Saturday, 2 August 2025

कल्कि (खण्डकाव्य)

 

“हमारा ‘कल्कि’ खंडकाव्य धार्मिक मिथकों को समकालीन संदर्भों में पुनर्व्याख्या करता है। यह काव्य केवल एक धार्मिक कथा का पुनर्पाठ नहीं है, बल्कि यह समाज, विज्ञान और संस्कृति के प्रति एक गहरी चेतना को दर्शाता है। हमारे कवि का वैचारिक दृष्टिकोण, जिसमें परंपरागत मिथकों की आलोचना, बौद्ध धर्म की पुनर्व्याख्या और सामूहिक नायकत्व पर बल दिया गया है, यह खंडकाव्य न केवल साहित्यिक दृष्टि से पठनीय है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति भी है, जो पाठकों को सोचने और प्रश्न उठाने के लिए प्रेरित करता है।

‘कल्कि’ एक ऐसी रचना है, जो परंपरा और आधुनिकता के बीच एक संवाद स्थापित करती है और यह सिद्ध करती है कि साहित्य न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह समाज को दिशा देने और चेतना जगाने का भी एक शक्तिशाली माध्यम है। यह खंडकाव्य, आस्था के अनुकरण से आगे बढ़ते हुए, मानव विवेक के अवतरण की वकालत करता है — और यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है।”

कल्कि (खण्डकाव्य)

