जनविमुख व्यवस्था के प्रति गहरे असंतोष के कवि हैं संतोष पटेल
साहित्य वह कला है, जो मानव अनुभव, भावनाओं, विचारों और जीवन के विभिन्न पहलुओं को कलात्मक और सृजनात्मक रूप से व्यक्त करने का एक माध्यम है, जो कि सही अर्थों में दर्पण की भूमिका में है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और भाषा उसकी सामाजिकता का मूल आधार है। मनुष्य भाषा का उपयोग करके समाज, संस्कृति और व्यक्तिगत अनुभवों को अभिव्यक्त करता है, क्योंकि भाषा केवल संवाद का साधन नहीं है, बल्कि संस्कृति, सभ्यता और पहचान का भी अभिन्न हिस्सा है। साहित्य के माध्यम से लेखक या कवि अपने विचारों को रचनात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं, जो पाठकों पर मानसिक, भावनात्मक और बौद्धिक प्रभाव डालते हैं। साहित्य न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि समाज की समस्याओं, संघर्षों और मानवीय संवेदनाओं को उजागर करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम भी है। कवि शब्दों के माध्यम से गहन अनुभूतियों और संवेदनाओं को व्यक्त करते हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ० संतोष पटेल जी मूलतः हिंदी और भोजपुरी में लिखते हैं। उनका जन्म बिहार प्रदेश के पश्चिम चंपारण जिला मुख्यालय बेतिया के पुरानी गुदरी स्थित सुप्रसिद्ध भोजपुरी-हिंदी साहित्यकार डॉ० गोरख प्रसाद मस्ताना जी के घर हुआ। श्रीमती चिंता देवी उनकी माताजी हैं। वे हमारे समय के सजग कवि-लेखक हैं। उनकी चर्चित पुस्तकें हैं 'भोर भिनुसार', 'अदहन' (दोनों (भोजपुरी काव्य संग्रह मैथिली भोजपुरी अकादमी, दिल्ली सरकार द्वारा प्रकाशित), 'शब्दों की छाँव में' (हिंदी काव्य संग्रह), 'जारी है लड़ाई' (हिंदी काव्य संकलन), 'नो क्लीन चिट' (हिंदी काव्य संग्रह) आदि।
उनकी रचनाएं हिंदी और भोजपुरी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी रचनाओं में जीवन की सच्चाइयाँ, मानवीय संवेदनाएँ और सामाजिक मुद्दों को सरल और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है। वे अपनी रचनाओं में आम आदमी की भावनाओं और संघर्षों को अभिव्यक्त करते हैं। संतोष पटेल का लेखन समाज में बदलाव की आवश्यकता और मानवता की महत्ता पर जोर देता है। उनकी भाषा लोकोन्मुखी है। उनकी रचनाओं में ग्रामीण परिवेश, सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदनाओं का गहन चित्रण मिलता है। उनके लेखन में शोषण, संघर्ष और उम्मीद की झलक दिखाई देती है, क्योंकि उनमें श्रमिक समाज के संघर्षों के प्रति गहरा अनुराग है, कहीं-कहीं आग का राग भी है! इसलिए उनकी रचनाएं दिल-दिमाग को झकझोरती ही नहीं, बल्कि अंतर्मन को द्रवित भी करती है अर्थात् भावभूमि और मनोभूमि को मानवीय संवेदनाओं से सिंचती हैं। उनकी रचनाएं सहृदय को मैत्री, प्रेम, प्रज्ञा, शील, करुणा, दया की ओर उन्मुख करती हैं।
