Monday, 15 February 2021

" महामारी में निराला और उनकी रचनाएं " : आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल || प्रस्तुति : आर्यपुत्र दीपक & मनकामना शुक्ल पथिक || गोलेन्द्र पटेल



कवि आलोचक व आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल

     निराला जयंती : 2021
 

 " साहित्य बीसवीं सदी को सूक्ष्मानुओं और शब्द के संघर्ष की सदी के रूप में देखता है इस दृष्टि से निराला बीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर के बड़े रचनाकार हैं। "

                                         - प्रो० श्रीप्रकाश शुक्ल


प्रगतिशील लेखक संघ, उत्तर प्रदेश के आमुख पटल पर हिंदी के ख्यात कवि और हिंदी विभाग, बीएचयू के आचार्य प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल का 'निराला की 122 वीं जयंती'  पर आयोजित विशेष तीन दिवसीय व्याख्यान के तहत प्रथम दिन " महामारी में निराला और उनकी रचनाएं " विषय पर व्याख्यान कल देर शाम सम्पन्न हुआ । इसका संयोजन और संचालन प्रयागराज के प्रकर्ष मालवीय विपुल ने किया । जिन्होंने लेखक का संक्षिप्त परिचय के साथ व्याख्यान का औपचारिक शुरूआत किये।


                     इस अवसर पर बोलते हुए प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि बहुलांश आलोचकों के अनुसार आज महाप्राण निराला का 122 वीं जयंती मना रहें हैं। 

                            आचार्य शुक्ल निराला के महामारी के मानस पर अपना व्याख्यान केंद्रित करते हुए कहते हैं कि निराला के रचनात्मक मानस के पीछे बीसवीं सदी की महामारी का बड़ा योगदान रहा है । उनके यहां जो महामारी का संदर्भ मिला खासकर महामारी और बसंत का जो संदर्भ मिला उसमें गद्य और पद्य दोनों के संदर्भ जुड़ते है। क्योंकि दोनों में ही कवि का बासंतिक मन सक्रिय रहकर महामारी पर विजय की कोशिश करता  रहा है। यह उनके भीतर लगातार संघर्ष की प्रेरणा देता रहा है और यह जो बासंतिक मानस है वह उस समय के महामारी के पृष्टभूमि को इंगित करती है।

                                     1920 के आरंभ में निराला का कवि कर्म उनका रचना संसार जिस रूप में बनता है उसके ऊपर महामारी की छाया मुखरता से देखी जा सकती है क्योंकि  एक तरफ यह समय प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय का है जिसमें एक तरफ प्लेग की महामारी समाप्त हो रही होती है और दूसरी तरफ स्पेनिश फ्लू भारत में दस्तक दे रहा होता है। निराला की  कृतियों से गुजरते हुए इन सब स्थितियों का  पता चलता है । यहां कहने का ये मतलब है कि निराला का रचनात्मक मानस महामारी की पीड़ा से विकसित होता है। निराला इन कठिन जीवन स्थितियों के बीच रचने वाले कवि रहे हैं।

                    निराला के 'अलका'(1935 ) उपन्यास के माध्यम से आपने इनफ्लुएंजा महामारी और उस दौर में निराला जिस रूप में इससे प्रभावित हुए इसके बारे में भी एक गम्भीर चर्चा किया । इस अवसर पर आपने विस्तार से 'कुल्ली भाट' (1939) नामक कृति की भी चर्चा की।

आगे आपने कहा कि जब हम उनकी कविता की बात करते हैं तो 1920 से निराला का रचना संसार शुरू होता है साथ है, "जूही की कली" से हम उनका रचनात्मक शुरुआत मानते है तो प्रथम दौर की कविताएं 1920 से 1932 तक यानी गीतिका के प्रकाशन के पहले आती हैं।यह  दौर महामारी की पृष्ठभूमि में निराला के आहत मन का दौर होता है जो उनके कविताओं में दिखाई देता है लेकिन साथ-साथ उनको उस बीमारी के दबाव के भीतर से बसंत की अनुगूंजे भी सुनाई देती है ।

                             निराला में बीमारी और बसंत दोनों के बीच एक गहरा सामंजस्य है और इसीलिए निराला में बीमारी के दबाव तो है ही लेकिन बसंत के विविध स्वरूप देखने को मिलता है जो किसी अन्य कवि में दिखाई नहीं देता । इस नाते बसंत के नाना रूपों की सक्रियता से एक तरफ जहां निराला का कवि मानस बनता है तो वहीं पर महामारी का संत्रास और उसके दबाव से भी उनका कवि मानस निर्मित होता है ।

