Wednesday, 30 July 2025

प्रेमचंद पर केंद्रित 300 दोहे : गोलेन्द्र पटेल

कथा सम्राट प्रेमचंद के व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित 300 दोहे : गोलेन्द्र पटेल 
गोलेन्द्र पटेल कलम के नहीं, बल्कि कुदाल के मज़दूर कवि हैं, इन दिनों वे कर्जों के बोझ तले दबे हुए हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई छूट गई है! बहरहाल, आज प्रेमचंद की जयंती के सुअवसर पर “प्रेमचंदनामा” से उनके 300 दोहे प्रस्तुत हैं। यदि कोई दोहा पसंद आये, तो आप उनके नंबर पर कुछ परिश्रमिक भेज सकते हैं, फिलहाल उनके पास फीस जमा करने के लिए पैसे नहीं हैं। आप गूगल पे या फोन पे कर सकते हैं। ज़्यादा नहीं, सिर्फ़ 700₹।

मोबाइल नंबर: 8429249326


1.

कवि गोलेन्द्र की वाणी में, प्रेमचंद जीवंत।

सत्य, विचार, संघर्ष का, लेखन हो दर्पण॥

2.

जन्म दिवस पर नमन हो, लेखन-शक्ति महान।

जिसने खोली सवर्ण की, नारीवाद की जान॥

 3.

धनपतराय तुम्हें नमन, सत्य-पथिक की चाल।  

कथा-कवच में सत्य के, ढहते झूठ-बबाल॥

4.

विश्वासों के दीप से, चेतन ज्योति जलाय।  

डर की भाषा में बसा, यथार्थों का रुग्णाय॥

5.

फटे जूते पाँव में, चलता रहा समर।  

देह नहीं, हर साँस में, शब्द बने अक्षर॥

6.

सूरा, होरी, गोबरन, धनिया की परती।  

बुधिया की करुणा बसी, मानस में भरती॥

7.

कफ़न, सद्गति, बलिदान, सेवा-सदन विराट।  

ईदगाह में गूँजता, मानवीय संवाद॥

8.

रंगभूमि से गोदान तक, प्रेमाश्रम संजीव।  

प्रेमचंद की लेखनी, गाँव-गली समीप॥

9.

जयसिंह की दृष्टि में, कुर्सी बदले स्वभाव।  

सोफिया-मालती गुँथे, गोविंदी के भाव॥

10.

गद्य तुलसी तुम बने, कहानियों के शेर।  

बलिदानी हर सोच में, शामिल विचार फेर॥

11.

दलितों के दीप हो, गाँवों के इतिहास।  

क्रांति तुम्हारी राह है, न्याय तुम्हारी आस॥

12.

महाजनी चाल को, तुमने दी चुनौती।  

तोड़ मरजादों की बेड़ी, की जग में ज्योति॥

13.

स्नेह-समता न्याय से, जो जीते हर छंद।  

वह रचता है मौन में, परिवर्तन के बंद॥

14.

शब्द बने जो व्रक्ष से, दुख की दोपहरी।  

प्रेमचंद के गीत में, जनमन की गंभीरि॥

15.

जोखू-प्यासा देखता, ठाकुर का वो कुआँ।  

तुमने लिखा सत्य को, आँचल बना धुआँ॥

16.  

सत्-प्रेम के सरोवर में, अरुण-कमल खिले।  

सपनों की सौगंध से, यथार्थों को छिले॥

17. 

प्रेमपंचमी रोज़ हो, हर घर खिले सरोज।  

मानवता के मार्ग पर, हो साहित्य-प्रबोध॥

18. 

हल्कू की ठंडी तना, पूस की रात डरे।  

पर लेखनी प्रेम की, हिम्मत नई भरे॥

19.

लमही से जो उठ रही, जय की चिर धुनि तेज़।  

कहानी की क्यारी में, प्रेमचंद विशेष॥

20.

ऋषि-कथाकार प्रेम हो, शब्दों में संधान।  

साहित्य की साधना में, हो जीवन बलिदान॥

21.

रंगभूमि का सौ बरस, कैसी ये पहचान।

छिपा हुआ जो दीप है, बनता फिर से जान॥

22.

गोदान जैसा नामवर, पीछे डाल चलाय।

पर सूरदास आज भी, संकट में ललकाराय॥

23.

विस्थापन की कथा लिए, यह बहुधा उपदेश।

सुनता इसमें आज का, समाजिक संश्लेष॥

24.

अंग्रेजी आंधी चली, उजड़े गाँव नगर।

नील तंबाकू के लिए, कृषक हुआ बदतर॥

25.

सूरदास अंधा सही, पर भीतर प्रखर दृष्टि।

सत्य आदर्शों हेतु, उसमें रही सगर्व सृष्टि॥

26.

ठाकुर पूछे व्यंग्य से, विपदा है क्या आई।

सूरदास कहि चेतना, आज की बात सुनाई॥

27.

बोल उठे सूरे तभी, सेवा से जीवन धार।

तुम अपने घर में नहीं, करोगे बाहर भार॥

28.

प्रेमचंद को पढ़ सकें, वह सूत्र कहाँ मिलाय।

विवादों के शोर में, असली रूप छुपाय॥

29.

शहर-गाँव का द्वंद हो, स्त्री-मन की बात।

कभी कहें मन से दूर, कभी बाह्य प्रभात॥

30.

सूरदास, गंगी, होरी, जब लेखन में आय।

भूले-भटके लोगों की, नींव जरा डोलाय॥

31.

ब्राह्मण-विरोधी कहें, दलित कहें विरोध।

फिर भी जन का साथ है, यही सत्य निष्कोध॥

32.

गांधी जब गोरखपुर आए, प्रेमचंद बदलाय।

छोड़ी नौकरी तुरत ही, लेखन में रम जाय॥

33.

प्रगतिशील विचार का, नेता कहें उन्हें।

पर फिर भी उस खांचे में, बाँध सकें ना वेन॥

34.

हिंदू-पाठ मिला कहीं, कहीं समाजवाद।

कोई कहे राष्ट्रभक्त, कोई कहे फसाद॥

35.

इतने खांचे बीच में, प्रेमचंद क्यों प्रिय।

क्यों अब भी पाठक कहें, ‘वो तो है हमरीय’॥

36.

परसाई के चित्र में, फटा जूता है खास।

कहें कि जिसने ठोकर दी, जमी हुई हर घास॥

37.

जूता फटा क्यों भला, चलते फटे न जूति।

परसाई बोले तभी, ठोकी जम के भूमि॥

38.

मुक्तिबोध की माँ कहें, दुख वो ही बखान।

जो हमने भोगा वही, कह पाई उसकी जान॥

39.

अंगुलियों के फटे जूते, हवा खायें ठाठ।

प्रसाद संग फोटो में, प्रेमचंद की बात॥

40.

सीधा सादा भेस था, भीतर तीव्र ज्वार।

जन-संघर्षों के लिए, लेखन बना पुकार॥

41.

हिंदी के तुलसी कबीर, जैसे जन के बीच।

वैसे ही प्रिय प्रेमचंद, जिनसे जनता रीझ॥

42.

इसलिए यह पाठ है, प्रेमचंद को जान।

वर्ग-चिन्ह के पार हैं, भीतर से इंसान॥

43.

साहित्य की मशाल वे, राजनीति से तेज।

उनकी लेखनी बनी, जन-चेतन की सेज॥

44.

राजा-सा सम्मान पा, मन में भारी द्वंद।

बोलें तो श्रमवीर से, करें नहीं अनुबंध॥

45.

दया-दृष्टि की छाँव में, दबता रहा कृषक।

इजाफे की धार से, रीता उसका थक॥

46.

धर्म, दया और राज्य का, बँधा हुआ निर्माण।

प्रजा करे जब पूजना, तब करें उत्थान॥

47.

स्वर्गवासी पितृ छवि में, गौरवपूर्ण बखान।

अधिकार की बात पर, हो जाते हैरान॥

48.

ऊँचे सिद्धांतों का, करते हैं बखान।

मालती से प्रेम में, करते खुद अपमान॥

49.

प्रकृति-प्रेम के नाम पर, अस्वीकार सभ्यता।

लोकतंत्र, विज्ञान को, मानें मन की व्यथा॥

50.

वोटों को बतलाएं वे, मरीचिका का रूप।

नारी को लौटाते फिर, जंगल वाला धूप॥

51.

दर्शन भारी है बहुत, आचरण बिलकुल हल्का।

मालती कहती सही, विचार-व्यवहार खल्का॥

52.

मित्र बने रहना भला, न चाहें अधिकार।

प्रेम बिना परवश न हो, यही प्रथम विचार॥

53.

प्रणय-प्रस्ताव को ठुकरा, कहा नया इक पंथ।

साथ-सहेली भाव से, मिलकर जिएं संत॥

54.

दीन-दुखी की करुणा में, दे मन का समाधान।

शब्द नहीं, आचरण में, दिखलाए पहचान॥

55.

धनिया संगिनी बनी, होरी की पतवार।

जहाँ दिखे जब डगमगाए, पकड़े उसका धार॥

56.

होरी यदि चूकता कहीं, भूल करे निज कर्म।

धनिया चेताए उसे, समझाए धरम-धरम॥

57.

झुनिया को घर से निकाल, होरी चला दृढ़ ध्यान।

धनिया रोके प्रेम से, बदल गया विधान॥

58.

भाग्य, धरम, मर्यादा में, सब कुछ है स्वीकार।

झूठे आदर्शों तले, सच करता भी प्यार॥

59.

गाय गई, घर रीता हुआ, भाई था अपराधी।

फिर भी अपना मानकर, निभाए रक्षा साधी॥

60.

होरी की संघर्ष-गाथा, स्वप्नों का अनुराग।

टूटे जीवन में रचा, सामूहिक अनुराग॥

61.

सिद्धांतों के नाम पर, करते कुटिल प्रयोग।

पत्र लिखें, ब्लैकमेल कर, बनते हैं सुत जोग॥

62.

खन्ना बोले अंत में, 'मैंने सब कुछ खोया।

रिश्वत ली, नीति मरी, तब जाकर यह रोया॥'

63.

धर्म-दया की आड़ में, गला काटते लोग।

पाखंडों की भीड़ में, क्या संन्यासी भोग॥

64.

धर्म बना व्यापार जब, गाय बने औजार।

होरी के गोदान से, टूटा वह व्यापार॥

65.

'गोदान' में गाय नहीं, बीस आना का मोल।

गाय अभी भी राह में, अधूरा उसका बोल॥

66.

रूपा ने जो भेज दी, पूरी नहीं व्यवस्था।

पर दिखा दी प्रेम में, आशा की सद्दृश्यता॥

68.

धर्म-जाल में फँस रहे, भोले-भाले लोग।

प्रेमचंद ने व्यंग्य से, की कटुता संजोग॥

69.

गांधी ने खोजा सदा, धर्मों का आधार।

प्रेमचंद ने देख ली, उसमें केवल भार॥

70.

‘गोदान’ में नहीं कही, लेखकीय मनभाव।

पात्र स्वयं के ताप से, गढ़ते कथा प्रभाव॥

71.

राय साहब के वक्तव्य, लगे बहुत सुनाम।

किन्तु उन्हीं पर मेहता ने, कर डाली नाकाम॥

72.

गाँव-नगर के बीच में, दूरी कम थी यार।

राय साहब का भाव यह, दिखलाता आकार॥

73.

दया, उदारता, दिखावटी, पूजित हो अधिकार।

जब तक जनता कह सके, राजा है अवतार॥

74.

कहें विचार उच्चतम, करें व्यवहार भिन्न।

मेहता जैसे पात्र भी, रहते नहीं सुनिश्चित मन॥

75.

दान करें तो भाव वह, नीति से मेल न खाय।

मालती पूछे तब यही—'क्यों यह छल रह जाय?'॥

76.

मालती ने प्रेम को, कहा न उच्च ध्येय।

मित्र बने रहना भला, न हो सकें पर गे॥

77.

होरी के ही रूप में, मिली विचार-ठौर।

जिसका जीवन सत्य था, संकट में भी गौर॥

78.

गाय गई, खेत गया, फिर भी न छोड़ा धर्म।

होरी खड़ा सत्य पर, जब टूटा भी कर्म॥

79.

भाई के अपराध पर, तन-मन कर दे दान।

होरी उसमें हारता, जीत भी है जान॥

80.

बीस आने की थैली से, हो गया गोदान।

गाय न आई फिर कभी, छूट गया सम्मान॥

81.

रूपा गाय लिए चली, आस अभी भी शेष।

प्रेमचंद ने ठेंगा दिखा, पाखंडों को क्लेश॥

82.

