Wednesday, 1 December 2021

वाचस्पति की टिप्पणियाँ : गोलेन्द्र पटेल

 
{युवा कवि 
गोलेंद्र पटेल चंदौली ) और लेखक वाचस्पति वाराणसी )}
वाचस्पति की टिप्पणियाँ


1.
मिथिला के बन्द समाज से बाहर निकलकर नागार्जुन ने अपनी तमाम रचनाओं और सहज सुलभ व्यक्तित्व से एक ऐसा जागरण किया जिसकी आज पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है। वे सच्चे अर्थों में क्लैसिकल माडर्न थे। तारानन्द वियोगी की यह जीवनी पाठक को नागार्जुन के अन्त:करण में प्रवेश कराने में सक्षम है। उनके घने साहचर्य में जो रहे हैं वे इसे पढ़कर बाबा की उपस्थिति फिर से अपने भीतर महसूस करेंगे। अपनी सशक्त लेखनी से तारानन्द ने बाबा नागार्जुन को पुनर्जीवित कर दिया है। यहाँ तथ्य और सत्य का सन्तुलित समन्वय है। बाबा से जुड़े शताधिक जनों के अनुभव उन्होंने बड़ी सहृदयता से अन्तर्ग्रथित किये हैं। बाबा नागार्जुन को संसार से विदा हुए बीस वर्ष से ज़्यादा हुए। इस बीच हिन्दी-मैथिली की जो तरुण पीढ़ी आयी है वह भी इस कृति से बाबा नागार्जुन का सम्पूर्ण साक्षात्कार कर सकेगी। बाबा के बारे में एक जगह लेखक ने लिखा है, 'स्मृति, दृष्टान्त और अनुभव का ज़खीरा था उनके पास।' तारानन्द की इस जीवनी में भी ये तीनों बातें आद्यन्त मौजूद हैं। बाबा के जीवन-सृजन पर यह बहुत रचनात्मक, ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य सम्पन्न हो सका है। मैं इतना ही कहूँगा कि बाबा की ऐसी प्रामाणिक जीवनी मैं भी नहीं लिख पाता। 'युगों का यात्री' हिन्दी की कुछ सुप्रसिद्ध जीवनियों की शृंखला की अद्यतन सशक्त कड़ी है। —वाचस्पति, वाराणसी (दशकों तक नागार्जुन के कऱीब रहे अध्येता समीक्षक)


2.
कवि धूमिल
(९ नवंबर, १९३६-१० फरवरी, १९७५) 
■★■

'तुमने धूमिल का नाम सुना है ?
' संसद से सड़क तक ' का कवि
बोल्डरों की तरह लुढ़काता-फेंकता था वह अपने शब्द
कुछ बदनीयत दिलों में गड्ढे हो जाते थे
अधिकतर भोरे दिमागों की गड़हियां पट जाती थीं '
गंगातट के कवि ज्ञानेन्द्रपति की काव्य पंक्तियां
(खेवली तक सड़क नहीं आती से - पहले पहल यह कविता इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में छपी थी। जो संशयात्मा में संग्रहित है।)

