Thursday, 18 December 2025

कहानी: कर्ज खेत में नहीं उगता, शरीर में उतर आता है || गोलेन्द्र पटेल

कहानी: कर्ज खेत में नहीं उगता, शरीर में उतर आता है


1. (साँझ का समय — खेत की मेड़)

सूरज आधा डूब चुका था।
मिंथुर गांव के बाहर वही पुरानी मेड़, जहाँ कभी बच्चे खेलते थे, आज दो किसान बैठे थे—रोशन और शिवाजी।
शिवाजी ने बीड़ी सुलगाई।
धुएँ का एक छल्ला बनाकर बोला—
“आज खेत में गया था?”
रोशन ने सिर हिलाया—
“अब रोज़ नहीं जाता, शिवा। शरीर साथ नहीं देता।”
“शरीर?”
शिवाजी ने उसकी ओर देखा—
“खेत से पहले आदमी टूटता है क्या?”
रोशन हल्का-सा हँसा।
“अब हाँ।”
कुछ देर चुप्पी रही।
फिर शिवाजी बोला—
“लोग कहते हैं—किसान आत्महत्या कर लेता है।
पर कोई ये नहीं पूछता कि मरने से पहले किसान कितनी बार मारा जाता है।”
रोशन ने मिट्टी उठाकर हथेली में मसल ली।
“मरना आसान होता है, शिवा।
जीते रहना भारी होता है।”

2. (कर्ज की शुरुआत)

शिवाजी:
“तेरा कर्ज कब शुरू हुआ था?”
रोशन:
“जिस दिन मैंने सोचा कि बच्चों का भविष्य खेत से बड़ा होना चाहिए।”
शिवाजी:
“मतलब?”
रोशन:
“मतलब डेयरी।
सोचा—खेती भगवान भरोसे है, दूध रोज़ निकलेगा।
दो गायें लाऊँगा।
दूध बेचेगा, घर चलेगा।”
शिवाजी:
“तो इसमें गलती क्या थी?”
रोशन:
“गलती सपने देखने में नहीं थी।
गलती यह मानने में थी कि साहूकार इंसान होता है।”
शिवाजी ने बीड़ी बुझाई।
“हम सब यही गलती करते हैं।”
रोशन:
“पहले दस हज़ार लिए।
फिर बीस।
फिर तीस।
हर बार लगा—फसल आते ही लौटा दूँगा।”
शिवाजी:
“और फसल?”
रोशन:
“फसल को भी कर्ज़ का पता चल गया था।”
दोनों हँस पड़े,
पर हँसी में जान नहीं थी।

3. (बारिश, बीमारी और साहूकार)

शिवाजी:
“मेरे यहाँ भी वही हुआ।
बारिश या तो आती ही नहीं
या ऐसी आती है कि खेत बहा ले जाती है।”
रोशन:
“हम बीज बोते हैं, शिवा—
पर मौसम सूदखोर है।
ब्याज समेत काट लेता है।”
शिवाजी:
“साहूकार घर आने लगे थे?”
रोशन:
“पहले फोन।
फिर दरवाज़ा।
फिर आंगन।
फिर सीधे सीने पर।”
शिवाजी:
“मेरे घर भी आए थे।
बच्चों के सामने बोले—
‘तेरे बाप का खेत अब हमारा है।’”
रोशन:
“मेरे यहाँ बोले—
‘अब गिनती नहीं, हिसाब चलेगा।’”

4. (कर्ज का पहाड़)


शिवाजी:
“एक लाख से चौहत्तर लाख कैसे हो गया, रोशन?”
रोशन देर तक चुप रहा।
फिर बोला—
“जैसे आदमी का डर बढ़ता है,
वैसे काग़ज़ पर रकम बढ़ती है।”
शिवाजी:
“हम पढ़े-लिखे नहीं,
इसलिए काग़ज़ हमें डराते हैं।”
रोशन:
“डराते नहीं, शिवा—
वे हमें हमारी औक़ात बताते हैं।”

5. (बेचने की शुरुआत)

शिवाजी:
“तूने ज़मीन बेची?”
रोशन:
“पहले आधी।
फिर बाकी।”
शिवाजी:
“घर?”
रोशन:
“घर तो बस दीवारें थीं।
असली घर तो उसी दिन टूट गया था।”
शिवाजी:
“पत्नी ने कुछ कहा?”
रोशन:
“उसने कहा—
‘जान बची रहे, बस।’”
शिवाजी ने गहरी सांस ली।
“और साहूकार?”
रोशन:
“उन्होंने कहा—
‘अब शरीर बचा है।’”