प्रकृति-तंत्र के प्रेम में, करते जन-विरोध।

मुक्ति-संग्रामों को कहा, हिंसा, कलह, प्रपंच॥

83.

नर-नारी संबंध में, पशु-जैसा व्यवहार।

मेहता की यह दृष्टि भी, देती है झंकार॥

84.

होरी का संघर्ष है, महाकाव्यिक रूप।

मरे मगर न हारता, संकल्पों का कूप॥

85.

झुनिया, गोबर, धनिया, मंगल हों सहचार।

नई व्यवस्था में रहे, पूरा परिवार॥

86.

वंदन उनको प्रेम से, जिनकी लेखन-धार।

शोषण के प्रतिकार में, बने जनाधार॥

87.

हिंदू राष्ट्र घुसाय दे, अब उनके विचार।

जिनसे डरती थी सदा, पाखंडों की मार॥

88.

जिनके शब्द करुणामय, जिनकी दृष्टि विशाल।

उन पर झूठा थोपते, आज विभाजन-जाल॥

89.

ब्राह्मण-द्रोह न लेखनी, सत्य के संग जंग।

पाखंडों से प्रेमचंद, रहे सदा बेढंग॥

90.

कहा स्वयं उन्होंने यह, घृणा नहीं इंसान।

पाखंडों से घृणा रखो, हो जग का कल्याण॥

91.

धर्मोपजीवी दल बने, कोढ़ सरीखा रोग।

टकेपंथियों से लड़े, थे वे जलते लोग॥

92.

‘महाजनी सभ्यता’ से, किया मुखर संधान।

मानवता के मार्ग पर, बोले सत्य बयान॥

93.

प्रगतिशील लेखन हेतु, हुआ लखनऊ यज्ञ।

जहाँ प्रेमचंद अध्यक्ष, बोलें स्पष्ट पंथ॥

94.

‘हंस’ पत्रिका में छपा, था वह घोषणपत्र।

मंच से बोले: लेखनी, ना हो केवल तंत्र॥

95.

“देशभक्ति की पंक्ति में, साहित्य न पड़े पाँव।

बल्कि बने वह मशाल जो, दे आंदोलन थाम॥”

96.

उर्दू भाषण लिख लिया, बोले प्रेमचंद।

पढ़ा सभा में भाव से, मंत्रमुग्ध हर छंद॥

97.

सज्‍जाद ज़हीर साथ में, सबने की तस्दीक।

रौशनाई लेख से, मिली तथ्य की भीत॥

98.

बनारस में शाख हेतु, प्रेमचंद प्रयास।

गोरखपुर, पटना गए, किया स्वयं प्रकाश॥

99.

अज्ञेय ने बाद में कहा, भाषण था मौखिक।

पर न थे वे सम्मेलन में, तो क्यों कहें लिख?॥

100

चालीस मिनट प्रेम ने, पढ़ा लिखित संवाद।

सुन सब रह गए चुपचाप, छू गई हर बात॥

101.

राजनीति से दूर थे, यह अज्ञेय विचार।

पर प्रेमचंद का सत्य था, जनसंघर्ष अपार॥

102.

रचते भाषण जब हुआ, चेतनता संधान।

क्यों नहीं मानी गई, लेखनी की जान?॥

103.

सत्ता से कुछ लेखनी, पाने लगी प्रसाद।

सत्य से नित छेड़ती, करती शब्द प्रह्लाद॥

104.

‘कलम का सिपाही’ ग्रंथ, करता सत्य उद्घाट।

अब उस ग्रंथ को भी बनाय, झूठों की बारात॥

105.

झूठ चले अब मंच पर, लेकर भगवा राग।

बन गए प्रेमचंद भी, व्हाट्सएप का जाग॥

106.

संघर्षों के शब्द थे, पीड़ा जिनका स्रोत।

उन्हें बना दिया मूक अब, कर डाला विरोध॥

107.

‘हल्दी की गांठों’ से अब, बिकता ज्ञान-विचार।

काव्य नहीं अब बच रहा, केवल झूठ का वार॥

108.

राह दिखाओ प्रेम की, फिर से धार तलवार।

जन-संघर्ष की लेखनी, दे नव दृष्टि-धार॥

109.

रचना में जो क्रांति हो, वह साहित्य धर्म।

जो पाखंडों से लड़े, वही कलम का कर्म॥

110.

साहित्य है वह मशाल, जो करे उजास।

न हो चाटुकारिता, न हो झूठा पास॥

111.

गांधी, नेहरू, अम्बेडकर, जिनसे थे सहमत।

प्रेमचंद का नाम भी, शामिल उस क्रमवत॥

112.

मित्रवर्ग की पीर से, उपजी थी संवेद।

जिससे निकले शब्द जो, करें क्रांति रेद॥

113.

अंधकार में दीप थे, पीड़ित जन की आस।

आज उन्हें ही चुरा रहे, झूठों की प्यास॥

114.

सत्य वही जो आज भी, दे जन को आधार।

नही झुके सत्ता तले, न दे झूठी धार॥

115.

पुनः रचो वह लहर जो, करे अन्याय समाप्त।

प्रेमचंद की लेखनी, बन जाए प्रतिपात्र॥

116.

कलम, करुणा, क्रांति से, जीवन गढ़ते रहे।

उनके लिखे हुए में ही, हम मानवता गहें॥

117.

जग के झूठे रंग में, न बिसरायें मीत।

प्रेमचंद हैं दीप-से, सत्य हेतु गीत॥

118.

आओ फिर से बाँध लें, सच्चाई के बंध।

लेखन हो प्रतिरोध में, जन की हो हर छंद॥

119.

सत्य कहें जो क्रांति से, उसको मान दो।

जो सत्तामद में झुके, उनसे ध्यान लो॥

120.

वामपंथ का खण्डहर भी, देता सीख अनेक।

छद्म विमर्शों में न हो, इतिहासों का क्षय॥

121.

गौरव है वह आदमी, जो सच कहे सटीक।

प्रगतिशील प्रेमचंद का, हो फिर से संगीत॥

122.

झूठ भले जितना कहे, तथ्य रहे मुखर।

कागज़ देंगे हम वहीं, जहाँ न हो प्रपंच॥

123.

लेखक वह जो झुके नहीं, चाहे मिले न मान।

प्रेमचंद उस लोक के, थे सबसे प्रधान॥

124.

पुनः सजाएँ मंच को, सत्य, साहस, दान।

लेखन को आंदोलन दो, दो विचारों जान॥

125.

कवि गोलेन्द्र रच रहे, यह विचार का राग।

चेतना के संग चलो, मत मानो विराग॥

126.

सत्य बचे साहित्य में, क्रांति रहे संज्ञान।

तभी बचें प्रेमचंद और, बचे सृजन विधान॥

127.

प्रेमचंद के नाम पर, झूठा रचें प्रचार।

हिंदू-राष्ट्र घुसाय दे, लिखत-कलम के द्वार॥

128.

जिनसे काँपे पाखंड के, कंगूरे पतवार।

उन्हीं को करने लग पड़े, भगवाधारी सार॥

129.

घृणा नहीं इंसान से, घृणा पाखंडाचार।

धर्म-नक़ाब में जो करे, जनता का संहार॥

130.

ब्राह्मणत्व न धिक्करे, पर करे संधान।

जो पाखंडी ढोंग से, करे राष्ट्र अपमान॥

131.

कहा प्रेमचंद ने यही, पंडा पूजक वर्ग।

कोढ़ हिंदू जात का, चूसे उसका मर्ग॥

132.

न केवल संयोग था, वह सम्मेलन क्षण।

प्रेमचंद की दृष्टि में, था नवयुग का रण॥

133.

लखनऊ अधिवेशन को, किया अध्यक्षत्थान।

प्रगतिशील लेखन किया, जीवन का अभियान॥

134.

‘हंस’ में पहले ही लिखा, घोषणापत्र विचार।

लेखन के नवस्वप्न को, समझे नव-संहार॥

135.

उर्दू में भाषण रचा, सबको मंत्रमुग्ध।

तर्क, भावना, दृष्टि में, शब्द-ध्वनि संयुक्त॥

136.

गठित हुआ संघ जब, खुद गोरखपुर गये।

बनारस में शाख हेतु, लेखकों से कहे॥

137.

अज्ञेय कहें भाषण नहीं, पढ़ा वहाँ पर यार।

लेकिन क्यों, किस हेतु यह, मिथ्या करे प्रचार?॥

138.

क्यों न मानी गई कभी, आंखों देखी बात?

सज्‍जाद ने जो लिख दिया, क्या वह भी है घात?॥

139.

न माने 'कलम का सिपाही', न माने दस्तावेज़।

अब तो कागज़ मांगते, भगवे झूठ फरेब॥

140.

जो भाषण कहता रहा, ‘साहित्य मशाल’।

उसे हटाकर लेखनी, बनती आज दलाल॥

151.

सत्य यही कि प्रेमचंद, थे संघर्षशील।

महाजनी के काल में, शब्द बने शमशीर॥

152.

प्रेमचंद को मत बनाओ, WhatsApp का ज्ञान।

संघर्षों की स्याही से, लिखें न्याय विधान॥

153.

मूल्य-बोध औ चेतना, लेखन में था गूढ़।

साहित्यकार वही सच्चा, जो न झुके, न रूठ॥

154.

आओ फिर से जान लें, वह भाषण, वह सत्य।

झूठ की दीवार को, गिरा बनायें पथ्य॥

155.

मित्रों अब है काल यह, कागज़ फिर से दो।

प्रगतिशील दीप को, सामूहिक नित रो॥

156.

मालती रूपी नारी, बौद्धिकता का जाल।

शरीर-केंद्रित सोच में, सीमित उसका काल॥

157.

ईर्ष्या-द्वेष में डूबी, छिछला उसका भाव।

नारीवाद बनाय रखा, केवल अपना चाव॥

158.

श्रमिक नारी से दूरी, रखती मुँह बिचकाय।

कहती 'कलूटी गंवार', करुणा कभी न आय॥

159.

साहस, श्रम, करुणा लिए, वन में जो बेटी।

बनती रोटी, पकाए पक्षी, दूध गुनगुना देती॥

160.

कुएँ से लाए पानी, जड़ी-बूटी उपहार।

फिर भी उस पर मालती, करती ताना-प्रहार॥

161.

मेहता करते विरोध पर, चुप है आत्मा-राग।

मालती अपनी जाति की, कैसे छोड़ें त्याग?

162.

सद्गति में बाभन रखा, दुखिया सामने।

मंत्र कथा में भगत के सम्मुख चढ्ढा ठाने॥

163.

गोदान की वन-बाला, आदिवासी वीर।

उसे बना कर पात्र ही, किया हृदय में पीर॥

164.

नारीवाद के नाम पर, चलता छल का खेल।

प्रेमचंद ने खोल दी, हर नकली की बेल॥

165.

जाति-वर्ण की ग्रंथि में, जकड़ा भारत देश।

प्रेमचंद ने खोल दी, यथार्थों की रेश॥

166.

गोदान कथा-प्रवाह में, नाभिक सत्य प्रकट।

हिंद समाज की धुरी में, वर्ण-व्यवस्था घट॥

167.

होरी धनिया श्रम करें, जलते अग्नि समान।

उत्पादक दलित-पिछड़े, पर जीवन है त्राण॥

168.

पंडित, ठाकुर, कायस्थ, पटवारी-संहति।

शोषक हैं, पर माने गए, समाज की गरिमा सृजति॥

169.

रायसाहब स्वराज में, जेल गए सौ बार।

गांव में वही कराएं, बेगार और वार॥

170.

तंखा, ओंकार, मेहता, ऊँची जाति प्रतीक।

गांधी का मुख ओढ़कर, करते रहे रतिक॥

171.

पटेश्वरी बेगार में, सिंचाई करवाय।

बस्ती थर-थर कांपती, सत्ता वही चलाय॥

180.

झिंगुरी का खेत बड़ा, दातादीन पुजारी।

सूदी-जमींदारी की, गठजोड़ें लाचारी॥

181.

सिलिया, भोला, होरिया, धनिया धूप सहें।

श्रम से जग को पालते, पर सुख दूर गहें॥

182.

गोदान कहता यही, वर्ण शृंखला जाल।

जो मेहनत करता सदा, वह क्यों रहे बेहाल?

183.

अनुत्पादक जातियां, करें सदा षड्यंत्र।

ढोंग-पाखंड-पाखरी, उन पर पूरा मंत्र॥

184.

मालती हो या राय हों, वर्ग-जाति के ध्वज।

आजादी के बाद भी, नहीं बदलते बज॥

185.