विद्रोही कवि धूमिल और उनके सुविधा वंचित गाँव खेवली को ज्ञानेन्द्रपति ने अपनी कविता में बहुत अच्छी तरह याद किया है। "धूमिल समग्र" का पारायण करके हम उन्हें वास्तविक रूप में याद कर सकते हैं क्योंकि धूमिल को "गालबजाऊ पाण्डित्य" से हमेशा बाजिब चिढ़ रही!
लगभग बारह सौ पृष्ठों में धूमिल के योग्य पुत्र डाक्टर रत्नशंकर पाण्डेय ने तीन खण्डों में समग्र का संपादन कुशलतापूर्वक किया है। यद्यपि रत्नशंकर किसी विश्वविद्यालय, महाविद्यालय में हिन्दी-आचार्य नहीं रहे तथापि!
साठोत्तरी दौर में बीएचयू परिसर में कविश्री त्रिलोचन-धूमिल की "गरिमापूर्ण उपस्थिति" रही।
जो गुरुडम से विमुख रहे वे इन कवियों के सान्निध्य में रहे!
धूमिल आईटीआई की नौकरी के लिये बीएचयू परिसर होकर जाते रहे। वे मित्रकवि लीलाधर जगूड़ी के प्रज्ञाचक्षु अनुज मुरलीधर का हालचाल नित्यप्रति लेते रहे।
मैं भी मुरली के सहपाठी के बतौर बिरला छात्रावास के मध्य में एक कमरे में रहते हुये धूमिल जी का स्नेहभाजन बना।
ब्रेनट्यूमर के घातक रोग से पीड़ित होकर धूमिल बीएचयू के सुन्दर लाल अस्पताल में 18 अक्टूबर, 1974 को भर्ती हुये। जाँच में अंततः ब्रेनट्यूमर ही होने पर धूमिल को 1 नवम्बर, 1974 को लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज अस्पताल में भर्ती किया गया जो अब चिकित्सा विश्वविद्यालय है। केजीएमयू लखनऊ के अति निकट इमामबाड़ा उर्फ भूलभुलैया है। न्यूरोसर्जरी मेलवार्ड, बेड नंबर 2 पर  धूमिल को मैं लखनऊ में कवि-पत्रकार विनयश्रीकर के साथ देखने गया तो वे भीषणतम कष्ट के बावजूद गर्मजोशी से मिले।विनयश्रीकर तब नेशनल हेराल्ड में प्रूफरीडिंग करते हुये अस्पताल में धूमिल के पास रोज़ाना जाते रहे। ठाकुर प्रसाद सिंह, श्रीलाल शुक्ल, कुँवरनारायण आदि लखनऊ के समर्थ साहित्यिकों की सक्रियता से धूमिल को बेहतर  संभव चिकित्सा व्यवस्था सुलभ हुई। पर 10 फरवरी, 1975 की रात करीब पौने दस बजे धूमिल दिवंगत हुए!इसके चन्द रोज़ पहले कवि अक्षय उपाध्याय के साथ कविश्री त्रिलोचन बनारस से लखनऊ जाकर धूमिल से मिले। हालात में कुछ सुधार बताया पर अनहोनी होकर रही!
11 फरवरी, 1975 की शाम महाश्मशान मणिकर्णिका पर बनारस में धूमिल की अन्त्येष्टि हुई। बनारस में कवि धूमिल का कोई स्मृति चिह्न नहीं है। यहाँ कवियों में मोहनलाल गुप्त भैयाजी बनारसी, शम्भुनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह की ही मूर्तियां स्थापित हैं।कबीर-रैदास-तुलसी-जयशंकर प्रसाद-जगन्नाथ दास रत्नाकर-गिरिधर कविराय-त्रिलोचन-धूमिल का साहित्य जहाँ कहीं भी हो, वही उनका वास्तविक स्मारक है!
झूठ की सत्ता और सत्ता के झूठ को यदि जानने-पहचानने में किसी की दिलचस्पी हो तो धूमिल सरीखे कवि हमेशा मददगार हो सकते हैं बशर्ते ईमानदारी से हम उनकी रचनाओं के पास तक तो जायें।
पद्म पुरस्कारों वाला रास्ता धूमिल के गाँव खेवली तक नहीं जाता। दब्बू-चापलूस-ख़ुदगर्ज़ और सत्तामुखी वाचाल प्रतिभाशाली धूमिल की छवि धूमिल
करने में कभी पीछे नहीं रहते! धूमिल का समग्र साहित्य  ऐसे मौकापरस्त तत्त्वों की पहचान का मौका तो देता ही है!




