मणिपुर की घटना पर केंद्रित कविताएँ : गोलेन्द्र पटेल
1).
पके हुए दुःख
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घटनाएँ उत्प्रेरक होती हैं,
जो दुःख की रचनात्मक क्रिया की गति को बढ़ाती हैं
पके हुए दुःख
कला में उस क्षण उतरते हैं
जब कलाकार भीतर से द्रवित होता है!
अमानवीय घटनाएँ
संवेदनशील मनुष्य को झकझोरती हैं
ताकि वह अत्याचार पर मौनव्रत सरकार से सवाल करे
वह ऐसी घटनाओं पर आवाज़ उठाये
जो नफ़रत की राजनीति को जन्म देती हैं
जो मनुष्यता को शर्मसार करती हैं
यह देश के लिए दुखद है
कि राज्य में ऐसी घटनाएँ राजधानी की देन हैं
दुर्नीति-निर्मित हैं
आए दिन ऐसी घटनाओं की ख़बरें देखकर
मन बहुत दुखी है
जन! दुखी मन कल का राज्य कैसे रचे?
राष्ट्र कब रोता है?
क्यों रोता है?
देखो न! सुनो न!
निर्वस्त्र नारियों का चीखना, चिल्लाना, चीत्कारना, चोकरना, चिंघाड़ना, सिसकना
गरियाना, गुर्राना, बर्राना और दर्द की चुप्पी
इस रचना में
राष्ट्र की रूह रो रही है न?
उनका दुःख हमारा दुःख है
हम उनके हैं
वे हमारे
हम उनके दुःख को भाषा के हवाले कर रहे हैं
क्योंकि भाषा से केंद्र की सत्ता तय होती है!
(रचना : 21 जुलाई 2023)
2).
लहूलुहान आत्मा
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वीभत्स वीडियो है
पता नहीं कब से रौंदी जा रही हैं वे?
इस धरती पर
वे जो अपने पेट में तुम्हारा पुरुषार्थ ढोती हैं
और तुम्हारे हिस्से की धूप अपनी पीठ पर
और कंधे पर आसमान
उन्हें कभी लकड़ी समझ कर चूल्हे में जलाया जाता है
तो कभी खेत समझ कर जोता जाता है
तो कभी पत्थर में तब्दील कर दिया जाता है
तो कभी उनकी देह युद्धभूमि होती है
तो कभी वे जुए में हारी जाती हैं
अभी वे ख़ुद की ख़ुदी खोज कर रही हैं
अभी वहाँ उनकी हत्या हुई है
अभी यहाँ उनकी आत्मा लहूलुहान है
अभी वे यौन हिंसा और दरिंदगी के दुर्दांत खेल के ख़िलाफ़
अँधेरे में केवल जलती मशाल हैं
वे अन्याय के प्रति असहिष्णु हैं
उनकी रचनात्मक पीड़ा में उग्रता की गंध है
उनकी आँखों में आग है
उनकी भाषा में टीस है
उनके गीतों की टेक है—
“मर गया देश,
अरे जीवित रह गए तुम!”
(रचना : 22 जुलाई 2023)
[नोट: अंतिम दो पंक्तियाँ मुक्तिबोध की हैं।]
3).
दो हरी पीड़ित पत्तियाँ
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चारों ओर शोर है
सन्नाटा बढ़ता जा रहा है
उफनी हुई नदी की स्याह लहरें
बातें कर रही हैं
आगामी सुनामी पर
जिन पर बोलना ज़रूरी है
वे सब चीज़ें अनुपस्थित हैं
एक नदी जब दीन होकर
रोती है
तो कुछ गाँव, कुछ शहर डूबते हैं
लेकिन एक पत्ती की आँखों से
जब ख़ून के आँसू टपकते हैं
तो पूरा देश डूबता है
और सारे पहाड़ धरती में धँस जाते हैं
जितने भी द्वीप डूबे हैं, देश डूबे हैं
वे सब के सब पत्तियों के आँसू में डूबे हैं
पर, वे दो हरी पत्तियों के आँसू में डूबे नहीं
क्योंकि अब कागज़ की नाव आँसू में गलती नहीं है
भँवर में डूबती नहीं है
वे उसी नाव में सवार हैं
उन्हें तकलीफ़ के तूफ़ान से भय नहीं है
जनतंत्र के जंगल में
दोनों पीड़ित पत्तियाँ
न्याय की गुहार किससे लगायें
पेड़ से?
प्रभु से?
दोनों पत्तियों का दुःख देश का दुःख है
क्योंकि देश पत्ती है!
(रचना : 21 जुलाई 2023)
4).
समाज इतना संवेदनहीन क्यों होता जा रहा है?
