"भौतिकता की पक्षधरता के आचार्य थे हजारी प्रसाद द्विवेदी" मदन कश्यप
पिछले दिनों सेतु प्रकाशन के फ़ेसबुक पेज पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल जी द्वारा संपादित "हजारी प्रसाद द्विवेदी एक जागतिक आचार्य" नामक आलोचनात्मक पुस्तक पर एक व्यापक परिचर्चा का आयोजन किया गया। जिसके आयोजक व संचालन संस्था के सचिव व आलोचक अमिताभ राय जी थे। इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में युवा आलोचक वाराणसी कमलेश वर्मा जी व जे०एन०यू० से हिंदी के विद्वान ओमप्रकाश सिंह जी व महत्वपूर्ण कवि मदन कश्यप जी थे। उन्होंने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि यह हमारे कार्यक्रम के श्रृंखला की तीसरी कड़ी का महत्वपूर्ण आयोजन है। इसके श्रृंखला में हमने बाबूलाल की किताब व दूसरी श्रृंखला में कवि अशोक बाजपेयी जी की पुस्तक पर इस तरह का आयोजन किया था। और यह हमारे श्रृंखला की तीसरी कड़ी है जिसमे हम आज श्रीप्रकाश शुक्ल जी द्वारा संपादित इस महत्वपूर्ण पुस्तक पर इन विद्वानों के बीच चर्चा व परिचर्चा कर रहा हूँ, और यह हम सबके लिए सुखद भी है।
उन्होंने बताया कि यह पुस्तक दस से बारह दिनों में छप कर हमारे पाठकों तक पहुंच जाएगी। पर इससे पहले सेतु प्रकाशन इस महत्वपूर्ण पुस्तक पर परिचर्चा करने हेतु प्रमुख विद्वानों को आमंत्रित किया है। आगे आने वाले समय मे हम और इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करते रहेंगे। इसके पहले आज आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक जागतिक आचार्य नामक पुस्तक पर परिचर्चा आयोजित हुई है। इस पुस्तक में अनेक महत्वपूर्ण विद्वानों के लेख संकलित हैं। जो कि परिचय पत्रिका के 2007 के विशेषांक से संवर्धित है। पर इसे इसका पुनर्प्रस्तुति न समझा जाए।
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संवाद की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शताब्दी वर्ष पर 'परिचय' पत्रिका ने अपना विशेषांक निकाला था इस पुस्तक में अनेक विद्वानों के लेख, निबंध आदि संकलित थे, जिसे संपादक ने अपने सार्थक शाब्दिक अभिव्यंजना के द्वारा इसे संवर्धित व ऊर्जस्वित करते हुए आगे बढ़ाया है। हम इस कार्यक्रम में इस किताब के माध्यम से यहाँ द्विवेदी जी पर चर्चा करने के लिए आज इकट्ठे हुए हैं।
वैसे द्विवेदी जी का महत्व हिंदी साहित्य में अनेक कारणों से रहा है, यह एक विशेष जो लोक के प्रति उनकी अखण्ड आस्था को दर्शाता है। और अगर आज की आलोचनात्म भाषा मे मैं बात करूं तो द्विवेदी जी आधुनिकता के सम्भवतः पहले आलोचक रहे हैं। इस पुस्तक में नित्यानंद तिवारी सत्तमी दुबे, शिवकुमार मिश्र, शंभूनाथ जी व खगेन्द्र ठाकुर के लेख हैं।
इस पुस्तक में द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के साथ कृतित्व का जो महत्वपूर्ण है, उसे इसमें संजोया गया है। इसमे सत्रह निबंध हैं। इस तरह यह पुस्तक हम सभी पाठकों के लिए बेहद मूल्यवान है।