ऐसे दौर में अगर देखें तो 1935 में प्रकाशित 'अलका' उपन्यास उसके बाद 1939 में प्रकाशित  'कुल्ली भाट'  रेखाचित्र है लेकिन 'अलका उपन्यास' में  इन्फ्लूएंजा महामारी का जिस प्रकार वे जिक्र करते हैं वह रोंगटे खड़े करने वाला है और इस पृष्ठभूमि में जब निराला की समग्र रचनाओं मूल्यांकन करते हैं ।

                                   हमें नहीं भूलना चाहिए कि बीसवीं सदी को 'महामारी की सदी' कहा गया है। बीसवीं सदी की शुरुआत ही पोलियो, सार्स , इबोला , फ्लू और जीका जैसे विनाशकारी एवं भयावह वाइरस से होता है। संदर्भ स्वरूप आपने 'मार्क होनीबोम' , चिनमय  तुंबे व  रोमिन जॉन बेंलगु की  पुस्तकों के आधार पर बताया कि   युद्ध और महामारी के बीच बहुत गहरा रिश्ता रहा है। 1918 में इन्फ्लूएंजा के महामारी जो हिंदुस्तान में हुआ उसके पीछे भी युद्ध का बहुत गहरा प्रभाव था । 

                            आगे लुईस पाश्चर को संदर्भित करते हुए कहते हैं - " it is the microbes , that will hide the last word in the 20th century ." यानी ये रोगाणु ही होगें जो बीसवीं सदी में निर्णय की अंतिम स्थिति में होगें । लुईस पाश्चर के एक और उद्धरण का जिक्र करते हुए आप कहते हैं " Microbes that will rule the world ." प्रसंगवश उन्होंने 5वी सदी ईसा पूर्व एथेंस की महामारी का भी ज़िक्र किया। इसी संदर्भ में महामारी के भयावहता को देखते हुए ग्रीक इतिहासकार थूशी राइड के उद्धरण का जिक्र कहते हुए आप ने कहा कि " कोई ऐसा घर ना था जिसमें लाश ना रह रहा हो । " संभवतः ये स्थिति एथेंस और स्पार्टा के बीच हुए भयंकर युद्ध से उत्पन्न हुई प्लेग और अन्य महामारी का परिणाम था ।

               महामारी में साहित्य की भूमिका पर बात करते हुए आप ने कहा कि महामारी का भयजनित प्रभाव कई बार महामारी से ज्यादा भयावह और भयानक होता है और इस भयावहता को समझने और सुलझाने का काम उस समय का साहित्य करता आया है।

                  बीसवीं सदी में मनुष्य और प्रकृति के बीच जो असंतुलन आया उसी का परिणाम बीसवीं सदी में आयी तमाम महामारियां है । ठीक वहीं स्थिति 21 सदी के प्रारंभ में भी देखने को मिल रही है । जिसमें हम कोरोना , इबोला और जीका जैसे खतरनाक वाइरस से लड़ रहें हैं।

         आगे आप ने कहा कि परिवेश, पर्यावरण और मानव व्यवहार की सर्वाधिक चिंताएं अगर कहीं है तो वह साहित्य में दिखाई देती है जहां से साहित्य अपना स्रोत ग्रहण करता है जहां से वह शब्द संपदा को विकसित करता है । इसी संदर्भ में ' द प्लेग ' नामक प्रसिद्ध उपन्यास के रचनाकार अल्बर्ट कामू के माध्यम से कहते हैं कि " ये महामारियां है तो अपूर्वानुमय लेकिन बार बार आती रहेंगी ।" 

              आगे आप स्टालिन के एक वाक्य का संदर्भ लेते हुए कहते हैं कि " एक व्यक्ति की मृत्यु तो संवेदना हो सकती है लेकिन अनेकों की मृत्यु आंकड़ों से अधिक कुछ भी नहीं .." यहां कहने का मतलब है दुनिया में महामारी जब भी आयी है मनुष्यता को तिल तिल कर मारा है । इस संदर्भ को कोरोना महामारी में भी देख सकते हैं। 

              कोरोना महामारी में प्रशासन के लापरवाही और दबंगई पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि " आपदा में आदेश देने का रोग बहुत सनातन है । " जिसे हाल के वर्षों में आयी महामारी में वैश्विक परिदृश्य में देख सकते हैं । 

