Thursday, 23 November 2023

गाँव पर केंद्रित विनय विश्वा और सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ (gaanv par kendrit vinay vishva aur surendra prajaapati kee kavitaen)

 गाँव पर केंद्रित विनय विश्वा और सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ :- 


विनय विश्वा की कविताएँ :-


1).

क्या किसान भगवान है!


विकास की गाथा लिखते - लिखते

हम  विनाश की दहलीज पर खड़े हैं

जिसका गवाह है जलवायु परिवर्तन।


आए दिन मौसम का बदलना

शरीर में रोग होना 

भौतिकता में रम होना

जीवन का बेतरतीब होना

पाना है सुख सुविधा को

पर  आनंद का न होना है

जो मिट्टी, मिट्टी में सना होता था


आज वही मिट्टी के देवता मारे जा रहे हैं

किसी की ज़मीन हड़प कर तो किसी की फसल रौंद कर

जिस खेत को युगों -युगों से संजोए रखे हैं

जिन पर उनकी कई पीढ़ियां टिकी है

आज उनकी कमर टूटी है

क्योंकि उनके जमीर को किसी ने लूटी है

 एक किसान की खेती उसकी खेती नहीं बेटी है।

भारतमाला, गंगाएक्सप्रेसवे जैसी परियोजनाएं किसानों के लिए भस्मासुर बनकर आए 

जिनका जीवन दुभर हो जाए


कभी सड़कों पर कभी अदालत कभी कार्यालयों का चक्कर काटते - काटते पूरे ब्रह्मांड को जैसे ये भगवान नाप दिए हों


फिर भी सत्ता पर बैठे भगवान को तनिक दया न आई और 

और एक किसान का अंत होता है 

अब तो यह जैसे लगता है अंतहीन शाम है

जिसकी कोई सुबह नहीं

कुछ तो समझो ए पत्थर पड़े आदमी ।

धरती के भगवान आज मारे जा रहे हैं

जब से यह ज़माना आधुनिकता के रंग में रंगी

एक जंग छिड़ गई है 

कारपोरेट और किसान में।


हां वहीं किसान जिसे राष्ट्रकवि अपनी कविता में देवता कहते हैं - 

किसे ढूंढता है मूरख देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में

आज उसी खेत के देवताओं की दानशीलता दानवी प्रवृति के दलालों से छीनी जा रही है

जिसका परिणाम किसानों की जान गवाने की सजा हो रही है।


2).

गाँव का विद्यालय


निगाहें देखती हैं

गाँव की ओर हाँ वहीं गाँव जहाँ प्रेम की नाव चलती है

जिस नाव के खेवनहार किसान, मजदूर, गंवार हैं

जो अपने लाल को ढाल बनाने भेजते हैं गांव के स्कूल।


 गांव का विद्यालय जीवन की पहली पाठशाला है

जो अब उत्पादशाला हो गई है

इंस्पेक्शन की , कागज़ पर थोपा हुआ परीक्षा की जो विचारों को परिक्षा में लिए जा रही हैं।


वहीं गांव जहां सुनहरे ईमानदार विचार  हैं जो साहित्य का आधार है - प्रेमचंद, नामवर, केदार, त्रिलोचन,धूमिल,गोलेंद्र

पुराने, नए, तुम और मैं सरीखे ज्ञान है जो मानवता का आधार है


आज मानवता की एक कुंडी फंस गई है जो लीलने के लिए आतुर है

शहर की चाकचौबंद की तरह

जहां विष ही विष घुली है मानव को दानव बनाने के लिए।

©विनय विश्वा (युवा कवि-लेखक , शिक्षक व शोधार्थी। संपर्क : 91100 84157 )


सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ :- 

1).

पीड़ाओं का रेगिस्तान है मेरा गाँव


प्रिय मित्र!

तुम्हारा स्नेह निमंत्रण सराहनीय है 

और हमसे यह उम्मीद की मै उत्सव में शामिल रहूँगा, स्वागतयोग

शुक्रिया, पर क्षमा करना

मेरी अक्षमता है मै कोई कविता पाठ  करने नहीं आ सकूँगा


ऐसी कोई खास आफत विपत नहीं है 

बस एक बहुत ही जीवन को विचलित कर देनेवाली 

टीस उभरा हुआ है

इस समय  मैं, एक बहुत ही जरूरी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनने जा रहा हूँ