**************************प्रतम वक्ता के रूप में बोलते हुए श्री कमलेश वर्मा ने कहा कि जब यह पत्रिका छपी थी तो द्विवेदी जी मौजूद थे, और जब जब उनपर यह किताब छप रही है तो वे इस संसार मे नही हैं। उन्होंने कहा कि द्विवेदी जी आधुनिकता के पहले आलोचक हैं। उनको सांस्कृतिक परंपरा की पूरी जानकारी थी। आलोचना के मानदण्डों के पीछे उनका देशज होना है। जिन अर्थों में हम द्विवेदी जी के लिए यह पद इस्तेमाल करते हैं वैसा नही है। आप इस पूरी पुस्तक को सुरु से अंतिम तक देखेंगे तो पाएंगे कि सांस्कृतिक परंपरा में उन शब्दों को प्वाइंट करते हुए इनके इर्द गिर्द जो निबंध है उनका विश्लेषण करते हुए जितने मात्रा में निबंध आये हैं शायद वो इन बातों की एक छोटी सी गवाही हो। यह किताब द्विवेदी जी का मूल्यांकन तो करती ही है और जिन पर पहले विचार हुए थे उन पर फिर विचार करती है और कुछ नए पक्षों को भी लेकर हमारे सामने आती है।
तो जाहिर सी बात है कि जब पाठक के हाँथ में यह किताब आएगी तो लगेगा कि कुछ हमने नया भी जाना है। व पुराने पक्षों पर पुनर्विचार नही करती बल्कि हमने नया भी कुछ जाना है।
इस तरह कुछ नए पक्ष व कुछ पुराने पक्ष ही इस किताब की खूबसूरती है।
श्रीप्रकाश जी ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि बनारस को और बीएचयू के हिंदी विभाग को और और उस विभाग में काम करने वाले लोगों को जिसमे श्रीप्रकाश जी खुद शामिल हो सकते हैं जबकि द्विवेदी जी तो खुद शामिल हैं ही
ये लालित्य बहुत है। इस पुस्तक में विभाग द्वारामें हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेखन लालित्य पर भी खूब चर्चा हुई है।
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जे०एन०यू० के हिंदी विभाग के प्रो० ओम प्रकाश सिंह ने अपने पहले वक्तव्य में ही इस जागतिक विषय पर अपना पक्ष रखते हैं और कहते हैं कि श्रीप्रकाश जी ने बड़े ही परिश्रम से इस किताब को तैयार किया है। क्योंकि जिस तरह से जागतिक व अन्य शब्दों को लेकर चौका
उसी तरह श्रीप्रकाश जी भी इन शब्दोँ से चौके थे इसका प्रमाण उनकी भूमिका में भी मिल जाता है।
उनका जागतिक की बात जगत और जागृत के रूप में जुड़ता है। इस सन्दर्भित उन्होंने पुस्तक की भूमिका लिखने पर श्रीप्रकाश की जम कर तारीफ भी करते हैं। और कहते हैं कि ज्यादेतर संपादक इससे भागते हैं। पर श्रीप्रकाश जी ने उन पक्षों को समूल रूप से उद्घाटित किया हैं
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इस पपुस्तक में तीन तीन पीढ़ी के रचनाकार एक साथ सक्रिय हैं जो कि सुखद है ।
