Monday, 22 June 2020

प्रतिभा श्री के कुछ कविताओं पर गोलेन्द्र पटेल....."स्त्री / भूख / श्रमिक / पलायन / आत्महत्या / एक पन्ना / उत्तर आधुनिक कविताएँ / फर्क"


"स्त्री / भूख / श्रमिक / पलायन / आत्महत्या / एक पन्ना / उत्तर आधुनिक कविताएँ / फर्क" : प्रतिभा श्री【बीएचयू】
गोलेन्द्र पटेल


नवोदित प्रख्यात युवा कवयित्री प्रतिभा श्री के काव्य-क्यारी में कर्षित कलि युक्त नवांकुरित कविता "स्त्री" 'स्त्री विमर्श वाटिका' का सुंदरतम सुमन है।जिसके प्रत्येक पंखुड़ी में पितृसत्तात्मक भौरों के लिए विशेष विष या मधु है जो रुढ़िवादी पुरुषार्थ के लिए चुनौती है और समाज के श्यामपट्ट पर लिखे जा रहे है इतिहास के लिए "सैन कोश"।इस सैनकोश के निर्माण में कवयित्री का कविकर्म निम्नलिखित पंक्तियों से सस्पष्ट है -
"जब दुनिया के / तमाम पन्नों पर/लिखे जा रहे थे/पुरुषार्थ के प्रशस्ति गान / तब / समाज ने हासिये पर/लिखा दिया  तुम्हारा नाम/तब भी तुम रचती रही./हसिये से समाज /सृजन के गर्भ से/जन्म देना चाहती रही/एक समतामूलक समाज" आज भी समाज में स्त्रियाँ 'देह दशा दोहरे दर्द' को ; दो दिवारों के बीच से अपने चीख के प्रतिध्वनि को किस प्रकार खुले आँगन तक पहुँचा रही हैं। यह इस कविता के संवेदना का सुगंध है जिसे एक सहृदय ही सूँघ सकता है।

वर्तमान स्थिति ऐसा ही है कि बच्चों के पेट में पर फैले उड़ते पक्षियों के उड़ान को देखना भूख के उबलते अदहन में खदकते चावल के ध्वनि को सुनना है "भूख की  उबाल /अदहन में खदकते चावल से / होती है/बहुत अधिक/इसलिए बार-बार जीतती है 'भूख' / दिन में दो-तीन बार/बड़ी तीव्रता के साथ/इसे महसुसा जा सकता है/उस भूख की तीव्रता को मापा जाना चाहिये /जिसे नहीं मिलती /दो वक्त की रोटी।"
'भूख के साथ भूखे का उम्र पकना' आजकल 'कोरोना के संकट में रोटी के लिए रोड़ पर रोना' आँख के आयु का पकना ही है।....
"पकते हुए चावल के साथ-साथ / पकती है तुम्हारी उम्र/जैसे कोई फल हो/ अब गिरे... तब गिरे../ मेरी संतोषी/भात के पकने तक/ तुम्हें रखना होगा धैर्य /  रोटी की लड़ाई में /पानी को बनना पड़ता है /भोजन का विकल्प/बार -बार / बदहजमी/और भूख मिटाने वाली दवा के बीच /एक अदद पेट है/जो लड़ता है रोटी से/मुझे सपने में दिखाई देते हैं/भूख से तड़पते बच्चे /मैं पकाना चाहती हूं /कटोरी भर भात
भूख के विरुद्ध"
                  
श्रमिकों के पसीने से लिखे गए इतिहास को पढ़ते वक्त उन्हें कितना याद किया जाता है यह आप सभी जानते हैं।उनके प्रति प्रेम का आवाहन करती और शोषित मजदूरों के दर्द का दर्शन करती हुई कवयित्री कहती है
-
"जब तुम प्रेम और युद्ध के द्वंद में फंसे थे /कोई लिख रहा था/ उस वक्त अपने पसीने से /"परिश्रम"/ तुम्हारे महलों के दरवाजे पर/ टांग दिया गया था उसका स्वप्न/उसे चेतावनी दी गई थी कि /वह आगे से ना देखे कोई स्वप्न /न सोते होते हुए / न जागते हुए....जब तुम चांद  पर जाने की तैयारी में थे /कोई दे रहा था हाशिए से आवाज/ अंततः जब  तुमने  चुन लिया  युद्ध /कोई  करना चाहता था तुमसे प्रेम /सिर्फ प्रेम।"

