संपादक : अरुण होता
"तिमिर में जैसे ज्योति" पर लिखी मेरी एक छोटीसी टिप्पणी आज के जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में शाया हुई है। सम्पादक श्री सुभाष राय का आभार। {सुभाष राय और वसंत सकरगाए}
*कविता की शक्ति पर पूरा भरोसा अरुण होता को*
{आलोचक व आचार्य अरुण होता}
यशस्वी आलोचक अरुण होता को कोरोनाकालीन कविताओं के भविष्य तथा संरक्षण की भला ऐसी कौनसी चिंता सता रही थी कि यूनिवर्सिटी के तमाम ज़िम्मेदाराना और महत्त्वपूर्ण कामों की लगातार व्यस्तताओं के बीच उन्हें इन कविताओं के मानक निर्धारण तथा जुटान हेतु अतिरिक्त श्रम संघर्ष करना बेहद ज़रूरी लगा। निश्चित ही संचयित रचनाओं पर एकाग्र पुस्तक का सम्पादन बहुत चुनौतीपूर्ण एवं इसकी जटिल प्रक्रिया बेहद थकाऊ होती है। गागर में विस्तृत सागर भरने का यह संकल्प सम्पादक से वैचारिक सजगता स्पष्ट दृष्टिकोण के अलावा निष्पक्ष उदारता की माँग भी करता है। बहुत संभव है कि उन्हें 'तराजू के पलड़े पर मेढ़कों को तौलने' जैसे मुश्क़िल व अप्रिय अनुभवों से भी गुजरना पड़ा हो।
अब, जबकि कोरोनाकाल के गहन तमस में प्रसूत चुनिंदा कविताओं की संचयन पुस्तक "तिमिर में ज्योति जैसे" समय के एक ज़रूरी दस्तावेज के रुप में आभा बिखेर रही है, तब अरुण होता के सम्पादकीय पक्ष में अंतर्निहित उन तथ्यों-बिन्दुओं की पड़ताल व उन्हें रेखांकित किया जाना लाज़मी है, जहाँ एक सजग आलोचक की रचना संरक्षण को लेकर तड़प, तलब, उम्मीदें व लालसा की छबियाँ उजागर होती है। उल्लेखनीय है कि अरुण उन चुनिंदा आलोचकों में हैं जिन्होंने अपनी आलोचकीय प्रतिबद्धताओं से कभी समझौता नहीं किया। रचनाकार से व्यक्तिगत मैत्री सम्बंध और उसके रचना-कर्म के बीच हमेशा एक ज़रूरी फ़ासला बनाए रखा। यही वज़ह है कि उनकी निष्ठा और निष्पक्षता पर अब तक कोई उँगली नहीं उठी। और किसी भी तारीख़ में हिन्दी आलोचना की किसी अदालत ने उन्हें हाज़िर होने के लिए कभी सम्मन नहीं भेजा। इस पुस्तक में वरिष्ठतम कवियों अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति के साथ बीए द्वितीय वर्ष के छात्र गोलेंद्र पटेल जैसे नवोदित कवि उपस्थित है तो इसका अर्थ यह नहीं कि सम्पादक ने महज पीढ़ियों के दरमियान संतुलन स्थापित करने की कोशिश की है, बल्कि इसलिए कि प्रखर प्रकाश-पुंजों के बीच उन्होंने उस छोटी-सी चिंगारी को भी सम्मान दिया जो छुटपुट बहुत सीमित ही सही मगर ताप व उजास का अहसास कराती है।
बेशक़, जब अरुण होता ने इस महती योजना की घोषणा की होगी सैकड़ों कवियों ने हजारों की तादाद में अपनी रचनाएँ उन तक पहुँचायी होंगी। आग्रह और तकाज़े का क्रम भी निरंतर चला होगा। किन्तु संचयन में कुल तिरतालीस कवियों की छोटी-बड़ी एक सौ पन्द्रह कविताओं की उपस्थिति दर्शाती है कि सम्पादक की अपेक्षाएँ क्या, कैसी और क्यों है इसका खुलासा "महामारी में जिजीविषा बनाए रखने वाली कविताएँ" शीर्षक से लिखी उनकी सम्पादकीय में देखा जा सकता है।
वे लिखते हैं, "भारत में अब तक इस महामारी ने करोड़ों लोगों को संक्रमित किया है और लाखों के आसपास लोगों को अकाल मृत्यु का शिकार बनाया है। इन्हीं सही-ग़लत आँकड़ों पर भविष्य में इतिहास लिखा जाएगा। अनुभव बताता है कि आँकड़ें और तथ्य महत्त्वपूर्ण बनते आ रहे हैं किसी कालखण्ड के इतिहास लेखन में। अतीत में घटित महामारियों के उपलब्ध इतिहास के संदर्भ में भी यह परिलक्षित होता है। इतिहास कहकर जो कुछ परोसने का प्रयास किया जाता है, वह प्रश्नों के घेरे से मुक्त नहीं है। एक मानविकी छात्र के लिए इतिहास महज़ एक कंकाल सार है। उसके सामने एक कथन बार-बार घूमता है 'इतिहास में नाम और तिथि के अलावा कुछ भी सत्य नहीं