उन्होंने सूरसागर का हवाला देते हुए कहा कि किसी भी रचनाकार के विवेचन व विश्लेषण के संदर्भ में लगातार नए पक्ष जुड़ते जा रहे हैं। इसी बीच वे द्विवेदी जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर भी व्यापक चर्चा करते हैं। और कहते हैं कि आचार्य द्विवेदी का लेखन कार्य आलोचना में भी है और साहित्य के इतिहास में भी है, परंपरा में भी है, और उसके सांस्कृतिक साहित्य पर भी है और निबंधों में भी है। इस तरह वे कहते हैं कि शुक्ल जी द्वारा संपादित यह पुस्तक बेहद महत्वपूर्ण है जो द्विवेदीजी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व का विश्लेषण करती है। उनके इस समय के रचनाकार के प्रभाव की सबसे बड़ी विशेषता है यह है कि हम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी व उनके साहित्य का जब भी मूल्यांकन में प्रवित्त होंगे और उनपर बात चीत करेंगे तो उसमें कुछ न कुछ नया जुड़ता जाएगा।
उन्होंने कहा कि परिचर्चा के इस क्रम में इस तरह कुछ न कुछ छूटता जाता है । और इस छूटन को समेट लेना ही संपादक का कार्य है। इस कार्य को श्रीप्रकाश जी ने किया है। लिए मैं उनको साधुवाद व बधाई देता हूँ।
आज जब आलोचना की पुस्तकें कम लिखी जा रही हैं तो ऐसे दौर में श्रीप्रकाश जी द्वारा इस तरह की पुस्तक पर कार्य करना बेहद महत्वपूर्ण है।
अपने वक्तव्य में समय के महत्वपूर्ण कवि मदन कश्यप जी ने कहा कि श्रीप्रकाश शुक्ल जी मेरे प्रिय कवि भी हैं। वे हमेशा कुछ न कुछ अलग करते हुए चौंकाते रहते हैं। इसी बीच उन्होंने उनकी एक कविता प्रधानमंत्री के नाम जनता का संदेश नामक कविता का भी जिक्र करते हैं। यहीं नही इस कोरोनाकाल मे लिखी जा रही कोरोजीवी कविता की सैद्धान्तिकी का श्रेय भी उन्ही को देते हैं।
इस तरह वे कहते हैं कि श्रीप्रकाश जी कोरोजीवी कविता की अवधारणा के जनक हैं। इस किताब के सन्दर्भों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि किताब को पढ़ने पर मुझे लगा कि आचार्य द्विवेदी जी ने इसे जैसा समझा और श्रीप्रकाश जी ने उसे उसी हिसाब से रखा भी है। इस तरह वे जगत और जागृत दोनों के अर्थ को लेते हैं। इसी बीच वे अपने गुरु आलोक शास्त्री जी के संदर्भों को रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि कोई भी शब्द पर्यायवाची नही होता हर शब्द का अपना एक अलग अर्थ होता है। संसार, विश्व और जगत ये तीनों ही पर्यायवाची हैं लेकिन सांसारिकता इसका एक दूसरा अर्थ है और वैश्विकता का भी एक अलग अर्थ है। और जागृत का तीसरा और एक अद्भूद अर्थ है। बल्कि इस पर चर्चा करने के पहले वे आचार्य द्विवेदी जी के दो किताबों पर चर्चा करते हैं, देश परदेश' और दूसरी परंपरा की खोज इस तरह व कहते हैं कि एक सांसारिक आचार्य के रूप में द्विवेदी जी का जो व्यक्तित्व है। उसे सबसे पहले विश्वनाथ त्रिपाठी जी रखते हैं और उसके माध्यम से उनके विचार यात्रा तक चलते हैं।
उन्होंने कहा कि ठीक इसके पहले नामवर जी उन्हें एक वैश्विक आचार्य के रूप में मान्यता दी है।
इस तरह सिर्फ द्विवेदी जी के जीवन है नही बल्कि उन परंपरा, आलोचना की बात करते हैं।और ये जो जागतिक शब्द की अर्थ अंतर्निहित हो जाते हैं।