3.
कवि-कविता और हिन्दी-समाज
      ★★★
                   
"वागर्थ" में बुन्देलखंड यात्रा और हरिद्वार में गुमनाम शहीद जगदीश वत्स को याद करते हुए "अमर उजाला" में प्रसंगवश सुधीर विद्यार्थी ने  क्रमशः बाँदा के केदारनाथ अग्रवाल और कहीं के भी कविश्री त्रिलोचन का जिक्र किया है। काव्यप्रयोजन में कविता से पहले यश मिलने और फिर अर्थ (धन) पा लेने की बात है।
देश-विदेश के महानगरों में जा बसे साहित्यिकों के वंशज अपनी पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद बेच कर अपने नये ठिकानों पर चल देते हैं। पैसे से एकमात्र लगाव होने से कोई व्यर्थ का भावनात्मक निर्णय हावी नहीं हो पाता।कवियों के खानदान की नयी पीढ़ी की बेहद खर्चीली पढ़ाई और आवासीय व्यवस्था के लिए अच्छी खासी रकम की जरूरत होती है। उसमें कवि का यश एक हद तक मददगार होता है। होलटाइमर कवि कविता को अपना पूरा जीवन दे डालते हैं। न कोई फंड, न कोई पेंशन! बड़ी नौकरी के बड़े प्रभामण्डल से कमाई भी होती है। सरकारों को भी सांस्कृतिक कारोबार के लिए हर किस्म के साहित्यकारों की जरूरत पड़ती है।
लखनऊ में सत्तर पार कर चुके भूतपूर्व पत्रकार-कवि हैं जिनकी पत्नी पुरानी मानसिक रोगिणी हैं।
एकमात्र पुत्र विदेश में मोटे वेतन का मालिक है।
लखनऊ के माता-पिता से वह कहता है कि आप कामरेड-प्रगतिशीलता के चक्कर में रहे तो उन्हीं से मदद लें, हमें परेशान न करें! लखनऊ के वे मित्र मेर कहने पर कवि धूमिल की ब्रेनट्यूमर की बीमारी में उनके पास नित्यप्रति जाते रहे। आज हृदयरोग की दवाओं को ख़रीदने और जीवनयापन के लिये उनके पास न्यूनतम धन नहीं है।
कवि और उनकी कविता से परिवार को उतनी ही भौतिक उपलब्धियों का हासिल हो पाता है जो छोटे-बड़े साहित्यिक पुरस्कारों के द्वारा मिल पाता है!
हिन्दी-समाज को सच्चाई यही है कि कवि और कविता से कुछ लेना-देना नहीं है। महिमामंडन के लिए कुछ पुरस्कार कवियों के नाम पर चला दिये जाते हैं। शोध संस्थान नाम से कुछ जेबी संस्थायें बन जाती हैं। कुछ संस्मरण वगैरह भी कवियों पर माँग और पूर्ति के आधार पर बन जाते हैं।इन दिनों यह शुभ ट्रेण्ड है कि साहित्यकारों के वंशज भूलकर भी साहित्य के इलाके में अपना सिर नहीं खपाते!
राजनेताओं-क्रिकेटर्स-फिल्मी महानायकों के मन्दिर बना दिये जाते हैं। किसी गायक पालटीशियन कवि का हिन्दी-प्रदेश में कहीं मन्दिर आगे चलकर दिखलाई भी दे जाये तो किम् आश्चर्यम्! तथास्तु!



4.

नई चाल वाली पत्रकारिता
               जनसत्ता आज ही निकलना शुरू हुआ था।
(याद है प्रभाष जोशी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय की तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 'तीसरी दुनिया के देशों में ज्ञान एवं संस्कृति के समक्ष चुनौतियाँ' के अंतिम दिन मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे। वाचस्पति जी ने उन्हें जनसत्ता के पहले अंक की प्रति दिखलाई तो प्रभाष जी गदगद हो उठे।
सहेजकर रखने की वाचस्पति जी के उद्यम और लगाव की सराहना की। उस पर हस्ताक्षर दिए। जनसत्ता की स्थापना दिवस पर वाचस्पति जी की यह टिप्पणी-)