उनकी सृजनात्मक संसार को देखेंगे, तो आप पायेंगे कि उनकी रचनाओं में महामानव तथागत बुद्ध, गुरु संत रविदास, संत शिरोमणि कबीरदास, संत तुकाराम, भोजपुरी के कालिदास भिखारी ठाकुर, राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले, राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले, ई०वी० रामा स्वामी पेरियार नायकर, संत गाडगे, छत्रपति शाहू जी महराज, विश्वरत्न बोधिसत्व बाबा साहेब डॉ० भीमराव अम्बेडकर, अमर शहीद जगदेव प्रसाद, महामना राम स्वरूप वर्मा और जननायक कर्पूरी ठाकुर से लेकर तमाम बहुजन शुभचिंतकों के स्वर हैं। उनका लेखन जनपक्षधर्मी है। उनकी रचनाओं में सामाजिक विद्रूपताओं से सीधे मुठभेड़ है। उनकी रचनाएं सामाजिक न्याय, पाखंड, रूढ़िवादिता, जातिवाद, अस्पृश्यता, छूआछूत, धर्म-लिंग आधारित भेदभाव का प्रतिपक्ष रचती हैं, सत्ता से सवाल करती हैं, क्योंकि सच्ची रचनाएं मनुष्यता की आवाज़ होती हैं। उनकी रचनाओं में जनविमुख व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष है।
इन दिनों डॉ० संतोष भोजपुरी जनजागरण अभियान और तथागत बुद्ध पर केंद्रित अपनी कविताओं को लेकर चर्चा में हैं। भोजपुरी भाषा को संवैधानिक सम्मान मिले इसके लिए वे सामूहिक प्रयासरत हैं। तथागत बुद्ध के विचारों ने मानवता को सत्य की खोज, आत्मज्ञान और अहिंसा का मार्ग दिखाया है। उनके सिद्धांत आज भी बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा अनुसरण किए जाते हैं और वे जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं। उनके उपदेशों का उद्देश्य हर व्यक्ति को अपनी आत्मा की सच्चाई को जानने और जीवन को शांति, संतुलन और करुणा से जीने की प्रेरणा देना रहा। आप संतोष जी के शब्दों में बुद्ध-दर्शन को समझने के लिये उनकी कुछ कविताएं पढ़ने से पहले उनकी आगामी पंक्तियों पर गौर करें कि "मेरे शब्द तुम्हारे स्वर में/ लगते सभी दुलारे हैं/ जितनी हँसी अधर पर मेरे/रख लो सभी तुम्हारे है।"(संपादकीय: गोलेन्द्र पटेल)
1).
अपनाने के लिए हैं बुद्ध
विडंबना है कि बुद्ध
हो गए हैं लोगों के लिए
सजावट की वस्तु
लेकिन आश्वस्ति यह है कि
अब भी लोगों को वे ही भाते हैं।
आज भी वे उनके यहां भी
दिख जाते हैं
जिन्होंने बुद्ध को अब तक जाना नहीं
उनको अब तक पहचाना नहीं।
पर अच्छा है कि
दुनिया में जो तबाही का मंजर है
हिंसा और हथियार का जो होड़ है
ताकतवरों का गठजोड़ है
उनकी जीत होने से रही।
जीत तो होगी एकदिन
शांति, सद्भाव और प्रेम की ही
दुनिया करेगी याद बुद्ध की बातें
मेत्ता, करुणा, मुदिता
समता, दान, सहनशीलता
तब समझ में आयेगा कि
बुद्ध केवल सजाने के लिए नहीं
अपनाने के लिए हैं।
2).
दीप का महत्व
दीप केवल महाप्रकाश ही नहीं
है दीपक प्रतीक ज्ञान का
विवेक और त्याग का
साधना और ध्यान का
बुद्ध का दीप है अखंडदीप
जलते हैं एक दीप से हजारों दीप
तब बनता है वह रत्नदीप।
दीप मंदिर में जले तो अक्षय जोत
देवस्थान में अक्षय अग्नि
यहूदी में जले तो सवाय
ईसाई में जले में बड़ा दिन
मुस्लिम में शब-ए-बारात।
शास्त्रों ने कहा कि
अंधकार से प्रकाश की ओर चलो
तीनों लोक के अंधेरे का नाश करता है
सूर्य का एक अंश दीप
तभी तो कबीर
अपने घट में बारते हैं दीप
और रैदास ज्ञान का दीपक जलाते हैं
दीप का महत्व सर्वोत्तम कह
कोई दिवाली तो कोई दीपदान मानते हैं।
3).