जागतिक वह है जो सांसारिक भी है और वैश्विक भी द्विवेदी जी ने अपनी इस भूमिका में बहुत ही सम्पूर्णता में लिया है। और लेखन को समझने के लिए बहुत सारे श्रोत निकाले हैं। जिसे श्रीप्रकाश जी ने भी निकाला है। उनके लेखन के आधार पर विस्तृत चर्चा उन्होंने अपनी भुमिका में किया है। जिसका जिक्र ओमप्रकाश जी भी करते हैं। आचार्य द्विवेदी जी भौतिकता की पक्षधरता के वे आचार्य थे और भारत की आध्यात्मिक परंपरा व सांस्कृतिक परंपरा का जितना गहरा ज्ञान उन्हें था उतना हूत कम लोगों के पास है।
था वे भौतिकता के पक्षधर भी रहे हैं। और उन्होने कयी बार कहा भी है जिसका विस्तार इस भूमिका में भी मिलता है।
इस तरह सौन्दर्य की सुंदरता की नई व्याख्या जो संघर्ष की अवधारणा में निहित है।
यहाँ वे समाज व व्यक्ति के सन्दर्भों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि समाज व व्यक्ति का सच एक जैसा होना चाहिए।
लेकिन द्विवेदी जी ने उसको कैसे समझा था उसे श्रीप्रकाश शुक्ल जी ने अपनी भूमिका में लिखा है कि व्यक्ति मनुष्य और समष्टि मनुष्य दो रूपों के माध्य्म से
व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंधों को भी नहीं समझा है। उसकी व्यापकता को अवधारणा के भीतर समेटने की जो कोशिश द्विवेदी जी ने की है।उसकी शुक्ल जी ने अच्छे से व्याख्या की है।
दूसरी चीज यह कि यह भारतीय परंपरा पूर्णतः आध्यात्मिक परंपरा है। द्विवेदी जी बार-बार उससे सामंजस्य बैठाते हैं। इस पक्ष का भी विश्लेषण शुक्ल जी ने दो से तीन पैरा में ही इस पुस्तक में किया है।
जिसे मदन जी खुद महत्वपूर्ण मानते हैं। इस भूमिका में कुछ काट भी है जैसे अविछिन्नता कि अवधारणा जिसमे जाहिर है कि अविछिन्नता का मतलब समग्रता भी है। और अपनी तरफ से इस अवधारणा की व्याख्या भी जो द्विवेदी जी के पक्ष से एक अपनी नई व्याख्या शुक्ल जी ने इस पुस्तक में की है।
इसी बीच वे द्विवेदी जी के महत्वपूर्ण वाक्यों को भी दुहराते हैं। जैसे मंत्र वेद होने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है आत्मवेद होना।
इससे पता चलता है कि उस पूरी कर्मकाण्डी परंपरा के बूते वे खड़े होते हैं इस तरह इंशानी चीजों को देखने के लिए श्रीप्रकाश जी ने अपनी भूमिका में अच्छा लिखा है। कि वे संस्कार से परंपरावादी और मन से आधुनिक थे यह द्विवेदी जी को समझने के लिए महत्वपूर्ण सूत्र है। इस तरह वे आधुनिकता व परंपरा के माध्यम से द्विवेदी जी को समझा जा सकता है।
वे कहते हैं कि आत्मवेद में चैतन्य है, जागरण है और मंत्रवेद में कर्मकांड है
जहाँ द्विवेदी जी मष्तिष्क के साथ रीढ़ के होने की बात करते हैं जो आज के संदर्भों में ज्यादे जरूरी भी है।
इस तरह वे कहते हैं कि ज्ञान के साथ साहस का होना जरूरी है।
श्रीप्रकाश जी लिखते हैं कि ठंढ से नही मरते शब्द मर जाते हैं साहस की कमी से
इस तरह उन्होंने इस पक्ष को जोड़कर उसे परंपरांगत चिंतन विचारों से जो मध्ययुगीन विचारों वाले लोग हैं उनसे बिल्कुल अलग आधुनिक विवेक से ज्ञान को जोड़ा है। जिसमे ज्ञान का उपयोग परंपरांगत ज्ञान में परिवर्तन व बदलाव किया जाना अपेक्षित है।
