कोरोजयी कवि रामाज्ञा शशिधर की कुछ कोरोजीवी कविताएँ :-
१.
🌿कविता🌿
🏹प्लेग के सरदार के बारे में🏹
इतना बड़ा बोझ उठा नहीं पाऊंगा
इतना बड़ा बोझ क्यों उठाऊंगा!
मेरी आत्मा का नगर क्यों एक खंडहर है
शताब्दियों पुराने प्रेतों का घर है
चीखें हैं चीत्कारें हैं पुकारें हैं
पुरखों की हड्डियों पर खुदे गुनाह सारे हैं
कंठ से फूटता है इतिहास बेवजह
मुर्दों का सिर दीमकों की तरह
सड़ी हुई डाल पर चिड़ियों का कंकाल
राख भरी बोरियों में चींटियों का अकाल
मय्यत की शहनाई में बदली यादों की अर्थियो
मैं इतना बड़ा बोझ क्यों उठाऊंगा!
मैं धरती के किसी टुकड़े पर बीज
उगने आया था
मैं जंगल की फुनगी पर चिड़ा हारिल
गढ़ने आया था
मैं चट्टान से फूटता पहाड़ी राग
गुजरने आया था
मैं नदी के पानी पर झिलमिल दाग
मिटने आया था
और तुम्हारा शिकार हो गया
सभ्यता सा बीमार हो गया
गल्प दर गल्प मुझे मत दागो
छोड़ दो मुक्त मुझे,भागो
सत्य
अपनी दिशा में सूरज उगाने की अफवाह है
जिससे निकली अंधकार की आंधी
आंखों पर झूठ की चौंध भरती है
चेतना पर राज करती है
न्याय
आत्मा के दालान पर रखा
आदिम जमाने का हुक्का है
जिसकी पीनी कोई और पीता है
गुड़गुड़ सारा टोल सुनता है
अहिंसा
अहं और वासना की दीवार पर
टँगी जंग लगी जर्जर तलवार
जिस पर हिरनों कबूतरों बंजारों
माशूकाओं मजबूरों के रक्ताभ केशों के रेशे चिपके हुए अर्थहीन धुन गुनगुनाते हैं
इंतज़ार का धीरज पिघल रहा है
स्वप्न का उल्का निकल रहा है
मेरी स्मृतियों के अभिलेखागार में
भारी जगह जमाए क्यों हो
ओ
कातिलों के सड़े हुए दांत
आस्वादकों की गली हुई आंत
ठगों की ठगित अंगूठियो
खोटरों की लुटेरी गलियो
नजूमियों की बरौनियों के झड़े हुए बाल
बिसात से चुकी हुई घोड़ों की दुलकी चाल
पुरोहितों के शंख में भरी हुई बासी वायु
भविष्य की आंखों में उगे तेलचट्टों की आयु
शुतुरमुर्ग के सिर पर भरम का आकाश
राजा के भांड का सबसे फूहड़ हास
कुक्कुर की पूंछ में बंधे मिरचैया बम
विलासी कोठे के मुजड़े का नृत्य छमछम
गांव के सीवान पर गीदड़ की भभकी
ओ चिम्पन जी! खीखी फीफी सनकी
मेरी आत्मा के नगर के जासूसी किरदार
प्लेग के पिस्सुओं के फिरंगी सरदार
नुनियाई हुई धूलों के पहाड़ हटो
ताड़ से चिपके पीपल मिटो कटो
मैं हरसिंगार की तरह धरती पर झरने आया हूँ
मैं सभ्यतावाली बीमारी और क्यों फैलाऊंगा
यह सब तो सही है लेकिन
इतना सारा बोझ कहां डंप कर पाऊंगा!
२.
🌿घाव के फूल🌿
घाव को फूटने दो
मवाद को बहने दो
जिस्म के लॉकर में
आत्मा को कोरन्टीन दो
उसके होठों पर
मीन की हड्डियों की बीन दो
लहरों की बात मत कर
ये उठती हैं बहुत सतह पर
अतल में जीवन बेमिसाल
शंख के मुख भरे शैवाल
जहां मृत काई को जीवित काई खा रही है
जहां अपनी आंखों के जल से मछली नहा रही है
जहां सूर्यभेदन के बिना भी जीवन चलता है
जहां चट्टान पर लेटकर घोंघा मोती में ढलता है
जहां दृश्य अदृश्य के सड़ने से बने हैं
जहां स्वर पानी के अणु इतने घने हैं
जहां
भाषा ज्वालामुखी के भाप सी हल्की होती है
जहां
इच्छा स्प्रूलिना चाटकर जगी हुई सोती है
ओ मेरे कवि घाव से मत घबड़ाओ
उसे आत्मा पर मरहम की तरह पसरने दो
बहुरूपिए को वायरस की तरह संवरने दो
केवल देह को ही नहीं
आत्मा को भी इम्यून चाहिए
अनगिन इच्छाएं कवच में बंद हैं
नया लड़ाका कम्यून चाहिए
३.