                             महामारी के मनोजगत को वगैर उस समय के साहित्य को पढ़े नहीं जाना जा सकता है । इस क्रम में जब निराला की  दो प्रमुख रचनाओं पर आते हैं तो जिनमें प्लेग महामारी और इन्फ्लूएंजा महामारी का जिक्र आता है एक तो 'कुल्लीभाट' जिसकी इस करोना काल में भी जिक्र होता रहा लेकिन 'अलका' नामक उपन्यास में महामारी के मानस का जैसा चित्रण उन्होंने किया है जो 1935 में लिखा उपन्यास है उसकी चर्चा बहुत कम सुनाई दी।

                          'अलका' उपन्यास महामारी के दबाव में लिखा गया उपन्यास है और किसानों और कुलियों की शिक्षा की अवस्था में मदद करने वाला भी उपन्यास है । आज 2020 के किसानों के आंदोलन और महामारी के संदर्भ में 'अलका' उपन्यास महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आज इसकी जरूरत है । रोचक बात यह है कि स्थितियां लगभग इसमें वही है जो आज कोरोना काल में मिलती हैं। 

            इस अवसर पर उनकी कविताओं की विस्तृत चर्चा करते हुए  आपने कहा कि निराला के यहां बीमारी का संघर्ष और महामारी का संत्रास दोनों मिलता है। निराला के लेखन का पर्याप्त हिस्सा महामारी के मानस के बीच लिखा गया है । जीवन के आरंभ में ही महामारी से मृत्यु का जो तांडव  निराला ने देखा था उससे वह जीवन भर मुक्त नहीं हो सके । उनमें एक भय हमेशा बना रहा जिसका उन्होंने बहुत साहस के साथ मुकाबला किया। उनका जो व्यक्ति भय था उसे उन्होंने कविता की समष्टिगत लय से  तिरोहित करने की कोशिश की और यही कारण है कि उनका कवि हमेशा उनके हर सामाजिक संबंधों पर भारी दिखाई देता है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 'सरोज स्मृति' है जो अपने इसी समष्टिगतलय से विकसित होती है।

                        इस प्रकार कवि निराला प्रकृति के भीतर से बसंत को चुनते हैं और कवि की जिम्मेदारी की भूमिका में आकर के व्यथा के बरक्स बसंत को चुनते हैं और इसी बसंत से वह जीवन को ऊर्जावान बनाते हैं और जिससे वे बसंत के माध्यम से वेदना को विदीर्ण ही नहीं करते , उसे बदल भी देते हैं ।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि निराला स्वयं बसंत की उपज थे। 

                              निराला बसंत को अपने जीवन की तरह बचाना चाहते थे उसे रखते हुए उसके माध्यम से जीवन को बचाना चाह रहे थे और उसके विविध रंगों से जीवन को ऊर्जावान बनाये  रखने की कोशिश कर रहे थे । वह भय से विजय प्राप्त करने की कोशिश में बसंत के बहुत करीब पहुंच गए और निराला इस बसंत के विविध रंगों में रंग गए ।

नोट:- इस रपट का कुछ अंश बड़ी बहन रंजना गुप्ता के पोस्ट से लिया गया है।

                          @दीपक आर्यपुत्र

शोधार्थी , हिंदी विभाग , बीएचयू।



"निराला का दुःखबोध ही उनकी कविताओं का प्राणतत्व है"

           प्रो०श्रीप्रकाश शुक्ल


महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की 122वीं जयंती बसंत पंचमी के पावन पर्व की पूर्वसंध्या पर प्रगतिशील लेखक संघ उत्तर प्रदेश। द्वारा प्रायोजित एक वेबिनार का आयोजन किया गया। जिसका विषय था "महामारी में निराला व उनकी कविताएँ" जिसके मुख्य वक्ता थे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिंदी के कवि, आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल जी।


बताते चलें कि इसके पूर्व वे प्रेमचंद, तुलसी, रैदास, अरुण कमल, व मदन कश्यप जैसे अन्य कालजयी रचनाकारों पर अपना सात महत्वपूर्ण वक्तव्य भी दे चुके हैं। उन कवियों के दौर में महामारी का कैसा प्रभाव था वे अपने वक्तव्यों में बताते रहे हैं। इसी कड़ी में वे कल निराला पर बोल रहे थे।


वे महामारी में निराला को अलग तरीके से देखने की कोशिश भी करते हैं। और कहते हैं, मैं इस बात को बार-बार महसूस करता हूँ कि निराला का चाहे गद्य हो या पद्य (कविता) पर उनका बासंतिक मानस लगातार सक्रिय रहा है, जो उनके भीतर लगातार उन्हें संघर्ष करने की प्रेरणा भी देता है।