होरी जैसे जन रहे, झूठे धर्म के चूर्ण।

बैल बिके पर स्वप्न में, देखे गोदान पूर्ण॥

186.

जाति-वर्ग की बुनावट, ‘गोदान’ ने खोली।

आंबेडकरी चेतना, इस कृति में भी डोली॥

187.

‘जाति का विनाश’ ज्यों, विमर्शों की धार।

‘गोदान’ भी बहा रहा, वही यथार्थ विचार॥

188.

बेलारी से सेमरी, ग्राम कथा के धूर।

वर्ण-शोषण गाथिका, रची प्रेम की पूर॥

189.

जन-कवि की यह दृष्टि में, चेतनता की आग।

सत्ता के हर कोर में, जाति की लगी झाग॥

190.

जाति-वर्ग गठजोड़ से, देश बनेगा स्वर्ण?

या फिर दलितों-पिछड़ों, को ही मिलेगा मर्ण?

191.

उपन्यास महाकाव्य है, जब बोले इतिहास।

तब समझो गोदान भी, सत्य गूढ़ प्रकाश॥

192.

गोदान में प्रेमचंद ने, दी वह दृष्टि उदार।

जो न केवल कथा कहे, खोले यथार्थ द्वार॥

193.

प्रेमचंद गुज़रे ज़मां, फिर भी हैं वे साथ।

उनकी लेखनी बनी, समाज-चिंतन बात॥

194.

न थमा समय का प्रवाह, न ही बढ़ा विकास।

उनकी अब भी प्रासंगिकता, देती है उदास॥

195.

काशी-बनारस पास था, गांव लमही ठौर।

वहां न बौद्धिक दृष्टि थी, न परिवर्तन भोर॥

196.

कर्मकांड की धुंध में, था समाज ठिठकाय।

प्रेमचंद ने देखकर, शब्दों में लिख जाय॥

197.

कबीर, तुलसी थे विचार, जिनसे युग था तेज।

प्रेमचंद ने भी रचा, चिंतन का सन्देश॥

198.

ना तो केवल राष्ट्र के, वे वाहक थे भाई।

किसान, दलित, मजदूर ही, उनकी लेखी छाई॥

199.

ना गांधी से ग्रस्त थे, ना ही नेहरू-भीत।

सत्य खोजते वर्ग में, ना करते थे प्रीत॥

200.

न्याय नहीं जो दे सके, वह राष्ट्र कैसा हो।

स्वतंत्रता के हेतु को, वह लिखते बिन मोह॥

201.

बोल्शेविक से मर्म ले, चौरी से उद्वेल।

मन-मन में सामाजिकता, भरते गए प्रेमेल॥

202.

ब्राह्मणवाद, सामंतता, उनके दो थे शत्रु।

उन पर शब्दों के प्रहार, करते प्रेम निष्कपट॥

203.

'ठाकुर का कुआँ' कथा, 'सवा सेर' संवाद।

‘सद्गति’ से फूटता, वर्णशोष का नाद॥

204.

ब्राह्मणों का पाखंड जो, समाज को झुलसाय।

प्रेमचंद ने उस तरह, साहस से दिखलाय॥

205.

कहते थे, न ब्राह्मण वह, जो लूटे विश्वास।

सेवा-त्यागी जो रहे, वह ब्राह्मण इतिहास॥

206.

तुलसी पर भी कह दिया, पढ़ा नहीं जस मान।

आस्था के मोह में, डूबे नहीं श्रीमान॥

207.

छायावाद जब मौन था, राष्ट्रवाद का शोर।

प्रेमचंद तब खोजते, वर्ण-श्रम का छोर॥

208.

कहते थे, बिना समाज बदले न हो आज़ाद।

राजनीति बिन न्याय के, केवल खोखलाद॥

209.

उनका हर संपादकीय, करता दृष्टि उजास।

दलित, गरीब, किसान की, रखता था बात खास॥

210.

आंबेडकर, नेहरू सभी, उनसे थे सम्बंध।

प्रेमचंद के चिंतन में, दृष्टि और विवेक बंध॥

211.

गांधीवाद नहीं उन्हें, पूरी तरह रुचाय।

नेहरूवादी सोच से, कुछ साम्य झलकाय॥

212.

हंस-पत्रिका के स्वर में, बहता न्याय-प्रवाह।

सच की बातें, श्रमजन की, रचते साहित्य-राह॥

213.

प्रेमचंद थे धन्यजन, खाते थे बैंकों में।

203, चार हजार भी, जमा दिखे अंकन में॥

214.

बम्बई से चेक दे, फिराक का ऋण चुकाय।

प्रेस चलाने हेतु भी, वर्मा को धन भिजवाय॥

215.

धन से था संबंध पर, न था दिखावा गर्व।

उनका जीवन लोक में, था सेवा का पर्व॥

216.

शैलेश जैदी ने लिखा, धनी थे श्रीमान।

पर न जानें कौन हैं, जो कहते निर्धन जान॥

217.

लमही गया दो बार मैं, देखा जीर्ण मकान।

टपकी छत, टूटी ज़मीं, बिखरा था सम्मान॥

218.

फिर देखा कुछ वर्ष में, रंगरोगन साफ।

125वीं जयन्ति पर, सरकार ने दिया लाफ़॥

219.

अतिथि भवन सामने, प्रेक्षागृह भी साथ।

बीएचयू और प्रशासन के, जिम्मे उसका बात॥

220.

पर साहित्य नहीं वहाँ, न पुस्तकें उपलब्ध।

प्रेक्षागृह में मौन है, भावनाओं का रंध॥

221.

एक सज्जन प्रेम में, करते सेवा काम।

मानदेय न पास है, फिर भी श्रद्धा थाम॥

222.

आज ज़रूरत इस घड़ी, उठे वही आवाज़।

प्रेमचंद के सोच से, हटे सांप्रदायिक राज॥

223.

हिंदुत्व के प्रतिविम्ब में, हो उनका प्रतिबिम्ब।

उनके शब्द उठायें हम, जैसा उनका निबंध॥

224.

न छेड़ें एजेंडा कभी, जो गोयनका लाय।

पाँचजन्य की चाल में, प्रगतिवादी न जाय॥

225.

प्रेमचंद की दृष्टि में, वर्ग-धर्म थे द्वंद्व।

सत्यनिष्ठता में रहा, लेखन का अनुबंध॥

226.

उनके चिंतन पर रखें, हम आलोचना न्याय।

कृपया न बनें आज हम, एजेंडावादी दाय॥

227.

ग़रीबी को गौरव कहो, अपमानित जनधार।

सपनों से भी दूर है, जनता का संसार॥

228.

प्रेमचंद का जो रहा, वह घर आज महान।

हम जैसे बहुजन लिए, अब भी स्वप्न-स्थान॥

229.

छत पक्की, बैठक बड़ी, आँगन, द्वार, उबाल।

हममें कितनों को मिले, जीवन भर ये हाल?॥

230.

संघर्ष था उनका भी, पर था वर्ग विशेष।

मध्यवर्ग के दुःख से, ना बहुजन का क्लेश॥

231.

क्यों बुनकर के पुत्र को, कहें प्रेम समकक्ष?

जिसने देखा झोंपड़ी, पेट कटे जो पक्ष॥

232.

तथ्य यही, कह दो इसे, ना हो इसमें डर।

प्रेमचंद का कष्ट भी, था सीमित भीतर॥

233.

झोंपड़पट्टी की दशा, उनसे दूर बहुत।

गरीबों के स्वप्न में, न वह द्वार, न छत॥

234.

सम्मान हो लेखनी को, पर हो सत्य उदघाट।

कष्ट, गरीबी, संघर्ष – न हों शब्दों के खेल मात्र॥

235.

प्रेमचंद जयंती समय, चेतकाला-धाम।

हिंदी की संवेदना, संस्कृति का प्रणाम॥

236.

प्रेमचंद पर सोचना, खुद को जाननहार।

हिंदी की सच्चाइयों, से मिलती पुकार॥

237.

उनके रचे साहित्य में, हिंदी का संवाद।

कमियाँ, ताक़तें सभी, मिलतीं हैं आधार॥

238.

हाशिये का व्याख्य है, प्रेमचंद का व्रत।

राष्ट्र बने जब साथ में, दलित, किसान, स्त्रत॥

239.

संवादों को तोड़कर, जब–जब हुआ प्रयास।

भारत की उस चुप गली, ने लिख दिया इतिहास॥

240.

धर्म रहें पर छल नहीं, वैश्विक हो विस्तार।

पर हो सीमित स्वार्थ में, न स्वेच्छाचार॥

241.

हर उपन्यास प्रेम का, जन संघर्ष समेट।

आज लड़ाई चिह्न की, करती जनता रेट॥

242.

धर्म-जाति-प्रांत के, बंटे हुए हैं द्वार।

सच की कोई बात हो, दिखती नहीं पुकार॥

243.

जब तक जनता बाँटती, अपनी शक्ति व्यर्थ।

तब तक झूठ प्रतीकों का, करता जीत अर्थ॥

244.

हामिद, गोबर, मिठुवा, थे आंगन में साथ।

कथा-साहित्य छोड़कर, चल पड़ा किस पथ-राथ?॥

245.

बचपन जैसे खो गया, हिंदी के मैदान।

नई कहानी ढूँढती, बचपन की पहचान॥

246.

बेटी कोई वस्तु है? क्यों हो दान-जुहार?

कन्यादान प्रथा करे, नारी का तिरस्कार॥

247.

पत्नी जब कन्यादान कर, रीति निभा रही।

मूर्तिमान बन प्रेमचंद, मौन वेदना सहीं॥

248.

बेटी अब चुप क्यों रहे, मुखर करे उद्घोष।

स्त्री विमर्श की बात हो, दहेज रहे न दोष॥

249.

प्रेमचंद जयंती बने, नवसंवाद प्रतीक।

हिंदी की चेतावनी, हो अब और समीप॥

250.

हमसे पीछे छूट गए, सब अपने ही लोग।

देख न पाते मुड़ कभी, रिश्तों के संजोग॥

251.

ना कॉलेज की देहरी, ना ही ज्ञान की छांव।

विश्वविद्यालय दूर थे, सपनों से भी दाव॥

252.

प्रोफेसर न बन सके, न ही जज-डीएम।

पत्रकार, ठेकेदार से, उनका क्या परचम॥

253.

मंत्री-संत्री दूर थे, दलाली भी दूर।

कविता की माला न थी, शब्दों की थी भूर॥

254.

रोटी की खातिर सदा, तन-मन देते दांव।

मजदूरी में बदलते, जीवन का हर पांव॥

255.

बाल-बच्चों की खातिर, करते रोज जतन।

छांव न पाए पसीने, फिर भी करें रटन॥

256.

खून पसीना बहे जो, वो ही सुनें गाल।

अबे-तबे की मार में, टूटा उनका भाल॥

257.

हम तो सब में व्यस्त हैं, जीवन में मस्त।

वे सवाल बन रह गए, चुप रहते शरमस्त॥

258.

एक नजर भी फेर लो, उनकी ओर कबीर।

जो हैं भारत की धरा, इंडिया से ही हीन॥

259.

ईद पड़ी है आज फिर, याद 'ईदगाह' आई।

हामिद का चिमटा कहे, व्यथा पुरानी छाई॥

260.

प्रेमचंद का लेख है, मन की भीत सजाय।

जाति-धर्म की भीत से, कथा बहुत ऊपर जाय॥

261.

मेला बिखरे भाव का, चीज़ें चकाचौंध।

हामिद लाया जो घर, उसमें छुपा विरोध॥

262.

खिलौने सब छोड़कर, चिमटा जब वो लाया।

बाज़ारवाद पर चोट की, विवेक दीप जलाया॥

263.

'जरूरी' की बात है, न 'प्रलोभन' का मोह।

हामिद ने दिखला दिया, क्या सही क्या द्रोह॥

264.

अमीना की आंख में, आँसू बनकर प्यार।

चिमटा नहीं वस्तु है, भावों का उपहार॥

265.

त्योहारों के नाम पर, मोल-भाव का दौर।

दिल नहीं बस जेब है, बजता वहीं सौर॥

266.

धर्म हुआ संकीर्ण अब, राजनीति की ढाल।

बाज़ार बन बैठा है, हर उत्सव का काल॥

267.

अक्षय तृतीया आज है, शुभ का यह आधार।

पाँचजन्य की जगह पर, मन का हो उभार॥

268.

पात्र जो था सूर्य से, पांडव को जो प्राप्त।

हृदय मनुज का वैसा ही, अनंत भाव संपात॥

269.