होता है। जबकि साहित्य में नाम और तिथि के अलावा सब कुछ सत्य होता है।' तथ्यों और आँकड़ों में सीमित होकर दर्ज किए गए इतिहास अथवा गवेषणामूलक कार्यों में मानव जीवन की विविध संवेदनाएँ दर्ज नहीं होती हैं। मनुष्य के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, रुचि-अरुचि, प्रेम-घृणा आदि भाव और विकारों का प्रतिफलन नहीं होता है। फलतः ऐसे लेखन नीरस सिद्ध होते हैं। साहित्यकार के लिए मानवीय भावों का सर्वाधिक महत्व होता है। वह अपनी सृजनशीलता और रचनादृष्टि तथा जीवनदृष्टि को रचना के आधार पर व्यक्त करता है।
कविता केवल शब्दों का खेल नहीं है। कविता कल्पनाओं की ऊँची उड़ान भरने का एक माध्यम नहीं है। कविता स्व की अभिव्यक्ति तो है लेक़िन इस 'स्व' में 'पर' भी समाया हुआ है। अथवा 'पर' का आत्मसात करने के पश्चात 'स्व' की अभिव्यक्ति साहित्य का प्राण है। अन्त: और बाह्य के एकाकार रुप की सफ़ल अभिव्यक्ति है कविता। यदि यह अभिव्यक्ति सफलता के साथ-साथ सार्थकता प्राप्त करती है तो कविता कालजयी बनती है।
किसी भी कालखण्ड में लिखना एक साहसिक काम है। जोख़िम भरा भी। इसलिए महज रचना कौशल हासिल कर लेने से कविता सही पदवाच्य नहीं हो सकती है। रचना कौशल से कविता 'बन' सकती है, 'हो' नहीं सकती। कविता का 'बनना' सायास है और कविता का 'होना'अनायास।
समय और समाज में होनेवाले परिवर्तनों से कविता की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि कविता की प्रयोजनीयता अधिक बढ़ जाती है।"
साथ ही अरुण होता यह विश्वास जताते हैं कि चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो,दर्शन न हो, पर कविता का प्रसार अवश्य रहेगा।
मार्च 2020 में भारत में बिल्कुल अवैज्ञानिक, अनियोजित तथा बिना सोचे-समझे आनन-फ़ानन में घोषित लॉकडाउन से उपजी हृदयविदारक त्रासदियों, इस पर सत्ता की धूर्तता "गोबर-मूत्र" की धर्मांधता से की गई लीपापोती तथा गोदी मीडिया के दोगले चरित्र को आड़े हाथों लेते हुए पूरी बेबाकी और तथ्यों के साथ उस यथार्थ को उजागर करते हैं,जिनकी वज़ह से पीड़ित व संवेदनाओं से भरा कविमन व्यथित हो रहा था।
सम्पादकीय में वे चर्चित कवि आलोचक श्रीप्रकाश शुक्ल द्वारा प्रस्तावित नाम-'कोरोजीवी कविता' को उपयुक्त बताते हुए शुक्ल के प्रकाशित लेख " कोरोनाजीवी कविता:अर्थ और संदर्भ" की इन पँक्तियों को शामिल करते है-" इस कोरोनाजीवी कविता का महत्व इस कारण नहीं है कि यह महामारी के बीच लिखी जा रही है बल्कि इस कारण से है कि यह महामारी के बावजूद लिखी जा रही हैं, जिसमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ ही साथ इतिहासबोध की नयी अंतर्दृष्टि भी है।"
कमोबेश हर कविता पर की गई टिप्पणी में अरुण स्पष्ट करते हैं कि संचयन शामिल रचनाएँ किसतरह सत्ता की ज़्यादतियों और लम्पटताओं का प्रतिकार करती हैं। और श्रमरत आमजन की श्रम शक्ति को रुपायित करती हैं।
-वसंत सकरगाए-
टिप्पणीकार का संक्षिप्त परिचय :-
आत्मीय कवि वसंत सकरगाए 2 फरवरी 1960 को हरसूद(अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म। म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।
-बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।
-दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्विलालय द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरु जानते हैं’
संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003
मो.नं. : +91 99774 49467
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{युवा कवि व लेखक : साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक}
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