(युवा कवि व कथाकार श्री गोलेन्द्र पटेल , बीएचयू)
बाँझिन की बददुआ
ज्ञान का आदिकोश वेद है। वेद चार हैं क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद। यज्ञ के सुयोग पर चारों वेदों का पाठ क्रमशः होता, अध्वर्यु, उदगाता व ब्रह्मा करते रहे हैं। साय नामक एक ऋषि अपने एक शिष्य की गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर उसे नंद नाम से संबोधित करते हुए। उसे विष्णु का पिता बनने का वरदान देते हैं। जो पौराणिक काल में विष्णु के औतार श्रीकृष्ण भगवान के पिता के रूप में जाने गये। इसी नंद के संदर्भ में किंवदंती है कि नंद और इनके गुरुजन नदी के माध्यम से जंगल जा रहे थे। जब नंद अपने गुरु के साथ बीच जंगल पहुँचते हैं। दूसरे जलप्लावन की घटना घटती है। कभी-कभी बेमतलब इस बात की जिक्र कलयुग की किंवदंती करती है। स्थलीय जीवन का अंत होने जैसी स्थिति थी। सभी द्वीप डूब गए थे। वह जंगल भी डूब गया था। तब नंद केले और बाँस के बेडे पर गुरुजन को बैठकर सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे। उसी बीच कुछ मनुष्य अपनी नाव में अपनी जरूरत की वस्तु लेकर विपरीत दिशा के सुरक्षित स्थान पर जा रहे थे। नाव में लालच की वजह से वजन बढ़ गया था। आँधियों के चलने पर लहरें अपनी पूरी शक्ति के साथ उन्हें लिलने के लिए तैयार हो गई थीं। इसलिए वे अपने जीवन को बचाने के लिए नाव से कमजोर लोगों को जलमग्न जंगल में फेंकने लगे। उसी नाव से दो बकरियाँ उन लोगों ने जल में फेंक दिये। वे बकरियां बिना बियाये बूढ़ी हो गई थीं। वे लहरों की चोट से चीखती हुई मुसिबत से मुक्ति का मंत्र पढ़ने लगीं। जिस मंत्र के सर्जक स्वयं भगवान शिव थे। परंतु बाद में ब्रह्मा जी कुछ बदलाव करके उस मंत्र को अपना नव सृजन कहने लगे। इस मंत्र के सर्जक को लेकर पार्वती जी और सरस्वती जी में बहसें भी हुई हैं। इन बहसों का आनंद विष्णु जी अपने अलग अलग अवतारों में लेते रहे हैं। दरअसल बकरियों का मंत्र मनुष्यता का मंत्र था। जो महर्षि को मानवीय संवेदना की सुरक्षा के लिए समय का सार्थक सूत्र लगा। प्रलय में पीड़ा के प्रबोधन को प्रत्येक पंक्ति में दर्ज करते हुए प्रवाह के विरुद्ध नंद बकरियों को बचाने के लिए अपने बेड़े से कूद पड़े। बकरियों को बेड़े पर बैठाने का मतलब था ज्ञान का विनाश, गुरुजनों की मौत। क्योंकि बेड़े पर या तो नंद बैठ सकते थे या दोनों बकरियाँ। यह बात अच्छे से जानते थे नंद। लेकिन उन्होंने महर्षि धर्म का पालन करते हुए। बकरियों को लेकर सही दिशा में पउड़ पड़े। छिहत्तर घंटे तक तैरते रहे। तब जाकर हिमालय जैसे किसी पहाड़ पर पहुंचे। वहाँ पहुचने से पहले एक डूबे हुए गाँव को पार करना था। महर्षि नंद थक गए थे। देखे एक छत से नाव लगी है। वे उस पर बैठाकर बकरियों की थकान दूर करना चाहते थे। जैसे ही वे नाव पर बकरियों को बैठाने लगे। एक अप्सरा ने कहा कि ये आदमी! यह मेरी नाव है इन बकरियों को नीचे उतारो। कुछ देवगण जिन्हें कि अप्सराओं की सुंदरता सुई की भांति चुभ रही थी। वे बूढी बकरियों के लिए अपनी बोट दे दिये। उसमें बकरियाँ बैठ गईं। नंद के साथ देवगण भी तैरने लगे। तैरना दरअसल देह की ताकत का टकराना है तरंगों से। किनारे पर कामशास्त्रीय वात्स्यायन जी नंद से पूछते हैं। मित्र आपकी कुशलता कैसी है? सब ठीक है न? उम्र की उमस में ड्योढ़ी पर ये बूढ़ी बकरियाँ क्यों? इनकी मूत से बहुत ही बदबू आती है। बकरियों और नंद के संदर्भ में गलत-सलत गंध हिमालय की हवा में उड़ रही थी। तभी अचानक से साय की आत्मा आ जाती हैं। नंद अपने कर्म से विमुख नहीं होता है। वह सदैव परोपकार के पथ पर आगे बढ़ता रहा। साय का सम्मान करते हुए। गुरुभक्ति की। अंत में गुरु दक्षिणा देने के लिए कहता है। तब साय गुरु दक्षिणा में बकरियों को ले जाते हैं। कई दिनों तक नंद यही सोचते रहे हैं कि गुरुदेव बकरियों को ही क्यों मांगे हैं? जब नंद की चिंता दिन प्रतिदिन दुगुनी गति से बढ़ती है तब महर्षि नारद इन बकरियों के विषय में बताते हैं कि ये दोनों साय की बेटियाँ हैं। देव कन्या हैं। यज्ञ से उन्हें प्राप्त हुई थी। ये एक बाँझिन की बददुआ की वजह से ऐसी रहीं। वत्स! तुमने इन्हें मुक्ति दी है। चिंता मुक्त रहो। क्योंकि मनुष्य के लिए चिंताग्नी, चिताग्नी से जादे खतरनाक है।
©गोलेन्द्र पटेल
अच्छा है
ReplyDeleteलिखते रहिये...शुभकामनाएं
बढ़िया कहानी 💐💐🙏🙏💐💐
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