Monday, 15 February 2021

रचनात्मक आलोचना के विरल हस्ताक्षर : प्रो. विश्वनाथ त्रिपाठी By प्रो. अमरनाथ & जसवीर त्यागी || अमन कुमार || गोलेन्द्र पटेल


विश्वनाथ त्रिपाठी


परिचय

जन्म : 16 फरवरी 1932, विस्कोहर, सिद्धार्थनगर, बस्ती (उत्तर प्रदेश)


भाषा : हिंदी

विधाएँ : आलोचना, संस्मरण, कविता, जीवनी

मुख्य कृतियाँ

1. हिन्दी आलोचना - 1970 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) 2. लोकवादी तुलसीदास - 1974 (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली) 3. प्रारम्भिक अवधी - 1975 4. मीरा का काव्य - 1979 (1989 में वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से पुनर्प्रकाशित) 5. हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास- 1986 (2003 में हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास नाम से पुनः प्रकाशित) 6. देश के इस दौर में (हरिशंकर परसाई केन्द्रित) - 1989 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) 7. हरिशंकर परसाई (विनिबंध) - 2007 (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली) 8. कुछ कहानियाँ : कुछ विचार - 1998 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) 9. पेड़ का हाथ (केदारनाथ अग्रवाल केन्द्रित) - 2002 (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली) 10. केदारनाथ अग्रवाल का रचना लोक - (प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नयी दिल्ली) 11. जैसा कह सका (कविता संकलन) [2014 में साहित्य भंडार, चाहचंद रोड, इलाहाबाद से प्रकाशित 12. प्रेमचन्द बिस्कोहर में समाहित] प्रेमचंद बिस्कोहर में, विश्वनाथ त्रिपाठी, साहित्य भंडार, 50, चाहचंद, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-2014 13. नंगातलाई का गाँव (स्मृति-आख्यान) - 2004 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) 14. गंगा स्नान करने चलोगे (संस्मरण) - 2006 (भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली) 15. अपना देस-परदेस (विविध विषयक आलेख एवं टिप्पणियाँ) - 2010 (स्वराज प्रकाशन, नयी दिल्ली) 16. व्योमकेश दरवेश (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी एवं आलोचना) - 2011 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) 17. गुरु जी की खेती-बारी (संस्मरण) - 2015 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) 18. उपन्यास का अन्त नहीं हुआ है - 2015 (साहित्य भंडार, चाहचंद रोड, इलाहाबाद) 19. कहानी के साथ-साथ - 2016 (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली) 20. आलोचक का सामाजिक दायित्व - 2016 (साहित्य भंडार, चाहचंद रोड, इलाहाबाद)


संपादन कार्य:-


1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के साथ (अद्दहमाण(अब्दुल रहमान) के अपभ्रंश काव्य 'सन्देश रासक' का संपादन एवं टीका (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से) 2. कविताएँ - 1963, 3. कविताएँ -1964, 4. कविताएँ -1965 (तीनों अजित कुमार के साथ) 5. हिन्दी के प्रहरी : रामविलास शर्मा (अरुण प्रकाश के साथ, वसुधा अंक-51, जुलाई-सितंबर 2001, (रामविलास शर्मा विशेषांक) का पुस्तकीय रूप, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से) 6. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' : प्रतिनिधि संकलन (नेशनल बुक ट्रस्ट) 7. केदारनाथ अग्रवाल : संकलित कविताएँ (नेशनल बुक ट्रस्ट) 8. मध्यकालीन हिन्दी काव्य


सम्मान

गोकुलचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार,

डॉ॰ रामविलास शर्मा सम्मान

सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार

साहित्य सम्मान - हिन्दी अकादमी द्वारा

शान्तिकुमारी वाजपेयी सम्मान

शमशेर सम्मान

मैथिलीशरण गुप्त सम्मान - 2012-13[14]

व्यास सम्मान - 2013 ('व्योमकेश दरवेश' के लिए)[15]

भाषा सम्मान - साहित्य अकादमी द्वारा

मूर्तिदेवी पुरस्कार - 2014 ('व्योमकेश दरवेश' के लिए)[16]

भारत भारती सम्मान - 2015[17]

संपर्क

बी-5, एफ-2, दिलशाद गार्डेन, दिल्ली-110095


फोन

09871479790


जसवीर त्यागी

*गुरुवर विश्वनाथ त्रिपाठी जी का जन्मदिन*

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आज हिंदी के प्रसिद्ध

आलोचक गुरुवर डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी जी का जन्मदिन है। 

डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी जी हिंदी आलोचना के युग-पुरुष हैं।

 डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी जी का जन्म 16 फरवरी 1931को,जिला बस्ती(अब सिद्धार्थ नगर)के बिस्कोहर गाँव में हुआ था। शिक्षा गाँव में,फिर बलरामपुर कस्बे में,उच्च शिक्षा कानपुर और वाराणसी में, तथा पीएच.डी. पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हुई। 


त्रिपाठी जी की नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज  में हुई।लोकप्रिय हिंदी कवि हरिवंशराय बच्चन जी के सुपुत्र और हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन भी उन दिनों  किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र हुआ करते थे। तत्कालीन कॉलेज प्राचार्य और अंग्रेज़ी के विद्वान डॉ स्वरूप सिंह  विश्वनाथ त्रिपाठी जी को बहुत मानते थे। धीरे-धीरे विश्वनाथ जी की आलोचनात्मक  प्रतिभा का प्रकाश चहुंओर प्रकाशित होने लगा। और कुछ वर्षों के बाद उनकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग में हो गयी। डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी जी की प्रसिद्ध कृतियां हैं-