★हत्यारे दोस्त★
****************
हत्यारे दोस्त बनकर आते हैं
गले मिलते हैं
फिर उसे उतारकर चले जाते हैं
वे किसी भी चीज में छुपकर आ सकते हैं
जैसे कुश की अंगूठी में
अमृत की बूटी में
गमछे की धार में
रेशम के तार में
सांस की धूल में
सम्मान के फूल में
सहानुभूति के लोर में
शाम में भोर में
बनकर छत या दीवार
या फिर सपनों के मस्तूल पर सवार
पहले वे एक गर्दन उतारते हैं
फिर दूसरी फिर तीसरी
फिर वे गर्दन के व्यापारी हो जाते हैं
फलता है
अस्पताल से मसान तक उनका
आंख यकृत तिल्ली झिल्ली
यहां तक कि अस्थि राख का ठेका चलता है
कोई तिलक लगाकर रामनामी ओढ़ा हो
किसी ने सींक में कविता को गोदा हो
कोई देशभक्ति के डिस्को का अवतार हो
कोई बीन हो,ढोल हो,सितार हो
वह जात के नाम पर धर्म के नाम पर
मिथक के नाम पर इतिहास के नाम पर
देश के नाम पर ईश्वर के नाम पर
यहां तक कि इंसानियत के नाम पर
तुम्हारा शिकार कर सकता है
यह जरूरी नहीं कि हत्यारा तुम्हारे सामने से आए
असलहा चमकाए
तुम्हें खूंखार स्वर में धमकाए
वह तुम्हारे साथ तुम्हारी मौत तक दोस्त बनकर
रह सकता है
तुम्हारी मौत के बाद सहानुभूति का
बेशकीमती सौदा कर सकता है
तुम्हारे जीवन से कमाए हुए
माल का एक हिस्सा लगा सकता है
तुम्हारे धर में अपना सर जोड़कर
अमरता का आदमकद उगा सकता है
पढ़ सको तो पढ़ो धर सको तो धरो
हत्यारे की कोई भी सेल्फी उठा लो
उसके पार्श्व में रंग रोशनी के बेल बूटों से भरी
सिर्फ मक़तल की लाशें सजी होती हैं
जिस पर हत्यारे की रूह सोती है
हत्यारा चाहे जितना चालाक हो
उसकी कुछ खासियतें याद रखनी चाहिए
जैसे वह कभी अकेला नहीं रह सकता है
वह गिरोह में घिरकर महफूज़ महसूसता है
उसकी हंसी की खिलन से चेहरे की त्वचा नहीं हिलती है
उसकी आँखों में बुरे सपनों की कालिमा और
उनींदेपन की लालिमा का ज्वार उठता रहता है
शिराएं तनी और सांसें घनी रहती हैं
वह पंजों को दबाकर और एड़ियों को उठाकर
चलता है ताकि मिट्टी पर उसके गुनाह का
निशान न पड़े
कहते हैं मुसोलनी देश की जनता का कत्ल
करते करते जब थक जाता था
तब बीथोवन का संगीत सुनता था
कहते हैं जब उसकी नींद की
सारी चिड़िया मर गई
तब चिकित्सकों ने शास्त्रीय संगीत
नींद का इलाज बताया था
कोई विष्णु पुलष्कर
हत्यारे की जलते उल्कापिंड सी आंखों का
सामना कैसे कर सकता है
संगीत चाहे जितना शीतल हो
आग में ठंडक नहीं भर सकता है
पूरी उम्र दुश्मन बनाकर
कोई सलामत रह सकता है
लेकिन एक हत्यारा दोस्त
उसकी खोपड़ी में
लहू लोथड़े का शर्बत घोलकर
पलक झपकते पी सकता है
सारांश इतना है कि
दोस्त हत्यारा हो सकता है
हत्यारा कभी दोस्त नहीं हो सकता।
४.