पर्व बने व्यापार अब, खोलो बस बटुआ।

धार पकड़ जो दिल की हो, वही सच्चा जुआ॥

270.

हृदय मनुज का अक्षय है, टूटे लाख प्रयास।

विवेक-वृक्ष सदा हरा, यही मनुज की आस॥

271.

विकास की इस दौड़ में, पीछे जो हैं छूट।

उन पर भी मुस्कान दो, जिनसे जीवन रूट॥

272.

भोला हलवाहा खेत में, जीवन जैसे जोत।

'अलग्योझा' की पीर है, जिसमें करुणा रोत॥

273.

तलसी की सुभागिनी, दलित वेदना धार।

हाकिम की कुत्सित नज़र, उजड़े सपनों सार॥

274.

झूरी काछी भाव से, बैलों संग जुड़ जाय।

'दो बैलों की कथा' में, मानवता उपजाय॥

275.

झींगुर महतो बुद्धिधर, गड़ेरिया बुद्धू साथ।

‘मुक्ति-मार्ग’ में खोजते, श्रमिक जन की बात॥

276.

रामधन अहीर सदा, सेवा में संलग्न।

‘बाबाजी का भोग’ में, ढोंगी धर्म चितंग॥

277.

शंकर कुरमी का हृदय, भूख से न थमता।

‘सवा सेर गेहूँ’ कथा, यथार्थ से जमता॥

278.

सुजान महतो भक्त था, सच्ची श्रद्धा नाथ।

‘सजान भगत’ प्रेम की, बुनता मर्मिल बात॥

279.

‘पंच परमेश्वर’ कहे, अलगू की पहचान।

चौधरी पर न्याय जब, उतरत जाति वितान॥

280.

‘पूस की रात’ मौन है, हल्कू की संज्ञा।

जाति नहीं बतलाई पर, दर्द कहे हर व्यंजना॥

281.

शिवरानी थीं संगिनी, जीवन संग संघर्ष।

प्रेमचंद के साथ में, सृजन रहा उत्कर्ष॥

282.

श्रीपत, अमृत पुत्र थे, लेखन में अनुराग।

कमला जैसी पुत्रियाँ, घर की रहीं सुहाग॥

283.

घर-परिवार समर्पित, साहित्यिक परिवेश।

प्रेमचंद के भाव में, संस्कारों का लेश॥

284.

लहरतारा से उठे, लहमी तक आलोक।

कबिरा गुरु प्रेमचंद के, शब्द बने संजोक॥

285.

कबिरा ज्यों ज्वाला जले, भेद मिटाए जात।

प्रेमचंद ने शब्द से, की जनमन की बात॥

286.

साधु और लेखक जुड़े, भाषा बनी पुलिन।

गुरु शिष्य के रूप में, जल बिन जैसे नील॥

287.

लहरतारा की लहर, पहुँची लहमी द्वार।

साहित्य की नाव में, बहे कबीर विचार॥

288.

जनमन का जो ताप था, दोनों ने ही तापा।

एक तुलसी बोल में, दूजा कथा-कथापा॥

289.

कबिरा बोला सत्य को, प्रेमचंद ने गाढ़ा।

गोलेन्द्र ने वक्त से, जोड़ा जनसंवादा॥

290.

तीन धुरी विचार की, ज्यों दीपक के बाती।

जनमन के अंधियार में, जगी जनों की भाती॥

291.

ध्रुव तारे से मिल गई, कलमों की हर चाल।

कबीर-प्रेमचंद का, सत्य बुनें संजाल॥

292.

कबिरा ज्यों ध्रुव सत्य हैं, प्रेमचंद प्रकाश।

गोलेन्द्र स्वर जनमन का, तीनों एक विकास॥

293.

वाणी में कबिरा बसे, कलम प्रेम की धार।

गोलेन्द्र संकल्प बन, करें विवेक संचार॥

294.

लहरतारा की ज्योति से, लमही में उजास।

खजूरगाँव शब्द बन, बोले जन विश्वास॥

295.

प्रेमचंद की बात में, श्रम का दुख-संवाद,

प्रसाद भाव में झंकृत हुआ, गोलेन्द्र की आवाज।

296.

प्रसाद की कविता थिरकती, मानस-सरोवर-धार,

गोलेन्द्र की लेखनी में, फिर से जागे तार।

297.

प्रेमचंद की लेखनी, बोले जन के बोल,

प्रसाद रचे सपनों सरीखे, गोलेन्द्र की ढोल।

298.

कथा, काव्य और क्रांति के, ये तीनों आधार,

हिंदी भू पर फूल-से, फैले तीनों सार।

299.

मंद हुआ है विवेक पर, बुझा नहीं है दीप।

गोलेन्द्र कहें– नाश हो, जब तक है यह चीप॥

300.

गोलेन्द्र की लेखनी, बोले सधा विचार।

साहित्य की साँझ में, हो उजियारा सार॥

---

संपर्क: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


Monday, 28 July 2025

मैं एक धनुष हूँ : गोलेन्द्र पटेल

 


मैं एक धनुष हूँ

मैं किसी के हाथों में पिनाक कहलाया
तो किसी के हाथों में कोदंड
तो किसी के हाथों में शार्ङ्ग
तो किसी के हाथों में पौलत्स्य
तो किसी के हाथों में गाण्डीव
तो किसी के हाथों में विजय
तो किसी के हाथों में पुष्पक
तो किसी के हाथों में गांधरी
तो किसी के हाथों में वायव्य
मैं एक धनुष हूँ।

—गोलेन्द्र पटेल



कविता: मैं एक धनुष हूँ
कवि: गोलेन्द्र पटेल
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🌿 सप्रसंग व्याख्या:

यह कविता समकालीन कवि गोलेन्द्र पटेल की एक अत्यंत बोधगम्य और प्रतीकात्मक रचना है, जिसमें ‘धनुष’ को केंद्रबिंदु बनाकर इतिहास, पौराणिकता और मानवीय भूमिका का विश्लेषण किया गया है। इस कविता में कवि ने विभिन्न योद्धाओं और देवताओं के हाथों में आए धनुषों के नाम के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की है कि कोई भी अस्त्र या शक्ति अपने आप में न तो शुभ है न अशुभ — उसका स्वरूप उसके प्रयोगकर्ता के संकल्प, दृष्टिकोण और लक्ष्य से तय होता है।
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🔱 प्रसंग:

मानव इतिहास और पुराणों में धनुष न केवल युद्ध का उपकरण रहा है, बल्कि न्याय, धर्म, अहंकार, ज्ञान और कर्तव्य का प्रतीक भी बना है। शिव, राम, कृष्ण, रावण, कर्ण, अर्जुन, भीष्म, लक्ष्मण, मेघनाद जैसे महापुरुषों के हाथों में यह धनुष भिन्न-भिन्न नामों से जाना गया। कवि इसी ऐतिहासिक एवं प्रतीकात्मक विविधता को एक सूत्र में बांधता है — "मैं एक धनुष हूँ।"
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🧠 पंक्ति-दर-पंक्ति व्याख्या:

> "मैं किसी के हाथों में पिनाक कहलाया"
— जब मैं शिव के हाथ में था, मेरा नाम पिनाक पड़ा। मैं संहार और समाधि का प्रतीक बना। मेरे द्वारा त्रिपुरासुर का विनाश हुआ।

> "तो किसी के हाथों में कोदंड"
— जब मैं राम के हाथ में था, मैं कोदंड कहलाया। मैं धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश का माध्यम बना। राम ने मेरे सहारे अहंकारी रावण को हराया।

> "तो किसी के हाथों में शार्ङ्ग"
— जब मैं विष्णु या कृष्ण के हाथ में था, मैं शार्ङ्ग कहलाया। यह सृष्टि के पालन और संतुलन का प्रतीक बना। कृष्ण ने अधर्म के खिलाफ अर्जुन को इसी भाव से प्रेरित किया।

> "तो किसी के हाथों में पौलत्स्य"
— रावण के हाथ में जब मैं था, मेरा नाम पौलत्स्य पड़ा। मैं शक्ति, अहंकार और भोग के साथ जुड़ा और अंततः विनाश का कारण बना।

> "तो किसी के हाथों में गाण्डीव"
— अर्जुन के हाथ में मैं गाण्डीव था। मैंने धर्मयुद्ध में न्याय की स्थापना के लिए बाण छोड़े। मैं युद्ध में नैतिकता का प्रतीक बना।

> "तो किसी के हाथों में विजय"
— जब मैं कर्ण, परशुराम या शत्रुघ्न के पास गया, तो मैं विजय बना। मैं वीरता, तपस्या और संघर्ष का प्रतिनिधि बना।

> "तो किसी के हाथों में पुष्पक"
— मेघनाद के हाथों में मैं पुष्पक था। यहाँ मैं रावण की संतति में युद्ध कौशल और दिव्यता का उदाहरण बना, किंतु अंततः पराजय का साक्षी भी।

> "तो किसी के हाथों में गांधरी"
— लक्ष्मण के हाथ में मैं गांधरी था। मैं राम की छाया बनकर धर्म की रक्षा के लिए समर्पित रहा।

> "तो किसी के हाथों में वायव्य"
— जब भीष्म पितामह ने मुझे उठाया, तो मैं वायव्य कहलाया। मैं संयम, त्याग और शौर्य का प्रतीक बन गया।

> "मैं एक धनुष हूँ।"
— यह अंतिम पंक्ति आत्मचिंतन है। मैं एक साधन हूँ, जो केवल अपने प्रयोगकर्ता के इरादों और मूल्य-बोध से परिभाषित होता हूँ। न मैं स्वयं शुभ हूँ, न अशुभ — मैं हूँ एक माध्यम, एक साक्षी।

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🪶 मुख्य संदेश:

शक्ति तटस्थ होती है।

कर्म और संकल्प उसे दिशा देते हैं।

एक ही वस्तु (धनुष) जब-जब भिन्न हाथों में गई, उसका स्वरूप और उद्देश्य बदल गया।

कवि आत्मबिंब की तरह स्वयं को भी 'धनुष' मानता है, यह दर्शाते हुए कि हम सब समाज और समय के हाथों में एक माध्यम हैं।
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🧭 निष्कर्ष:

यह कविता केवल पौराणिक नामों की सूची नहीं है, बल्कि यह सभ्यता की चेतना, कर्तव्य और नैतिकता पर आधारित गहन आत्मचिंतन है। गोलेन्द्र पटेल की यह रचना मानवता और शक्ति के उपयोग के प्रश्न को अत्यंत संवेदनशीलता से उठाती है।

कविता की यह व्याख्या न केवल साहित्यिक दृष्टि से, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरणात्मक है।
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रेडियो पर पाठ्य रूपांतरण (एक):-

मैं एक धनुष हूँ...

मैं किसी के हाथों में पिनाक कहलाया...
शिव के संहार में मेरे डोर से ब्रह्मांड कांप उठता था...

मैं किसी के हाथों में कोदंड था...
राम के हाथों धर्म की लकीर बन गया...

मैं शार्ङ्ग बना, जब विष्णु ने मुझे थामा...
सृष्टि के संतुलन की एक मौन रेखा बन गया मैं...

मैं पौलत्स्य कहलाया...
जब रावण ने मुझे उठाया — मैं शक्ति का अहंकार बन गया...

मैं गाण्डीव था अर्जुन के हाथों में...
धर्मयुद्ध की नैतिकता का अनमोल साक्ष्य...

मैं विजय बना —
कभी कर्ण के हाथों, कभी परशुराम के,
तो कभी शत्रुघ्न के...
मैं वीरता, क्रोध और तपस्या का मिश्रण था...

मैं पुष्पक बना, जब मेघनाद ने मुझे थामा...
मैं देवास्त्रों की गरिमा और राक्षसी जिद का संगम बन गया...

मैं गांधरी था —
लक्ष्मण के कंधे पर
मर्यादा की दूसरी परछाई...

मैं वायव्य बना भीष्म के करों में...
त्याग, प्रतिज्ञा और अनुशासन की तेज धार...

[थोड़ी देर ठहराव के साथ...]

मैं एक धनुष हूँ...

न मैं शिव हूँ,
न राम...
न रावण...
न अर्जुन...

मैं तो बस एक साधन हूँ...

जिसके हाथ गया...
उसके इरादों का प्रतिबिंब बन गया...

मैं एक धनुष हूँ...