प्रारम्भिक अवधी,हिंदी आलोचना, हिंदी साहित्य का  सरल इतिहास, लोकवादी तुलसीदास, मीरा का काव्य, देश के इस दौर में(हरिशंकर परसाई पर केंद्रित) कुछ कहानियाँ: कुछ विचार,पेड़ का हाथ(कवि केदारनाथ अग्रवाल पर केंद्रित) जैसा कह सका,(काव्य-संग्रह)प्रेमचंद बिस्कोहर में(काव्य-संग्रह)

नंगातलाई का गाँव, व्योमकेश दरवेश(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की जीवनी) गुरुजी की खेती-बारी, अपना देश-परदेस, उपन्यास का अंत नहीं हुआ है,आलोचक का सामाजिक दायित्व, कहानी के साथ-साथ, गंगा स्नान करने चलोगे।


आज के हिन्दी लेखकीय समाज में गुरुवर विश्वनाथ त्रिपाठी जी जैसा गद्य लिखने वाले आलोचक बहुत कम हैं। सजीवता, सरसता, जीवंतता, और चित्रात्मकता उनके गद्य-लेखन के बड़े गुण हैं। गद्य में कविता लिखना त्रिपाठी जी से सीखना चाहिए।


 'व्योमकेश दरवेश' पुस्तक में काव्यात्मक - चित्रण देखते ही बनता है- "घास काटती हुईं औरतों का गाना सुना तो लगा घासें ही गा रही हैं,खेत में काम करती औरतों का गाना खेत के पौधों का संगीत लगा। सड़क पर चलती औरतों की बातचीत नीम,आम,सड़क,अमलताश की बातचीत लगती।"


छोटे-छोटे सरस, चित्रात्मक वाक्य-विन्यास त्रिपाठी जी की आलोचना-शैली की बड़ी विशेषता है। गुरुवर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की पत्नी का शब्दचित्र त्रिपाठी जी कुछ इस प्रकार करते हैं-" माताजी काम बहुत करती थीं।सफाईपसन्द थीं।सुंदर थीं।छोटे कद की। दोहरे बदन की हो गयी थीं।होंठ पर पान बहुत रचता था।शासन करती थीं।बोलती बहुत थीं,लेकिन झगड़ा नहीं कर पाती थीं। रोने लगती थीं।शायद सास से बहुत पटती नहीं थी।पंडितजी ससुराल बहुत कम जाते थे।जाते भी कभी-कभार तो ठहरते बहुत कम।"


जैसे किसी यात्रा को तय करते हुए बीच-बीच में आने वाले हरे-भरे पेड़ मनोहारी लगते हैं, उसी तरह से त्रिपाठी जी की आलोचना में  आने वाले छोटे-छोटे सरस वाक्य पाठक को अपनी ओर खींच लेते हैं। 


डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी जी हिंदी के अकेले ऐसे आलोचक हैं, जिन्होंने एक ओर जहाँ अपने पूजनीय गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी पर कालजयी कृति "व्योमकेश दरवेश" की रचना की वहीं दूसरी ओर अपने प्रिय शिष्यों पर "गुरुजी की खेती-बारी" जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक भी लिखी।  जो गुरु-शिष्य के अटूट सम्बन्ध की अनुपम स्नेह-सौगात है। उनके ह्रदय में अपने गुरु और  शिष्यों के प्रति असीम अपनत्व है। दोनों से  ही उनका संजीवनी संबंध है।


   त्रिपाठी जी की स्मृति विलक्षण है। वे जब बोलते हैं, तो साहित्य, राजनीति,संगीत, इतिहास,लोक सबको साथ-साथ लेकर चलते हैं। वे मानव-मन के सूक्ष्मदर्शी हैं। मानव चरित्र का ऐसा पारखी मैंने कोई अन्य नहीं देखा। त्रिपाठी जी गज़ब के हँसोड़ व्यक्ति हैं। मैंने अपने जीवन में उनसे ज्यादा हँसने वाला  कोई दूसरा नहीं देखा।

हालाँकि उनकी हँसी बहुआयामी होती है। वे बहुत-से आलोचनात्मक सूत्र अपनी हँसी में छोड़ जाते हैं। 


  भोजन के प्रति उनके मन में विशेष अनुराग है। वे  भोजन को सिर्फ़ जिह्वा से ही ग्रहण नहीं करते, वरन  रंग- रूप बनावट और उसकी गंध-गरिमा से भी स्वाद-सम्मान देते हैं। प्रसिद्ध कवि श्री दिनेश कुशवाहा ने त्रिपाठी जी के भोजन-प्रेम से प्रेरणा पाकर 'विश्वनाथ त्रिपाठी जी का खाना' शीर्षक

से एक कविता भी लिखी है। 


 सह्रदय सम्पादक डॉ द्वारिका प्रसाद चारुमित्र जी ने अपनी पत्रिका 'अनभै साँचा' का (जुलाई-दिसम्बर 2016) अंक विश्वनाथ त्रिपाठी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित किया था।


गुरुवर विश्वनाथ त्रिपाठी जी को गोकुलचन्द्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार,डॉ रामविलास शर्मा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, शमशेर सम्मान, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान,भारत भारती सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।

                              ©जसवीर त्यागी

संक्षिप्त परिचय : जसवीर त्यागी


शिक्षा: एम.ए, एम.फील,

 पीएच.डी(दिल्ली विश्वविद्यालय)


सम्प्रति: एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजधानी कॉलेज

राजा गार्डन नयी दिल्ली-110015


प्रकाशन: साप्ताहिक हिन्दुस्तान, पहल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया पथ, आजकल, कादम्बिनी, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, कृति ओर, वसुधा, इन्द्रप्रस्थ भारती, शुक्रवार, नई दुनिया, नया जमाना, दैनिक ट्रिब्यून आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व लेख प्रकाशित।