नयी दिल्ली, बृहस्पतिवार, 17 नवम्बर, 1983 ई. को
नई चाल की हिन्दी का नया अख़बार शुरू हुआ।
वर्ष 01अंक 01 अपने संग्रह से मैंने निकाल कर देखा।तब मैं 'सज़ायाफ़्ता' हिन्दी-प्राध्यापक के तौर पर जैहरीखाल के सरकारी महाविद्यालय में कार्यरत रहा।
वहाँ से छह किमी पर लैंसडाउन सैनिक छावनी के बाज़ार में"जोशी मेडिकल स्टोर" पर इंडियन एक्सप्रेस समूह की एजेंसी थी। वहाँ पहुँचकर मैंने पचास पैसे (अठन्नी) में यह दैनिक ख़रीद लिया। कार्टूनिस्ट काक के मुखपृष्ठ के मध्य में कार्टून ने ध्यानाकर्षित किया। एक सूखे से
"आम आदमी" की तरफ हाथ का इशारा कर इन्दिरा जी कह रही हैं"...गुमराह न हों....चर्बी है कहाँ...." दरअसल उसी समय वनस्पति घी में चर्बी की मिलावट का मामला बहुत चर्चित हुआ। उसी पर यह व्यंग्य चित्र बना। जनसत्ता लम्बे समय तक अपने प्रतिरोधी तेवर और आमफ़हम भाषा के लिये बहुचर्चित रहा। मेरे पास बाद के भी काफी अंक रहे जो तबादले की  परेशानी के चलते मैंने लखनऊ के श्री वीके सिंह जी को सौंप दिये।
बनारस के काशी विश्वविद्यालय में "जनसत्ता" के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी जी से 10 फरवरी, 2005 को एक कार्यक्रम में भेंट होने पर पहले पेज पर उनके हस्ताक्षर लिये। उन्होंने हस्ताक्षर के नीचे अपना पूरा पता लिखकर दिल्ली आकर मिलने का न्यौता भी दिया।
"जनसत्ता" में अनेक पत्रकार प्रभाषजी के मार्गदर्शन में तत्कालीन सत्ता के विरुद्ध आलोचनात्मक तेवर में लिखते हुए मशहूर हुए। बाद में कुछ ने "जनसत्ता" से अलग होकर सत्ता की निकटता का राजमार्ग चुना और वे बड़े सफल पत्रकार सिद्ध हुए!
पत्रकारों के लिए अनेक शहरों में  "पत्रकारपुरम" हैं। क्या कहीं किसी नगर में आपने "साहित्यकारपुरम" का नाम सुना है?

5.
'पक्का महाल' के लेखक की याद किसे है!
             ★★★
काशी के अमर कथाकार प्रेमचन्द जी की याद "लमही गाँव "में 31जुलाई को हर साल मेले के जश्न से मनाई जाती रही।इस साल विद्वानों ने कोरोना वायरस के चलते आनलाइन डिजिटल होकर प्रेमचन्द सप्ताह मनाया !
2019 में31जुलाई को कथाकार ,बनारसी जीवन शैली के विशेषज्ञ अजय मिश्र(1946-2019ई.)हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए थे।काशी -कथा हिन्दी में "बहती गंगा",गली आगे मुड़ती है,काशी का अस्सीऔर अजय के उपन्यास"पक्का महाल" से चर्चित रही है।पुराने बनारस के ध्वस्तीकरण से खिन्न प्रतिरोध की कविताएं"दर-बदर"में दर्ज हुईं जिसके लोकार्पण के लिए बनारस07अप्रैल2019ई.को दिल्ली से आलोचक-कला-समीक्षक ज्योतिष जोशी जी आए।उन्होंने अजय की रचनाओं के बेहतर प्रकाशन की प्रबल इच्छा व्यक्त की।वे स्वयं भी बातचीत में यह आग्रह करते रहे।अजय मिश्र अपना दूसरा उपन्यास"ढकोसला"छपा देख कर चर्चा उस पर चाहते थे।प्रो.सत्यदेवत्रिपाठी से बात भी कर ली थी।दुर्गाकुण्ड बनारस का प्रकाशक दाबे रहा।निधन के बाद बनारस के ही किसी अल्पज्ञात ने छापा।बनारसी जीवन का रंग-ढंग उनकी रचनाओं में रचा-बसा है।
बनारस में अजय मिश्र अपने"मन की बात"कहने-सुनने जितेंद्र नाथ मिश्र, राजेंद्र आहुति, रामाज्ञा शशिधर,रामानंद तिवारी, योगेन्द्र नारायण, लोलार्क द्विवेदी, दीनबन्धु तिवारी, अवधेश प्रधान, बलराज पाण्डेय,सदानन्द शाही से अक्सर मिलते-भटकते रहे।झारखंड के धनबाद में पत्रकारिता से आजीविका चलाकर अंततः बनारस लौटे।अंत नींद में हृदयाघात से हुआ!उनकी निजी लाइब्रेरी और अप्रकाशित रचनाओं का क्या हुआ,कोई मित्र नहीं जानता!
जयपुर में उनके बनारसी मित्र सुधेन्दु पटेल, लखनऊ में"लमही"संपादक विजय राय हैं।चर्चा कर लेते हैं।पहली बरसी पर उनकी स्मृति को प्रणाम!