यह दौर श्रमिकों के "पलायन" का दौर है वे लौट रहे हैं महानगरों से एक गठरी में जीवन को गठियाये हुए गाँव। इस संघर्ष के संसार में 'सफ़र-ए-सड़क' का अंतिम पड़ाव अपना सदन है जिसे "मुक्ति-मकान" कहते हैं मजदूर मुसाफ़िर और आकाश के आँधियों से तंग चिड़ियाँ "घर-ए-घोसला"।इसे पढ़ते वक्त टॉमस स्टर्न्स इलियट(१८८८-१९६५) की कथन *कविता कवि-व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं ,व्यक्तित्व से पलायन है।* का स्मरण होना 'पलायन' के महत्व को रेखांकित करता है...इस लौटने के त्रासदी का जीवंत उदाहरण -
वे ऐसे  लौट रहे हैं /जैसे किसी तूफान के उठने से पहले/ पंछी लौट जाना चाहते हैं /अपने घोसले में/वे लौट रहे हैं /अपनी जिंदगी की सारी कमाई/ गठ्ठरी में बांधे /नंगे पांव /लहूलुहान है उनके पैर /सड़कें खून से रंग गयी हैं/समय की आग से/ झुलस गए हैं उनके चेहरे /जिन्होंने सभ्यता के विकास में /अपना श्रम और पसीना दिया है /आज उनसे उनका लहू भी
मांगा जा रहा है/वे लहू भी देने को तैयार हैं क्योंकि-
वह जानते हैं /लोकतंत्र में " मजदूरी" का पर्याय "मजबूरी" होता  है / वे मजबूर हैं/ जिन सडको को बनाया है उन्होंने /वही सड़के/उनके खून की प्यासी हो गई हैं /रेल की  पटरियों के आगोश में /समा चुकी है कई जिंदगियां /धरती अपने अक्ष से हिल गई है /मानो वह कह रही हो/ यह विस्थापित युग है /निर्वासित युग हैं/ इस "भेड़तंत्र" में /जन प्रतिनिधि को /जनता ने "विधाता" की संज्ञा दी है/और उसी "विधाता"ने  उनके/भाग्य में लिख दिया है /"निर्वासन","पलायन" ,"दमन"और "शोषण"/वे बार-बार अपनी "जन्म कुंडली" टटोलकर देखते हैं ,/और निराश हो जाते हैं/वे लौट रहे हैं क्योंकि/ उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है/ इससे पहले कि वह दूसरे/शोषण के शिकार हो/वे लौट जाना चाहते हैं /अपने गांव/इसी वादे के साथ कि /अब वे दोबारा लौट कर नहीं  जाएंगे।"
'आत्महत्या' शीर्षक नामक कविता में साहित्यिक सृजन सामर्थ्य को सड़क छाप मंच पर किस प्रकार पराजित किया जा रहा है उसी यथार्थ का यथा वर्णन-
  कविताओं की भी होती है हत्या/कवि के गर्भ में /भूख से तड़पते पेट में...मैंने देखा है /दम तोड़ती कविता को /हर वर्ष कत्ल भी की जाती हैं सैकड़ों कविताएं...विश्वविद्यालय के मंच पर जो हुआ था
वह कत्ल ही थी/विश्वविद्यालयों के भेंट चढ़ जाती हैं अनेकों कविताएँ/कवि सम्मेलन और गोष्ठियों से
कर दी जाती है निष्कासित /अच्छी कविताएं/और अच्छे कवि उपेक्षित...
कवयित्री को भविष्य के कविकर्म की चिंता है वह चाहती है कि भविष्य के गर्भ में छुपे यथार्थ के असहमतियों को दर्ज करने और लोकतंत्र के भावी प्रश्नों को पूछने के लिए अपने काव्यकागज़ का 'एक पन्ना' रिक्त छोड़ दिया जाय।यथा- "जब तुम लिखना कविता /तो एक पन्ना  छोड़ना रिक्त/ आने वाली पीढ़ी के लिए/ आने वाली पीढ़ी / लिखेगी उस पर/उस युग का यथार्थ/एक  पन्ना छोड़ना /इसलिए भी आवश्यक है /यह बताने के लिए/ कि तुम लोकतांत्रिक हो
उस पन्ने पर दर्ज की जाएंगी असहमतियाँ/ पूछे जाएंगे सवाल/ जिरह के लिए भी छोड़ना एक पन्ना/क्योंकि कविता का मतलब/ तानाशाही नहीं होता।
'आत्माभिव्यक्ति का नाम कला है' और कला के कई भेद-उपभेद हैं।उसी कला में कविकर्म के सहृदय से शब्द सुमन रस छन छंद बन कंठ से फूट कविता बन जाती है जिसके विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि "आत्मा के मुक्तावस्थ को ज्ञानदशा कहते हैं और हृदय के मुक्तावस्था को रसदशा कहते हैं।हृदय के मुक्ति के साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है ,उसे कविता कहते हैं।
"उत्तर आधुनिक  कविताएं" शीर्षक नामक कविता में कविता के कठिन दौर का सजीव चित्रण किया गया है-
जहां कविता विज्ञापन है /और/कला सूचना मात्र /अतार्किकता /असंगति/प्रतिमानों का विस्मरण/यह उत्तर आधुनिकता के खतरे हैं/ नहीं देता कोई निश्चित उत्तर...जहां मतभेद सबूत है जिंदा होने का/ एकरूपता पर नहीं की जाती है विश्वास / क्या कठिन समय में यह देंगी हमारा साथ? / उत्तर आधुनिक कविताएं।"
                          