/कबीर कभी मरते नहीं/
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दोहे कमाल के
"""""""""""'''""""""
रोगी जनता बेड पर नेता पीर हकीम
हर चुनाव है रोग की नयी नयी स्कीम
गुरबत भूख अकाल का सूखा है चहुंओर
फिर भी ठुमका दे रहा राष्ट्रवाद का मोर
बहुफसली यह देश है बारामासा काट
मंडी खोल चुनाव की पांच साल में बाँट
खेती गाजरघास की गेहूँ की है खाद
लोकतंत्र का खेत है इसी तरह आबाद
करघा खेत कपास सब चले मौत की रेस
बुन बुनकर बेहाल हूँ फिर भी नंगा देस
रेत रजत की फसल है जल सोने की खान
जंगल नदिया बिक रहे धरती धूरि समान
छाती पर कोड़ा चले उगे पीठ पर घाव
दोहा साधे सत्य को भरे लौह में भाव
लोहू चाटे जीभ से हड्डी काटे दांत
लोकतंत्र की लोमड़ी राजनीति की पांत
सत्य अहिंसा त्याग तप समता सबकुछ राख
गांधी का ऐनक बना शौचालय की आँख
राजनीति के खेल में जनता है फ़ुटबाल
जाति धरम की शूज से चलिए टेढ़ी चाल
♨🍮😁
दिल्ली के प्रतिरोध में काशी का ऐलान
तू मेट्रो की उड़नपरी मैं पैदल की शान
ढाय फुटी पैदल गली पांच फुटी है कार
दिल्ली तेरी नीतियां काशी में बेकार
रिक्शा तांगा बाद में मोटर चले पछाँह
काशी चाल सनातनी पैदल तानाशाह
साँढ़ सड़क पागुर करे हूटर करे सलाम
बाएं में दायां घुसे काशी चक्का जाम
चेला चइला बन खड़ा लेटा गुरुआ लाश
इक दूजे को जलाकर बांटे जगत सुवास
चल जिह्वा झट कूद जा बाटी चोखा भोज
मेगी बर्गर ब्रेड खा ऊब गया मन रोज
काशी पृथ्वी से अलग रुकी घड़ी का नाम
महाकाल की देह पर करे सदा विश्राम
धरती पर चूल्हा जले अंबर जले मसान
धुआं धुआं सब एक है काशी की पहचान
काशी आकर देखिए साँढ़ चरावे शेर
मुर्दा मुख गंगा बसे डमरू फलते पेड़
चलती चाकी देखकर कबिरा मारे तान
चूना से कत्था मिले रंग बदल दे पान
५.
/वे मनुष्य के पांव हैं/
वे चमगादड़ के पांव नहीं हैं
जो आसमान में दिनभर लटके रहते
रात होते ही भोजन के शिकार पर निकल पड़ते
वे बंदर के पांव भी नहीं हैं
जो एक डाल से दूसरी डाल खेलते कूदते
फूलों फलों पत्तियों से भूख की आग मिटाते रहते
इतिहास को जंगल तक ही स्थगित रखते हैं
वे भूत के पांव भी नहीं हैं
जो पीछे की ओर चलते हुए
अतीत के घावों का हिसाब अपनी स्मृति से लेते
वे दरअस्ल मनुष्य के पांव हैं
जो गाय की बछिया या बकरी के बच्चे से
बहुत अधिक कमजोर होते हैं
जन्म लेने वक्त
इतने कमजोर कि महीनों तेल की कटोरियों में डूबकर धरती पर खड़े हो पाते हैं डगमग
वे मनुष्य के पांव हैं
जो एकबार तनकर खड़े होने पर
चलने के लिए होते हैं ढोने के लिए होते हैं
जुतने के लिए होते हैं बोने के लिए होते हैं
जो फसलों मकानों जहाजों का वजन
अपनी हड्डियों और मांसपेशियों पर संभाले
इतिहास की यात्रा करते हैं
नया इतिहास बनाते हैं
जिनपर दुनिया के पुल टिके हैं
किलों की दीवारें और आसमानी मीनारें
रेल की बोगियां जहाज की पंखियाँ
गोदामों के अनाज मंडियों की तरकारियाँ
मंदिर के कंगूरे और ईश्वर की पालकी
संसद की छतें और संविधान की अलमारियां
सबके भार का आधार हैं मनुष्य के पांव
वे पांव
जो मैराथन जीत कर ला सकते हैं
फुटबॉल को अपने धक्के से चांद तक उड़ा सकते हैं
मुहल्ले के मतदान केंद्र पर पहुंचकर
दिल्ली की सरकार बना सकते हैं
वे पांव जो तानाशाह को घुटनों पर झुका सकते हैं
कब से पड़े हैं
पहाड़ की गिट्टियों पर लोहे की पटरियों पर
कोलतार के ड्रमों में राजपथ की पट्टियों पर
धरती से आसमान तक
हवाओं पर छपे हुए निशान ही निशान
घावों छालों फोड़ों मवादों के निशान
वे ताज़े कटे हुए मनुष्य के पांव
सही वक्त के इंतज़ार में हैं
कि एक दिन फिर जुड़ेंगे तनेंगे और चलेंगे
आगे की ओर
६.