अगड़े-पिछडों में एक घमासन है 

अगड़ा हक हकीकत सबकुछ छीनने को बेचैन है

पिछड़ा अपनी घिनौनी मानसिकता लेकर रोने को लाचार

खुलकर बोलने में प्रतिबंध है 

विचारों पर पहरा है, 

अधिकारों पर षड्यंत्र रचा जा रहा है

मै, मेरा कवि उन सभी पुरातन नियमों से असहमत हूँ

कि अपने ही देश में खानाबदोष कि जिंदगी जी रहे हैं लोग

मेरे पाठकों, बंधुओं, मेहनती लोगों से पहचान तलाशी जा रही है


सनातन धर्म मानने वाले

घृणित संस्कृति को जानने वाले

पूछ रहे हैं जाति

कुतर्कों की चाल में पूछ रहे हैं खानदान

मै उसके विरोध में खड़ा हूँ

अराजकता के निष्ठूर काँटों पर पड़ा हूँ


मेरे गाँव का एक खुशहाल किसान

जिसके जवान बेटे को नक्सली बताकर हत्या कर दिया गया

मै उसके लिए विरोध प्रदर्शन कर रहा हूँ


मुहल्ले के एक पिछड़ी जाति के छोरी को 

दवंगो ने स्तन काट दिया 

इसलिए कि वह उनके खेतों में साग खोट रही थी 

मै उसके लिए विरोध में जा रहा हूँ


मेरा एक चिर प्रतिद्वंदी है

जिसे कारगार में बंदी बनाकर कठोर यातना दिया जा रहा है

उसने एक समाजवादी नेता के घिनौने चरित्र को उजागर करने का दुःसाहस किया था


पेट की भूख इंसान को बावला बना देती है

और, स्वार्थ की लालसा, एक खूँखार कमीना

यह विरोधों को चिंगारी देने का समय है

और कविताओं में हुंकार भरने का

धूप से तपति हुई धरती एक मजदूर के फेफड़े को जला देती है

यह विचारों को धारदार बनाने का समय है


पेट की आग से लड़ता हुआ इंसान भीड़ में भिखारी बन जाता है

और ईंट गारे से बने महल की घृणा इन्हे समाज के लिए कोढ बताती है


मै चाहता हूँ जब मै विरोध प्रदर्शन में हूँ 

मेरी कविता सच की गवाही दे और

शहादतों के पक्ष में बिगुल फूंके

अपनी उपस्थिति का कीमत चुकाए

अपने पूर्वजों के हक में गौरव का गीत गाए


इसी जरूरी समय में न्याय को मनुष्यता के हक में रक्तदान करने की वकालत करता हूँ 

चाहता हूँ सौरमंडल के इस एकलौते ग्रह पर मानव के आदिम सभ्यता के हक में फैसला हो

चाहता हूँ मेरी कविता अपनी उपस्थिति की कीमत चुकाए


तब आपके दम्भ से सजे मंच पर विस्मरणीयता के स्वार्थ में असाधारण कविता की पंक्तियाँ बोलना

बहुत ही उबाऊ और निरर्थक और घटिया किस्म की जान पड़ेगी दोस्त

आपके स्नेह में सिक्कों की खनक है


पीड़ाओं का रेगिस्तान है मेरा गाँव, 

मेरे मुहल्ले में दुःखी काका पुस्तैनी किसान थे

कहने को किसानी करते

रक्त-पसीने से सींच कर फ़सल उगाते

उनके अथक परिश्रम से पंडित साहूकर आघते

लेकिन कभी भरपेट अन्न नहीं खाते

तंत्र के छल की बाँसूरी पर वे नसीब को कोसते

रीरीयाते घिघीयाते, पीड़ा के गीत गाते


सता की नालायकी ने कभी उनके लहलहाते फ़सल की कीमत तो नहीं चुकाया

लेकिन मौत ने उनकी बिछुड़ी हुई हड्डियों पर ऐसा जश्न मनाया

कि बादल भी गला फाड़ कर रो पड़ा

कीचड में सने उनकी लाश को कफ़न कौन दे 

भूख से तड़पती उनकी सात साल कि बच्ची को पिता की लाश पर चीख-चीखकर मरते पुरा आकाश देखा है दोस्त

इंसान के गाढ़ी खुन के साथ इससे घिनौना छल क्या हो सकता है


पुराणों के पवित्र श्लोकों के विपरीत एक ईमानदार संघर्ष होती है, उम्मीद की हूक होती है

मेरे विरोध प्रदर्शन, मेरे कवि के सत्य समर्पण को

सता का धारदार छुरा सीने में पेवस्त न कर दे

इससे पहले मुझे शांति जुलूस में जाना होगा

मै उस हर प्रदर्शन में जा रहा हूँ जहाँ मलीन बस्तियों का शरीर

लाठी का प्रहार झेलते खेत हो जा रहा है

जहाँ उनके मांस के लोथड़े हवा में लहराते रेत हो जा रहा है

एक कवि ने अपनी महान कविता में कहा था

इंसान हर रस और श्रृंगार की कविता से बड़ा है

इसी कारण तो वह शताब्दियों से खड़ा है


दोस्त यही समय है, मै अपनी कविता के साथ

रेगिस्तान में तप जाऊँ

खेतों में गड़ जाऊँ

बंजरों में तन जाऊँ

अपने कवि को लेकर राजमार्ग पर गड़े किलों पर चलूँ और सत्ता के हुक्मरानों से लड़ जाऊँ

जीत की गुहार पर सौ सौ बार मर जाऊँ।

2).

