Wednesday, 30 July 2025

प्रेमचंद पर केंद्रित 300 दोहे : गोलेन्द्र पटेल

कथा सम्राट प्रेमचंद के व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित 300 दोहे : गोलेन्द्र पटेल 
गोलेन्द्र पटेल कलम के नहीं, बल्कि कुदाल के मज़दूर कवि हैं, इन दिनों वे कर्जों के बोझ तले दबे हुए हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई छूट गई है! बहरहाल, आज प्रेमचंद की जयंती के सुअवसर पर “प्रेमचंदनामा” से उनके 300 दोहे प्रस्तुत हैं। यदि कोई दोहा पसंद आये, तो आप उनके नंबर पर कुछ परिश्रमिक भेज सकते हैं, फिलहाल उनके पास फीस जमा करने के लिए पैसे नहीं हैं। आप गूगल पे या फोन पे कर सकते हैं। ज़्यादा नहीं, सिर्फ़ 700₹।

मोबाइल नंबर: 8429249326


1.

कवि गोलेन्द्र की वाणी में, प्रेमचंद जीवंत।

सत्य, विचार, संघर्ष का, लेखन हो दर्पण॥

2.

जन्म दिवस पर नमन हो, लेखन-शक्ति महान।

जिसने खोली सवर्ण की, नारीवाद की जान॥

 3.

धनपतराय तुम्हें नमन, सत्य-पथिक की चाल।  

कथा-कवच में सत्य के, ढहते झूठ-बबाल॥

4.

विश्वासों के दीप से, चेतन ज्योति जलाय।  

डर की भाषा में बसा, यथार्थों का रुग्णाय॥

5.

फटे जूते पाँव में, चलता रहा समर।  

देह नहीं, हर साँस में, शब्द बने अक्षर॥

6.

सूरा, होरी, गोबरन, धनिया की परती।  

बुधिया की करुणा बसी, मानस में भरती॥

7.

कफ़न, सद्गति, बलिदान, सेवा-सदन विराट।  

ईदगाह में गूँजता, मानवीय संवाद॥

8.

रंगभूमि से गोदान तक, प्रेमाश्रम संजीव।  

प्रेमचंद की लेखनी, गाँव-गली समीप॥

9.

जयसिंह की दृष्टि में, कुर्सी बदले स्वभाव।  

सोफिया-मालती गुँथे, गोविंदी के भाव॥

10.

गद्य तुलसी तुम बने, कहानियों के शेर।  

बलिदानी हर सोच में, शामिल विचार फेर॥

11.

दलितों के दीप हो, गाँवों के इतिहास।  

क्रांति तुम्हारी राह है, न्याय तुम्हारी आस॥

12.

महाजनी चाल को, तुमने दी चुनौती।  

तोड़ मरजादों की बेड़ी, की जग में ज्योति॥

13.

स्नेह-समता न्याय से, जो जीते हर छंद।  

वह रचता है मौन में, परिवर्तन के बंद॥

14.

शब्द बने जो व्रक्ष से, दुख की दोपहरी।  

प्रेमचंद के गीत में, जनमन की गंभीरि॥

15.

जोखू-प्यासा देखता, ठाकुर का वो कुआँ।  

तुमने लिखा सत्य को, आँचल बना धुआँ॥

16.  

सत्-प्रेम के सरोवर में, अरुण-कमल खिले।  

सपनों की सौगंध से, यथार्थों को छिले॥

17. 

प्रेमपंचमी रोज़ हो, हर घर खिले सरोज।  

मानवता के मार्ग पर, हो साहित्य-प्रबोध॥

18. 

हल्कू की ठंडी तना, पूस की रात डरे।  

पर लेखनी प्रेम की, हिम्मत नई भरे॥

19.

लमही से जो उठ रही, जय की चिर धुनि तेज़।  

कहानी की क्यारी में, प्रेमचंद विशेष॥

20.

ऋषि-कथाकार प्रेम हो, शब्दों में संधान।  

साहित्य की साधना में, हो जीवन बलिदान॥

21.

रंगभूमि का सौ बरस, कैसी ये पहचान।

छिपा हुआ जो दीप है, बनता फिर से जान॥

22.

गोदान जैसा नामवर, पीछे डाल चलाय।

पर सूरदास आज भी, संकट में ललकाराय॥

23.

विस्थापन की कथा लिए, यह बहुधा उपदेश।

सुनता इसमें आज का, समाजिक संश्लेष॥

24.

अंग्रेजी आंधी चली, उजड़े गाँव नगर।

नील तंबाकू के लिए, कृषक हुआ बदतर॥

25.

सूरदास अंधा सही, पर भीतर प्रखर दृष्टि।

सत्य आदर्शों हेतु, उसमें रही सगर्व सृष्टि॥

26.

ठाकुर पूछे व्यंग्य से, विपदा है क्या आई।

सूरदास कहि चेतना, आज की बात सुनाई॥

27.

बोल उठे सूरे तभी, सेवा से जीवन धार।

तुम अपने घर में नहीं, करोगे बाहर भार॥

28.

प्रेमचंद को पढ़ सकें, वह सूत्र कहाँ मिलाय।

विवादों के शोर में, असली रूप छुपाय॥

29.

शहर-गाँव का द्वंद हो, स्त्री-मन की बात।

कभी कहें मन से दूर, कभी बाह्य प्रभात॥

30.

