जान है
बिजलियाँ बारिश के विरुद्ध हैं
आँधी चल रही है
घड़ी की सुई लौट रही है बार-बार
लगातार
अपने बजने के बहाने
दिशा की निश्चित धुरी पर
जहाँ कोई स्याह चेहरा है
चमकती हुई चेतना चट्टान से टकरा रही है
चिनगारियाँ उत्पन्न हो रही हैं
उन्हें जनहित के लिए
संसद की सड़क पर लंबी दूरी तय करनी है
उनको पसंद हैं छंद के द्वंद्व
उनको पसंद हैं पिजड़े में बंद
शेर, भालू व चीता
जर्जर रामायण, महाभारत व गीता
उनमें गहन अग्नि के अधिष्ठान हैं
परंपरा के प्रकाश प्राणवान हैं
उनमें आधुनिक सभ्यता की सुबह का संदेश है
यह कैसा देश है?
कि घूमती संस्कृति के सोच
नोच रहे हैं जीती गाय को
असहाय को, आह! मैं देख रहा हूँ
देखता रहा हूँ
देखता रहूँगा कब तक?
कब तक?
यह मेरा स्वयं से सवाल है दोस्त!
प्रगाढ़ प्रेम परिभ्रमण करता रहेगा जीवन भर
एक आदमी से दूसरे आदमी में
अनवरत-निरंतर
नित्य नींद में सफलता की सीढ़ी
चढ़ रही है मेरी पीढ़ी
मगर
महामारी में मुहावरों की मौत
कवि के लिए चिंता का विषय है
चारों ओर भय है
पर, नीति निर्भय है
ज़हरीली हो रही है हवा
मुस्कुरा रहा है पत्थर
और
ख़ून के अँधेरे में आश्वासन के अक्षर
या यों कहें
कि संकल्प-धर्मा चेतना का लहुलूहान स्वर
कि लय के लश्कर
सड़क पर चलता हुआ आदमी
अपनी छाया में कैद है
कविता में
दिमाग दिल का वैद्य है
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से भीतर
मानवी अंतर्कथाएँ जन्म ले रही हैं
तुम्हारी आँखों में दोस्त
हृदय के घाव हरे-भरे हैं
नींद में निर्भार होने लगी है नज़र
बस अनस्तित्व का समुद्र उमड़ा है
दोस्त, तुम्हारी नसों के अंदर
मैं चाहता हूँ
कि तुम रोशनी ढोता जिस्म सा
जीव के रूप में पूरी रात मेरे साथ रहना
मैं लालसा और घृणा से भर देने वाली चमक से कोसों दूर हूँ
एक संबोधन उपजा है
तुम्हारे लिए सिर्फ़ तुम्हारे लिए
कि तुम
सत्य हो बाकी सब मिथ्या
हे आत्मस्थ विचार!!
©गोलेन्द्र पटेल
(शुक्रवार, 27-11-2020 / कवितांश : 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' से)
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