करुणापूर्ण समर्पण
दृष्टि में हो स्नेह व दया
मुक्त होता घृणा व अंहकार
मुस्कुराता हो मुखमंडल
दूर रहता अनेक विकार
नम्रता से बोलो सबसे
प्रसन्न हो जाता है संसार
आदरभाव का समर्पण
स्वभाव में हो ऐसा दरकार
सच्चे हृदय से बातें करना
व्यवहार हो सबको स्वीकार
आदरपूर्वक स्थान देकर
सम्मान हो सबका अधिकार
स्वागत कर रहे सबका अपने घर
ना हो किसी का तिरस्कार
तथागत ने यही कहा कि
दूसरों को प्रसन्न रखना हो तो
संवेदना से भरा हो संस्कार
करुणापूर्ण समर्पण में ही
मानवता का होता अभिसार।
4).
वत्सा की प्रवज्या
सुनते पढ़ते महाभारत का
'आदि पर्व ' बड़े हुए कि
चली गई थी देवयानी
अपने पति ययाति को छोड़
अपने पिता के घर
केवल इसलिए कि देवयानी को बर्दाश्त नहीं हुआ था
ययाति की बेवफ़ाई।
गार्गी, वाचनक्वी, घोषा
मैत्रेयी को उपनिषद काल में
दिया गया संज्ञा ब्रह्मवादिनी का
लेकिन कात्यायनी को रखा गया
वंचित इस पद से।
ऐसी रही कई स्त्रियां वंचित
थेरीगाथा में भी
दर्ज नहीं हो पाया उनका नाम
ऐसी ही थी एक
स्थिरचित्तवाली स्वतंत्र विचारिका उच्छेदवादिनी भिक्षुणी
है भी पहचान उसकी थेरीगाथा में
"वत्सा" वैशाली की एक भिक्षुणी
गृहस्थ, साधारण सी गृहिणी।
भोजन पकाते हुए उससे
जल गया कड़ाही में साग
मन में भर आया वैराग्य
क्यों अधिक देर तक
भोजन को मिली आग
तो यह बात समझ में आई
अंतर का पट खुल गया
अधिक समय समाधि और कर्म से
जल जाता है द्वेष - राग।
गृहस्थी से मन गया उचट
पति से लेकर मुक्ति
महागौतमी से पाई धर्म दीक्षा
प्रवज्या ग्रहण कर पाई शिक्षा
तथागत को शीश नवाया
अपनी आंतरिक वैराग्य के लिए
बुद्ध से सराहना पाया।
5).
मन की शुद्धि
मन अगुआ है सभी प्रवृतियों का
मन नियंत्रक है समस्त आवृत्तियों का
मन की पूर्ण रिक्ति
रोकती है अंतर्विरोधों की पुनरावृति।
मन की शुद्धता
इसलिए भी आवश्यक है कि
चित्त की समस्त अवस्थाएं
उत्पन्न ही होते हैं मन में
मन प्रधान है चेतनाशीलता के लिए।
मन साफ है तो सुख
रहता है साथ छाया की तरह
यदि मन दूषित है तो दुःख
ऐसे ही पीछा करता है
जैसे बैल के पीछे गाड़ी का पहिया
धम्मपद में उल्लेखित है
यह बात व्याख्यायित है
मन को शुद्धता हेतु प्रशिक्षित करें
मन को शुद्धता में समायोजित करें
मन यदि हो गया शुद्ध हो जाएगा
सम्यक ध्यान मानव पाएगा
अंत:करण, कार्य और वाणी होगा शुद्ध
निश्चित है आप भी होंगे बुद्ध।
6).