6. (किडनी प्रसंग)

शिवाजी ने चौंककर देखा।
“शरीर?”
रोशन:
“हां।
एक ने बड़े आराम से कहा—
‘किडनी बेच दे।’”
शिवाजी:
“ऐसे?”
रोशन:
“ऐसे जैसे बीज बदलने की सलाह दे रहा हो।”
शिवाजी के हाथ कांपने लगे।
“और तू?”
रोशन:
“मैं उस रात पहली बार
अपने शरीर को
अपने खेत की तरह देखने लगा।”

7. (देह की कीमत)

शिवाजी:
“डर नहीं लगा?”
रोशन:
“डर था।
पर डर से बड़ा था—अपमान।”
शिवाजी:
“किस बात का?”
रोशन:
“कि मेरे बच्चे
कर्ज़दार के बेटे कहलाएंगे।”
शिवाजी:
“और तू चला गया…”
रोशन:
“हाँ।
कोलकाता।
फिर कंबोडिया।”

8. (अस्पताल)

शिवाजी:
“ऑपरेशन के वक्त?”
रोशन:
“डॉक्टर ने पूछा—
‘स्वेच्छा से दे रहे हो?’”
शिवाजी:
“और तूने?”
रोशन:
“कहा—
‘जब सारे रास्ते बंद हो जाएं,
तो मजबूरी स्वेच्छा बन जाती है।’

9. (पैसे और धोखा)

शिवाजी:
“आठ लाख मिले थे न?”
रोशन:
“हाँ।
हाथ में आए,
हाथों में रुके नहीं।”
शिवाजी:
“कर्ज खत्म?”
रोशन:
“नहीं।
काग़ज़ बोला—
‘अब भी बाकी है।’”
शिवाजी की आँखें भर आईं।
“तो फिर शरीर क्यों लिया?”
रोशन:
“क्योंकि इस देश में
कर्ज कभी पूरा नहीं होता—
बस आदमी खत्म हो जाता है।”

10. (लाओस)

शिवाजी:
“फिर विदेश गया?”
रोशन:
“हाँ।
कहा—नौकरी मिलेगी।”
शिवाजी:
“और मिली?”
रोशन:
“गुलामी।”
शिवाजी:
“मतलब?”
रोशन:
“पासपोर्ट छीन लिया।
दिन-रात काम।
मार।”

11. (बचाव)

शिवाजी:
“बच कैसे गया?”
रोशन:
“एक संदेश।
बस एक।”
शिवाजी:
“किसे?”
रोशन:
“एक आदमी को,
जो शायद अभी इंसान था।”

12. (वापसी)

शिवाजी:
“अब क्या करेगा?”
रोशन:
“अब जीने की कोशिश।”
शिवाजी:
“किसलिए?”
रोशन:
“ताकि मेरे बच्चे
कभी अपनी देह पर
दस्तखत न करें।”

13. (कर्षित कृषककथा)


शिवाजी बोला—
“कर्ज खेत में नहीं उगता, रोशन।
वह आदमी की रीढ़ में उतरता है।”
रोशन ने आसमान देखा—
“और जब रीढ़ टूट जाती है,
तो अख़बार में
एक लाइन छपती है—
‘किसान ने आत्महत्या कर ली।’”

14. (अंतहीन दुःखगान)

सूरज पूरी तरह डूब चुका था।
दो किसान अंधेरे में बैठे थे।
शिवाजी बोला—
“हम मरते नहीं, रोशन।
हमें धीरे-धीरे मारा जाता है।”
रोशन ने सिर हिलाया।
“और जब तक हमारी बातें
आपस में ही रह जाती हैं,
तब तक यही होता रहेगा।”
दोनों उठे।
घर की ओर चले।
खेत पीछे रह गया—
जैसे कोई गवाह,
जो सब कुछ देखता है,
पर कुछ कह नहीं पाता।
★★★

कहानीकार: गोलेन्द्र पटेल (युवा कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)

संपर्क सूत्र :-
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
मोबाइल नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

No comments:

Post a Comment

कहानी: कर्ज खेत में नहीं उगता, शरीर में उतर आता है || गोलेन्द्र पटेल

कहानी: कर्ज खेत में नहीं उगता, शरीर में उतर आता है 1. (साँझ का समय — खेत की मेड़) सूरज आधा डूब चुका था। मिंथुर गांव के बाहर वही पुरानी मेड़...