—गोलेन्द्र पटेल 

विष्णु के दस अवतार, जग में आए बार-बार,  

मत्स्य रूप धरा प्रभु ने, बचाया धरती का आधार।  

कूर्म वराह नरसिंह, वामन रूप अपार,  

परशुराम बलशाली, किए पापियों का संहार।  


राम कृष्ण जग विख्यात, बुद्ध शांति के अवतार,  

कल्कि आएंगे अंत में, मिटाएंगे जग का दुख भयंकर।  

दस रूप प्रभु के पावन, भक्तों के रखवाले,  

हर युग में रक्षा करते, विष्णु हैं जग के पाले।


मत्स्य बने जब प्रलय घनेरा, वेद बचाए धीर,

जलचर रूप लिए प्रभु ने, किया सृष्टि का पीर।

कूर्म रूप धरें जब धरणी, नीचे जाए धसे,

मंथन करता क्षीर सागर, अमृत वरषा बसे।


वराह उठाए भू अधो में, दैत्यों ने जो धँसाई,

धरती को पुनि स्थान दिया, उभरी जग की छाई।

नरसिंह बने खंभ फाड़ के, दैत्य हिरन्य संहारे,

भक्त प्रहलाद बचाए तब, धर्म सदा के तारे।


कल्कि अवतार, विष्णु के दसवें रूप महान,  

कलियुग अंत में आएंगे, करेंगे पाप निदान।  

देवदत्त घोड़े सवार, तलवार हाथ में धार,  

दुष्टों का संहार करें, स्थापित करेंगे प्यार।  


संभल ग्राम में जन्म लें, विष्णु यश पिता नाम,  

सुमति माता, धर्म रक्षक, करें सतयुग प्रणाम।  

अधर्म नाश, धर्म स्थापन, सतयुग लाएंगे साथ,  

कल्कि कथा भविष्य की, देती आशा और पाथ।  


कल्कि अवतार अंतिम हैं, विष्णु रूप की बात,

धर्म हेतु आना उन्हें, पापों की औकात।

जब कलियुग में पाप का, होगा प्रबल प्रवाह,

धरा धरेगा धर्म फिर, कर दुष्टों की थाह।


घोड़ा होगा देवदत्त, उज्ज्वल उसका रंग,

हाथ लिए तलवार को, करेंगे पाप भंग।

धर्म पुनः स्थापित करें, करें अधर्म नष्ट,

संघर्षों से जाग उठे, फिर से नीति-पृष्ठ।


संभल ग्राम कहलाएगा, पुण्य भूमि विशेष,

कल्कि वहीं जन्मेंगे, नव युग लाएँ शेष।

विष्णु यश होंगे पितृजन, मातृ नाम सुमति,

साधुजन के हित उठे, कल्कि रूप की गति।


जब कल्कि तलवार लिए, करें महा प्रहार,

सतयुग फिर से लौट आए, मिट जाए संहार।

शंख नहीं, ना पुष्प हैं, ना है कोई वेद,

धार लिए हैं तेज की, अब तलवार-वेद।


भविष्यदर्शी ऋषि कहें, यह सत्यावधान,

धर्म करेगा कल्कि से, फिर नव निर्माण।

यह आख्यान नहीं मात्र, चेतावनी की रेख,

पुनरुत्थान धर्म का, है कल्कि की लेख।


सफेद घोड़े पर सवार, कल्कि की बात,  

फिल्म यूट्यूब पे दौड़ती, करती सबको मात।  

घुड़सवारों की सेना संग, मुक्ति का संदेश,  

भक्तों के उद्धार को, चलता दिव्य विशेष।  


कुलीनतंत्र का सपना, छिपा विशेष में,  

कल्कि की प्रतीक्षा में, बैठे लोग निश्छल में।  

युक्ति का मखौल करें, कुदरत को भूल गए,  

करिश्मों की आँखें, अंधी होकर झूल गए।  


दिव्यांगों की मुक्ति को, बनता नव सन्देश,

पर सपनों में छिपा है, कुलीनों का क्लेश।

भविष्य की परिकल्पना, है विषैली बात,

कल्कि बना विशेषजन, भरे अहंकार घात।


जनसंख्या की भीड़ में, समाधान न दिखे,  

संतति-निरोध यंत्र, बनाया मनुज इच्छे।  

कुदरत के नियम को, नकारें लोग आज,  

विज्ञान की राहों को, ठुकराए बिन काज।  


युक्ति-तर्क को हँस रहे, बैठे चुप इन्सान,

देख न पाते चमत्कार, खो बैठे पहचान।

जनसंख्या सीमा की, न युक्ति मान पाएँ,

इच्छा बिना बने यंत्र, कैसे उसे अपनाएँ?