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रेडियो पर पाठ्य रूपांतरण (दो):-

मैं एक धनुष हूँ...
मैं किसी के हाथों में पिनाक कहलाया...
शिव के संहार में मेरे डोर से ब्रह्मांड कांप उठता था...
मैं किसी के हाथों में कोदंड था...
राम के हाथों धर्म की लकीर बन गया...
मैं शार्ङ्ग बना, जब विष्णु ने मुझे थामा...
सृष्टि के संतुलन की एक मौन रेखा बन गया मैं...
मैं पौलत्स्य कहलाया...
जब रावण ने मुझे उठाया — मैं शक्ति का अहंकार बन गया...
मैं गाण्डीव था अर्जुन के हाथों में...
धर्मयुद्ध की नैतिकता का अनमोल साक्ष्य...
मैं विजय बना — कभी कर्ण के हाथों, कभी परशुराम के, तो कभी शत्रुघ्न के...
मैं वीरता, क्रोध और तपस्या का मिश्रण था...
मैं पुष्पक बना, जब मेघनाद ने मुझे थामा...
मैं देवास्त्रों की गरिमा और राक्षसी जिद का संगम बन गया...
मैं गांधरी था — लक्ष्मण के कंधे पर मर्यादा की दूसरी परछाई...
मैं वायव्य बना भीष्म के करों में...
त्याग, प्रतिज्ञा और अनुशासन की तेज धार...
मैं एक धनुष हूँ...
न मैं शिव हूँ, न राम... न रावण... न अर्जुन...
मैं तो बस एक साधन हूँ...
जिसके हाथ गया...
उसके इरादों का प्रतिबिंब बन गया...
मैं एक धनुष हूँ...


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विशेष:-

1. शिव के धनुष का नाम है - पिनाक

2. विष्णु के धनुष का नाम है - शार्ङ्ग

3. राम के धनुष का नाम है - कोदंड

4. रावण के धनुष का नाम है - पौलत्स्य

5. कर्ण के धनुष का नाम है - विजय

6. अर्जुन के धनुष का नाम है - गाण्डीव

7. भीष्म पितामह के धनुष का नाम है - वायव्य

8. मेघनाद के धनुष का नाम है - पुष्पक

9. लक्ष्मण के धनुष का नाम है - गांधरी

10. द्रोणाचार्य के धनुष का नाम है - अंगिरस

11. भरत के धनुष का नाम है - पिनाक 

12. शत्रुघ्न के धनुष का नाम है - विजय

13. एकलव्य के धनुष का नाम है - गोलेन्द्र

14. परशुराम के धनुष का नाम है - विजय

15. कृष्ण के धनुष का नाम है - शारंग


नोट: धनुष शोषित वर्ग की सामूहिक शक्ति का प्रतीक है। इस संदर्भार्थ में ‘मैं एक धनुष हूँ’ कविता की दूसरी व्याख्या की जा सकती है।

संपर्क: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

Saturday, 26 July 2025

बहुजन जागरण चालीसा : नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' || टीका-टिप्पणी : गोलेन्द्र पटेल


_*बहुजन जागरण चालीसा : नरेन्द्र सोनकर*_

01.

*❝ कहें गर्व-अधिकार से,नारी दलित यतीम।*

नाम नहीं नारा नहीं, धम्म-दीप हैं भीम।। ❞

02.

❝ जन्म हुआ रे भीम का,खुशी महल-खपरैल।

धम्म-घोष है न्याय का, तिथि चौदह अप्रैल।। ❞

03.

❝ समता औ' सम्मान ही, संविधान की थीम।

सृजन किए अंबेडकर,बोलो जय जय भीम।। ❞

04.

❝ शिक्षित बनो संघर्ष करो, रहो संगठित और।

चलो बुद्ध के राह पर, बनो राष्ट्र-सिरमौर।। ❞

05.

❝ थी मानवता के लिए , मनु की नीति अफीम।

नष्ट किए अंबेडकर, बोलो जय जय भीम।।

06.

❝ जनमानस कल्याण ही, है जिसका अस्तित्व।

माने उसके ज्ञान का , लोहा सारा विश्व।। ❞

07.

❝ बाईस प्रतिज्ञा भली, करे जगत कल्याण।

हैं अंबेडकरवाद की, मूल मंत्र औ' प्राण।। ❞

08.

❝ बाभन बनिया वैश्य क्या,क्या कुर्मी कुम्हार।

दुश्मन से लोहा लिये, पासी खटिक चमार।।❞

09.

❝ मनु का ब्राह्मणवाद तो,जल-भुन हुआ अधीर।

व्यासपीठ पर बैठ ज्यों, बाँचा कथा अहीर।।❞

10.

❝ गला काटकर लाश पर, चढ़ा रहे जो फूल।

खत्म करो बनने नहीं, पाये ये विष-मूल।। ❞

11.

❝ जाति-धर्म के नाम पर, छुआछूत का रोग।

नमक छिड़कते घाव पर,सदा मज़हबी लोग।। ❞

12.

❝ बाँट चलो हर दर्द को, साझा कर उम्मीद।

साथ मनाएँ बैठकर, मिलजुल होली-ईद।। ❞

13.

❝ क्या क्रिसमस क्या लोहड़ी,क्या होली क्या ईद।

जाति निगलती आ रही, समता की उम्मीद।।❞

14.

❝ क्या रिश्ता क्या बन्धुता, जाति गले की फाँस।

घुट-घुट कर अब जी रही,मानवता हर साँस।।❞

15.

❝ पूज रहे पाथर यहाँ, पाथर - दिल इंसान।

जीव-जगत पाथर समझ, पाथर को भगवान।।❞

16.

❝ शिक्षा है वो शेरनी, शब्द-अक्षर वो दूध।

पिये जो जितना ज्यादा,लंबा टिके वजूद।।❞

17.

❝ तिल-तिल मरता रोज़ है,भूखा नंगा जान।

जाति नहीं ये गोह है, चबा रही इंसान।। ❞

18.

❝ जिस दिन सच्चा आप भी, पढ़ लेंगे इतिहास।

हो जाएगा आप ही, खाक अंधविश्वास।। ❞

19.

❝ वे नरेन्द्र पशुतुल्य हैं, क्या ब्राह्मण क्या सूद।

अन्तस में जिनके नहीं, मानवता मौजूद।। ❞

20.

❝ खून माँस भी एक है, जाति योनि भी एक।

फिर नरेन्द्र हैं क्यों नहीं, सभी आदमी एक ? ❞

21.

❝ जिस मिट्टी के आप हैं, उसी मिट्टी के सूद।

ब्राह्मण देवता बोलिए, क्यों अछूत हैं सूद ?❞

22.

❝ ऊँच-नीच की भावना, छूआछूत का मैल।

शिक्षा निष्प्रभावी बनी, जाति-धर्म जड़ बैल।।❞

23.

❝ शत प्रतिशत अब साथियों, हुई बात ये सिद्ध।

धरती पर दूजा नहीं, मानव जैसा गिद्ध।। ❞

24.

❝ पीढ़ी-दर-पीढ़ी डसे, जातिवाद का सर्प।

मनु का विष उतरा नहीं,बन बैठा है तर्प।। ❞

25.

❝ क्या कबीर रसखान क्या,क्या रहीम रैदास।

परिवर्तन आया नहीं, देश जाति का दास।। ❞

26.

❝ क्या रहीम रैदास क्या,क्या कबीर क्या सूर।

कहें सभी अच्छा नहीं, जातिवाद नासूर।। ❞

27.

❝ क्या ललई पेरियार क्या,क्या कबीर चार्वाक।

दिए चुनौती तर्क से, कटी ब्रह्म की नाक।। ❞

28.

❝ दर्शन सच्चा बुद्ध का , पंचशील है रीढ़।

प्रज्ञा करुणा शील से,बनती जग में पीढ़।। ❞

29.

❝ कैसी श्रद्धा-भावना, कैसा व्रत-उपवास।

मानवता ही जब नहीं,पूजा नहीं परिहास।। ❞

30.

❝ जात-पाॅंत के जाल में, उलझा हर इंसान।

किंकर्तव्यविमूढ़ है, खो बैठा निज ज्ञान।।

31.

❝ पीड़ा देख द्रवित हुए, छोड़ दिए सब पंथ।

बुद्ध बने करुणा-धरा, शांति-धर्म के ग्रंथ।।❞

32.

❝ बोल उठी हर शोषिता, करे भीम पर नाज़।

संविधान से बल मिला, बदली काया आज।।

33.

❝ दृष्टि दिये सबको यही, बनकर सन्त फ़कीर।

बुद्ध अगर होते नहीं, बुझती क्या जग-पीर? ❞

34.

❝ प्रज्ञा करुणा शील है, बुद्ध धम्म-आधार।

अत्त दीप ही बुद्ध हैं, अत्त दीप ही सार।। ❞

35.

❝ त्रिसरण में जो लगे, साधे मन का ध्यान।

बुद्ध वंदना से मिले, अत्त दीप का ज्ञान।। ❞

36.

❝ पारमिताएँ दस भली, अति आवश्यक तत्व।

ग्रहण करे जो भी स्वयं, प्राप्त करे बुद्धत्व।। ❞

37.

❝ प्रज्ञा करुणा शील क्या,सत्य तर्क क्या ज्ञान।

भीमाबाई ने जना , चौदहवीं संतान।। ❞

38.

❝ बुद्ध दिए जो मूल-मंत्र, सहज त्याग अनुराग।

दुख तृष्णा से मुक्ति की, है अष्टांगिक मार्ग।। ❞

39.

❝ दृष्टि वचन सम्यक रखो,सम्यक कर्म-विचार।

कहे तथागत बुद्ध यह , सुखी रहे परिवार।। ❞

40.

❝ सत्य-अहिंसा को बना, धम्म-शिक्षा हथियार।

अत्त दीप बनकर करो, सकल सृष्टि उजियार।। ❞

©®पूर्णत: मौलिक / सर्वाधिक सुरक्षित --

परिचय:

नाम -- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'

पिता--राजेन्द्र प्रसाद सोनकर 

माता--मालती देवी सोनकर 

अभिभावक--नरेश कुमार सोनकर

जन्मतिथि-- 27 मार्च 2001 

अध्ययनरत- परास्नातक (संस्कृत विभाग/इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय)

पुस्तक एवं रचनाऍं--

👉 _चार साझा काव्य-संग्रह_ 'वसंतोत्सव', 'वसंतराग' , 'माॅं का ऑंचल' व 'माॅं (ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार)' प्रकाशित। 👉  'बहुजन जागरण चालीसा' सद्य प्रकाश्य।

प्रकाशन-- विभिन्न राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं,वेबपत्रिकाओं एवं ब्लॉग्स में रचनाऍं प्रकाशित।

सम्मान--

अंतर्राष्ट्रीय सखी साहित्य परिवार द्वारा 👉 'गौरव सम्मान-2024', ज्ञानोत्कर्ष अकादमी द्वारा👉 'नेशनल मैटरनिटी अवार्ड-2024' व नवांकुर साहित्य मंच सीतापुर द्वारा👉 'महर्षि वाल्मीकि सम्मान' व अन्य।

जन्मस्थान व पत्राचार का पता--

ग्राम नरैना,पोस्ट रोकड़ी,तहसील करछना,जनपद प्रयागराज(उत्तर प्रदेश)-212307

मो.न.--8303216841

Email:- naraina2001@gmail.com


संक्षिप्त टीका-टिप्पणी: गोलेन्द्र पटेल 


जागृति ज्योति है बहुजन जागरण चालीसा : गोलेन्द्र पटेल (युवा बौद्ध कवि)


"चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय

लोकानुकंपाय अत्थाय हिताय सुखाय देव मनुस्सानं।

-देसेथ भिक्खवे धम्मं आदिकल्याण मंझे कल्याणं- परियोसान

कल्याणं सात्थं सव्यंजनं केवल परिपुन्नं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ।"


(अर्थात् हे भिक्षुओं! चलो, भ्रमण करते हुए जाओ — यह बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए,

लोक के प्रति करुणा से प्रेरित होकर, देवों और मनुष्यों के कल्याण, हित और सुख के लिए।

हे भिक्षुओं! तुम धर्म का उपदेश दो — जो आरंभ में कल्याणकारी है, मध्य में कल्याणकारी है और अंत में भी कल्याणकारी है।

वह अर्थपूर्ण है, शब्दों से सुसज्जित है, पूर्णतः परिपूर्ण और निर्मल ब्रह्मचर्य (पवित्र जीवन) को प्रकट करता है।)

उपर्युक्त 40 दोहे युवा कवि नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' द्वारा "बहुजन जागरण चालीसा" शीर्षक से रचा गया है, जो "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" के बौद्ध सिद्धांत पर आधारित एक सामाजिक-धम्मिक चेतना का आह्वान करते हैं। इन दोहों में तथागत गौतम बुद्ध एवं डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों, उनके संघर्षों और उनके द्वारा प्रदत्त संविधान की समता-मूलक भावना को स्वर मिला है।