काव्य-संग्रह: अभी भी दुनिया में

संपादन: सचेतक और डॉ रामविलास शर्मा(तीन खण्ड)


सम्मान: हिन्दी अकादमी दिल्ली के नवोदित लेखक पुरस्कार से सम्मानित।


आजकल 'डॉ रामविलास शर्मा के पत्र" संकलन-संपादन कार्य में व्यस्त।


संपर्क: WZ-12 A, गाँव बुढेला, विकास पुरी दिल्ली-110018


मोबाइल:9818389571

ईमेल: drjasvirtyagi@gmail.com


प्रो. अमरनाथ


हिन्दी के आलोचक – जिनका आज जन्मदिन है-38
रचनात्मक आलोचना के विरल हस्ताक्षर : प्रो. विश्वनाथ त्रिपाठी

सिद्धार्थनगर उत्तर प्रदेश के बिस्कोहर नामक गाँव में जन्मे और बनारस तथा चंडीगढ़ से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे विश्वनाथ त्रिपाठी( 16.2.1931)हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील आलोचक है. ‘हिन्दी आलोचना’, ‘लोकवादी तुलसीदास’, ‘मीराँ का काव्य’, ‘देश के इस दौर में’, ‘कुछ कहानियाँ : कुछ विचार’, ‘पेड़ का हाथ’, ‘उपन्यास का अंत नहीं हुआ है’, ‘कहानी के साथ साथ’, ‘आलोचक का सामाजिक दायित्व’ आदि उनकी प्रमुख समीक्षा-कृतियाँ हैं. ‘व्योमकेश दरबेश’ नाम से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी लिखकर उन्होंने अच्छी ख्याति पायी है. उनकी कृति ‘देश के इस दौर में’ हरिशंकर परसाई पर केन्द्रित है जबकि ‘पेड़ का हाथ’ केदारनाथ अग्रवाल पर. इस तरह त्रिपाठी जी ने नए और पुराने दोनो ही प्रकार के साहित्य पर अपनी समीक्षाएँ लिखी हैं. आग्रह मुक्त और विवेक सम्मत दृष्टि उनकी आलोचना की विशेषता है.
तुलसीदास के महत्व को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं, “तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है.  उन्होंने राम के परंपरा –प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया है. उन्होंने राम की संघर्ष-कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन की संघर्ष –कथा के आलोक में देखा है. उन्होंने बाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन: स्थापित नहीं किया है, अपने युग के नायक राम को चित्रित किया है. उनके दर्शन और चिंतन के राम ब्रह्म हैं लेकिन उनकी कविता के राम लोकनायक हैं.” ( लोकवादी तुलसीदास, भूमिका, पृष्ठ-9).
तुलसी पर लिखी उनकी पुस्तक पढ़कर राजेन्द्र यादव ने लिखा है, ”पुस्तक में एक ऐसी अजीब सी ऊष्मा, आत्मीयता और बाँध लेने वाली निश्छलता है कि मैं उसे पढ़ता ही चला गया. अच्छी बात यह लगी कि आप ने राम को न मुकुट पहनाए, न तुलसी को अक्षत चंदन लगाए—आपने तो अपने अवध को ही तुलसी के माध्यम से जिया है, वहाँ के लोगों, उनके आपसी संबंधों और संदर्भों-बिना उन्हें महिमान्वित किए- को उकेरा है. सबकुछ आपने इतना मानवीय और स्पंदनशील बना दिया है कि मैं तुलसी के प्रति अपने सारे पूर्वग्रह छोड़कर पढ़ता चला गया.” ( उद्धृत, hi.wikipedia.org/wiki/ विश्वनाथ त्रिपाठी)
त्रिपाठी जी ने मीरा के काव्य का पहली बार आधुनिक दृष्टि से मूल्याँकन करके उसकी उपयोगिता और महत्व की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया. उन्होंने बताया कि मीरा की कविता भक्ति आन्दोलन, उसकी विचारधारा और तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति से उनकी टकराहट का प्रतिफलन है. यह प्रतिफलन उस मानवीयता में प्रकट हुआ जो अपने समय की धार्मिक साधनाओं के ही सहारे रूपायित हो सकती थी. उनकी दृष्टि में मीरा की कविता तत्कालीन समाज में नारी जाति के विद्रोह की कविता है. मीरा का विद्रोह भक्ति, प्रेम, रहस्य की अनुभूति के साथ अभिव्यक्त हुआ है. इसीलिए मीरा की कविता को समझने का मतलब है, कविता के उन पक्षों को समझना. साधना, भक्ति, प्रेम, विरह या रहस्य की भावनाएँ काव्याभिव्यक्ति में अमूर्त रहकर ही नहीं प्रकट होतीं. वे मूर्त होती है, अनुभव जगत में उदित होकर. इसलिए कविता का जागतिक संदर्भ होता है.
इस तरह मीरा को उन्होंने मध्यकालीन सामंती व्यवस्था से पीड़ित नारी के रूप में देखा है. मीरा के प्रेम की लौकिक व्याख्या और सामंती समाज से उसका द्वंद्व ही विश्वनाथ त्रिपाठी की आलोचना की मुख्य स्थापना है.
हिन्दी की कथा समीक्षा पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘कुछ कहानियाँ : कुछ विचार’ भी आलोचकों में बहुत समादृत है. इस पुस्तक के अंतिम दो आलेखों के बारे में निर्मला जैन लिखती है, “ अंतिम दो ‘समकालीन कहानी : कुछ विचार’ और ‘बदलते समय के रूप’ समकालीन कथा-परिदृश्य के संबंध में विश्वनाथ त्रिपाठी की समझ और विश्लेषण-क्षमता दोनो के प्रमाण हैं. पूर्वकथन में उन्होंने लिखा है कि ‘रचना के कुछ पोर होते हैं, जैसे बाँस या गन्ने के, जिन्हें फोड़ने में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत पड़ती है.’ कहना न होगा कि लेखक के पास इन पोरों को पहचानने वाली मेधा भी है और उन्हें फोड़ने का कौशल भी, जिसका प्रयोग वे सूत्रवत छोटे-छोटे वाक्यों में बड़े सहज गद्य-विन्यास में करते चलते हैं. इन दोनो लेखों के माध्यम से पाठक उस दौर के पूरे कहानी-परिदृश्य की खूबियों और खामियों को भली -भाँति पहचान सकता है. सूत्रों में विश्वनाथ जी ने उस दौर के अधिकाँश कहानीकारों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं. सार्थक सूत्रों में मूल्याँकनपरक निर्णय देते चलना उनकी आलोचना की खूबी है.” ( हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ, निर्मला जैन, पेपरबैक संस्करण 2014, पृष्ठ-143-144) इसी तरह ‘कहानी के साथ साथ’ शीर्षक कथा समीक्षा की उनकी एक और पुस्तक बहुत चर्चित है.  
