समय का सूर्य पहाड़ की आड़ में छुपता हुआ नज़र आ रहा है और साँझ आ रही है हमारी ड्योढ़ी की ढिबरी से बतियाने। रोशनदान से देख रहा हूँ। रात रो रही है। चाँद चिहुँक रहा है। तारे तकलीफ़ में सिसक रहे हैं। उल्का गिर रही है नीचे और हवा हँस रही है। मेरे भीतर भयंकर युद्ध छिड़ा है। जहाँ अनूभूति की अभिव्यक्ति की चाहत में शब्द का शस्त्र लेकर दौड़ रही है संवेदना और उसका समय की सत्ता से संग्राम जारी है। बिल्ली मेरे हिस्से का दूध पीकर ख़ुश है। परंतु दादा के दिमाग की दही जमा रहे हैं कुत्ते। द्वन्द्व व्यंग्य की बात सुनकर कुछ समय के लिए रूक गया है। बच्चे उड़ा रहे हैं खिल्ली नये विचारों और नवीन स्थापनाओं का। मैं भी हवा की तरह उनके पास से हँसता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि अनिल कुमार पाण्डेय की आगामी पंक्तियों की आँच आज की सरसराहट में सुबह से शाम तक बनी रही है। जिसकी वजह से मेरी देह थोड़ी गरमी महसूस कर रही है और मेरा दिल दुहरा रहा है कि "समय और मेरे बीच का युद्ध समाप्त हो गया है/ कभी कभी आता है ऐसा विचार/ हँसता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ।" आगे बढ़ने के संदर्भ में मेरे गुरु श्रीप्रकाश शुक्ल भी अपने आत्मकथ्य में कहते हैं कि "मैं राह के पत्थरों से नहीं टकराता और न ही उन्हें तराशने की कोशिश करता हूँ लेकिन जहां स्पन्द देखता हूँ, फिर वह कंकड़ ही क्यों न हो, उसे उठाकर समष्टि गत चित्त की धारा में रख देता हूँ। अब वह बहे या रहे, उसे तय करना है।" विचारों के ब्रम्हांड में मेरे मन का घोड़ा दौड़ रहा है। पर उसका पूरा पैर है धरती पर। वह देखना चाहता है जन-जमीन-जंगल और जल को। पूरी की पूरी सृष्टि चेतना की आँखों में नाच रही है। एक कुम्हार कवि की भूमिका निभा रहा है। उसकी परिवेशगत संलग्नता मानवता की मिट्टी खाच रही है। चिंतन का चाक चल रहा है अपनी धुरी पर। मैं विचारों की दुनिया से बाहर की बस्ती में झाँक आना चाहता हूँ। जैसे कवि व लेखक अपनी खुली आँखों से भ्रमण कर रहे हैं भूख के भूगोल में। जहाँ अक्सर होता है भय का जन्म। जहाँ अक्सर होती है मृत्यु की मचान। जहाँ के चूल्हे में अक्सर जलती हैं मसान की अधजली हुई लकड़ियाँ। ऐसे स्थानों पर मैं भी दौड़ कर जाना चाहता हूँ और अपने आत्मीय कवि अनिल पाण्डेय की तरह पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना चाहता हूँ। वे कहते हैं कि "दस कदम दौड़ लगा आना चाहता हूँ / पूरे परिवेश में।" यहाँ आप दस कदम दसों दिशाओं के लिए कवि का वामन अवतार रूपी मावनवीय जिजीविषा का एक-एक कदम समझे तो बेहतर है। अपने वातावरण का वास्तविक दुःख देखना है तो कुछ पल के लिए अपनी पुतलियों को पत्थर करना ही होगा।
दुःख देवताओ की तरह सार्वभौमिक होता है। देवगण भले ही कोरोना के कहर से डरकर अपने केत में कैद थे। परन्तु दुःख सबकी ख़बर लेता रहा। सबके पास जाता रहा। लोग सबको अपने पास आने से रोक सकते हैं परंतु इसे नहीं। यह बहुत बेहया और असंवेदनशील होता है। यह किसी का नहीं सुनता है और किसी का परवाह नहीं करता है। पूरी सृष्टि इसकी चपेट में है, हम कह सकते हैं कि कब्जे में है। यह जहाँ चाहे वहाँ राज करे। मैं तो इसे संकट का सम्राट कहता हूँ और इसकी सम्राज्ञी किसी भी बिमारी को। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि महामारी इसकी राजमाता होती है। इसकी वजह से प्रत्येक जीव परेशान रहते हैं। इसे दूर से ही देखकर सुख मनुष्य का साथ छोड़ देता है। वह अपने समय से पहले ही भाग जाता है। कहीं किसी अज्ञात स्थान पर। मैं भी मानता हूँ कि होनी को कोई टाल नहीं सकता है परंतु दुःख को दूर से देखकर हम अपने सुख को समय से पहले नहीं जाने की सौगंध तो ले ही सकते हैं। सौगंध हमें सुख की सड़क पर चलना सीखाती है और संघर्ष के सफ़र में शक्ति देती है। जिसे जिद कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। यदि आप में जिद है तो आप कोई भी जंग जीत सकते हैं। अतः जहाँ जिद है वहीं जीत है। जिसे लक्षित करते हुए अनिल कुमार पाण्डेय कहते हैं कि "ठीक है कि दुःख का आना/ रोक नहीं सकता कोई/ सुख को न जाने देने की जिद अपनी है।"
©गोलेन्द्र पटेल
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