     "फर्क" कविता में कवियत्री बढ़ते प्रतिस्पर्धा के जड़ों को उजागर करती हुई 'संघर्ष' सुख की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती है-
"कंधे से कंधा /और कदम से कदम मिलाने में/ फर्क है मेरे मित्र/ जब तुम कदम से कदम/ मिलाने को
राजी होते हो तो / तुम साथ चलने को होते हो राजी/ लेकिन जब कंधा मिलाकर /चलने की करते बात/तो जन्म लेती है एक प्रतिस्पर्धा /तुम्हें अच्छा नहीं लगता कि/मेरा कंधा तुम्हारे कंधे से हो ऊँचा/यही होड/ अंततः संघर्ष के जन्म देती है ।
©गोलेन्द्र पटेल
【बीएचयू】
रचना : २१-०६-२०२०
नोट : कम से कम शब्दों में समेटा हूँ
💐आत्मीय धन्यवाद!

इस लिंक पर प्रोफेसर हैं अवश्य देखें -
https://www.youtube.com/playlist?list=PLHsxjpPyxBWj76Ddxni2RD4RgfktNSHR1


10 comments:

  1. आपके टिप्पणी का सादर स्वागत है...

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  2. इस ब्लोग के माध्यम से प्रतिभा श्री की शानदार साहित्यिक अभिरुचि परिलक्षित हो रही है ।प्रतिभा की सफल सहित्यिक यात्रा की हार्दिक शुभकामनायें और बधाइयाँ संप्रेषित हैं ।

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  3. शानदार प्रतिभा जी ।
    हर-हर महादेव

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  4. प्रतिभा जी ने अपने कविता के द्वारा समाज की वास्तविक सच्चाई मजदूर की विडम्बना और अन्य वास्तविकता से रूबरू करने बहुत ही अच्छा प्रयास किया है। गोलेन्द्र पटेल जी ने अपनी व्याख्या में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के पंक्तियों द्वारा यह बता दिया है कि यह कविता हृदय से उनमुक्त हुई है, यह कविता हृदय की आवाज है।
    बहुत अच्छी व्याख्या की है आप ने गोलेन्द्र जी
    बहुत-बहुत बधाई🎉🎊 💐👏👏

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  5. बेहतरीन चित्रण 👏👏

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