लहरतारा से लमही
लहरतारा से लमही जाते हुए
मैंने जाना—
मन और हृदय के योग से बुद्धि का विस्तार होता है
हे महाप्राण!
मुझे प्रेमचंद जयंती पर नागार्जुन क्यों याद आ रहे हैं?
मैंने जब भी पकड़ी है कुदाली
मेरे लिए
तब खेत कागज़ बना गया है
और कुदाली कलम
और स्याही
मेरे पसीने से मंठा माटी
मैंने जो लिखें अक्षर
वे बीज की तरह उग गये
पूरे खेत में
एक वाक्य मेंड़ पर उगा—
समय के शब्द शोषण मुक्त समतामूलक समाज के पक्षधर हैं
संघर्ष के स्वप्न श्रम के सौंदर्यशास्त्र रचते हैं
क्योंकि कलम के सिपाही सेवा, संयम, त्याग
और प्रेम के किसान हैं
जहाँ नई फ़सलों के नये गान हैं
कि कथा के प्रतिमान प्रेमचंद हैं
वे मानवीय पीड़ा की प्रतिध्वनि के छंद हैं।
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धुआँ और कुआँ
क्या धुआँ तुम्हारे फेफड़े को पसंद है?
हुक्का पीते हुए
मैंने सोचा—
क्या भाषा में दुःख का हुक्का-पानी बंद है?
चिन्तन और चेतना के संगम पर
जाति की अस्मिता है
मैं गहरा कुआँ हूँ
मेरे सोते उस पानी को खींचते हैं
जिसके ऊपर अछूत रहते हैं
मेरे भीतर नेह की नदी बहती है
पर, जो मेरे पानी पीते हैं
उनके भीतर इतनी घृणा क्यों?
वे उन्हें जगत पर क्यों चढ़ने नहीं देते हैं?
जो मेरे ऊपर रहते हैं
अरे! अब
कहाँ?
किसे?
कौन?
कुएँ पर चढ़ने नहीं देता है
दुनिया में कुछ अपवाद होते हैं न?
अपवादों से दुनिया नहीं चलती है
दुनिया चलती है अधिकांश के अनुसमर्थन से....
खैर, मुझे याद है कि स्कूल के उस बच्चे ने घड़े से
सिर्फ़ एक गिलास पानी लिया था
जो पैर के प्रहार से मरा है
आह! घाव हरा है, दुःखी धरा है!!
(©गोलेन्द्र पटेल / 31-07-2023)
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ईमेल : corojivi@gmail.com
नोट: प्रेमचंद पर केंद्रित मेरी तीन दर्जन कविताएँ हैं।
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