इस तरह इस भूमिका को पढ़ने से लगता है कि इस भारतीय संस्कृति एवं परंपरा व द्विवेदी जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को समझने के लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण है।
वे कहते हैं कि मैं इस पुस्तक की भूमिका के इस पक्ष को देख रहा हूँ कि यह एक ऐसा पक्ष है जिसमे हम उनके जटिलता के साथ-साथ भारतीय सांस्कृति की जटिलता को भी समझने की एक खिड़की खोलती है। इस प्रकार से हम पाते हैं कि इस पुस्तक पर उन्होंने काफी परिश्रम से उपयोगी कार्य किया है। मैं इस महत्वपूर्ण कार्य के संपादन हेतु उन्हें साधुवाद व बधाई देता हूँ।
इसी बीच वे सेतु प्रकाशन की प्रकाशकीयता पर भी विस्तार में प्रकाश डालते हैं और तारीफ भी करते हैं। और कहते हैं कि सेतु प्रकाशन के लिए यह पुस्तक आलोचना के रूप में सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक होगी।
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बतौर संपादक के तौर पर अपनी बातों को निष्पक्ष रूप से रखते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल जी ने कहा कि कमलेश जी ने बहुत ही सार्थक वक्तव्य दिया, और आदरणीय ओमप्रकाश जी ने सुचिंतित वक्तव्य दिया और मदन कश्यप जी ने बहुत ही व्यवस्थित वक्तव्य दिया। इस प्रकार सार्थक, सुचिंतित व व्यवस्थित इन तीनों विद्वानों के वक्तव्य के उपरांत मेरे लिए कुछ भी कहना कठिन है। इसी बीच वे आयोजन के सचिव अमिताभ जी का व संस्था के प्रति अभवादन व आभार प्रकट करते हुए कहते हैं कि उन्होंने इस कोरोनाकाल मे भी इस पुस्तक पर प्री बुकिंग परिचर्चा जो पश्चिम की बुक लॉन्चिंग सेरेमनी आय कह सकते हैं जो कि जोड़ा उन्होंने इसके बाद पुस्तक प्रकाशित होगी इसपर फिर चर्चा भी होगी इसके पूर्व और हम इस पुस्तक के बारे में बार-बार सुनेंगे जानेंगे इसके पूर्व हम इस विद्वानों की टिप्पणियों के माध्यम से हम इस पर जानेंगे।
उन्होंने कहा कि द्विवेदी जी की इस पुस्तक का संपादन 2007 में उनकी शताब्दी वर्ष के अंतर्गत हुवा था, इस तरह यह एक ऐतिहासिक पत्र है। जी शांतिनिकेतन से शिवालिक तक उनके षष्ठ कुर्ति पर 1967 में प्रकाशित हुई थी और परिचय का यह विशेषांक 2007 में उनके शताब्दी वर्ष पर प्रकाशित हुवा था। जी कि यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष का विषय है की सेतु प्रकाशन इस पुस्तक का प्रकाशन कर रहा है तो उस हिंदी विभाग का शताब्दी वर्ष भी है जिस हिंदी विभाग में द्विवेदी जी कभी कार्यरत थे। और इसी में मुझे वर्तमान में सेवा करने का अवसर मिला है।
कुल मिलाकर शांतिनिकेतन से शिवालिक तक के1967 से लेकर परिचय 2007 के प्रकाशन से होते हुए 2020 तक के इस सफ़र की जो तिथियाँ हैं इन तिथियों का अपना महत्व रहा है।