सूरदास, गंगी, होरी, जब लेखन में आय।

भूले-भटके लोगों की, नींव जरा डोलाय॥

31.

ब्राह्मण-विरोधी कहें, दलित कहें विरोध।

फिर भी जन का साथ है, यही सत्य निष्कोध॥

32.

गांधी जब गोरखपुर आए, प्रेमचंद बदलाय।

छोड़ी नौकरी तुरत ही, लेखन में रम जाय॥

33.

प्रगतिशील विचार का, नेता कहें उन्हें।

पर फिर भी उस खांचे में, बाँध सकें ना वेन॥

34.

हिंदू-पाठ मिला कहीं, कहीं समाजवाद।

कोई कहे राष्ट्रभक्त, कोई कहे फसाद॥

35.

इतने खांचे बीच में, प्रेमचंद क्यों प्रिय।

क्यों अब भी पाठक कहें, ‘वो तो है हमरीय’॥

36.

परसाई के चित्र में, फटा जूता है खास।

कहें कि जिसने ठोकर दी, जमी हुई हर घास॥

37.

जूता फटा क्यों भला, चलते फटे न जूति।

परसाई बोले तभी, ठोकी जम के भूमि॥

38.

मुक्तिबोध की माँ कहें, दुख वो ही बखान।

जो हमने भोगा वही, कह पाई उसकी जान॥

39.

अंगुलियों के फटे जूते, हवा खायें ठाठ।

प्रसाद संग फोटो में, प्रेमचंद की बात॥

40.

सीधा सादा भेस था, भीतर तीव्र ज्वार।

जन-संघर्षों के लिए, लेखन बना पुकार॥

41.

हिंदी के तुलसी कबीर, जैसे जन के बीच।

वैसे ही प्रिय प्रेमचंद, जिनसे जनता रीझ॥

42.

इसलिए यह पाठ है, प्रेमचंद को जान।

वर्ग-चिन्ह के पार हैं, भीतर से इंसान॥

43.

साहित्य की मशाल वे, राजनीति से तेज।

उनकी लेखनी बनी, जन-चेतन की सेज॥

44.

राजा-सा सम्मान पा, मन में भारी द्वंद।

बोलें तो श्रमवीर से, करें नहीं अनुबंध॥

45.

दया-दृष्टि की छाँव में, दबता रहा कृषक।

इजाफे की धार से, रीता उसका थक॥

46.

धर्म, दया और राज्य का, बँधा हुआ निर्माण।

प्रजा करे जब पूजना, तब करें उत्थान॥

47.

स्वर्गवासी पितृ छवि में, गौरवपूर्ण बखान।

अधिकार की बात पर, हो जाते हैरान॥

48.

ऊँचे सिद्धांतों का, करते हैं बखान।

मालती से प्रेम में, करते खुद अपमान॥

49.

प्रकृति-प्रेम के नाम पर, अस्वीकार सभ्यता।

लोकतंत्र, विज्ञान को, मानें मन की व्यथा॥

50.

वोटों को बतलाएं वे, मरीचिका का रूप।

नारी को लौटाते फिर, जंगल वाला धूप॥

51.

दर्शन भारी है बहुत, आचरण बिलकुल हल्का।

मालती कहती सही, विचार-व्यवहार खल्का॥

52.

मित्र बने रहना भला, न चाहें अधिकार।

प्रेम बिना परवश न हो, यही प्रथम विचार॥

53.

प्रणय-प्रस्ताव को ठुकरा, कहा नया इक पंथ।

साथ-सहेली भाव से, मिलकर जिएं संत॥

54.

दीन-दुखी की करुणा में, दे मन का समाधान।

शब्द नहीं, आचरण में, दिखलाए पहचान॥

55.

धनिया संगिनी बनी, होरी की पतवार।

जहाँ दिखे जब डगमगाए, पकड़े उसका धार॥

56.

होरी यदि चूकता कहीं, भूल करे निज कर्म।

धनिया चेताए उसे, समझाए धरम-धरम॥

57.

झुनिया को घर से निकाल, होरी चला दृढ़ ध्यान।

धनिया रोके प्रेम से, बदल गया विधान॥

58.

भाग्य, धरम, मर्यादा में, सब कुछ है स्वीकार।

झूठे आदर्शों तले, सच करता भी प्यार॥

59.

गाय गई, घर रीता हुआ, भाई था अपराधी।

फिर भी अपना मानकर, निभाए रक्षा साधी॥

60.

होरी की संघर्ष-गाथा, स्वप्नों का अनुराग।

टूटे जीवन में रचा, सामूहिक अनुराग॥

61.

सिद्धांतों के नाम पर, करते कुटिल प्रयोग।

पत्र लिखें, ब्लैकमेल कर, बनते हैं सुत जोग॥

62.

खन्ना बोले अंत में, 'मैंने सब कुछ खोया।

रिश्वत ली, नीति मरी, तब जाकर यह रोया॥'

63.

धर्म-दया की आड़ में, गला काटते लोग।

पाखंडों की भीड़ में, क्या संन्यासी भोग॥

64.

धर्म बना व्यापार जब, गाय बने औजार।

होरी के गोदान से, टूटा वह व्यापार॥

65.

'गोदान' में गाय नहीं, बीस आना का मोल।

गाय अभी भी राह में, अधूरा उसका बोल॥

66.

रूपा ने जो भेज दी, पूरी नहीं व्यवस्था।

पर दिखा दी प्रेम में, आशा की सद्दृश्यता॥

68.