सुशांत की साहस
भंते! व्यतीत करना चाहता हूं
अपना चतुर्मास
नगरवधू सोमलता के पास
विनम्रता से भिक्षु सुशांत ने
बुद्ध को बतलाया।
सुनकर बात सुशांत की
तथागत मुस्काये
सच्चा साधक के सब गुण
सुशांत में देख पाये।
दूसरे भिक्षुओं को आपत्ति भारी
हो जाएगा सुशांत
विचलित पथ से अपने
सोमलता की सुंदरता तोड़ देगी
उसके सारे सपने।
फिर भी बुद्ध थे निश्चित
दिया आशीष सुशांत को
जाओ ! सुशांत
करना पूरी अपनी साधना
सहनी पड़ेगी मानसिक यातना।
पहुंचे सुशांत नगरवधू के पास
मन थी एक ही आस
रिझाती रही सोमलता
सुशांत को हर पल
निर्लिप्त था सुशांत
दूर था उसका चित्तमल।
व्यतीत हुए तीन माह
एक के बाद एक
बधाएं आईं अनेक
अडिग रहा सुशांत
अपनी साधना में रहा लीन
सोमलता और दूसरी सुंदरियों से
होकर बेखबर साधना में तल्लीन।
सोमलता को अब उसपर
सहानभूति आई
अब चौथे मास में
सुशांत के साधना में मदद की हाथ बढ़ाई।
चौथा मास निकट था
समय तो विकट था
फिर भी सुशांत मन पर नियंत्रण पाया
कारण था कि वह
संगीत को वह बुद्ध वाणी माना
नृत्य के आलय को देवालय जाना।
इसका हुआ सोमलता पर ऐसा असर
छोड़ छाड़ कर नगरवधू का जीवन बसर
सुशांत के पीछे पीछे मठ की ओर
चल गई
संघ के शरण में आकर
भिक्षुणी में बदल गई।
7).
मध्यम मार्ग
जीवन में ऐसे आते हैं कुछ लोग
जैसे बाढ़ का पानी हो
जलराशि इतनी अत्याधिक कि
सब कुछ अस्त व्यस्त
जीवन भी पस्त
तृप्ति की अधिकता
सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम की तरह होता है
रह नहीं जाता कुछ और
पाने की लालसा।
फिर वे जीवन से जाते हैं ऐसे
लगता है मानो
नदी में कभी पानी था ही नहीं
चारों तरफ रेत ही रेत
कहीं कहीं से पतला सा
बहता जलस्रोत
सब कुछ शांत मानो
वह श्रापित फल्गु नदी हो
जहां हटा कर रेत
ढूंढना पड़ता है पानी।
किसी चीज की अधिकता
या हो उसकी अनुपस्थिति
दोनों ही अर्थों में वह है दुःखदायी
तथागत बुद्ध ने तभी कहा
जीवन जीने के लिए
सर्वोत्तम मार्ग है मध्यम मार्ग।
8).
सब्ब दुःख
बुद्ध ने कहा सब्ब दुःख
नैराश्य में डूबे लोगों ने
घोषित किया उन्हें निराशावादी
बिना अन्य तीन अरिय सत्य को
संज्ञान में लेते हुए।
कभी देखा है सागर में हिम पहाड़
बस दिखने वाला हिस्से का नाम है "सब्ब दुःख"
हिम पर्वत का बाकी तीन हिस्सा
समुद्र में ही पानी के भीतर होता रहता है उत्प्लावित
जिसमें छिपा है सब्ब दुःख का निदान।
लेकिन कवियों ने दुःख को जैसा
देखा वैसा गाया
पर कौन है जो दुःख से पार पाया
"दु:ख ही जीवन की कथा रही"
दुःख ने निराला को जब तोड़ा
तब केदारनाथ ने तो दुःख को ही
कविता की ममता से जोड़ा।
तारा ने दुःख को अंगीकार किया
कहा कि
मैं दुःख से श्रृंगार करूंगी।
दुःख का क्या
वह तो मणिकर्णिका को भी आता है
तब श्रीकांत बोल पड़ते हैं
दुखी मत होना
मणिकर्णिका
दुःख तुम्हें शोभा नहीं देता।
बुद्ध ने दुःख तो स्वीकारा
कवियों ने उसको माना है
दुःख यदि सत्य है
तो सत्य को क्यों झुठलाना है।
9).