//फुफ्फुस गान//
इन दिनों फेफड़ा बहुत याद रहता है
इन दिनों सांसें आंधी की तरह चलती हैं
कुछ हवाएं दरारों में छुपी रहती हैं
कुछ कोशिकाओं से टकराकर लौट जाती हैं
बांसुरी की तरह बजनेवाली नली में
खड़कती हुई लय चक्रवाती आकार की बनती है
सुर के साथ हवा की करोड़ों कोठरियां
रक्तकणों को लेकर ऊपर उठती हैं
इन दिनों पसली पिंजर के गान गाता है मन
भीतर के जंगल में सुनसान समय करता सन सन
छब्बीस सिपाही खड़े हैं जेल के चारों ओर
जेलर मेरू रहरह जगाता है जागते रहो का रोर
इंगला पिंगला सुखमन के सभी धागे सूख गए हैं
कतान गुच्छ मुरझाए फूलों की तरह रूख गए हैं
इतने कि करघे पर चढ़ने के काबिल नहीं
सुहाग कौपीन या कफ़न में शामिल नहीं
गगन गुफा का कारोबार ठहर गया है
गंगा जमना सरसती का ज्वार मर गया है
इन दिनों जब भी कान पर उंगलियां लगाता हूँ
धौंकनी धौंकते फुफ्फुस से जागरण गान गाता हूँ
७.
//महामारी में घर //
-----------------------------
घर में घर तब मिलता है
जब थके पांव बाहर से आओ
बाहर भी बाहर तब लगता है
जब कुछ देर आराम के बाद
घर संवरकर बाहर जाओ
आजकल तो घर कैदखाना है।
घर की दीवारें जैसी हैं उससे ज्यादा
सहसा मजबूत और ऊंची लगने लगती हैं
खिड़कियां सायरन की हवा सी गूंजती हैं
चौखटें किसी जेलर की तरह फटकारती हैं
बेगूसराय बनारस बेउर तिहाड़ सेलुलर संसार
उधर गिर रही दीवार इधर उठ रही दीवार
कई दिनों से हथेलियां घिस रहा हूँ ऐसे
जैसे हत्यारे खून के निशान मिटा रहे हो
नल से पानी उतना बर्बाद हुआ
जितना वर्षों पिया नहाया जा सकता था
साबुन की घिसी टिकिया और पानी ने
किस्मत की रेखाओं को फेन से ढंक दिया है
आजकल तो घर सिर्फ गुसलखाना है।
धनिया जीरा मंगरैल मेथी
सौंफ हींग अदरख हल्दी
यहां तक की पुदीना के पत्ते
टिकोले जैसे कोरोना के छत्ते
सांस चुम्बन कोरोना करियर
सिर्फ दीवार ही कोरोना वारियर
यह घर है या ऊब का तहखाना है।
घर जो बाहर की हिंसा से
बचने के लिए पहली बार बन आया
हिंसा का पहला स्थल हो गया
स्त्री पूरी स्त्री नहीं, नेमप्लेट की ख्याति
पुरुष के लिंग में बदलती पुरुष की जाति
किचेन से ड्राइंग तक रिमोट युद्ध है
एंकर चमगादड़ के डैनों पर बैठा बुद्ध है
कभी कभी किचेन में छोटी सी हेल्पी
मुर्दानगर में अमरता के लिए एक ताज़ी सेल्फी
अपनी ही धारणा का चूसक
प्लेग के पिस्सुओं का मूषक
घर तो घर ही में कोरोना है।
घर में घर नहीं केवल सामान हैं
बाजार के लुटरों की खान हैं
फालतू के बैग,डब्बे,जूते,बोतलें
कपड़ों का बेवजह लगाया ढेर
संसार भर के क्रीम सेंट कॉस्मेटिक्स
भोजन को जहर में बदलता फ्रीज
प्लास्टिक के गमले प्लास्टिक के फूल
प्लास्टिक की चिड़िया प्लास्टिक की धूल
बेल बजाओ तो लगता कि घर नहीं
मृत चिड़ियों के स्वरों का जंगल हो
सारी मारी गई चिड़ियों के ठीक पहले