धर्म-जाल में फँस रहे, भोले-भाले लोग।

प्रेमचंद ने व्यंग्य से, की कटुता संजोग॥

69.

गांधी ने खोजा सदा, धर्मों का आधार।

प्रेमचंद ने देख ली, उसमें केवल भार॥

70.

‘गोदान’ में नहीं कही, लेखकीय मनभाव।

पात्र स्वयं के ताप से, गढ़ते कथा प्रभाव॥

71.

राय साहब के वक्तव्य, लगे बहुत सुनाम।

किन्तु उन्हीं पर मेहता ने, कर डाली नाकाम॥

72.

गाँव-नगर के बीच में, दूरी कम थी यार।

राय साहब का भाव यह, दिखलाता आकार॥

73.

दया, उदारता, दिखावटी, पूजित हो अधिकार।

जब तक जनता कह सके, राजा है अवतार॥

74.

कहें विचार उच्चतम, करें व्यवहार भिन्न।

मेहता जैसे पात्र भी, रहते नहीं सुनिश्चित मन॥

75.

दान करें तो भाव वह, नीति से मेल न खाय।

मालती पूछे तब यही—'क्यों यह छल रह जाय?'॥

76.

मालती ने प्रेम को, कहा न उच्च ध्येय।

मित्र बने रहना भला, न हो सकें पर गे॥

77.

होरी के ही रूप में, मिली विचार-ठौर।

जिसका जीवन सत्य था, संकट में भी गौर॥

78.

गाय गई, खेत गया, फिर भी न छोड़ा धर्म।

होरी खड़ा सत्य पर, जब टूटा भी कर्म॥

79.

भाई के अपराध पर, तन-मन कर दे दान।

होरी उसमें हारता, जीत भी है जान॥

80.

बीस आने की थैली से, हो गया गोदान।

गाय न आई फिर कभी, छूट गया सम्मान॥

81.

रूपा गाय लिए चली, आस अभी भी शेष।

प्रेमचंद ने ठेंगा दिखा, पाखंडों को क्लेश॥

82.

प्रकृति-तंत्र के प्रेम में, करते जन-विरोध।

मुक्ति-संग्रामों को कहा, हिंसा, कलह, प्रपंच॥

83.

नर-नारी संबंध में, पशु-जैसा व्यवहार।

मेहता की यह दृष्टि भी, देती है झंकार॥

84.

होरी का संघर्ष है, महाकाव्यिक रूप।

मरे मगर न हारता, संकल्पों का कूप॥

85.

झुनिया, गोबर, धनिया, मंगल हों सहचार।

नई व्यवस्था में रहे, पूरा परिवार॥

86.

वंदन उनको प्रेम से, जिनकी लेखन-धार।

शोषण के प्रतिकार में, बने जनाधार॥

87.

हिंदू राष्ट्र घुसाय दे, अब उनके विचार।

जिनसे डरती थी सदा, पाखंडों की मार॥

88.

जिनके शब्द करुणामय, जिनकी दृष्टि विशाल।

उन पर झूठा थोपते, आज विभाजन-जाल॥

89.

ब्राह्मण-द्रोह न लेखनी, सत्य के संग जंग।

पाखंडों से प्रेमचंद, रहे सदा बेढंग॥

90.

कहा स्वयं उन्होंने यह, घृणा नहीं इंसान।

पाखंडों से घृणा रखो, हो जग का कल्याण॥

91.

धर्मोपजीवी दल बने, कोढ़ सरीखा रोग।

टकेपंथियों से लड़े, थे वे जलते लोग॥

92.

‘महाजनी सभ्यता’ से, किया मुखर संधान।

मानवता के मार्ग पर, बोले सत्य बयान॥

93.

प्रगतिशील लेखन हेतु, हुआ लखनऊ यज्ञ।

जहाँ प्रेमचंद अध्यक्ष, बोलें स्पष्ट पंथ॥

94.

‘हंस’ पत्रिका में छपा, था वह घोषणपत्र।

मंच से बोले: लेखनी, ना हो केवल तंत्र॥

95.

“देशभक्ति की पंक्ति में, साहित्य न पड़े पाँव।

बल्कि बने वह मशाल जो, दे आंदोलन थाम॥”

96.

उर्दू भाषण लिख लिया, बोले प्रेमचंद।

पढ़ा सभा में भाव से, मंत्रमुग्ध हर छंद॥

97.

सज्‍जाद ज़हीर साथ में, सबने की तस्दीक।

रौशनाई लेख से, मिली तथ्य की भीत॥

98.

बनारस में शाख हेतु, प्रेमचंद प्रयास।

गोरखपुर, पटना गए, किया स्वयं प्रकाश॥

99.

अज्ञेय ने बाद में कहा, भाषण था मौखिक।

पर न थे वे सम्मेलन में, तो क्यों कहें लिख?॥

100

चालीस मिनट प्रेम ने, पढ़ा लिखित संवाद।

सुन सब रह गए चुपचाप, छू गई हर बात॥

101.

राजनीति से दूर थे, यह अज्ञेय विचार।

पर प्रेमचंद का सत्य था, जनसंघर्ष अपार॥

102.

रचते भाषण जब हुआ, चेतनता संधान।

क्यों नहीं मानी गई, लेखनी की जान?॥

103.

सत्ता से कुछ लेखनी, पाने लगी प्रसाद।

सत्य से नित छेड़ती, करती शब्द प्रह्लाद॥

104.