वे कहते हैं कि जब प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति होती है, तो एक तरफ प्लेग महामारी समाप्त हो रही होती है। वहीं दूसरी ओर स्पेनिश-फ्लू भारत मे दस्तक दे रहा होता है।

निराला के तमाम साहित्यिक संदर्भों पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि 1918 में इंफ्यूएंजा महामारी से निराला के साहित्य का गहरा सम्बंध रहा है। जिसमे 22 वर्ष के उम्र में ही उनकी पत्नी व परिवार के कई लोग दिवंगत हो जाते हैं। इस पीड़ा ने उनके साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। जहाँ उनकी कविताओं में बीमारी का असर भी दिखाई देता है।


वे बोलते हैं कि निराला में बीमारी से उपजे इस पीड़ा को वे बसंत के उल्लास से दूर करने की कोशिश भी करते हैं। यहीं कारण है कि उनकी रचनाओं में बीमारी व बसन्त का द्वंद्व देखने को मिलता है।

वे बताते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत बाहर से अपने देश लौटे सैनिक जो मोर्चे पर थे, उनके साथ ही यह बीमारी भी भारत मे आयी। वे बताते हैं कि उस वक्त लगभग पांच करोड़ लोग इसी बीमारी में कालकवलित हो गए थे। जिसमें अकेले 2 करोड़ हिंदुस्तान से थे।

उन्होंने कहा कि 1920 से 1030 तक का जो निराला का रचना संसार है उसमें महामारी की छाया को बड़ी उग्रता से देखा जा सकता है। इसी बीच वे निराला के उपन्यास 'अलका'

व 'कुल्लीभाट' का भी विशेष जिक्र करते हैं।


प्रो०शुक्ल जी निराला व उनके साहित्यिक संदर्भों की चर्चा इन्हीं उपन्यासों को आधार बनाकर करते भी हैं। और प्लेग व इन्फ्लूएंजा की महामारी के प्रभावों का सोदाहरण विवेचन भी करते हैं। और कहते हैं कि बीमारी की विकरालता के बीच निराला के यहाँ बसन्त के बहुत से रंग हैं, जो उनको भय व पीड़ा से मुक्ति देते हैं।


निराला अपने काव्य में शिल्प को नैतिक आधार प्रदान करते हैं।

"वह एक और मन रहा राम का जो न थका"

निराला के यहाँ एक तरफ अवसाद मिलता है तो दूसरी तरफ़ आस्वस्ति भी मिलती है। निराला का मन ही बासंतिक मन है।


निराला अपने दुःख के दौर में दरकते व टूटते मन को बचाने की कोशिश भी करते हैं और हद तक सफल भी होते दिखाई देते हैं।


उन्होंने कहा कि निराला के यहाँ संघर्ष है, विसाद है व उससे बाहर निकल आने की कोशिश भी है। बीमारी के प्रभाव के भीतर से बसंत की अनुगूंजें भी उनकी रचनाओं में सुनाई देती है। उनकी रचनाधर्मिता में बीमारी व बसन्त एक दूसरे से घुले मिले दिखाई देते हैं।

इस तरह बीमारी व बसंत का ऐसा द्वंद्व निराला के यहाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला के यहाँ बीमारी का दबाव तो है ही साथ ही उनकी रचनाओं में बसन्त के जितने भी रूप हैं वे सभी उनके यहाँ विद्यमान हैं।


आगे वे कहते हैं कि समय-समय पर प्लेग, हैजा, इंफ्यूएंजा, चेचक , एड्स जैसी अनेक महामारियों ने दुनिया को अलग-अलग ढंग से प्रभावित किया है, नुकसान पहुंचाया है। इसी क्रम में बीसवीं सदी में स्पैनिश फ्लू आई और पूरी दुनिया को अपने प्रभाव में ले लिया। वे थोड़ा पीड़ा के साथ कहते हैं कि इसे बीमारी नही बल्कि हम इस सदी की सबसे भयावह त्रासदी कह सकते हैं, जहाँ एक तरफ घरों में मातम छाया है और दूसरी तरफ घर के दरवाजे पर दीपक जलाने का क्रम चल रहा है। उसी क्रम में ताली व थाली की हाहाकारी दृश्य भी देखने को मिलता है। उससे भी भयावह स्थिति है कि सिपाहियों द्वारा घूम-घूम कर यह देखना कि किसके दरवाजे पर दीपक जल रहा है किसके नही...! इस हाहाकारी दृश्य पर तंज भी कसते हैं, और वे कवि धूमिल की प्रतिवाद के रूप मे पंक्तियों का पाठ भी करते हैं।