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नदियाँ तब उफनती हैं
जब उनके परिसर को लोग हथिया लेते हैं
इतना ही कागज़ पर लिखा था मैंने
कि मछलियों की आँखों से टपकीं
आँसू की बूँदों ने पानी में डूबे हुए सूरज से पूछा,
यह जघन्य, घिनौना, निंदनीय व भयानक अपराध किसकी देन है?
पुरुषों का इतिहास गवाह है
कि स्त्रियाँ धर्म व जाति के नाम पर सबसे अधिक छली गयी हैं
पहाड़ के पत्थर पर शर्म से लहूलुहान स्त्रियों के सजीव चित्र हैं
सुबह-शाम चेतना की चिरई पीड़ा का प्रगीत गाती है
आज फिर कुछ कलियों को रौंदा गया है
पेड़ की पत्तियों से हवा की तरह
भाषा आती है
जंगल की ख़बर से सनी सुगंध संसद में यह सवाल करती है
कि पुरुषप्रधान राजनीति स्त्रियों की इज़्ज़त कब की है!
अमानवीय षडयंत्रकारी घटनाओं के इतिहास में
एकैक अक्षरों के नीचे अनेक स्त्रियों की चीखें दबी हैं
अहिल्या के बलात्कार से लेकर द्रौपदी के चीरहरण तक
और नंगेली के स्तन कटने से लेकर निर्भया कांड तक
इस तरह की तमाम घटनाओं की स्मृति मात्र से भीतर ज्वाला सी धधक उठी है
मन कर रहा है कि फूँक दूँ उन्हें
जिनकी राजनीति स्त्री की देह से होकर गुज़रती है
जिनकी विजययात्रा उसकी योनि में होती है
जिस देश को माता कहा जाता है—भारत माता
जहाँ स्त्रियाँ पूजी जाती हैं
वहाँ आरक्षण की आग में जल रही हैं जातियाँ
उजड़ रही हैं बस्तियाँ
मणिपुर में क्रिस्चन कुकी दो औरतों को नंगा घुमाना
राष्ट्रनायक की आत्मा का मरना है!
घुमाने वालों की ज़मीन मर चुकी है
उनकी माँएँ अपनी कोख को कोस रही हैं
उनकी रूह काँप गयी है
यह सोच कर कि कल कहीं उनके साथ ऐसा न हो जाए!
आख़िर समाज इतना संवेदनहीन क्यों होता जा रहा है?
इस घटना पर जनबुद्धजीवी चुप क्यों हैं?
क्या वे सत्ता के सिंहासन को हिलाने में असमर्थ हैं?
वे अंधे तो नहीं हैं, वे बहरे तो नहीं हैं
फिर वे बोल क्यों नहीं रहे हैं
उनके पक्ष में जिनको उनके साथ की ज़रूरत है
जो कमज़ोर के पक्ष में बोल रहे हैं
उनकी बातें दबा दी जा रही हैं
मगर मज़ेदार बात यह है कि
सवाल करने वाले साहित्य को सत्ता जितनी अधिक दबाती है
वह उतनी अधिक दूरी तय करता है।
(रचना : 21 जुलाई 2023)
5).
मृत मणिपुर
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यह भाषा में स्याह संवेदना रचने का समय है
मणिपुर की मणि गायब है
वह अँधेरे में है
उसकी इन्सानियत मर गयी है
उसका पुर जल रहा है
बर्बर, बलात्कारी व हैवान पुरुषों की भीड़ द्वारा
वहाँ दो स्त्रियों का नग्न परेड कराया गया
लेकिन सब चुप रहे
जो स्वयं को कलंकित कर रहे हैं
वे पूरी पुरुष-जाति को बदनाम कर रहे हैं
मृत मुल्क में न्याय की उम्मीद किससे है?
सरकार से?
जनता से?
(रचना : 21 जुलाई 2023)
6).
न्यायसंगत प्रतिरोध शक्ति
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तुम मसल सकते हो सभी कलियों को
रौंद सकते हो सभी फूलों को
मगर तुम सुगंध को आने से नहीं रोक सकते
यह उन मधुमक्खियों की निजी क्रांति है
जिन्हें बोलने मात्र के लिए सज़ा होती रही है
जिनके पंख कुतरे जा रहे हैं
रंग के चुप रहने का मतलब यह तो नहीं
कि तितलियों के भीतर कोई हलचल नहीं है!
ये मधुमक्खियाँ और तितलियाँ
रस के हक लिए
आभूषण नहीं, औज़ार लैस होना चाहती हैं
ये तुम्हारी जीभ पर अपने डंक से लिखना चाहती हैं
न्यायसंगत प्रतिरोध शक्ति!
(रचना : 21 जुलाई 2023)
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