मृत उपमाओं का देश


आदर्श विहीन इस समाज में

यह मेरा है यह तेरा परिवार में

मानवता रहित इस संस्कार में

जहाँ शब्द मूल्यहीन कंकड बन गए

बेजान, परिष्कृत; और हमें

इसी मृत शब्द और उदास कविता के साथ रहना है


थके, हारे और उदास लोगों का है यह शहर

और मृत उपमाओं का यह देश

दुःख से बिलबिलाता, षड्यंत्रों से खेलता

पीड़ा का लम्बा आख्यान यह जनादेश

ईमानदारी, आदर्श, नैतिकता सब जार-जार

इज्जत, आवरू, प्रतिष्ठा सब तार-तार

कविताएँ सब हटाश, कहानियाँ सब झूठी

एक युद्ध पल रहा है

पल रहा है और चल रहा है बिना शस्त्र बल के

युगों से हारता जीतता

रोता मुस्कुराता

कभी आनंद कभी पीड़ा का चादर तानता मै

खुद से लड़ रहा हूँ

न जीता न मर रहा हूँ


लिख रहा हूँ एक लम्बी कविता

एक छोटे से जीवन के लिए

वह जीवन जो किसी पेड़ से लटककर झूल रहा है


मैं उस नदी में बह रहा हूँ जो मेरी धमनियों में है

उस बंजर पर हाँफ रहा हूँ, जो मेरे फेफड़े में है

शरीर पर एक परछाई है

जो मुझे ही डराता है लगातार


एक बदहवास, निरुदेश्य बेनाम कवि मै

गली के नुक्क्ड़ पर खड़ा

पूरे बजूद के साथ चिल्ला रहा हूँ

नहीं...! चिल्लाने की कोशिश कर रहा हूँ

शहर, समाज, परिवार

नदी, पेड़, संस्कार

कि आदर्श और जीवन

कि जीवन और कविता

और कविता.....!


3).

उम्मीद की टहनी


धीरे-धीरे  हम बढ़ रहे हैं गंतव्य की ओर

लेकिन आशा के विपरीत हमारी उपस्थिति को

अनदेखा कर दिया जा रहा है


स्वयं को नकारा जाना, 

जीवन से भटक जाना है

फिर हम जाकर भी कहाँ जा रहे हैं?

समंदर में भी बून्द कहाँ पा रहे हैं?

उर्वर पर रेगिस्तान फैल रहा है


सीने पर एक सुरज उग आया है

सुबक रही है व्यथा की दारुण दशा

चन्द्रमा से उतरकर अंधेरे में टहल रही है

उम्मीद की टहनियाँ

हो रहा है वेदना का विस्तार 

अभिलाषा तार-तार


विचार पर पहरा है

अभिव्यक्ति छुट रहा है 

पकड़ से धीरे-धीरे

बहुत धीरे-धीरे सारे तर्क

स्वर्ग को लूट रहा है।


4).

जीवन के गीत


          *१*

एक उम्मीद है आशा है

क्या चाह हृदय में पलता है

पल्लवित होते छिपे भावों में

कौन खाधोत सा जलता है

एक विश्राम तक जाते-जाते

भूल जाता हूँ पंथ सदा

मंजिल तक जाने को आतुर

कौन श्रम को अर्पित करता है


          *२*

भरने दे अभी रंग चित्र में

अद्भुत कृति को गढ़ने दे

पथ पर विचित्र फूल खिला दे

कंटक पर साँसों को चलने दे

इस दर्द की पीड़ा मधुर जान 

तू व्यर्थ इतना घबराता है

बीते रात, प्रभात आने दे

मेरे दीपक को जलने दे।


          *३*

कहो जुगनू कौन, कैसा सुख?

छिप-छिप चमक दिखाने में

यह कैसा मदहोश उमंग है

जलते हुए परवाने में

स्वाधीनता में आनंद है, लेकिन

बता मनोहर, तोता बोलो

लौह पिंजड़े में कैसा सुख है

कितनी तड़प है दाने में।

©सुरेन्द्र प्रजापति (ग्रामीण चेतना के कवि व कथाकार, संपर्क : 70618 21603)


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संपादक : गोलेन्द्र पटेल (कवि व लेखक)
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📖चोकर की लिट्टी कविता का लिंक : https://golendragyan.blogspot.com/2023/11/chokar-ki-litti-golendra-patel.html




            

                


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