रचना का भाव है कि नारी, दलित, यतीम—सभी वंचित वर्गों को अपने अधिकारों पर गर्व हो, क्योंकि उन्हें न्याय और समानता का धम्म-दिपक भीम के रूप में मिला। बुद्ध और अंबेडकर की शिक्षाओं का मेल—प्रज्ञा, करुणा, शील—इस काव्य का आध्यात्मिक आधार बनता है, वहीं शिक्षा, संगठन और संघर्ष का मंत्र इसे सामाजिक क्रांति का स्वर प्रदान करता है।

"बहुजन जागरण चालीसा" एक जागृति-ज्योति की तरह बहुजन समाज को आत्मबल और आत्मगौरव के पथ पर प्रेरित करती है, और राष्ट्र निर्माण में सहभागी बनकर राष्ट्र-सिरमौर बनने का आह्वान करता है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' द्वारा रचित *बहुजन जागरण चालीसा* के ये दोहे बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन, उनके विचारों और उनके द्वारा स्थापित समता, न्याय व सम्मान के सिद्धांतों को गहनता से उजागर करते हैं। ये दोहे न केवल बाबासाहेब के संघर्ष, बौद्ध धम्म के प्रति उनकी निष्ठा और संविधान के माध्यम से समाज में दलित, शोषित व वंचित वर्गों के उत्थान के प्रयासों को रेखांकित करते हैं, बल्कि बहुजन समाज को शिक्षा, संगठन और बुद्ध के मार्ग पर चलकर आत्मनिर्भर व सशक्त बनने का आह्वान भी करते हैं। यह रचना 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' के मूल मंत्र को चरितार्थ करते हुए सामाजिक जागृति और समानता का संदेश देती है।।


इन दोहों के केंद्रीय भावार्थ में निम्नलिखित बिंदुओं का समावेश है:

1. भीमराव अंबेडकर और बौद्ध धम्म की वंदना

• यह चालीसा डॉ. अंबेडकर को ‘धम्म दीप’ और सामाजिक न्याय का प्रतीक मानती है।

• उनके जन्म (14 अप्रैल) को महलों से लेकर झोपड़ियों तक का उत्सव बताया गया है।

• अंबेडकर का संविधान समता, सम्मान और शिक्षित-संघर्ष-संगठन का मूल मंत्र देता है।

2. जातिवाद और ब्राह्मणवाद पर तीखा प्रहार

• मनु स्मृति को अफीम कहा गया है, जिसे अंबेडकर ने खत्म किया।

• जाति-धर्म के नाम पर छुआछूत, शोषण और धार्मिक पाखंडों की आलोचना की गई है।

• कहा गया है कि शिक्षा होने पर भी जातिवाद मिटा नहीं, क्योंकि वह जड़ जमाए बैल के समान है।

• ब्राह्मणों को ऊँचा मानने की प्रवृत्ति पर तीव्र सवाल उठाए गए हैं—“ब्राह्मण देवता क्यों? अछूत क्यों सूद?”

3. बहुजन एकता और संघर्ष का आह्वान

• सभी वंचित जातियों (पासी, खटिक, चमार, कुर्मी आदि) को एकजुट होकर शोषण के विरुद्ध लड़ने का आह्वान है।

• “जाति निगलती आ रही समता की उम्मीद” जैसी पंक्तियाँ जाति के घातक प्रभाव को दर्शाती हैं।

4. धार्मिक समानता और उत्सव की साझेदारी

• होली, ईद, क्रिसमस, लोहड़ी — सभी त्योहारों को मिलजुल कर मनाने की बात कही गई है।

• मज़हब के नाम पर घाव देने वालों की आलोचना की गई है।

5. शिक्षा और बौद्ध धम्म का महत्व

• शिक्षा को “शेरनी का दूध” कहा गया है और धम्म को सत्य, करुणा, प्रज्ञा और अहिंसा का मार्ग बताया गया है।

• त्रिसरण, पंचशील, अष्टांगिक मार्ग और पारमिता जैसे बौद्ध सिद्धांतों को अपनाने से ही सच्चा बुद्धत्व मिलता है।

6. इतिहास, विवेक और आत्मज्ञान की प्रेरणा

• इतिहास पढ़ने और सच्चे ज्ञान से अंधविश्वास मिटाने की बात कही गई है।

• बुद्ध को द्रष्टा-संत और पीड़ा के समाधानकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

7. समता मूलक समाज की कल्पना

• अंतिम दोहों में “अत्त दीप भव” (स्वयं दीपक बनो, यह बुद्ध वचन है।) के सिद्धांत को अपनाकर पूरी सृष्टि को उजियार करने की प्रेरणा दी गई है।

अर्थात् यह चालीसा डॉ. भीमराव अंबेडकर और बौद्ध दर्शन के प्रति श्रद्धा, सामाजिक समता और मानवता के प्रचार-प्रसार को समर्पित है। यह जातिवाद, छुआछूत और सामाजिक विषमता के खिलाफ जागरूकता फैलाने का आह्वान करती है, साथ ही शिक्षा, संगठन और संघर्ष के माध्यम से दलित, शोषित और वंचित वर्गों को सशक्त बनाने का संदेश देती है।

1. डॉ. अंबेडकर और संविधान की महिमा: दोहे अंबेडकर को समता, सम्मान और न्याय का प्रतीक बताते हैं। उनके जन्म (14 अप्रैल) और संविधान निर्माण को मानवता के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण बताया गया है। उनकी शिक्षाएँ (शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो) और बाईस प्रतिज्ञाएँ सामाजिक परिवर्तन की आधारशिला हैं।

2. जातिवाद और ब्राह्मणवाद का विरोध: चालीसा में मनुस्मृति और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को मानवता के लिए हानिकारक बताया गया है। जाति, छुआछूत और धार्मिक रूढ़ियों को सामाजिक एकता और मानवता के लिए रोग के रूप में चित्रित किया गया है। यह समाज को इन बुराइयों से मुक्त होने का आह्वान करती है।

3. शिक्षा और जागरूकता का महत्व: शिक्षा को शक्ति का स्रोत माना गया है, जो अंधविश्वास और जातिवाद के जहर को नष्ट कर सकती है। इतिहास और तर्क के आधार पर जागरूकता को बढ़ावा देने का संदेश है।

4. बौद्ध दर्शन का आधार: बुद्ध के पंचशील, अष्टांगिक मार्ग, और प्रज्ञा-करुणा-शील को जीवन का आधार बताया गया है। बुद्ध का दर्शन मानवता को दुख और तृष्णा से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। 'अत्त दीप भव' (स्वयं दीप बनो) का मंत्र आत्मनिर्भरता और आत्मज्ञान का प्रतीक है।

5. सामाजिक एकता और मानवता: सभी मनुष्य एक समान हैं, चाहे उनकी जाति, धर्म या पृष्ठभूमि कुछ भी हो। दोहे ऊँच-नीच, छुआछूत और धार्मिक कट्टरता को त्यागकर मानवता को अपनाने का आग्रह करते हैं। होली, ईद, क्रिसमस जैसे त्योहारों को मिलकर मनाने का संदेश सामाजिक सौहार्द को दर्शाता है।

6. संतों और समाज सुधारकों की प्रेरणा: बुद्ध, कबीर, रहीम, रैदास, तुकाराम, पलटूदास, फुले, शाहूजी, अंबेडकर व पेरियार जैसे संतों और सुधारकों ने तर्क और मानवता के आधार पर सामाजिक कुरीतियों को चुनौती दी। उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं।

7. मानवता का उत्थान: यह चालीसा मानवता को सर्वोपरि मानते हुए अंधविश्वास, पाखंड और हिंसा का त्याग करने का आह्वान करती है। सत्य, अहिंसा और बुद्ध की शिक्षाएँ विश्व को उज्ज्वल बनाने का मार्ग दिखाती हैं।

निष्कर्ष रूप में: नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' द्वारा रचित “बहुजन जागरण चालीसा“ एक क्रांतिकारी बौद्ध-बहुजन घोषवाक्य है, जिसमें डॉ. अंबेडकर, बुद्ध और समता-न्याय की परंपरा को एक साथ बाँधकर शोषितों के लिए मार्गदर्शन और आत्मबल प्रदान किया गया है। यह कविता धर्म, जाति, वर्ण, मजहब आदि के पाखंड को चुनौती देकर एक नव-संवैधानिक समाज की स्थापना का सपना प्रस्तुत करती है।

कुल मिलाकर, यह चालीसा समाज को जातिवाद और अंधविश्वास से मुक्त कर, शिक्षा, तर्क और बौद्ध दर्शन के आधार पर समतामूलक और मानवतावादी समाज की स्थापना का संदेश देती है।

“बहुजन जागरण चालीसा” का भावार्थ/टीका:

01.

> ❝ कहें गर्व-अधिकार से, नारी दलित यतीम।

नाम नहीं नारा नहीं, धम्म-दीप हैं भीम।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा बताता है कि नारी, दलित और बेसहारा वर्ग डॉ. भीमराव अंबेडकर को केवल एक नाम या नारा नहीं मानते, बल्कि उन्हें धम्म (बौद्ध धर्म) का दीपक, यानी मार्गदर्शक मानते हैं। उनके लिए अंबेडकर अधिकार और गरिमा का प्रतीक हैं, जिनके कारण वे अपने अस्तित्व पर गर्व कर सकते हैं।

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02.

> ❝ जन्म हुआ रे भीम का, खुशी महल-खपरैल।

धम्म-घोष है न्याय का, तिथि चौदह अप्रैल।। ❞

भावार्थ/टीका:

भीमराव अंबेडकर का जन्म केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे शोषित समाज की जीत है। चाहे महलों में रहने वाले हों या झोपड़ियों में—हर वर्ग के लिए यह जन्म न्याय का उद्घोष है। चौदह अप्रैल सिर्फ एक तिथि नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का प्रतीक बन चुकी है।

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03.

> ❝ समता औ' सम्मान ही, संविधान की थीम।

सृजन किए अंबेडकर, बोलो जय जय भीम।। ❞

भावार्थ/टीका:

डॉ. अंबेडकर द्वारा रचित भारतीय संविधान की आत्मा समता (equality) और सम्मान (dignity) है। उन्होंने संविधान के माध्यम से समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार दिलाने की नींव रखी। इसलिए हर न्यायप्रिय व्यक्ति को उनका सम्मान करते हुए जयकार करना चाहिए।

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04.

> ❝ शिक्षित बनो संघर्ष करो, रहो संगठित और।

चलो बुद्ध के राह पर, बनो राष्ट्र-सिरमौर।। ❞

भावार्थ/टीका:

यहाँ अंबेडकर का प्रसिद्ध नारा "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" दुहराया गया है। यह प्रेरणा देता है कि समाज तभी उठ सकता है जब वह शिक्षा से सशक्त हो, संगठित रहे और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करे। साथ ही, बुद्ध के करुणा और ज्ञान के मार्ग पर चलकर समाज राष्ट्र का सिरमौर बन सकता है।

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05.

> ❝ थी मानवता के लिए, मनु की नीति अफीम।

नष्ट किए अंबेडकर, बोलो जय जय भीम।। ❞

भावार्थ/टीका:

मनुस्मृति को "अफ़ीम" कहकर उसकी नीतियों को मानवता-विरोधी ठहराया गया है। डॉ. अंबेडकर ने मनु के जातिवादी और असमानतावादी विचारों को अस्वीकार कर समानता और मानव गरिमा की स्थापना की। इसलिए उनकी जयकार करना एक मानवतावादी कर्तव्य है। (विशेष: कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम कहा है।)

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06.

> ❝ जनमानस कल्याण ही, है जिसका अस्तित्व।

माने उसके ज्ञान का, लोहा सारा विश्व।। ❞

भावार्थ/टीका:

डॉ. अंबेडकर का जीवन और चिंतन जनकल्याण पर आधारित था। उन्होंने केवल शोषितों के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज के लिए न्याय और समानता का मार्ग प्रस्तुत किया। उनकी बुद्धिमत्ता को विश्व भर में सम्मान मिला — उन्होंने भारत की सोच को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाया।

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07.

> ❝ बाईस प्रतिज्ञा भली, करे जगत कल्याण।

हैं अंबेडकरवाद की, मूल मंत्र औ' प्राण।। ❞

भावार्थ/टीका:

अंबेडकर द्वारा दी गई 22 प्रतिज्ञाएँ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और जागृति के घोषणापत्र हैं। ये प्रतिज्ञाएँ अंधविश्वास, पाखंड और ऊँच-नीच को अस्वीकार करती हैं और समाज को न्याय एवं समता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं।

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08.