हत्यारे ने जैसे उनकी इच्छाएं कैद कर ली हों
यह घर है या बारूदखाना है।
फर्श पर,बदन पर,कपड़े पर
यहां तक कि खाने के पैकटों पर
चप्पे चप्पे पर रसायन की बारिश
सनकीपन की हद तक कोशिश
चीटियां बेवजह मूर्छित हैं
तिलचट्टे परेशान बिल्लियां हैरान
कुत्ते धरती सूंघते नहीं
दरवाजे तक घूमते नहीं
यह घर है या जहर का कारखाना है।
घर
बिना जड़ों शाखों पत्तियों वाला पेड़
घर
बिना फुर्सत वाला काम का ढेर
घर
बेघर को चिढ़ाती हुई लंबी जीभ
घर
दूरी की मजबूरी,यायावरी की सलीब
घर
हजारों मील पैदल चल रहे पांवों का ख्वाब
घर
जो पहुंच नहीं पाए उन आंखों का आब
घर
गुफा से चांद तक रौंदने का दम्भ
घर
रात होती सभ्यता की सोच का आरंभ
चाहता हूँ छत तोड़कर कर देख लूँ आकाश
कपास के तकिए पर हो तारों की बरसात
इस घर को फिर उस घर तक पहुंचाना है।
कवि परिचय :-
रामाज्ञा राय 'शशिधर'
जन्म- २ जनवरी, १९७२ को बेगूसराय जि़ले (बिहार) के सिमरिया गाँव में।
शिक्षा- दिनकर उच्च विद्यालय सिमरिया के बाद लनामिवि, दरभंगा से एम.ए. तक की शिक्षा। एम.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया एवं पीएच-डी. जेएनयू से।
कार्यक्षेत्र-
२००५ से हिन्दी विभाग, बीएचयू में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत। गाँव में दिनकर पुस्तकालय के शुरुआती सांस्कृतिक विस्तार में 12 साल का वैचारिक नेतृत्व, कला संस्था 'प्रतिबिंब' की स्थापना एवं संचालन तथा इलाकाई किसान सहकारी समिति के भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष। जनपक्षीय लेखक संगठनों के मंचों पर दो दशकों से सक्रिय। इप्टा के लिए गीत लेखन। लगभग आधा दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का संपादन। दिल्ली से प्रकाशित समयांतर (मासिक) में प्रथम अंक से २००६ तक संपादन सहयोगी। ज़ी न्यूज, डीडी भारती, आकाशवाणी एवं सिटी चैनल के लिए छिटपुट कार्य।
प्रकाशित कृतियाँ-
'आँसू के अंगारे, 'विशाल ब्लेड पर सोई हुयी लड़की' (काव्य संकलन), 'संस्कृति का क्रान्तिकारी पहलू' (इतिहास), 'बाढ़ और कविता' (संपादन), बुरे समय में नींद ।
पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं के अलावा आलोचना, रिपोर्ताज और वैचारिक लेखन। 'किसान आंदोलन की साहित्यिक भूमिका' शीघ्र प्रकाश्य।
नोट :- अहिंदी भाषी साथियों के इस पेज़ पर आप सभी का सादर स्वागत है। इससे जुड़ें और औरों को जोडें। उक्त कोरोजयी कवि के प्रति आत्मिक आभार प्रकट करते हुए उन्हें अशेष शुभकामनाएं। सहयोगी साथियों का बहुत बहुत धन्यवाद! आप सभी हमारे ह्वाट्सएप नंबर या ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं रविवार को। अंततः सभी को साहित्यिक सहृदय सादर प्रणाम!
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