आचार्य द्विवेदी जी की चर्चा तो पुस्तक आने के बाद आगे भी होती रहेगी पर मेरी कोशिश ये रही है कि तब और अब भी कि द्विवेदी जी के सभी पक्षों पर कुछ न कुछ यहाँ पर जरूर राखूं जिससे शोधार्थियों शिक्षकों और छात्र-छात्राओं को अधिक से अधिक लाभ पहुंचाया जा सके। सर्जक और लेखक तो लाभान्वित होते ही रहते हैं।
आगे वे कहते हैं कि द्विवेदी जी बहुत ही शुद्ध व मेधी लेखक रहे हैं। पर किसी कारण से बहु- विधात्मक लेखन भी किये हैं। जैसे आलोचना, निबंध, कविता, जयोतिष आदि बहुत सारी विधाएं, इस तरह उनके व्यक्तित्व को देखा जाए तो जाहिर सी बात है कि इनकी एक-एक विधाओं पर बड़ी से बड़ी चर्चा हो सकती है।
इस पुस्तक में कुल 28 अठ्ठाईस लेख हैं कहीं भूमिका को छोड़कर के और उआँ 28 लेखों ने निश्चित रूप से बहुत सामग्री ऐसी मिलेगी जो द्विवेदी जी पर अबतक उपलब्ध नही हो पायी है।
वे यह भी कहते हैं कि परिचय पत्रिका का जो विशेषांक आया था, उसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ सामग्री इसमे जोड़ी गई है। जैसे काशी हिंदू विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग तथा बनारस का उनसे अन्तर्सम्बन्ध खासकर उनके कार्यकाल में विभाग से जुड़े प्रसंग आदि उसे भी जोड़ा गया है।
इस तरह द्विवेदी जी के शांतिनिकेतन से शिवालिक तक कि यात्रा व फिर बनारस वापसी व अन्यान्य अंतर्संबंधों पर भी व्यापक चर्चा की गई है।
उन्होंने यह भी कहा की जब मैं 2005के बनारस बीएचयू में आया तो उसके तुरंत बाद मेरी मुलाकात हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से हुई, उसके बाद मेरी प्रगाढ़ता बढ़ती ही गयी और उनके प्रति मेरा रुझान भी बढ़ता गया। उसका एक कारण यह भी था कि वे मुझे अत्यधिक स्नेह भी देते थे। इसी बीच वे ।जूझे अपने घर भी ले गए इस तरह वे द्विवेदी जी के साथ बिताए पल के तमाम संस्मरणों को भी सुनाते हैं।
और कहते हैं कि मेरे मन मे द्विवेदी जी के प्रति पहला व्यवस्थित रूप से सुरु करने का विचार मुकुंद जी के संपर्क में आने के बाद हुवा, ख़ासकर एक बात जो मेरे मन मे बार बार उठती है कि बनारस में सबकुछ है बीएचयू आचार्य शुक्ल शोध संस्थान लेकिन इस बात को लेकर मुझे पीड़ा होती रही कि आचार्य द्विवेदी जी को लेकर कोई भी संस्थान यहां नही है।
सोचता हूँ कि जो व्यक्ति जीवन के जागतिक पक्ष पर जीव जगत व प्रकृति व मनुष्य के संबंधों पर संघर्षों पर बराबर सोचता रहा उस पर पूरे बनारस में कोई हलचल नही थी। इसी बात को लेकर जो मेरे मन मे बात उठी उसी को लेकर मैन एक भूमिका लिखी है। और मैन कोशिश भी की है उसमे उनकी पीड़ा को भी मैंने लिखी है।
वैसे उसकी भूमिका थोड़ी लंबी है पर आप पुस्तक को पढ़ेंगे तो बहुत कुछ पाएंगे।
वे यह भी कहते हैं कि मेरा इस महान पुस्तक पर लिखने का कोई महान इरादा नही था और आज भी नही है, पर आज जो पुस्तक सेतु प्रकाशन से आ रही है इसमे आपको कुछ नई चीजें मिलेंगी। इस तरह वे चर्चा करते हैं कि मुझे शीर्षक को लेकर जो सूत्र मिला वो मुझे इस तरह द्विवेदी जी पर कुछ अलग ही सोचने के लिए बाध्य किया जिसे चिंतन के दौरान मुझे इस पुस्तक के शीर्षक को लेकर सूत्र मिला।