भूमि स्पर्श मुद्रा
ऊरवेला का वह विशाल पीपल वृक्ष
समाधिस्थ हैं शाक्यमुनि
गहरी समाधि, गहन तपस्या में।
बधाएं दस दिशाओं से
अनवरत रूप से प्रलोभक 'मार' का
कर चुका है आक्रमण
बोल चुका है धावा
अपनी दसों सेनाओं के साथ।
शामिल हैं जिसमें उसकी तीन पुत्रियाँ
तृष्णा, अरति और राग*
अन्य दूसरे भी हैं हमलावर
असंतोष, भय और शंका
साथ में आते हैं मिथ्या शोक दंभ
अंत में युद्ध में शामिल होता है भूख प्यास ।
तोड़ना है आज गौतम का प्रयास
यही है मार को आस
होता है भयंकर संघर्ष
आखिरकार
होता पराजित है मार
पर उसको विश्वास कहां?
कि मिली संबोधि गौतम को
अब वे कहे जाएंगे बुद्ध।
संशय से भरा मार
पूछ लिया साक्ष्य आखिरकार
सच में मिल गई संबोधि
बुद्ध ने उठाया दाहिना हाथ
निकाली हाथ से मध्यमा ऊंगली
करते हुए स्पर्श भूमि को
माना साक्षी भू को।
वही पीपल वृक्ष कहलाया बोधि वृक्ष
उरुबेला है आज बना बोधगया
जिसके नीचे विराजमान
सम्यक सम्बुद्ध तथागत बुद्ध
भूमि स्पर्श मुद्रा में।
10).
नंदनगढ़ का स्तूप
कहता है कोई मौर्यकालीन गौरव
कोई कहता घनानंद का रहस्यमयी किला
कोई बुद्ध का देसना स्थल
कोई बुद्ध का अस्थि स्थल
कोई कहता बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण से जुड़ा स्थल
स्थानीय लोगों के लिए महत्वहीन
आँख रहते हुए भी हुक्मरानों के
आँखों से ओझल।
बामियान का ग़म है
लेकिन हम कौन से कम हैं?
बुद्ध का यह पवित्र स्थल
बना है आज मवेशियों का चरागाह
नशेड़ियों का गुप्त स्थल
चिलमचियों का अड्डा
दारूबाजों का आरामगाह
बच्चों का क्रीड़ास्थल।
स्तूप की ईंटें भराभरा कर
गिर रहीं है रोज रोज
मानों इतिहास का पन्ना
विनष्ट हो रहा है रोज रोज।
बचा रहा पुष्यमित्र शुंग के दंड से
बचा रहा शशांक के कोप से
बचा रहा बख्तियार के हमले से
लेकिन अब ऐसा लगता है
कि बेकार में ही हुआ इसका उत्खनन
अच्छा था यूं ही पड़ा रहता
जमीन के भीतर
"चत्तारो महाभूतानी" में एक के पास
सदा के लिए।
कविताएं साभार: डॉ० संतोष पटेल के फेसबुक वॉल से
सम्प्रति: सहायक कुलसचिव (असिस्टेंट रजिस्ट्रार), दिल्ली कौशल व उद्यमिता विश्वविद्यालय, दिल्ली सरकार, नई दिल्ली।
सम्पर्क:
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नई दिल्ली-110077
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