आज़ादी का अमृत महोत्सव
पचहत्तर साल बाद आज़ादी का अमृत महोत्सव
वहाँ मनाया जा रहा है
जहाँ हर आदमी नंगा है
उनका प्रधानमंत्री भिखमंगा है
उनके घर नहीं, तिरपाल पर तिरंगा है
जो धूमिल की आँखों में
सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
सावन में बहुत घाम है
मानो किसान-मजदूर के लिए सुबह ही शाम है
उनके वोट का दाम सड़े हुए गेहूँ की एक रोटी है
उनका नारा है - 'तुम मुझे अन्न दो , मैं तुम्हें वोट दूँगा'
लोकतंत्र के लोक और लोग अब सवाल हैं
संविधान के शब्द संसद की सड़क पर उतर गये हैं
लेकिन संत और सिपाही उनके ढाल हैं
चारों ओर आश्वासन की आवाज़ गूँज रही है
धरती धधक रही है
सारे जंगल जल रहे हैं , गाँव-शहर सुलग रहे हैं
नदी-समुद्र के जल खौल रहे हैं
पर , आसमान में धुआँ तनिक भी नहीं है
मौसम मुस्कुरा रहा है मंद-मंद
भूख गुनगुना रही है आँत में आँसू का छंद
उनको चारण कवि का कलाकंद पसंद है
लेकिन वे समय सापेक्ष सत्य के स्वर से डरते हैं
पहाड़ की चीख से चौक चौंक रहा है
चाय की चुस्की से उत्पन्न
बहस की बातें लंबी उड़ान भर रही हैं
हृदय को चीरता हुआ चित्र अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर है
चूल्हा गर्भवती चुहिया को देखकर
लज्जा महसूस कर रहा है
उसकी दृष्टि में देश का नक्शा उसकी पीड़ा की परछाँई है
अँधेरे का आरा आज़ादी को तीन बराबर हिस्सों में काट चुका है
(आ-ज़ा-दी : एक खंड उनका है
दूसरा खंड इनका है
तीसरा खंड बाँटने वाली बिल्ली की है
कोई आवाज़ - दिल्ली की है!)
सहानुभूति बुरे समय में सूखे की पूँजी है
कतार में खड़े लोगों के हाथों में
सत्ता की सड़ी सूजी है
पेड़ के नीचे आदमी जब गहरी नींद में होता है
तब कुत्ता भी कभी-कभी मुँह पर मूत देता है
चिड़िया तो खैर दिनदहाड़े चेहरे पर हगती है
मैं मात्रा की यात्रा में सोचता हूँ___
क्या भारत की संतानें पेड़ के नीचे सोना छोड़ दें?
फिर चुपचाप चला जाता हूँ दिमाग से दिल में
जहाँ मासिकधर्म में डूबे हुए दो-चार विचार हैं
अजीब सी संबंध की गंध है
तीमार क्रियाएँ वक्ष के वक्तव्य में बीमार हैं
मैं अचानक जले हुए स्वप्नों के ढेर पर देखता हूँ
रंगा-सियार मस्त है
आज उसी का पन्द्रह अगस्त है
बगल में कोई आदमी उल्टी-दस्त से पस्त है
मानो वह अस्त है
सो, सभ्य सियार अपने में व्यस्त है!
फिर भी मृत्यु आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रही है
वह प्रश्न की पीठ पर आत्महत्या का बोझ लाद रही है
वह नीति की नाक को परंपरा की पालिश से चमका रही है
लेकिन चमड़े की मुहावरे से चुनाव का चेहरा
देखो, दृश्य में देवता का दोहरा चरित्र है
नफरत की नयी नज़र में बुद्ध, तुलसी व गाँधी वगैरह
सब मर चुके हैं बची हैं केवल घृणा-तृष्णा
सिर्फ़ एक अक्षर बीज-मन्त्र
चरैवेति, चरैवेति, अब भी कोई चीख
शब्द के भीतर गूँज रही है
बेचैन बुद्धि की ज़र्द जिरह में संभोग से सिद्ध तन्त्र
क्या जनतंत्र है?
जादुई जुल्म की दिशाएँ दुनिया में अनेक हैं
पर , आज भी कुछ इरादे नेक हैं
जो भाषा में अमर हैं!!
©गोलेन्द्र पटेल
रचना : 13-08-2022
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