6.
"मिट्टी का एक पूरा चेहरा" झारखण्ड से समकालीन कविता के इस संचयन में दिखलाई दिया।आदिवासी जीवन की जटिल सरलता अनेक कवियों की कविताओं में मौजूद है।चौबीस कवियों के काव्य की बानगी प्रत्येक कवि की पाँच प्रतिनिधि कविताओं से मिल जाती है।स्थापित वरिष्ठ कवि ऐसे साझा संग्रह से दूरी बनाये रखते हैं।मेरा मानना है युवाओं के प्रोत्साहन के नज़रिए से भी ऐसे आयोजनों को देखा जाना चाहिए।
आदिवासी जीवन पर विकास के आँधी-तूफान का सीधा असर है।बहुराष्ट्रीय निगमों के हितार्थ जल-जंगल-ज़मीन से आदिवासियों को बेदख़ल किया जा रहा है।उन्हें "सभ्य"बनाने की सुनियोजित कोशिशें जारी हैं।कथित साहित्यिक"मुख्यधारा" मूल निवासियों से उनके सहज स्वाभाविक जीवन को अपहृत करने में सक्रिय है।असंतोष-आक्रोश-प्रतिरोध-विद्रोह के स्वर यहाँ अनेक कवियों-कवयित्रियों में मौजूद हैं।इस तरह की प्रतिनिधि जनचरित्री कविताओं के संग्रह अन्य हिन्दी प्रदेशों से आने चाहिए।कल यह पुस्तक मिलने पर अभी तो मैं इन रचनाकारों की सोहबत से आनन्दित हूँ।


7.
गुरुवर भोलाशंकर व्यासजी (जन्म: 16अक्टूबर, 1923 ई. बूँदी , राजस्थान-
23 अक्टूबर, 2005, वाराणसी ) के सुपुत्र लक्ष्मीदत्त व्यास कुछ महीनों से दिखलाई नहीं दे रहे थे। मैं लंका से संकटमोचन के अंदरूनी रास्ते से गुज़रते हुए व्यासजी के घर के सामने रुका। रात हो जाने से मैंने भीतर जाना मुनासिब नहीं समझा। अस्सी पर सहपाठी डाक्टर गयासिंह के यहाँ जाने पर वे नहीं मिले। आगे बढ़ने पर भारत कला भवन से संबद्ध राजेन्द्र सिंह जी दिखे। मैंने उनके सहकर्मी लक्ष्मी दत्त व्यास के बाबत पूछा। उद्देश्य था कि गुरुवर व्यास जी की जन्मशताब्दी के सिलसिले में कुछ चर्चा की जाये। राजेन्द्र जी ने बताया कि लक्ष्मी कोरोना की दूसरी लहर में चले गये। कहा कि कोई बहुत दिन तक न दिखे या लंबे समय तक फोन-वार्ता न हो तो समझिये कि वह दुनिया छोड़ गया! लक्ष्मी दत्त मेरे सहपाठी स्नातक कक्षाओं में रहे। उनकी इच्छा तो रही कि वे अपने पिताश्री की जन्मशताब्दी अच्छी तरह से मनायें। अब उनके न रहने से यह सब अधूरा स्वप्न है! गुरुवर व्यास जी का फोटो मैंने एक पुस्तक के आवरण से लिया है।
जो मित्र घर से बाहर नहीं निकलते या बहुत कम न के बराबर फोन करते हैं मैं उनके अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घजीवन की कामना करता हूँ। वे घर पर ही रहें, सुरक्षित रहें। कभी न कभी कहीं न कहीं तो भेंट हो सकेगी! जियेंगे तो मिलेंगे!!