पूर्वजों ने शिशु रक्षा, खतना सा काम किया,  

विज्ञान आधारित उत्पाद, अब न स्वीकार किया।  

रोमांच की चाह में, प्रलय को देखें लोग,  

पर्यावरण नष्ट हो, समझ न आए भोग।  


खतना रीत पुरातन, कहते विज्ञानहीन,

अनुसंधान न माने, बौने उनके मीन।

प्रलय दिवस की चाह में, आँखें हैं बेकार,

जीवन-भू के नाश को, करते हैं स्वीकार।


वृद्धि मानव की सहे, संसाधन अब चुक,

तर्कों से डरते सभी, करते युक्ति की धुक।

युद्ध-विपद से बचाव को, बढ़ती है आबादी,

कुदरत को फोड़े रहें, व्यर्थ हवा की सादी।


रोग-युद्ध में मरने की, तुलना जो करें,  

संख्या-वृद्धि सुरक्षा, मध्यकाल बोध करें।  

कुदरत को अपराधी, बनाए यह विचार,  

सृष्टि चक्र फट जाए, जैसे पंप बेकार।  


चीथड़े में उड़े सृष्टि, देखें लोग यही,  

दंगाई भीड़ बन जाए, समाधान वही।  

कल्कि तलवार सवार, प्रलय की राह देखें,  

आत्महंता अंत की, कामना में रहें।  


ट्यूब फटेगा जल्द ही, पंप रहे भरते,

चीथड़ों में उड़ते खुद, हँस-हँस कर मरते।

घुड़सवार तलवार लिए, आए प्रलय समान,

भीड़ वही हल खोजती, जिससे मिटे जहान।


घुड़सवार की प्रतीक्षा, मन में भारी मौन,

कामना है एक साथ, अंत-आरंभ को पौन।

लेकिन इनके मध्य में, कल्कि स्वयं छिपा,

जो विज्ञान की लौ जला, हर संकट में टिका।


नया युग आरंभ की, प्रत्याशा मन में,  

कयामत का सपना, बस छाया जन में।  

पर बीच में छिपे हैं, वैज्ञानिक ऋषि-वर,  

टाटा-मस्क सा नायक, करता विश्व डगर।  


रतन टाटा, एलन हैं, कल्कि रूप धरते,

बचाने को धरा सभी, अपने कर्म करते।

संस्था में अवतार हैं, युग परिवर्तक आम,

नायक कोई एक नहीं, जनता ही भगवान।


यू-ट्यूब पर दौड़ रही, कल्कि बनी मिसाल,

रेल-सेना संग चला, घोड़े पर भूतलकाल।

नाम न जाने जो मगर, बदलें जग निर्माण,

उन अनाम कल्कियों से, चलता युग परिवर्तन।


वैष्णवी रूपांतरण, व्यापार सा चले,  

दुनिया बचाने का, हर जन को बल मिले।  

नहीं एक नायक पर, सारी जिम्मेदारी,  

हर आम जन के नाम, बदलने की कारी।  


मानव-जाति पैदा करे, कल्कि अनगिनत,  

सामूहिक अंशदान से, दुनिया बदले सतत।  

अनाम कल्कियों का, योगदान है महान,  

धरती की रक्षा का, हर जन का सम्मान।  


पांडुरंग वह नाम था, बुद्ध स्वरूप महान,

विष्णु कह कर ढाँप दी, ब्राह्मणवाद की जान।

निरंजन ही बुद्ध थे, ज्ञान रूप गुणगान,

विष्णु बना कर लेख में, बदल दिया विधान।


पांडुरंग, निरंजन, बुद्ध के नाम सुहाय,  

साजिश रच विष्णु संग, अवतार बताय।

विठ्ठल को विष्णु कह, रचा गया छल भारी,  

बौद्ध साहित्य मोल ले, मिटायी बात सारी।


बुद्ध कहा विष्णु अवतार, रचा गया यह खेल,

धर्मों की पहचान पर, साज़िश भारी ठेल।

तथागत के बाद में, आए जो मैत्रेय,

उन्हें कहा कल्कि फिर, यह भी चाल विद्रेय।


बुद्ध मतों की धार को, मोड़ा धर्म विष्णु,

बौद्ध विचारों पर पड़ा, पाखंडी पंज निश्छु।

मैत्री, करुणा, शांति के, प्रतिनिधि जो ठहरे,

उन्हें बना तलवारधारी, अर्थों को ही गहरे।।


कल्कि कहा मैत्रेय को, तोड़ा सत्य महान,

बुद्ध विरोधी सोच का, यह अंतिम प्रमाण।

बुद्ध न थे अवतार पर, कह दिया अवतारी।

चुप रहे विद्वान सब, कथा बनी सरकारी।


मैत्रेय का लोकपथ, करुणा से है युक्त,

घोड़े वाली कल्पना, बौद्ध भाव की वुक्त।

युवक कवि की चेतना, दे विचार का तेज,

तोड़े मिथक जाल सब, कहे नया सन्देश।


मैत्रेय बुद्ध अवतार, तथागत का अंत,  

भविष्य का बुद्ध कहें, पूजित सबके संत।  

विष्णु का नौवां रूप, बुद्ध को हिंदू मान,  

साजिश गहरी रच गई, कल्कि कहे सम्मान।


सत्य बौद्ध का गुम हुआ, मिथ्याओं का ताज,

विठ्ठल में बुद्ध लुप्त हैं, ब्राह्मणवाद की साज।

बुद्ध बने अवतार जब, खो गई वो चेत,

धर्म क्रांति की ध्वजा, झुकी गई अचेत।


जिन्हें कहा था शून्य स्वर, करुणा का संवाद,

उनको देव बनाकर अब, छिपा लिया उत्प्राद।

निरपेक्षता बुद्ध की, खो गई भक्तिवाद,

सत्य खोज को हर लिया, चालाक पुरोहितवाद।


गोलेन्द्र की दृष्टि में, यह इतिहास का भंग,

बुद्ध नहीं विष्णु कभी, न विठ्ठल पांडुरंग।

निरंजन विष्णु नहीं, बुद्ध सत्य पहचान,

मिथ्या बातों से ढँका, उनका तेज महान।

★★★

रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/जनपक्षधर्मी कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।

पिन कोड : 221009

व्हाट्सएप नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com


कल्कि (खण्डकाव्य)

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