इसी क्रम में वे अलग-अलग सदी मे आये अलग अलग बीमारियों का भी जिक्र करते हैं। और तमाम उदाहरण भी देते हैं।


उन्होंने निराला का 22 वर्ष की सबसे कम उम्र में पत्नी का खोना उनके समय की सबसे बड़ी त्रासदी बतलाया। उन्होंने निराला की इस साहित्य व संघर्षों की यात्रा को अवसाद से आश्वस्तता की यात्रा बतलाया। तथा वे निराला को अवसाद से आश्वस्तता की यात्रा करने वाला कवि कहा।


वे कहते हैं कि निराला के यहाँ जितना अवसाद है, बसन्त का उतनी ही विविधकारी भाव दिखाई देता है। बीमारी और बसन्त का रिस्ता निराला के यहाँ अनिवार्य है। बसंत को जिस दृष्टि से निराला ने देखा है वैसा किसी भी कवि ने नही देखा न ही समझा।

निराला का बसंत एक उल्लास नही है, बल्कि उनके जीवन का संघर्ष है।


उनके यहाँ पतझड़ में पलायन नही है बल्कि पहचान की नई दृष्टि है। उन्होंने निराला की कविताओं को भव, भय का हरण करने वाली कविताएँ कहा। वे कहते हैं कि निराला ऐसे ताक़तवर कवि हैं जो विषय को कविता में रूपांतरित करने की सामर्थ्य रखते हैं।

निराला अपने 1932 ई० से 35 के दौर की पीड़ा को छुपाते नही बल्कि उस दौर के विरह को अपनी रचनाओं में दर्शाते भी हैं और विजय की कामना भी करते हैं।


इसी बीच वे निराला की 'बासन्ती' 'अधिवास' और 'गीतिका' का भी जिक्र करते हैं। जिसमे वे बीमारी के अवसाद से मुक्त हो कर बसंत का आवाह्न भी करता हुवा कवि मन दिखाई देता है। उनके यहाँ वेदना, बसंत उसके साथ विकल प्रार्थना के स्वर से भरी कविता प्रवित्ति दिखाई देती है।

महामारी ने निराला के मानस को जिस तरह से प्रभावित किया है। उसमें उनके प्रार्थना के गीत संकलित हैं। अवसाद की ऐसी स्थिति निराला के समय मे भी हुई थी और आज कोरोनाकाल में भी तमाम कवियों ने लिखी है।

वे बताते हैं कि निराला के जीवन का पर्याप्त हिस्सा बीमारी में बिखर गया। महामारी में मृत्यु का जो ताण्डव उन्होंने देखा था उसे वे जीवन भर नही भूल पाए, लेकिन उन्हें एक भय हमेशा बना रहा जिसका उन्होनें बड़े साहस के साथ मुकाबला किया। उनका जो व्यक्ति भय था उसे उन्होनें अपनी कविता में समष्टि के रूप में वर्णित किया है।

'गीत गाने दो मुझे तुम वेदना के स्वर'

उनका बीतता दुख उनकी चढ़ती जवानी का दुःख था जिसमे आवेग रहता है और स्वीकार्यता भी होती है। निराला का जो संघर्ष है वो विषाद है जिससे वे बाहर आने की कोशिश भी करते हैं।


शुक्ल जी ने निराला द्वारा 1934 में लिखी कविता "अभी न होगा मेरा अंत अभी-अभी ही तो आया है, मेरे जीवन मे मृदुल बसंत।" और 'मैं ही बसंत का अग्रदूत' तथा 1961 में लिखी उनकी अंतिम कविता 'पत्रोत्कंठित' का पाठ भी करते हैं। साथ ही महाप्राण निराला की कई महत्वपूर्ण कविताओं का सस्वर पाठ भी करते हैं। और कवि निराला की स्मृति को प्रणाम करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव संजीव श्रीवास्तव का विशेष आभार प्रकट करते हैं। साथ ही ऑनलाइन कार्यक्रम में शामिल श्रोताओं दर्शकों का भी अभिवादन करना नही भूलते। इस महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्यक्रम का सफल संचालन प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े तेज तर्रार युवा प्रकर्ष मालवीय ने किया।

  @ मनकामना शुक्ल पथिक


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