8.
जबलपुर में 92 के मलय जी
★★★

१९नवम्बर अनेक महान विभूतियों का जन्मदिन है।
बाबा गुरु नानक जी , रानी लक्ष्मीबाई,  इन्दिरा गांधी,  लोकबद्ध आधुनिक कवि केदारनाथ सिंह कुछेक ऐसे नाम हैं जो इस तारीख़ को याद आते हैं। पुराने भारत में इन पुरानों का अपने-अपने क्षेत्र में विशिष्ट योगदान है।
न्यू इण्डिया के न्यू पीएम का भी आज के  ही दिन बहुत ख़ास योगदान है क्योंकि सालभर से आन्दोलन कर रहे किसानों के हित में पारित कानूनों को वापस लेने की घोषणा हुई है!
19 नवम्बर, 1929 को मध्यप्रदेश के जबलपुर जनपद के सहसन गाँव के किसान परिवार में मलय जी का जन्म हुआ। उनकी रचना-यात्रा करीब सात दशकों तक विस्तृत है। कवि के बतौर उनके दर्जन भर संग्रह प्रकाशित हैं।हिन्दी के नब्बे पार के क्लब के वे एक सम्मानित चैतन्य सदस्य हैं। डा. रामदरश मिश्र, डा.विश्वनाथ त्रिपाठी, 
डा. रमेश कुन्तल मेघ को इस प्रसंग में सहज ही याद किया जा सकता है। मलय जी का शीर्ष व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई से अनन्य सम्बन्ध रहा।
कवि मुक्तिबोध से उन्हें जोड़कर देखा जाता है। परसाई जी के सान्निध्य का ही नतीज़ा है कि उनके खाते में "व्यंग्य का सौन्दर्यशास्त्र" , "सदी का व्यंग्य-विमर्श" जैसी विवेचनात्मक कृतियाँ हैं। "खेत में" कहानी-संग्रह के साथ ही "समय के रंग" में कवि का गद्य है।
विगत वर्ष उनका अब तक सम्पूर्ण साहित्य छह खण्डों में आया है। उनके सुपुत्र संजुल शर्मा, प्रखर कवि असंग घोष, युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने रचनावली संपादित की है।
वरिष्ठ कवि ओमभारती ने मलय जी के रचनाकर्म पर "जीता हूँ सूरज की तरह!" एक मूल्यवान पुस्तक का संपादन किया है। इसमें पुराने-नये रचनाकारों ने मलय जी के संपूर्ण साहित्य का सम्यक् मूल्यांकन किया है।ओमभारती की भूमिका और उनके एक स्वतंत्र लेख में मलय जी के प्रदेय की गहरी पड़ताल की है।
असंग घोष के मलय से लम्बे साक्षात्कार में उनकी सृजनशीलता और जीवन-दर्शन पर विचारणीय बातें हैं।हिन्दी में कवि त्रयी बनाने का पुराना फैशन आज भी चलन में है! मुक्तिबोध-शमशेर-मलय की त्रयी की कुछ जगहों पर चर्चा है। पर मलय जटिल सरलता के ऐसे कवि हैं जो अपनी ही बनाई राह पर चलते चले आये हैं।उनके सृजन में जनजीवन को गति प्रदान करनेवाले ताप और प्रकाश के घटक विद्यमान हैं।
मलय प्रगतिशील जीवन-मूल्यों से आबद्ध रहे।वैचारिकी मजबूत रही, साहित्यिक राजनीति में कभी उलझे नहीं। वे "पैदा करते हैं जीवन की आग" अपनी कविताओं मेंऔर पूछते हैं--
एक हिमालय से ऊँची चढ़ाई
चढ़ना है मुझे
साथ दोगे क्या?
मलय जी जैसे सच्चे जनप्रतिबद्ध रचनाकार का दीर्घकालीन साथ पाने की विनम्र अभिलाषा के साथ जन्मदिन की सादर शुभकामनाएँ!

©वाचस्पति, वाराणसी।

★ संपादक संपर्क सूत्र :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल

{काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र}

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