‘कलम का सिपाही’ ग्रंथ, करता सत्य उद्घाट।

अब उस ग्रंथ को भी बनाय, झूठों की बारात॥

105.

झूठ चले अब मंच पर, लेकर भगवा राग।

बन गए प्रेमचंद भी, व्हाट्सएप का जाग॥

106.

संघर्षों के शब्द थे, पीड़ा जिनका स्रोत।

उन्हें बना दिया मूक अब, कर डाला विरोध॥

107.

‘हल्दी की गांठों’ से अब, बिकता ज्ञान-विचार।

काव्य नहीं अब बच रहा, केवल झूठ का वार॥

108.

राह दिखाओ प्रेम की, फिर से धार तलवार।

जन-संघर्ष की लेखनी, दे नव दृष्टि-धार॥

109.

रचना में जो क्रांति हो, वह साहित्य धर्म।

जो पाखंडों से लड़े, वही कलम का कर्म॥

110.

साहित्य है वह मशाल, जो करे उजास।

न हो चाटुकारिता, न हो झूठा पास॥

111.

गांधी, नेहरू, अम्बेडकर, जिनसे थे सहमत।

प्रेमचंद का नाम भी, शामिल उस क्रमवत॥

112.

मित्रवर्ग की पीर से, उपजी थी संवेद।

जिससे निकले शब्द जो, करें क्रांति रेद॥

113.

अंधकार में दीप थे, पीड़ित जन की आस।

आज उन्हें ही चुरा रहे, झूठों की प्यास॥

114.

सत्य वही जो आज भी, दे जन को आधार।

नही झुके सत्ता तले, न दे झूठी धार॥

115.

पुनः रचो वह लहर जो, करे अन्याय समाप्त।

प्रेमचंद की लेखनी, बन जाए प्रतिपात्र॥

116.

कलम, करुणा, क्रांति से, जीवन गढ़ते रहे।

उनके लिखे हुए में ही, हम मानवता गहें॥

117.

जग के झूठे रंग में, न बिसरायें मीत।

प्रेमचंद हैं दीप-से, सत्य हेतु गीत॥

118.

आओ फिर से बाँध लें, सच्चाई के बंध।

लेखन हो प्रतिरोध में, जन की हो हर छंद॥

119.

सत्य कहें जो क्रांति से, उसको मान दो।

जो सत्तामद में झुके, उनसे ध्यान लो॥

120.

वामपंथ का खण्डहर भी, देता सीख अनेक।

छद्म विमर्शों में न हो, इतिहासों का क्षय॥

121.

गौरव है वह आदमी, जो सच कहे सटीक।

प्रगतिशील प्रेमचंद का, हो फिर से संगीत॥

122.

झूठ भले जितना कहे, तथ्य रहे मुखर।

कागज़ देंगे हम वहीं, जहाँ न हो प्रपंच॥

123.

लेखक वह जो झुके नहीं, चाहे मिले न मान।

प्रेमचंद उस लोक के, थे सबसे प्रधान॥

124.

पुनः सजाएँ मंच को, सत्य, साहस, दान।

लेखन को आंदोलन दो, दो विचारों जान॥

125.

कवि गोलेन्द्र रच रहे, यह विचार का राग।

चेतना के संग चलो, मत मानो विराग॥

126.

सत्य बचे साहित्य में, क्रांति रहे संज्ञान।

तभी बचें प्रेमचंद और, बचे सृजन विधान॥

127.

प्रेमचंद के नाम पर, झूठा रचें प्रचार।

हिंदू-राष्ट्र घुसाय दे, लिखत-कलम के द्वार॥

128.

जिनसे काँपे पाखंड के, कंगूरे पतवार।

उन्हीं को करने लग पड़े, भगवाधारी सार॥

129.

घृणा नहीं इंसान से, घृणा पाखंडाचार।

धर्म-नक़ाब में जो करे, जनता का संहार॥

130.

ब्राह्मणत्व न धिक्करे, पर करे संधान।

जो पाखंडी ढोंग से, करे राष्ट्र अपमान॥

131.

कहा प्रेमचंद ने यही, पंडा पूजक वर्ग।

कोढ़ हिंदू जात का, चूसे उसका मर्ग॥

132.

न केवल संयोग था, वह सम्मेलन क्षण।

प्रेमचंद की दृष्टि में, था नवयुग का रण॥

133.

लखनऊ अधिवेशन को, किया अध्यक्षत्थान।

प्रगतिशील लेखन किया, जीवन का अभियान॥

134.

‘हंस’ में पहले ही लिखा, घोषणापत्र विचार।

लेखन के नवस्वप्न को, समझे नव-संहार॥

135.

उर्दू में भाषण रचा, सबको मंत्रमुग्ध।

तर्क, भावना, दृष्टि में, शब्द-ध्वनि संयुक्त॥

136.

गठित हुआ संघ जब, खुद गोरखपुर गये।

बनारस में शाख हेतु, लेखकों से कहे॥

137.

अज्ञेय कहें भाषण नहीं, पढ़ा वहाँ पर यार।

लेकिन क्यों, किस हेतु यह, मिथ्या करे प्रचार?॥

138.

क्यों न मानी गई कभी, आंखों देखी बात?

सज्‍जाद ने जो लिख दिया, क्या वह भी है घात?॥

139.

न माने 'कलम का सिपाही', न माने दस्तावेज़।

अब तो कागज़ मांगते, भगवे झूठ फरेब॥

140.