‘व्योमकेश दरवेश’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन और रचना-कर्म पर लिखी गई अपने ढंग की अकेली और अनोखी पुस्तक है. त्रिपाठी जी ने आचार्य द्विवेदी के सानिध्य में रहकर शिक्षा ही नहीं ग्रहण की है अपितु एक शिष्य के रूप में उनका आना-जाना द्विवेदी जी के घर के भीतर तक था.  इसीलिए पुस्तक की प्रामाणिकता असंदिग्ध है. यह पुस्तक संस्मरण शैली में है. प्रयास किया गया है कि प्रसंगों और स्थितियों को यथासंभव प्रामाणिक स्रोतों से ही ग्रहण किया जाए. काशी की तत्कालीन साहित्य-मंडली अनायास ही पुस्तक में आ गई है. इस पुस्तक की भाषा का सौंदर्य देखते ही बनता है. पुस्तक में वे लिखते हैं कि घास काटती हुई औरतों का गाना सुना तो लगा घासें ही गा रही हैं. खेत में काम करती औरतों का गाना खेत के पौधों का संगीत लगा. सड़क पर चलती औरतों की बातचीत नीम, आम, सड़क, अमलताश की बातचीत लगती. इस तरह उनके कहने का अंदाज सबसे अलग और निराला है.
विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी के अकेले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने एक ओर अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की ‘व्योमकेश दरबेश’ नाम से जीवनी लिखी तो दूसरी ओर अपने प्रिय शिष्यों पर ‘गुरु जी की खेतीबारी’ शीर्षक से पुस्तक लिखी. निस्संदेह उनके हृदय में अपने शिष्यों के प्रति भी असीम स्नेह और आत्मीयता है. त्रिपाठी जी की स्मृति विलक्षण है. वे जब बोलते हैं तो साहित्य, राजनीति, संगीत, इतिहास, लोक, सबको साथ-साथ लेकर चलते हैं. वे मानव मन के सूक्ष्मदर्शी हैं.
उनके द्वारा लिखित ‘हिन्दी आलोचना’ हिन्दी के विद्यार्थियों में सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों में से है. इसमें भारतेन्दु युग से लेकर नामवर सिंह तक की आलोचना-यात्रा का बहुत ही तर्कसंगत, प्रामाणिक और सोदाहरण विश्लेषण है.
विचारधारा के स्तर पर वे मार्क्सवादी कहे जा सकते हैं किन्तु अन्य बहुतेरे मार्क्सवादियों की तरह वे जड़सूत्रवाद के शिकार नहीं है. वे नरम दल के मार्क्सवादी हैं. ‘हिन्दी आलोचना’ पुस्तक के आरंभ में भारतेन्दु युग के महत्व का आकलन करते हुए वे लिखते हैं, “भारतेन्दु और उनके साथी वे साहित्यकार थे जिन्होंने साहित्य को सामाजिक उत्तरदायित्व की चेतना से युक्त किया. ऐसा करने में वे समर्थ हो पाए क्योंकि वे सामाजिक समस्याओं के प्रति सचेत थे और उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते थे. इस युग का साहित्य केवल मनोविनोद या विलास की सामग्री नहीं प्रस्तुत करता, अपितु समाज का चित्रण करता है और उसके विकास की प्रेरणा देता है. जीवन को समझने- बूझने और देखने की भारतेन्दु की निश्चित दृष्टि है.” ( हिन्दी आलोचना, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नई दिल्ली, पहला छात्र संस्करण :1992, दसवी आवृत्ति: 2007, पृष्ठ- 14) दरअसल समाज को देखने की इस दृष्टि की पहचान वही व्यक्ति कर सकता है जिसके पास अपनी वैज्ञानिक दृष्टि हो और वह वैज्ञानिक दृष्टि मार्क्सवादी ही हो सकती है.
किसी भी विषय पर वे विवादों से यथासंभव दूर रहना पसंद करते हैं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और नगेन्द्र पर उन्होंने विस्तार से लिखा है. इन सभी आलोचकों के आलोचना कर्म में अनेक विषयों को लेकर व्यापक मतभेद है किन्तु त्रिपाठी जी ने इन सबकी बहुत ही व्यवस्थित और प्रामाणिक समीक्षा करते हुए अद्भुत संतुलन का परिचय दिया है.
आचार्य नंदददुलारे वाजपेयी को वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परंपरा का आलोचक मानते हैं. वे लिखते हैं, “पं. नंददुलारे वाजपेयी की समीक्षा कृतियों को देखने पर ज्ञात होता है कि वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परंपरा के समीक्षक हैं. उनकी सामर्थ्य शुक्ल जी का विरोध करने में नहीं, बल्कि उनका समर्थन करने या उनके द्वारा निकाली हुई समीक्षा -पद्धति पर चलने में प्रकट हुई है. वाजपेयी जी को इस बात का श्रेय मिलेगा कि छायावाद, प्रगतिवाद, महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं. रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, दिनकर की और प्रयोगवादी रचनाओं की उन्होंने गंभीर या विस्तृत समीक्षा की.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 140)
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में उनका विश्वास है कि, “शुक्ल जी के बाद हिन्दी पाठकों, अध्यापकों और आलोचकों की दृष्टि और रुचि पर जितना अधिक प्रभाव द्विवेदी जी की कृतियों  का पड़ा है, उतना किसी आलोचक का नहीं. रसग्राहिता द्विवेदी जी की सबसे बड़ी शक्ति है और यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि आलोचक की भी सबसे बड़ी कसौटी रसग्राहिता ही है. कबीर, सूरदास, कालिदास और अपभ्रंश साहित्य पर लिखी गई रचनाओं में द्विवेदी जी की रसग्राहिता के प्रचुर प्रमाण मिलेंगे.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 150)  उनकी दृष्टि में द्विवेदी जी साहित्य को सामाजिक संदर्भों में देखने और परखने  का आग्रह करते हैं. सामाजिकता का यह आग्रह ही उन्हें मानवतावादी बनाता है. इसी आधार पर वे घोषित करते हैं कि, “मानवतावादी और प्रगतिशील दृष्टि के कारण ही द्विवेदी जी, प्रेमचंद साहित्य की महानता को समझ सके हैं. ध्यान देने की बात यह है प्रगतिवादी आलोचकों को छोड़ दें तो हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों यानी, बाजपेयी, द्विवेदी और नगेन्द्र में प्रेमचंद को प्रथम श्रेणी का साहित्यकार केवल द्विवेदी जी ही मानते हैं.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-153)