इस तरह यह द्विवेदी जी पर साधारण तरीके से उनके असाधारण व्यक्तित्व के बारे में सोचने की मैंने कोशिश जरूर की है और इतना विशाल व्यक्तित्व है आचार्य द्विवेदी व आचार्य शुक्ल जी का कि हम लोग कहीं से सुरु करेंगे तो पहुंचेंगे उन्ही के यहाँ।
इस तरह की जो समस्याएं हैं या जो भिन्नताएं हैं उनपर कोई नही जानता पर उनके जागतिक पक्ष पर सोच रहा था कि द्विवेदी जी के बारे में में जो उनकी पुस्तक लालित्य तत्व है, तो लालित्य तत्व में उनका एक वाक्य आता है जिसे वहीं से आरंभ किया था मैंने जब वो लालित्य तत्व पढ़ा था लेकिन मुकुंद द्विवेदी से जब मेरी बात होती थी तो लालित्य तत्व पर होती थी क्योंकि उन्होंने मुझे इसकी पूरी सूची दी थी।
1936 में आचार्य द्विवेदी जी की पहली पुस्तक सूर साहित्य प्रकाशित हुई थी वहां से लेकर लालित्य तत्व की पूरी सूची मुझे दी थी और मुझसे कहते थे कि द्विवेदी जी को समझना ही तो क्योंकि वे जसनते थे कि मैं कविताएँ लिखता हूँ और मैं बनारस में आ गया हूँ। क्योंकि इसके पूर्व मैं यहां नही था उनसे इतना संपर्क भी नही था अतः वे कहते थे कि आप लालित्य तत्व को पढ़िए क्योकि उससे आपके कवि मन को प्रेरणा भी मिलेगी।और द्विवेदी जी को समझने की पूँजी भी।
उनके इस वाक्य पर मेरा ध्यान गया। जब पढ़ना सुरु किया था तो 2006 के आस पास आज के करीब 14 वर्ष पहले उसमे एक वाक्य आता है कि स्थूल जगत को छोड़कर मनुष्य जी नही सकता और अपने देशकाल की सीमाओं से अस्पृश्य रहकर कोई शिल्प सृष्टि नही कर सकता।
अब ये अस्पृश्यता जगत को छोड़कर कोई मनुष्य जी नही सकता क्योंकि इसमें जो जगत की स्थूलता है, ये द्विवेदी जी के यहाँ बार-बार अति है। उनके उपन्यासों में भी आती है और निबंधों में भी आती है। तो ये जो जगत है असल मे इसमे जगत के व्यापने का भाव ही समाहित है। और वहीं प्राणी जगत अगर है तो उसमें गति अवश्य है। इस तरह गति को छोड़कर के जगत को नही समझा जा सकता , ये समझ मेरी दद्विवेदी जी को पढ़ने व पढ़ाने की प्रक्रिया में ही बनी है और वहीं मेरी इस पुस्तक 'आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक जागतिक आचार्य' पुस्तक की प्रेरणा स्रोत रही है। और इसमे तुलसी की याद का आना स्वाभाविक है कि सबसे भले विमूढ़......जनहिं न व्यापति जगत गति।।
अब जो जगत गति है यानी कि तुलसी जी शुक्ल जी के साथ द्विवेदी जी के भी प्रिय रहे हैं। तो जगति गति की जो व्यपकता है यानि कि जगति नही जगत गति की जो व्यापकता है यह द्विवेदी जी के यहाँ तुलसी जी के माध्यम से जिस तरह से आई और उसके पीछे की जो परंपरा है, तो जिनहिं न व्यापहिं जगत गति में मुझे जिस प्रकार जगत के गति की सम्भावना दिखाई देती है। वो मुझे बडी नयी दृष्टि लगी थी। द्विवेदी जी को पढ़ते समय....! और जिसमे गति की गूंज हो तो मैंने साफ-साफ सुनने की कोशिश की है। क्योंकि गति के बगैर ये जो जगत है, रूढ़ है या रूढ़ हो जायेगा, ठहर जाएगा इसकी समझ मुझे द्विवेदी