> ❝ बाभन बनिया वैश्य क्या, क्या कुर्मी कुम्हार।

दुश्मन से लोहा लिये, पासी खटिक चमार।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा सभी जातियों की एकता का आह्वान है। चाहे कोई ब्राह्मण, बनिया, वैश्य, कुर्मी या कुम्हार हो—असली लड़ाई उस शोषक सत्ता के विरुद्ध है जो जाति के नाम पर वंचन करती है। पासी, खटिक, चमार जैसे परंपरागत रूप से पिछड़े समझे जाने वाले समुदाय भी इस संघर्ष में वीरता से सहभागी हैं।

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09.

> ❝ मनु का ब्राह्मणवाद तो, जल-भुन हुआ अधीर।

व्यासपीठ पर बैठ ज्यों, बाँचा कथा अहीर।। ❞

भावार्थ/टीका:

ब्राह्मणवादी व्यवस्था, जो सदियों से ज्ञान और पूजा-पाठ पर एकाधिकार रखती थी, तब बौखला उठी जब वंचित वर्गों ने भी ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया। “अहीर द्वारा कथा वाचन” एक प्रतीक है कि अब ज्ञान और नेतृत्व का अधिकार सबको है — यह पुराने विशेषाधिकारों को चुनौती देता है। (विशेष: इटावा की घटना को याद करें।)

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10.

> ❝ गला काटकर लाश पर, चढ़ा रहे जो फूल।

खत्म करो बनने नहीं, पाये ये विष-मूल।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा पाखंड और हिंसक धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना करता है। जो लोग दूसरों को कुचलकर, शोषण करके उनके शवों पर “फूल” चढ़ाते हैं (अर्थात सम्मान दिखाते हैं), उनकी व्यवस्था को जड़ से खत्म करना होगा। यह “विष-मूल” (विषैले मूल कारण) को मिटाने की बात है।

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11.

> ❝ जाति-धर्म के नाम पर, छुआछूत का रोग।

नमक छिड़कते घाव पर, सदा मज़हबी लोग।। ❞

भावार्थ/टीका:

इस दोहे में धार्मिकता के नाम पर किए गए सामाजिक अपराधों की आलोचना की गई है।

जाति और धर्म के आधार पर जो छुआछूत फैलाई गई, वह एक सामाजिक रोग बन गया है और विडंबना यह है कि धार्मिक ठेकेदार इस घाव पर नमक छिड़कने का काम करते हैं — यानी वे पीड़ितों को राहत नहीं, बल्कि और दर्द देते हैं।

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12.

> ❝ बाँट चलो हर दर्द को, साझा कर उम्मीद।

साथ मनाएँ बैठकर, मिलजुल होली-ईद।। ❞

भावार्थ/टीका:

यहाँ सांप्रदायिक सौहार्द और मानवीय एकता का संदेश है। धर्मों के नाम पर बंटने के बजाय, समाज को दर्द और उम्मीद को साझा करने का आह्वान किया गया है।

त्योहारों को साथ मनाकर — होली, ईद जैसे उत्सवों में सहभागिता से ही सामाजिक मेल-जोल और भाईचारा संभव है।

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13.

> ❝ क्या क्रिसमस क्या लोहड़ी, क्या होली क्या ईद।

जाति निगलती आ रही, समता की उम्मीद।। ❞

भावार्थ/टीका:

इस दोहे में यह व्यथा प्रकट की गई है कि भले ही हम अलग-अलग त्योहार मनाते हैं — क्रिसमस, लोहड़ी, होली, ईद — परंतु जातिवाद ने सब कुछ निगल लिया है।

जाति की दीवारें इतनी मज़बूत हैं कि वे समता (equality) की हर आशा को खत्म कर रही हैं। बाह्य उत्सवों से अधिक जरूरी है आंतरिक सामाजिक बदलाव।

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14.

> ❝ क्या रिश्ता क्या बन्धुता, जाति गले की फाँस।

घुट-घुट कर अब जी रही, मानवता हर साँस।। ❞

भावार्थ/टीका:

जातिवाद न केवल सामाजिक संरचना को, बल्कि व्यक्तिगत रिश्तों को भी प्रभावित करता है।

रिश्तेदारी, दोस्ती, बंधुत्व सब कुछ जाति की फाँस में जकड़ा हुआ है।

इस फाँसी के कारण मानवता घुट रही है — हर साँस जैसे पीड़ित हो रही है।

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15.

> ❝ पूज रहे पाथर यहाँ, पाथर - दिल इंसान।

जीव-जगत पाथर समझ, पाथर को भगवान।। ❞

भावार्थ/टीका:

इस दोहे में धार्मिक मूर्तिपूजा के साथ समाज के भावशून्य व्यवहार पर व्यंग्य है।

लोग पत्थर की मूर्तियों को भगवान मानकर पूजते हैं, लेकिन जीवित इंसानों के प्रति पथराई संवेदनाएँ रखते हैं।

यह दोहरा मापदंड दर्शाता है कि मानवता मर गई है और पूजा का केंद्र मृत वस्तुएँ बन गई हैं।

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16.

> ❝ शिक्षा है वो शेरनी, शब्द-अक्षर वो दूध।

पिये जो जितना ज्यादा, लंबा टिके वजूद।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा शिक्षा की शक्ति को महाशक्तिशाली रूप में प्रस्तुत करता है।

शिक्षा को शेरनी का दूध कहा गया है—जो इसे जितना अधिक ग्रहण करता है, उसका अस्तित्व (वजूद) उतना ही सुदृढ़ होता है।

यह अंबेडकरवादी विचार का मूल है—ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।

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17.

> ❝ तिल-तिल मरता रोज़ है, भूखा नंगा जान।

जाति नहीं ये गोह है, चबा रही इंसान।। ❞

भावार्थ/टीका:

यहाँ जातिवाद को गोह (मांसभक्षी छिपकली) की उपमा दी गई है, जो इंसान को भीतर से खा रही है।

हर दिन इंसान भूख, नग्नता और अपमान से तिल-तिल मर रहा है, और इसका असली कारण केवल जाति है—न गरीबी, न अल्पविकास, बल्कि संरचित जाति-व्यवस्था।

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18.

> ❝ जिस दिन सच्चा आप भी, पढ़ लेंगे इतिहास।

हो जाएगा आप ही, खाक अंधविश्वास।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा इतिहास को जागृति का साधन मानता है।

जब व्यक्ति सच्चे इतिहास को पढ़ता और समझता है, तब उसके भीतर का अंधविश्वास, भ्रम और पाखंड जलकर राख हो जाता है।

ज्ञान और इतिहास-चेतना ही मानसिक स्वतंत्रता की कुंजी है।

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19.

> ❝ वे नरेन्द्र पशुतुल्य हैं, क्या ब्राह्मण क्या सूद।

अन्तस में जिनके नहीं, मानवता मौजूद।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा कर्म और विचार को जाति से ऊपर रखता है।

जिसके भीतर मानवता नहीं, वह पशु के समान है—चाहे वह ब्राह्मण हो या सूद्र।

यह मानवता की सार्वभौमिकता को प्रतिष्ठित करता है—जाति नहीं, संवेदना और व्यवहार ही असली पहचान है।

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20.

> ❝ खून माँस भी एक है, जाति योनि भी एक।

फिर नरेन्द्र हैं क्यों नहीं, सभी आदमी एक ? ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा जाति व्यवस्था के विरोधाभास पर चोट करता है।

जब मनुष्य का शरीर, रक्त, मांस और जन्म प्रक्रिया समान है, तो फिर जाति का भेद क्यों?

यह प्रश्न समाज को मानव-मूल्य के आधार पर एकता की दिशा में सोचने को विवश करता है।

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21.

> ❝ जिस मिट्टी के आप हैं, उसी मिट्टी के सूद।

ब्राह्मण देवता बोलिए, क्यों अछूत हैं सूद ? ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा जातिगत भेदभाव के दोहरे मापदंडों को उजागर करता है।

जब सभी मनुष्य एक ही धरती की संतान हैं, एक ही मिट्टी से बने हैं, तो कुछ को देवता और कुछ को अछूत क्यों माना जाए?

यह सीधा सवाल करता है—जाति श्रेष्ठता केवल झूठा भ्रम और सामाजिक अन्याय है।

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22.

> ❝ ऊँच-नीच की भावना, छूआछूत का मैल।

शिक्षा निष्प्रभावी बनी, जाति-धर्म जड़ बैल।। ❞

भावार्थ/टीका:

जाति और धर्म का पाखंड इतना गहराया है कि शिक्षा भी अपना असर खो बैठी है।

जातिवादी मानसिकता एक जड़ बैल की तरह है, जो ना समझता है, ना चलता है, ना बदलेगा—

जब तक यह नहीं हटेगा, शिक्षा समाज को बदलने में असमर्थ रहेगी।

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23.

> ❝ शत प्रतिशत अब साथियों, हुई बात ये सिद्ध।

धरती पर दूजा नहीं, मानव जैसा गिद्ध।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा तीखा लेकिन सटीक व्यंग्य है—

मनुष्य अपने ही समाज को, अपने ही लोगों को शोषण, हिंसा और लूट से बर्बाद करता है।

इसलिए कहा गया कि धरती पर सबसे बड़ा गिद्ध कोई है तो वह स्वयं ‘मनुष्य’ है, विशेषकर जब वह जाति-पंथ के नाम पर अन्य मनुष्यों को मारता है।

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24.

> ❝ पीढ़ी-दर-पीढ़ी डसे, जातिवाद का सर्प।

मनु का विष उतरा नहीं, बन बैठा है तर्प।। ❞

भावार्थ/टीका:

जातिवाद को एक ज़हरीले साँप की तरह देखा गया है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी डसता आ रहा है।

मनु का विष (मनुवादी विचारधारा) केवल सामाजिक व्यवस्था को ज़हरीला नहीं बनाता, बल्कि वह अब तर्प बन चुका है—

यानी जिसे लोग अपनी श्रद्धा और तर्क के रूप में ढो रहे हैं और यही खतरनाक है।

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25.

> ❝ क्या कबीर रसखान क्या, क्या रहीम रैदास।

परिवर्तन आया नहीं, देश जाति का दास।। ❞

भावार्थ/टीका:

कबीर, रसखान, रहीम, रैदास जैसे महान संतों और कवियों ने जात-पात के विरुद्ध आवाज़ उठाई,

लेकिन समाज में अब तक वास्तविक परिवर्तन नहीं आया।

भारत आज भी जाति का दास बना हुआ है—जो धर्म, संस्कृति और मानवता की सबसे बड़ी विफलता है।

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26.

> ❝ क्या रहीम रैदास क्या, क्या कबीर क्या सूर।

कहें सभी अच्छा नहीं, जातिवाद नासूर।। ❞

भावार्थ/टीका:

रहीम, रैदास, कबीर, सूरदास जैसे संतों ने अपने युग में जातिवाद की आलोचना की।

सभी ने यह स्पष्ट कहा कि जातिवाद समाज के लिए एक नासूर (गहराता घाव) है।

यह दोहा बताता है कि आध्यात्मिक चेतना जातिवाद को नहीं स्वीकारती, बल्कि उसे सामाजिक बुराई मानती है।

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27.

> ❝ क्या ललई पेरियार क्या, क्या कबीर चार्वाक।

दिए चुनौती तर्क से, कटी ब्रह्म की नाक।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा उन विचारकों और क्रांतिकारियों की ओर संकेत करता है—जैसे ललई सिंह यादव, पेरियार, कबीर, चार्वाक—

जिन्होंने तर्क और तटस्थ विवेक से ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को चुनौती दी।

इनकी वैचारिक मुहिम ने पुरोहितवाद की नाक कटाई, यानी उनके एकाधिकार को तोड़ा।

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28.

> ❝ दर्शन सच्चा बुद्ध का, पंचशील है रीढ़।

प्रज्ञा करुणा शील से, बनती जग में पीढ़।। ❞

भावार्थ/टीका:

बुद्ध का दर्शन तर्क, नैतिकता और करुणा पर आधारित है।

पंचशील (पाँच नैतिक नियम)—बुद्ध के धम्म की रीढ़ हैं।

इन मूल्यों से नई मानवता की पीढ़ियाँ तैयार होती हैं जो शांति और समता को आधार बनाती हैं।

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29.