रामविलास शर्मा के विषय में वे कहते हैं, “जब डॉ. शर्मा अपने किसी प्रिय साहित्यकार या विषय पर लिखते हैं तब उनकी भाव तरलता और सहृदयता देखने लायक होती है. तुलसीदास, भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, रामचंद्र शुक्ल, पढ़ीस आदि पर लिखे गये उनके निबंधों को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि उनमें इतिहास-बोध की प्रखर प्रतिभा ही नहीं, रसग्राहिणी शक्ति भी है. जिस आलोचक ने भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, शुक्ल जैसे महान साहित्यकारों पर इतना परिश्रम करके पुस्तकें लिखी हों, जिसने इन साहित्यकारों को हिन्दी की जातीय प्रगतिशील परंपरा से जोड़ा, उसे केवल प्रखर आलोचक कहकर टालने  की कोशिश करना अनुचित है......... इतना अर्थगर्भित निर्दोष और आडंबरहीन गद्य लिखनेवाला हिन्दी में दूसरा कोई नहीं दिखलाई पड़ता.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 198)  और नामवर सिंह के बारे में उनका कहना है कि, “यदि प्रगतिशील आलोचना को जातीय और हिन्दी पाठकों की दृष्टि में विश्वसनीय बनाने का कार्य डॉ. रामविलास शर्मा ने किया है तो उसे सक्रिय आन्दोलन के रूप में जीवित रखने और हिन्दी भाषी बुद्धिजीवी-युवकों में तत्संबंधी रुचि जाग्रत करने का कार्य डॉ. नामवर सिंह कर रहे हैं.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-198)
विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए भी रामविलास शर्मा को ही उद्धृत करते हैं और कहते हैं, “भारतेन्दु युग का साहित्य जनवादी इस अर्थ हैं है कि वह भारतीय समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट न रहकर उसमें सुधार भी चाहता है. वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य न होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है. भारतेन्दु स्वदेशी आन्दोलन के ही अग्रदूत न थे. वे समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे. स्त्री- शिक्षा, विधवा -विवाह, विदेश- यात्रा आदि के वे समर्थक थे.” ( उद्धृत, हिन्दी आलोचना, पृष्ठ-13)  वे कहते हैं, “इस प्रकार यथार्थ-बोध, विषमता-बोध और इस विषमता से उबरने की छटपटाहट, ये तीन भेदक लक्षण हैं जो भारतेन्दु -युग को रीतिकालीन साहित्य से अलग करते हैं और इन्हीं कारणों से भारतेन्दु युग हिन्दी के आधुनिक साहित्य का प्रवर्तक युग है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 14) 
निष्कर्ष यह कि त्रिपाठी जी का समस्त आलोचना- कर्म हमारे समय की जरूरत और समाज हित से अनुस्यूत है. तुलसी और मीरा के साहित्य की व्याख्या उन्होंने इसी दृष्टि से की है. रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नगेन्द्र, नामवर सिंह तथा अन्य आलोचकों का मूल्याँकन करते हुए उन्होंने लोकहित को कभी ओझल नहीं होने नहीं दिया. परसाई के व्यंग्य- निबंधों, केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं तथा कहानी-समीक्षा से संबंधित पुस्तकों के प्रणयन में भी त्रिपाठी जी ने इसका ख्याल रखा है. इस तरह हिन्दी की प्रगतिवादी आलोचना को समृद्ध करने वालों में त्रिपाठी जी का महत्वपूर्ण स्थान है. उन्होंने हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की आलोचना-परंपरा को आगे बढ़ाया है.
विश्वनाथ त्रिपाठी जैसा लालित्यपूर्ण गद्य लिखने वाले बहुत कम हैं. सजीवता, सरसता, जीवंतता और चित्रात्मकता उनके गद्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं. छोटे-छोटे सरस चित्रात्मक वाक्य और उसमें गँवईं संस्कृति की छाप त्रिपाठी जी के गद्य की पहचान है. काव्यात्मकता उनके गद्य का सहज वैशिष्ट्य है. इसीलिए उनकी आलोचना में रचना का सा स्वाद मिलता है.
आलोचना से इतर अपने स्मृति आख्यान ‘नंगातलाई का गाँव’ से भी उन्हें खूब ख्याति मिली है. ‘व्योमकेश दरवेश’ के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार प्राप्त हुआ है.
हमारे आग्रह पर वे 2001 और 2009 में कोलकाता आए थे, हमारा आतिथ्य स्वीकार किया था और विश्वविद्यालय के हमारे विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए यादगार व्याख्यान दिया था. उन्होंने ‘अपनी भाषा’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की अध्यक्षता भी की थी और ‘जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान 2009’ को अपने हाथों से प्रदान किया था. उस वर्ष यह सम्मान हिन्दी और गुजराती के बीच सेतु निर्मित करने वाली लेखिका डॉ. बिन्दु भट्ट को मिला था.
आज हम सबके प्रिय प्रो. विश्वनाथ त्रिपाठी अपने जीवन के नब्बे साल पूरे कर रहे हैं. इस अवसर पर हम उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं.
©प्रो. अमरनाथ