जो भाषण कहता रहा, ‘साहित्य मशाल’।

उसे हटाकर लेखनी, बनती आज दलाल॥

151.

सत्य यही कि प्रेमचंद, थे संघर्षशील।

महाजनी के काल में, शब्द बने शमशीर॥

152.

प्रेमचंद को मत बनाओ, WhatsApp का ज्ञान।

संघर्षों की स्याही से, लिखें न्याय विधान॥

153.

मूल्य-बोध औ चेतना, लेखन में था गूढ़।

साहित्यकार वही सच्चा, जो न झुके, न रूठ॥

154.

आओ फिर से जान लें, वह भाषण, वह सत्य।

झूठ की दीवार को, गिरा बनायें पथ्य॥

155.

मित्रों अब है काल यह, कागज़ फिर से दो।

प्रगतिशील दीप को, सामूहिक नित रो॥

156.

मालती रूपी नारी, बौद्धिकता का जाल।

शरीर-केंद्रित सोच में, सीमित उसका काल॥

157.

ईर्ष्या-द्वेष में डूबी, छिछला उसका भाव।

नारीवाद बनाय रखा, केवल अपना चाव॥

158.

श्रमिक नारी से दूरी, रखती मुँह बिचकाय।

कहती 'कलूटी गंवार', करुणा कभी न आय॥

159.

साहस, श्रम, करुणा लिए, वन में जो बेटी।

बनती रोटी, पकाए पक्षी, दूध गुनगुना देती॥

160.

कुएँ से लाए पानी, जड़ी-बूटी उपहार।

फिर भी उस पर मालती, करती ताना-प्रहार॥

161.

मेहता करते विरोध पर, चुप है आत्मा-राग।

मालती अपनी जाति की, कैसे छोड़ें त्याग?

162.

सद्गति में बाभन रखा, दुखिया सामने।

मंत्र कथा में भगत के सम्मुख चढ्ढा ठाने॥

163.

गोदान की वन-बाला, आदिवासी वीर।

उसे बना कर पात्र ही, किया हृदय में पीर॥

164.

नारीवाद के नाम पर, चलता छल का खेल।

प्रेमचंद ने खोल दी, हर नकली की बेल॥

165.

जाति-वर्ण की ग्रंथि में, जकड़ा भारत देश।

प्रेमचंद ने खोल दी, यथार्थों की रेश॥

166.

गोदान कथा-प्रवाह में, नाभिक सत्य प्रकट।

हिंद समाज की धुरी में, वर्ण-व्यवस्था घट॥

167.

होरी धनिया श्रम करें, जलते अग्नि समान।

उत्पादक दलित-पिछड़े, पर जीवन है त्राण॥

168.

पंडित, ठाकुर, कायस्थ, पटवारी-संहति।

शोषक हैं, पर माने गए, समाज की गरिमा सृजति॥

169.

रायसाहब स्वराज में, जेल गए सौ बार।

गांव में वही कराएं, बेगार और वार॥

170.

तंखा, ओंकार, मेहता, ऊँची जाति प्रतीक।

गांधी का मुख ओढ़कर, करते रहे रतिक॥

171.

पटेश्वरी बेगार में, सिंचाई करवाय।

बस्ती थर-थर कांपती, सत्ता वही चलाय॥

180.

झिंगुरी का खेत बड़ा, दातादीन पुजारी।

सूदी-जमींदारी की, गठजोड़ें लाचारी॥

181.

सिलिया, भोला, होरिया, धनिया धूप सहें।

श्रम से जग को पालते, पर सुख दूर गहें॥

182.

गोदान कहता यही, वर्ण शृंखला जाल।

जो मेहनत करता सदा, वह क्यों रहे बेहाल?

183.

अनुत्पादक जातियां, करें सदा षड्यंत्र।

ढोंग-पाखंड-पाखरी, उन पर पूरा मंत्र॥

184.

मालती हो या राय हों, वर्ग-जाति के ध्वज।

आजादी के बाद भी, नहीं बदलते बज॥

185.

होरी जैसे जन रहे, झूठे धर्म के चूर्ण।

बैल बिके पर स्वप्न में, देखे गोदान पूर्ण॥

186.

जाति-वर्ग की बुनावट, ‘गोदान’ ने खोली।

आंबेडकरी चेतना, इस कृति में भी डोली॥

187.

‘जाति का विनाश’ ज्यों, विमर्शों की धार।

‘गोदान’ भी बहा रहा, वही यथार्थ विचार॥

188.

बेलारी से सेमरी, ग्राम कथा के धूर।

वर्ण-शोषण गाथिका, रची प्रेम की पूर॥

189.

जन-कवि की यह दृष्टि में, चेतनता की आग।

सत्ता के हर कोर में, जाति की लगी झाग॥

190.

जाति-वर्ग गठजोड़ से, देश बनेगा स्वर्ण?

या फिर दलितों-पिछड़ों, को ही मिलेगा मर्ण?

191.

उपन्यास महाकाव्य है, जब बोले इतिहास।

तब समझो गोदान भी, सत्य गूढ़ प्रकाश॥

192.

गोदान में प्रेमचंद ने, दी वह दृष्टि उदार।

जो न केवल कथा कहे, खोले यथार्थ द्वार॥

193.

प्रेमचंद गुज़रे ज़मां, फिर भी हैं वे साथ।

उनकी लेखनी बनी, समाज-चिंतन बात॥

194.