जी की रचनाओं से मिली। वे बार-बार लिखते हैं कि मानवी आदान-प्रदान इन्हीं जागती प्रपंचों के बाद चलता है। अब ये जागतिक प्रपंच है मानवीय व्यापार यहीं जगत गति है। ये बार-बार द्विवेदी जी के यहां दिखाई देता है। यहीं से द्विवेदी जी की सबसे बड़ी व्यवस्थित समझ है। कि पश्चिम की भारत व्याकुल आध्यात्मिकता को अपनी रचना में रखते हैं और सम्बंधों को वे समझने की कोशिश वे करते हैं। और भारत के सांस्कृतिक व्यवस्था के भारत निर्माण को समझने की कोशिश करते हैं।
आप उसमे व्यवस्थित चित्त की बात देखिए कि जगत में गति आई और गति में समष्टिगत चेतना है। तो जगति गति के माध्यम से समष्टिगत चित्त की ओर हमेशा अग्रसर होता रहता है
और यह जोवैज्ञानिक शब्दावली है ये जो समष्टिगत चित्त है उसमें भारतीय मनीषा काम जिसे मैं कहता हूँ कि यह सामान्यकोटि है और यहीं से जो है जिसका माध्य्म से सामान्य मनुष्य अपना समूल तत्वों का विकाश भी करता रहता है। इस तरह यह जागतिक शब्द से जागतिक में बदला जा सकता है। लेकिन ये मुझे जागतिक शब्द का प्रयोग उनकी रचनाओं में दिखाई दिया। इस तरह मैं जो सोच रहा था द्विवेदी जी वे ही सोच रहे थे। इस प्रकार उनके सोचने व मेरे सोचने
में एक खास दृष्टि का अंतर नही था।
इसी बीच वे उनके निबंध अशोक के फूल से संकलित भारत मे वर्ण की सांस्कृतिक समस्या पर भी चर्चा करते हैं। और कहते हैं कि इस जागतिक व्यवस्था ने जनता को उदासीन बना दिया है। यह शुद्ध वाक्य है जो भक्तिकाल को समझने का आधार देता है। ये जो जागतिक शब्द का सर्वाधिक संकेत या प्रयोग द्विवेदी जी ने किया है ऐसा भारत की सांस्कृतिक समस्या में दिया है।
ये जो जगत है, मनुष्य है उसके साथ जो प्रकृति है मनुष्य व प्रकृति के संघर्ष में उस सौन्दर्य का सृजन होता है। जिससे इस साहित्य का स्वर कहीं न कहीं शामिल रहता है।
क्योंकि यहां पर जगत भी है, विवेक भी है और बोध भी..!
द्विवेदी जी इस जगत के माध्यम से वे जगत का ही बोध नही कराते बल्कि विवेक और वैराग्य की भी बात करते हैं।
इस तरह द्विवेदी जी केवल जगत के जागतिक बोध प्रबंध की बात करते हैं। जिसे समझने की ही बात नही करते, वे कहते हैं कि बोध हो गया तो विवेक आयेगा, जो आधुनिक चेतना है उसके बाद वैराग्य आएगा, को आगे की जितना है आधुनिकता का जो परिष्कृत रूप है
इस प्रकार मैं कहना चाहूंगा कि द्विवेदी जी का जो व्यक्तित्व था ओ कबीर के विद्रोह व सुर के प्रेम और तुलसी के ऐश्वर्या से भी बना हुवा है। उसमे मानव जीवन में जो मिश्रण था वे इन्हीं रचनाकारों के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं।📚✍️
प्रस्तुति : मनकामना शुक्ल 'पथिक'
संपादक संपर्क सूत्र :-ईमेल : corojivi@gmail.com
मो.नं. : 8429249326
मनकामना शुक्ल पथिक ने बड़े ही मनोयोग से यह रपट प्रस्तुत किया है और उतने ही अच्छे से इसे तुमने यहां लगाया है।दोनों लोगों के लिए शुभ कामनाएं।
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