            डॉ. अमरनाथ : संक्षिप्त जीवन वृत्त

सुधी आलोचक और प्रतिष्ठित भाषाविद् के रूप में ख्यात डॉ. अमरनाथ का जन्म गोरखपुर जनपद ( संप्रति महाराजगंज ) के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में सन् 1954 में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा गांव के आस पास के विद्यालयों में और उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय में हुई जहाँ से उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी की उपाधियाँ प्राप्त कीं। कविता से अपनी रचना - यात्रा शुरू करने वाले डॉ. अमरनाथ सामाजिक - आर्थिक विषमता से जुड़े सवालों से लगातार जूझते रहे हैं। उनका विश्वास है कि लेखन में शक्ति सामाजिक संघर्षों से आती है। इसी विश्वास ने उन्हें नारी का मुक्ति संघर्ष जैसे साहित्येतर विषय पर पुस्तक लिखने को बाध्य किया।हिन्दी जाति, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना, आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिंतन, समकालीन शोध के आयाम (सं.),हिन्दी का भूमंडलीकरण (सं.), हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र (सं.), सदी के अन्त में हिन्दी (सं.), बाँसगाँव की विभूतियाँ (सं.) आदि उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकें हैं।

 हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली जैसा वृहद् ग्रंथ उनके अध्यवसाय और शोध दृष्टि का उत्कृष्ट उदाहरण है।

           हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सेतु निर्मित करने एवं भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के उद्देश्य से अपनी भाषा नामक संस्था के गठन और संचालन में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले डॉ. अमरनाथ, संस्था की पत्रिका भाषा विमर्श का सन् 2000 से संपादन कर रहे हैं। हिन्दी परिवार को टूटने से बचाने और उसकी बोलियों को हिन्दी के साथ संगठित रखने के उद्देश्य से गठित संगठन हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक के रूप में डॉ. अमरनाथ निरंतर संघर्षरत हैं। वे सीएसएफडी चैरिटेबुल ट्रस्ट के मुख्य ट्रस्टी तथा उसकी पत्रिका गाँव के भी संपादक हैं.

 कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे स्वतंत्र लेखन तथा सामाजिक कार्यों में संलग्न हैं। आजकल वे हिन्दी के आलोचक, हिन्दी के योद्धा तथा आजाद भारत के असली सितारे शीर्षकों से नियमित स्तंभ लिख रहे हैं।

           पता : ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091

           फोन : 033-46017920, मो. : 9433009898 ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com   


अमन कुमार

‘हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।

साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥’ 

________________

आज मेरे पिताहमह गुरु एवं हिंदी के शीर्षस्थ लेखक ,आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ( गुरुदेव के गुरुदेव) का जन्मदिन है। त्रिपाठी सर से मेरा पहला व्यक्तिगत परिचय सत्यवती महाविद्यालय (सांध्य) में एक व्याख्यान में हुआ था। स्नातक में मैं अपने कॉलेज में हिंदी विभाग की 'साहित्य सभा' का अध्यक्ष नियुक्त हुआ था। डॉ. द्वारिका प्रसाद 'चारुमित्र' उस समय  TIC थे। मैंने उनसे अनुरोध किया कि हमें डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी को 'तुलसीदास' पर एक विशेष वक्तव्य के लिए बुलाने की अनुमति दें। वे तुंरत मान गये।  उस समय के दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो० हरिमोहन शर्मा सर को भक्तिकाव्य पर बीज वक्तव्य के लिए और तुलसीदास पर विशेष वक्तव्य के लिए त्रिपाठी सर को आमंत्रित किया गया। वे आये। सफ़ेद बाल, खद्दर का कुर्ता, वही फक्कड़ाना अंदाज़, चेहरे पर हमेशा रहने वाली एक सौम्य मुस्कान, जिसकी तरफ़ भी वे देखते उसमें उनके प्रति अपनत्व का भाव आ जाता था। लगता है जैसे कोई अपना परिचित, अपना संबंधी आ गया हो। मैंने ऐसी सुंदर मुस्कान फ़िर किसी साहित्यकार की नहीं देखी। जैसे ही मैंने उनके पैर छुए, उन्होंने सर पर हाथ फेरा और कहा - 'जीते रहो। क्या नाम है तुम्हारा ? मैंने नाम बताया तो बोले 'बड़ा अच्छा नाम है। कहाँ से हो?' फिर 'चारुमित्र' सर ने मेरा परिचय करवाया। थोड़ी देर की बातचीत के बाद उन्होंने तुलसीदास पर जो व्याख्यान दिया, उसके बारे में बस इतना ही कहूंगा कि उस व्याख्यान ने मेरे करियर की दिशा बदल दी। मैं दिल्ली सिर्फ़ upsc की तैयारी करने आया था। लेकिन बाबा के व्याख्यान ने मुझे तुलसीदास का साहित्यिक पाठक बना दिया। मैंने उसी दिन मन में प्रण कर लिया था कि मैं अपना जीवन तुलसीदास को पढ़ने और उन पर शोध करने में लगा दूंगा। उस दिन उनके जाने के बाद मैंने सोचा कि मैं त्रिपाठी सर से फिर कब मिल पाऊंगा ! कहाँ वे इतने बड़े विद्वान कहाँ मैं अदना सा बालक। लेकिन फ़िर कला संकाय में जब एम. ए. में दाखिला मिला, तब कबीर पढ़ाने  प्रो० अनिल राय आये। उनके हाथ में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक कबीर थी।( सफ़ेद पन्नी की ज़िल्द लगी हुई पुरानी किताब।)  उनकी पढ़ाने की शैली और अंदाज़ से मुझे त्रिपाठी सर के व्याख्यान की याद आ गई। मैंने राय सर से एक दिन यह बात कह दी। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा ' वे मेरे गुरुवर हैं।' मैंने राय सर से पूछा कि 'सर त्रिपाठी सर से कैसे मुलाकात होगी। मैं तुलसीदास के संबंध में उनसे बात करना चाहता हूँ ।' उन्होंने कहा उनसे फोन पर बात करके और उनसे समय लेके उनके घर चले जाना। लेकिन तुलसीदास को अच्छे से पढ़ लो , तब मिलना ज्यादा उचित रहेगा। पहले रामचरितमानस पढ़ लो, और तुलसीदास पर उनकी किताब 'लोकवादी तुलसीदास' पढ़ो। मैंने इसे गुरु मंत्र मान लिया ,एक बार फिर से 'मानस' पढ़ा और एम. ए तक सम्पूर्ण तुलसी साहित्य और 'लोकवादी तुलसीदास'  सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण पुस्तकें जो तुलसीदास पर केंद्रित थीं, पढ़ गया। इस दौरान हिंदी विभाग के- उस समय के-अध्यक्ष प्रो० हरिमोहन शर्मा ने डॉ. नगेन्द्र स्मृति व्याख्यान का भव्य आयोजन किया था। देश भर के बड़े-बड़े विद्वान आये थे। त्रिपाठी सर भी आये। दोपहर के खाने के बाद वे एक सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे। फिर उन्होंने अपने अंदाज़ में अध्यक्षीय भाषण दिया। अद्भुत था उनका वक्तव्य! जैसे ही उनका वक्तव्य पूर्ण हुआ और वह सत्र समाप्त हुआ और मंच से सभी विद्वान नीचे आने लगे। मैंने देखा कि सामने की पहली पंक्ति से प्रो०  अनिल राय तेजी से मंच की और बढ़े और अपने गुरुदेव का हाथ पकड़ कर उन्हें धीरे-धीरे नीचे ले आये। मैं भी उठ कर मंच तक पहुँच गया। राय सर ने मुझे कहा 'अमन देखो चाय बनी है क्या ! ' मैंने जाके देखा तो डिनर हॉल में चाय-नास्ते की तैयारी तो थी लेकिन चाय बनी नहीं थी। मैंने राय सर को कहा कि  'सर यहाँ अभी थोड़ा समय लगेगा चाय में।लेकिन बगल में Duta कैंटीन से मैं ले आता हूँ। ' मैं जल्दी से एक कप में चाय ले आया, तब तक त्रिपाठी सर अपनी गाड़ी में बैठ चुके थे। मैंने राय सर को चाय की कप दी । मैं हड़बड़ी में चाय के साथ प्लेट लेना भूल गया था। हाथ में कप पकड़ कर झटक कर चलने के कारण चाय थोड़ा छलक कर कप से टपकने लगी थी। राय सर ने कप को अपनी रुमाल से  पोछ कर, त्रिपाठी सर को चाय पीने के लिए कार के अंदर दे दी। राय सर के हाथ में उनका नोट पैड था जिस पर वह व्याख्यान के दौरान ज़रूरी नोट्स ले रहे थे। उसी नोट पैड का उन्होंने चाय की प्लेट की रूप में उपयोग किया , ताकि उनके गुरुदेव का कुर्ता चाय टपकने से ख़राब न हो जाये। त्रिपाठी सर ने जब तक पूरी चाय आराम से नहीं पी ली, तब तक राय सर नोट पैड पकड़ कर खड़े रहे। मैं स्तब्ध था, अचंभित था। ऐसी गुरुभक्ति देख कर। चाय ख़त्म करने के बाद राय सर ने अपने गुरुवर को प्रणाम किया। इस पर  त्रिपाठी सर ने राय सर का माथा चूम लिया और भावुक होकर बोले 'जीते रहो'। दोनों की आँखें छलक आयी थी, गुरुदेव ने अपने शिष्य की निष्ठा और सेवा देखी, और शिष्य ने गुरुदेव का इतना प्यार और आशीर्वाद पाया। इसके बाद जब तक त्रिपाठी सर की गाड़ी गेट नंबर -4 से निकल कर दृष्टि से ओझल न हो गई , तब तक उनकी गाड़ी को राय सर देखते रहे। उस दिन मैंने एक शिष्य की अपने गुरु के प्रति ऐसी निष्ठा देखी , जिसका अमिट प्रभाव मुझ पर पड़ा और जीवन भर रहेगा। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी हिंदी के अद्वितीय विद्वान पंडित हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं। उन आकाशधर्मा गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की महान शिष्य परंपरा में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अपने गुरु की भांति छात्र वत्सल हैं। अपने शोध विषय और तुलसीदास के सबंध में बातचीत के दौरान कई बार मैं उनसे मिलता रहता हूँ। उन्होंने मेरी कितनी बार सहायता और मेरा उचित मार्गदर्शन किया है जिसे शब्दों में बयाँ कर पाना मुश्किल है। जब भी उनसे मिलने जाता हूँ तो वे जान जाते थे कि मैं खाना खा के आया हूँ या नहीं, पहले खाने के लिए कुछ मंगवाते हैं, फिर जाते वक्त कुछ मीठा जरूर खिलाते हैं। वे अत्यंत दयालु और कठोर भी हैं। आज भी किसी नौजवान साहित्य पढ़ने वाले से कहीं ज्यादा अपडेट रहते हैं। कोई आधुनिक कविता हो या कोई मध्यकालीन पद उन्हें आज भी याद है और सम्पूर्ण याद है। आपने जहाँ अशुद्ध उच्चारण किया, या कोई बीच की अर्धली गलत बोल गए ,तो वे तुरंत टोक देते हैं कि यह ऐसा नहीं ऐसा है। पद की व्याख्या के मामले में वे अद्वितीय हैं। उन जैसा व्याख्याकार मैंने अब  तक नहीं देखा। तुलसीदास का सम्पूर्ण वाङ्गमय उनके कंठ में है। क्योंकि अक्सर मैं उनसे तुलसीदास के साहित्य पर ही बात करता हूँ , मैं यह देखकर हैरान रह जाता हूँ कि आप अब तक इतना कैसे याद रख पाते हैं। एक छोटा सा वाकया याद आता है, एक दिन बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे कहा कि तुलसीदास ने सीता को राम से एक जगह दुर्वचन कहवाये हैं।' मैं सन्न रह गया क्योंकि तुलसीदास के प्रति मेरी अगाध श्रद्धा थी। मैंने तुरंत कहा 'नहीं गुरुजी ऐसा कैसे हो सकता है! बाबा ऐसा रामजी से कहवायें!' उन्होंने बहुत तेज डांटा और  कहा  'ये तुम्हारे मन में जो तुलसीदास के प्रति भक्तिभाव है पहले इसे निकाल फेंको, तब जाके शोध करना। ये तुम्हें कभी ठीक से शोध करने नहीं देगा। तुम सच्चाई नहीं देख पाओगे।' और फिर उन्होंने कहा 'निकालो मानस का लंका कांड का 108वां दोहा। मैंने अपने बैग से 'मानस' निकाला और लंका कांड का 108वां दोहा पढ़ा -