न थमा समय का प्रवाह, न ही बढ़ा विकास।

उनकी अब भी प्रासंगिकता, देती है उदास॥

195.

काशी-बनारस पास था, गांव लमही ठौर।

वहां न बौद्धिक दृष्टि थी, न परिवर्तन भोर॥

196.

कर्मकांड की धुंध में, था समाज ठिठकाय।

प्रेमचंद ने देखकर, शब्दों में लिख जाय॥

197.

कबीर, तुलसी थे विचार, जिनसे युग था तेज।

प्रेमचंद ने भी रचा, चिंतन का सन्देश॥

198.

ना तो केवल राष्ट्र के, वे वाहक थे भाई।

किसान, दलित, मजदूर ही, उनकी लेखी छाई॥

199.

ना गांधी से ग्रस्त थे, ना ही नेहरू-भीत।

सत्य खोजते वर्ग में, ना करते थे प्रीत॥

200.

न्याय नहीं जो दे सके, वह राष्ट्र कैसा हो।

स्वतंत्रता के हेतु को, वह लिखते बिन मोह॥

201.

बोल्शेविक से मर्म ले, चौरी से उद्वेल।

मन-मन में सामाजिकता, भरते गए प्रेमेल॥

202.

ब्राह्मणवाद, सामंतता, उनके दो थे शत्रु।

उन पर शब्दों के प्रहार, करते प्रेम निष्कपट॥

203.

'ठाकुर का कुआँ' कथा, 'सवा सेर' संवाद।

‘सद्गति’ से फूटता, वर्णशोष का नाद॥

204.

ब्राह्मणों का पाखंड जो, समाज को झुलसाय।

प्रेमचंद ने उस तरह, साहस से दिखलाय॥

205.

कहते थे, न ब्राह्मण वह, जो लूटे विश्वास।

सेवा-त्यागी जो रहे, वह ब्राह्मण इतिहास॥

206.

तुलसी पर भी कह दिया, पढ़ा नहीं जस मान।

आस्था के मोह में, डूबे नहीं श्रीमान॥

207.

छायावाद जब मौन था, राष्ट्रवाद का शोर।

प्रेमचंद तब खोजते, वर्ण-श्रम का छोर॥

208.

कहते थे, बिना समाज बदले न हो आज़ाद।

राजनीति बिन न्याय के, केवल खोखलाद॥

209.

उनका हर संपादकीय, करता दृष्टि उजास।

दलित, गरीब, किसान की, रखता था बात खास॥

210.

आंबेडकर, नेहरू सभी, उनसे थे सम्बंध।

प्रेमचंद के चिंतन में, दृष्टि और विवेक बंध॥

211.

गांधीवाद नहीं उन्हें, पूरी तरह रुचाय।

नेहरूवादी सोच से, कुछ साम्य झलकाय॥

212.

हंस-पत्रिका के स्वर में, बहता न्याय-प्रवाह।

सच की बातें, श्रमजन की, रचते साहित्य-राह॥

213.

प्रेमचंद थे धन्यजन, खाते थे बैंकों में।

203, चार हजार भी, जमा दिखे अंकन में॥

214.

बम्बई से चेक दे, फिराक का ऋण चुकाय।

प्रेस चलाने हेतु भी, वर्मा को धन भिजवाय॥

215.

धन से था संबंध पर, न था दिखावा गर्व।

उनका जीवन लोक में, था सेवा का पर्व॥

216.

शैलेश जैदी ने लिखा, धनी थे श्रीमान।

पर न जानें कौन हैं, जो कहते निर्धन जान॥

217.

लमही गया दो बार मैं, देखा जीर्ण मकान।

टपकी छत, टूटी ज़मीं, बिखरा था सम्मान॥

218.

फिर देखा कुछ वर्ष में, रंगरोगन साफ।

125वीं जयन्ति पर, सरकार ने दिया लाफ़॥

219.

अतिथि भवन सामने, प्रेक्षागृह भी साथ।

बीएचयू और प्रशासन के, जिम्मे उसका बात॥

220.

पर साहित्य नहीं वहाँ, न पुस्तकें उपलब्ध।

प्रेक्षागृह में मौन है, भावनाओं का रंध॥

221.

एक सज्जन प्रेम में, करते सेवा काम।

मानदेय न पास है, फिर भी श्रद्धा थाम॥

222.

आज ज़रूरत इस घड़ी, उठे वही आवाज़।

प्रेमचंद के सोच से, हटे सांप्रदायिक राज॥

223.

हिंदुत्व के प्रतिविम्ब में, हो उनका प्रतिबिम्ब।

उनके शब्द उठायें हम, जैसा उनका निबंध॥

224.

न छेड़ें एजेंडा कभी, जो गोयनका लाय।

पाँचजन्य की चाल में, प्रगतिवादी न जाय॥

225.

प्रेमचंद की दृष्टि में, वर्ग-धर्म थे द्वंद्व।

सत्यनिष्ठता में रहा, लेखन का अनुबंध॥

226.

उनके चिंतन पर रखें, हम आलोचना न्याय।

कृपया न बनें आज हम, एजेंडावादी दाय॥

227.

ग़रीबी को गौरव कहो, अपमानित जनधार।

सपनों से भी दूर है, जनता का संसार॥

228.

प्रेमचंद का जो रहा, वह घर आज महान।

हम जैसे बहुजन लिए, अब भी स्वप्न-स्थान॥

229.