> ❝ कैसी श्रद्धा-भावना, कैसा व्रत-उपवास।

मानवता ही जब नहीं, पूजा नहीं परिहास।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा धार्मिक आडंबरों की आलोचना करता है।

जब जीवन में मानवता नहीं है, तो श्रद्धा, भावना, व्रत, उपवास — सब मज़ाक और ढोंग बन जाते हैं।

धार्मिक कर्मकांडों का कोई अर्थ नहीं, यदि उनमें सच्ची करुणा और संवेदना अनुपस्थित है।

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30.

> ❝ जात-पाँत के जाल में, उलझा हर इंसान।

किंकर्तव्यविमूढ़ है, खो बैठा निज ज्ञान।। ❞

भावार्थ/टीका:

जात-पाँत की जटिल व्यवस्था ने इंसान को भ्रम और असमंजस में डाल दिया है।

वह जान ही नहीं पाता कि क्या सही है, क्या गलत—वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है।

इस उलझन में इंसान अपना आत्मज्ञान और विवेक खो बैठा है।

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31.

> ❝ पीड़ा देख द्रवित हुए, छोड़ दिए सब पंथ।

बुद्ध बने करुणा-धरा, शांति-धर्म के ग्रंथ।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा गौतम बुद्ध के जीवन-संकल्प का भावपूर्ण चित्रण है।

बुद्ध ने संसार की पीड़ा को देखकर धर्म, परिवार और सांसारिक सुखों को त्याग दिया।

वे करुणा और शांति के प्रतीक बन गए और उनके द्वारा प्रतिपादित धम्म दुख से मुक्ति का मार्ग बन गया।

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32.

> ❝ बोल उठी हर शोषिता, करे भीम पर नाज़।

संविधान से बल मिला, बदली काया आज।। ❞

भावार्थ/टीका:

यहाँ यह दर्शाया गया है कि शोषित वर्गों की आत्मा अब जाग उठी है।

हर पीड़ित अब भीमराव अंबेडकर पर गर्व करता है, क्योंकि उन्होंने संविधान के ज़रिए सत्ता, सम्मान और अधिकार दिए।

आज जिनकी “काया” (स्थिति) बदली है, वह अंबेडकर की देन है।

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33.

> ❝ दृष्टि दिये सबको यही, बनकर सन्त फ़कीर।

बुद्ध अगर होते नहीं, बुझती क्या जग-पीर? ❞

भावार्थ/टीका:

गौतम बुद्ध को संत और फकीर के रूप में याद किया गया है, जिन्होंने सबको सही दृष्टि दी।

अगर बुद्ध न होते, तो दुनिया की पीड़ा बुझाई नहीं जा सकती थी।

बुद्ध की शिक्षाएँ जगत के संतापों का उपचार बनीं।

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34.

> ❝ प्रज्ञा करुणा शील है, बुद्ध धम्म-आधार।

अत्त दीप ही बुद्ध हैं, अत्त दीप ही सार।। ❞

भावार्थ/टीका:

बुद्ध का धर्म तीन स्तंभों पर आधारित है—प्रज्ञा (ज्ञान), करुणा (दया) और शील (नैतिकता)।

बुद्ध का उपदेश “अत्त दीप भव” (स्वयं अपना दीपक बनो) इस धम्म का सार है।

यह आत्मनिर्भरता, विवेक और आंतरिक ज्योति का मार्ग सुझाता है।

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35.

> ❝ त्रिसरण में जो लगे, साधे मन का ध्यान।

बुद्ध वंदना से मिले, अत्त दीप का ज्ञान।। ❞

भावार्थ/टीका:

इस दोहे में बताया गया है कि जो व्यक्ति त्रिसरण (बुद्धं, धम्मं, संघं शरणं गच्छामि) में स्थिर होता है और मन को साधता है,

उसे बुद्ध वंदना के माध्यम से ‘अत्त दीप’ का ज्ञान प्राप्त होता है—

यानी वह खुद को प्रकाशित करता है, आत्मबोध पाता है।

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36.

> ❝ पारमिताएँ दस भली, अति आवश्यक तत्व।

ग्रहण करे जो भी स्वयं, प्राप्त करे बुद्धत्व।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा बौद्ध साधना की दस पारमिताओं (दश पारमिता) की ओर संकेत करता है—

दान, शील, क्षमा, धैर्य, पराक्रम, ध्यान, प्रज्ञा आदि वे गुण हैं, जिन्हें जो भी आत्मसात करता है,

वह बुद्धत्व (ज्ञान और मुक्ति की अवस्था) प्राप्त कर सकता है।

यह आत्म-निर्माण और विवेक-निर्माण का मार्ग है।

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37.

> ❝ प्रज्ञा करुणा शील क्या, सत्य तर्क क्या ज्ञान।

भीमाबाई ने जना, चौदहवीं संतान।। ❞

भावार्थ/टीका:

इस दोहे में डॉ. अंबेडकर के जन्म को एक दैवीय घटना के रूप में दर्शाया गया है।

प्रज्ञा (ज्ञान), करुणा (दया), शील (चरित्र), सत्य, तर्क—ये सारे गुण एक ही व्यक्ति में साकार हुए और वह थे भीम राव अंबेडकर, जिन्हें उनकी माता भीमाबाई ने चौदहवीं संतान के रूप में जन्म दिया।

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38.

> ❝ बुद्ध दिए जो मूल-मंत्र, सहज त्याग अनुराग।

दुख तृष्णा से मुक्ति की, है अष्टांगिक मार्ग।। ❞

भावार्थ/टीका:

गौतम बुद्ध ने त्याग और करुणा को सहज जीवन का मूल मंत्र बताया।

उनका अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, आदि)

मनुष्य को दुख और तृष्णा से मुक्ति का स्पष्ट और व्यावहारिक रास्ता प्रदान करता है।

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39.

> ❝ दृष्टि वचन सम्यक रखो, सम्यक कर्म-विचार।

कहे तथागत बुद्ध यह, सुखी रहे परिवार।। ❞

भावार्थ/टीका:

यह दोहा बताता है कि बुद्ध ने केवल आत्मकल्याण की बात नहीं की, बल्कि सामूहिक और पारिवारिक सुख की भी चिंता की।

जब व्यक्ति की दृष्टि, वाणी, कर्म और विचार सम्यक (सही और संतुलित) होते हैं,

तब परिवार और समाज में सुख-शांति स्थायी हो जाती है।

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40.

> ❝ सत्य-अहिंसा को बना, धम्म-शिक्षा हथियार।

अत्त दीप बनकर करो, सकल सृष्टि उजियार।। ❞

भावार्थ/टीका:

अंतिम दोहा एक उद्घोषणा की तरह है—बुद्ध और अंबेडकर के मार्ग को अपनाने की प्रेरणा देता है।

सत्य और अहिंसा को धम्म-शिक्षा के हथियार बनाकर जब हम स्वयं ‘अत्त दीप’ (आत्म-प्रकाश) बनते हैं,

तब हम न केवल अपने जीवन को, बल्कि पूरे समाज और सृष्टि को उजियार कर सकते हैं।

सार तत्व:-

"बहुजन जागरण चालीसा" एक सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्रांति का घोष है।

यह अंधश्रद्धा, जातिवाद, धर्माधिकारिता के विरुद्ध खड़े होकर शिक्षा, समता, करुणा और विवेक का एक ऐसा झंडा गाड़ती है,

जिसके नीचे मानवता को सच्चा स्वरूप और दिशा मिलती है।


शब्दों व पदों की उत्पत्ति और व्याख्या :-


1. दलित

• उत्पत्ति: संस्कृत धातु 'दल्' (तोड़ना, कुचलना) से "दलित" बना है, जिसका अर्थ है: दबाया गया, कुचला गया।

• व्याख्या: भारत की वर्णव्यवस्था में नीच समझे गए वर्गों को यह संज्ञा दी गई। आधुनिक संदर्भ में यह एक सामाजिक-राजनीतिक पहचान है जो उत्पीड़न के विरुद्ध आत्मगौरव और अधिकारों के लिए संघर्ष से जुड़ी है।

2. धम्म-दीप

• उत्पत्ति: पालि भाषा में धम्म = धर्म, दीप = दीपक/प्रकाश।

• व्याख्या: बुद्ध का उपदेश: “अप्प दीपो भव” यानी "स्वयं अपने लिए दीपक बनो"। "धम्म-दीप" का अर्थ है: धर्म ही प्रकाश हो, मार्गदर्शक हो।

3. धम्म-घोष

• उत्पत्ति: पालि शब्द धम्म (धर्म) और संस्कृत घोष (घोषणा) का समास।

• व्याख्या: बौद्ध धर्म की उद्घोषणा या प्रचार; वह ध्वनि या वक्तव्य जो धम्म का प्रचार करता है।

4. जय भीम

• उत्पत्ति: डॉ. भीमराव अंबेडकर के नाम "भीम" से।

• व्याख्या: यह बहुजन आंदोलन का क्रांतिकारी नारा है, जो सामाजिक न्याय, बराबरी और अंबेडकरवादी विचारों का प्रतीक है।

5. अंबेडकरवाद

• उत्पत्ति: डॉ. अंबेडकर के नाम से।

• व्याख्या: यह विचारधारा समानता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है। इसमें जातिविहीन समाज, मानव अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा निहित है।

6. ब्राह्मणवाद

• उत्पत्ति: ब्राह्मण + वाद।

• व्याख्या: यह विचारधारा वर्णव्यवस्था को न्यायोचित ठहराती है और ब्राह्मणों की सामाजिक व धार्मिक श्रेष्ठता को कायम रखने की प्रणाली का प्रतीक मानी जाती है। बहुजन आंदोलनों में यह शोषण और सामाजिक असमानता का स्रोत मानी जाती है।

7. क्रिसमस

• उत्पत्ति: अंग्रेजी Christmas, जिसमें Christ (ईसा मसीह) और Mass (पवित्र प्रार्थना सभा) शामिल हैं।

• व्याख्या: यह ईसाई धर्म का त्योहार है जो प्रभु यीशु मसीह के जन्म की स्मृति में 25 दिसंबर को मनाया जाता है।

8. बहुजन

• उत्पत्ति: बहु = बहुत + जन = लोग।

• व्याख्या: यह शब्द बुद्ध का दिया हुआ है: “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय”। सामाजिक न्याय के संदर्भ में यह शोषित, वंचित, पिछड़े वर्गों के व्यापक समूह को दर्शाता है।

9. जातिवाद

• उत्पत्ति: जाति + वाद।

• व्याख्या: जाति के आधार पर व्यक्ति की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता को मानना और सामाजिक भेदभाव को उचित ठहराना जातिवाद है। यह भारतीय समाज की सबसे पुरानी और गहरी समस्या है।

10. पंचशील

• उत्पत्ति: पंच = पाँच + शील = नैतिक आचरण।

• व्याख्या: बुद्ध द्वारा बताए गए पाँच नैतिक नियम:प्राणी हिंसा नहीं करनाचोरी नहीं करनाअसम्मानजनक यौन आचरण नहीं करनाझूठ नहीं बोलनामादक पदार्थों का सेवन नहीं करना

11. प्रज्ञा

• उत्पत्ति: संस्कृत धातु ज्ञा से; प्र + ज्ञा = उच्च ज्ञान।

• व्याख्या: बौद्ध धर्म में 'प्रज्ञा' का अर्थ है: सही दृष्टि, विवेकपूर्ण ज्ञान जो मुक्ति की ओर ले जाए।

12. अष्टांगिक मार्ग

• उत्पत्ति: अष्ट = आठ + अंग = अंग/पथ।

• व्याख्या: यह बुद्ध का बताया हुआ मुक्ति का मार्ग है, जिसमें आठ अंग हैं:सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि।

13. संविधान

• उत्पत्ति: सं = साथ मिलकर + विधान = नियम।

• व्याख्या: यह किसी राष्ट्र की सर्वोच्च विधिक व नैतिक पुस्तक होती है जो नागरिकों के अधिकार, कर्तव्य और राज्य की संरचना निर्धारित करती है। भारत का संविधान डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता में बना।

14. अत्त दीप

• उत्पत्ति: पालि में अत्त = स्वयं, दीप = दीपक।

• व्याख्या: बुद्ध ने कहा: “अत्त दीपो भव” — “स्वयं दीपक बनो”, यानी आत्मनिर्भर बनो, 

किसी बाहरी शक्ति या देवता पर आश्रित मत रहो।

टीकाकार : गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/ बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


प्रबुद्ध भारत का आह्वान : बहुजन क्रांति का घोषणापत्र — गोलेन्द्र पटेल

5 अगस्त, 2025 प्रबुद्ध भारत का आह्वान : बहुजन क्रांति का घोषणापत्र — गोलेन्द्र पटेल  “ हम इतिहास बनाते हैं, पर इतिहासकार हमें मिटा देते ह...