दोहा- तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।

सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥१०८॥

अद्भुत है उनका ज्ञान। आडम्बर और मिथ्या दंभ भरने वालों के लिए वे कठोर हो जाते हैं। जो सही बात है वह बिना लाग-लपेट के वे कह देते हैं, फिर सामने वाले को भले ही वह चुभ जाये। उन जैसा मैंने किसी को नहीं देखा। वो मेरे पितामह गुरु हैं। इसलिए मैं उन्हें कभी-कभी बाबा कहता हूँ। सभी कहते हैं 

कि तुम उनकी शिष्य परंपरा में हो, तुम बहुत भाग्यशाली हो और मैं भी कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता),  उनके जैसे आकाशधर्मा गुरुदेव का मुझ जैसा शिष्य है ?? कृपालु गुरुदेव इस निंदा को सहते हैं ।यह उनकी महानता है। हाँ भाग्यशाली तो मैं हूँ  । क्योंकि गुरुवर प्रो० अनिल राय सर का मैं छात्र हूँ, और त्रिपाठी सर का इतना प्यार और आशीर्वाद मिलता है। लेकिन मैं सिर्फ राय सर का छात्र हो जाने से उस महान शिष्य परंपरा में नहीं आ जाऊंगा, जिसका स्रोत रवींद्रनाथ ठाकुर की धरती वीरभूमि (शांतिनिकेतन ) से निकला है। अज्ञेय जी के शब्दों में कहूँ तो आप किसी परंपरा में शामिल तभी हो सकते हैं जब आप उसे अर्जित करते हैं।* अगर मैं अपना सम्पूर्ण जीवन लगा कर भी इस महान ज्ञान परम्परा में शामिल हो सका तो , अपने जीवन को धन्य समझूंगा।

आप शतायु हों, महादेव से यही कामना है। आप इसी प्रकार रचनाशील रहें। हिंदी जगत में आप ध्रुव तारे की तरह उदयमान रहें और हिंदी जगत को अपनी अखण्ड ज्ञान परंपरा से सींचते रहें। 


‘गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥’

©अमन कुमार

सहायक प्रोफ़ेसर

हिंदी विभाग

किरोड़ी मल कॉलेज

दिल्ली विश्वविद्यालय

 (*टी. एस इलियट के बहुचर्चित निबंध ‘ट्रेडिशन एंड इंडिविजुअल टेलेण्ट’ का ‘रूढ़ि और मौलिकता’ शीर्षक से 'अज्ञेय' जी ने लगभग भावानुवाद’ किया है , जिसमें उन्होंने यह भाव प्रकट किए हैं )

 

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नाम : गोलेन्द्र पटेल

{काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

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