छत पक्की, बैठक बड़ी, आँगन, द्वार, उबाल।

हममें कितनों को मिले, जीवन भर ये हाल?॥

230.

संघर्ष था उनका भी, पर था वर्ग विशेष।

मध्यवर्ग के दुःख से, ना बहुजन का क्लेश॥

231.

क्यों बुनकर के पुत्र को, कहें प्रेम समकक्ष?

जिसने देखा झोंपड़ी, पेट कटे जो पक्ष॥

232.

तथ्य यही, कह दो इसे, ना हो इसमें डर।

प्रेमचंद का कष्ट भी, था सीमित भीतर॥

233.

झोंपड़पट्टी की दशा, उनसे दूर बहुत।

गरीबों के स्वप्न में, न वह द्वार, न छत॥

234.

सम्मान हो लेखनी को, पर हो सत्य उदघाट।

कष्ट, गरीबी, संघर्ष – न हों शब्दों के खेल मात्र॥

235.

प्रेमचंद जयंती समय, चेतकाला-धाम।

हिंदी की संवेदना, संस्कृति का प्रणाम॥

236.

प्रेमचंद पर सोचना, खुद को जाननहार।

हिंदी की सच्चाइयों, से मिलती पुकार॥

237.

उनके रचे साहित्य में, हिंदी का संवाद।

कमियाँ, ताक़तें सभी, मिलतीं हैं आधार॥

238.

हाशिये का व्याख्य है, प्रेमचंद का व्रत।

राष्ट्र बने जब साथ में, दलित, किसान, स्त्रत॥

239.

संवादों को तोड़कर, जब–जब हुआ प्रयास।

भारत की उस चुप गली, ने लिख दिया इतिहास॥

240.

धर्म रहें पर छल नहीं, वैश्विक हो विस्तार।

पर हो सीमित स्वार्थ में, न स्वेच्छाचार॥

241.

हर उपन्यास प्रेम का, जन संघर्ष समेट।

आज लड़ाई चिह्न की, करती जनता रेट॥

242.

धर्म-जाति-प्रांत के, बंटे हुए हैं द्वार।

सच की कोई बात हो, दिखती नहीं पुकार॥

243.

जब तक जनता बाँटती, अपनी शक्ति व्यर्थ।

तब तक झूठ प्रतीकों का, करता जीत अर्थ॥

244.

हामिद, गोबर, मिठुवा, थे आंगन में साथ।

कथा-साहित्य छोड़कर, चल पड़ा किस पथ-राथ?॥

245.

बचपन जैसे खो गया, हिंदी के मैदान।

नई कहानी ढूँढती, बचपन की पहचान॥

246.

बेटी कोई वस्तु है? क्यों हो दान-जुहार?

कन्यादान प्रथा करे, नारी का तिरस्कार॥

247.

पत्नी जब कन्यादान कर, रीति निभा रही।

मूर्तिमान बन प्रेमचंद, मौन वेदना सहीं॥

248.

बेटी अब चुप क्यों रहे, मुखर करे उद्घोष।

स्त्री विमर्श की बात हो, दहेज रहे न दोष॥

249.

प्रेमचंद जयंती बने, नवसंवाद प्रतीक।

हिंदी की चेतावनी, हो अब और समीप॥

250.

हमसे पीछे छूट गए, सब अपने ही लोग।

देख न पाते मुड़ कभी, रिश्तों के संजोग॥

251.

ना कॉलेज की देहरी, ना ही ज्ञान की छांव।

विश्वविद्यालय दूर थे, सपनों से भी दाव॥

252.

प्रोफेसर न बन सके, न ही जज-डीएम।

पत्रकार, ठेकेदार से, उनका क्या परचम॥

253.

मंत्री-संत्री दूर थे, दलाली भी दूर।

कविता की माला न थी, शब्दों की थी भूर॥

254.

रोटी की खातिर सदा, तन-मन देते दांव।

मजदूरी में बदलते, जीवन का हर पांव॥

255.

बाल-बच्चों की खातिर, करते रोज जतन।

छांव न पाए पसीने, फिर भी करें रटन॥

256.

खून पसीना बहे जो, वो ही सुनें गाल।

अबे-तबे की मार में, टूटा उनका भाल॥

257.

हम तो सब में व्यस्त हैं, जीवन में मस्त।

वे सवाल बन रह गए, चुप रहते शरमस्त॥

258.

एक नजर भी फेर लो, उनकी ओर कबीर।

जो हैं भारत की धरा, इंडिया से ही हीन॥

259.

ईद पड़ी है आज फिर, याद 'ईदगाह' आई।

हामिद का चिमटा कहे, व्यथा पुरानी छाई॥

260.

प्रेमचंद का लेख है, मन की भीत सजाय।

जाति-धर्म की भीत से, कथा बहुत ऊपर जाय॥

261.

मेला बिखरे भाव का, चीज़ें चकाचौंध।

हामिद लाया जो घर, उसमें छुपा विरोध॥

262.

खिलौने सब छोड़कर, चिमटा जब वो लाया।

बाज़ारवाद पर चोट की, विवेक दीप जलाया॥

263.

'जरूरी' की बात है, न 'प्रलोभन' का मोह।

हामिद ने दिखला दिया, क्या सही क्या द्रोह॥

264.

अमीना की आंख में, आँसू बनकर प्यार।

चिमटा नहीं वस्तु है, भावों का उपहार॥

265.

त्योहारों के नाम पर, मोल-भाव का दौर।

दिल नहीं बस जेब है, बजता वहीं सौर॥

266.

धर्म हुआ संकीर्ण अब, राजनीति की ढाल।

बाज़ार बन बैठा है, हर उत्सव का काल॥

267.

अक्षय तृतीया आज है, शुभ का यह आधार।

पाँचजन्य की जगह पर, मन का हो उभार॥

268.

पात्र जो था सूर्य से, पांडव को जो प्राप्त।

हृदय मनुज का वैसा ही, अनंत भाव संपात॥

269.

पर्व बने व्यापार अब, खोलो बस बटुआ।

धार पकड़ जो दिल की हो, वही सच्चा जुआ॥

270.

हृदय मनुज का अक्षय है, टूटे लाख प्रयास।

विवेक-वृक्ष सदा हरा, यही मनुज की आस॥

271.

विकास की इस दौड़ में, पीछे जो हैं छूट।

उन पर भी मुस्कान दो, जिनसे जीवन रूट॥

272.

भोला हलवाहा खेत में, जीवन जैसे जोत।

'अलग्योझा' की पीर है, जिसमें करुणा रोत॥

273.

तलसी की सुभागिनी, दलित वेदना धार।

हाकिम की कुत्सित नज़र, उजड़े सपनों सार॥

274.

झूरी काछी भाव से, बैलों संग जुड़ जाय।

'दो बैलों की कथा' में, मानवता उपजाय॥

275.

झींगुर महतो बुद्धिधर, गड़ेरिया बुद्धू साथ।

‘मुक्ति-मार्ग’ में खोजते, श्रमिक जन की बात॥

276.

रामधन अहीर सदा, सेवा में संलग्न।

‘बाबाजी का भोग’ में, ढोंगी धर्म चितंग॥

277.

शंकर कुरमी का हृदय, भूख से न थमता।

‘सवा सेर गेहूँ’ कथा, यथार्थ से जमता॥

278.

सुजान महतो भक्त था, सच्ची श्रद्धा नाथ।

‘सजान भगत’ प्रेम की, बुनता मर्मिल बात॥

279.

‘पंच परमेश्वर’ कहे, अलगू की पहचान।

चौधरी पर न्याय जब, उतरत जाति वितान॥

280.

‘पूस की रात’ मौन है, हल्कू की संज्ञा।

जाति नहीं बतलाई पर, दर्द कहे हर व्यंजना॥

281.

शिवरानी थीं संगिनी, जीवन संग संघर्ष।

प्रेमचंद के साथ में, सृजन रहा उत्कर्ष॥

282.

श्रीपत, अमृत पुत्र थे, लेखन में अनुराग।

कमला जैसी पुत्रियाँ, घर की रहीं सुहाग॥

283.

घर-परिवार समर्पित, साहित्यिक परिवेश।

प्रेमचंद के भाव में, संस्कारों का लेश॥

284.

लहरतारा से उठे, लहमी तक आलोक।

कबिरा गुरु प्रेमचंद के, शब्द बने संजोक॥

285.

कबिरा ज्यों ज्वाला जले, भेद मिटाए जात।

प्रेमचंद ने शब्द से, की जनमन की बात॥

286.

साधु और लेखक जुड़े, भाषा बनी पुलिन।

गुरु शिष्य के रूप में, जल बिन जैसे नील॥

287.

लहरतारा की लहर, पहुँची लहमी द्वार।

साहित्य की नाव में, बहे कबीर विचार॥

288.

जनमन का जो ताप था, दोनों ने ही तापा।

एक तुलसी बोल में, दूजा कथा-कथापा॥

289.

कबिरा बोला सत्य को, प्रेमचंद ने गाढ़ा।

गोलेन्द्र ने वक्त से, जोड़ा जनसंवादा॥

290.

तीन धुरी विचार की, ज्यों दीपक के बाती।

जनमन के अंधियार में, जगी जनों की भाती॥

291.

ध्रुव तारे से मिल गई, कलमों की हर चाल।

कबीर-प्रेमचंद का, सत्य बुनें संजाल॥

292.

कबिरा ज्यों ध्रुव सत्य हैं, प्रेमचंद प्रकाश।

गोलेन्द्र स्वर जनमन का, तीनों एक विकास॥

293.

वाणी में कबिरा बसे, कलम प्रेम की धार।

गोलेन्द्र संकल्प बन, करें विवेक संचार॥

294.

लहरतारा की ज्योति से, लमही में उजास।

खजूरगाँव शब्द बन, बोले जन विश्वास॥

295.

प्रेमचंद की बात में, श्रम का दुख-संवाद,

प्रसाद भाव में झंकृत हुआ, गोलेन्द्र की आवाज।

296.

प्रसाद की कविता थिरकती, मानस-सरोवर-धार,

गोलेन्द्र की लेखनी में, फिर से जागे तार।

297.

प्रेमचंद की लेखनी, बोले जन के बोल,

प्रसाद रचे सपनों सरीखे, गोलेन्द्र की ढोल।

298.

कथा, काव्य और क्रांति के, ये तीनों आधार,

हिंदी भू पर फूल-से, फैले तीनों सार।

299.

मंद हुआ है विवेक पर, बुझा नहीं है दीप।

गोलेन्द्र कहें– नाश हो, जब तक है यह चीप॥

300.

गोलेन्द्र की लेखनी, बोले सधा विचार।

साहित्य की साँझ में, हो उजियारा सार॥

---

संपर्क: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


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