Friday, 26 September 2025

विवादों में विनोद कुमार शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल की तीन कविताएँ

विवादों में विनोद कुमार शुक्ल : गोलेन्द्र पटेल 


1).

विनोद कुमार शुक्ल : नई वाली हिंदी और तीस लाख का चैक

तीस लाख का चैक चमका
साहित्यिक मंच के बीच,
तालियाँ गड़गड़ाईं,
कैमरों की फ्लैश से चमका
एक लेखक का नाम।

बधाई हो!
कवि ने रच दिया वह उपन्यास
जिसने सैकड़ों प्रतियाँ रोज़
पाठकों की अलमारियों में जगह पाई।
यह गौरव है,
यह इतिहास है,
यह हिंदी का वह उत्सव है
जिसकी प्रतीक्षा सदियों से थी।

पर,
इतिहास हमेशा सीधा नहीं होता।
प्रश्न पंक्तिबद्ध खड़े हैं,
आँखों में धधकती संशय की लपट लिए—
क्या यह बिक्री सचमुच पाठक की भूख है?
या किसी और भूख का विस्तार?

नई वाली हिंदी
अपने कोमल वस्त्र पहनकर
पुरानी हिंदी की देह पर चढ़ती है,
और कहती है—
"मैं हूँ आधुनिक!
मैं हूँ विश्व-स्तरीय!
मैं ही हूँ वह खिड़की
जिससे बाज़ार की हवा आती है।"

किन्तु,
यह खिड़की कभी
’दीवार में एक खिड़की रहती थी’ से अलग नहीं,
फिर भी अलग है।
क्योंकि वहाँ शब्द थे आत्मा के,
यहाँ शब्द हैं मुद्रा के।

रॉयल्टी का चैक
एक तमाशे की तरह लहराया गया,
मानो कहा जा रहा हो—
देखो! लेखक भी करोड़ों का खेल खेल सकते हैं।
मगर प्रश्न है—
बाकी कवि, बाकी गद्यकार,
बाकी वे सैकड़ों चेहरे
जिनकी पांडुलिपियाँ धूल खाती हैं,
उन्हें किसने पूछा?
कितनी रॉयल्टी उनके हिस्से आई?

यह व्यावसायिक स्टंट
केवल एक शोभायात्रा नहीं,
यह है सांस्कृतिक षड्यंत्र,
जहाँ एक सादगीपूर्ण लेखक की छवि
प्रकाशक की प्रचार-योजना की मूर्ति बन जाती है।

पाठक चाहिए सबको—
पर पाठक कहाँ हैं?
पाठक की दुनिया भी संकट में है।
पढ़ने की आदत
लुगदी साहित्य की आग में जल रही है,
जहाँ ’नई वाली हिंदी’
सिर्फ़ ’नई वाली फिल्म’ की तरह
अंग्रेज़ी लहजे में हिंदी का मुखौटा पहनती है।

क्या यह साहित्य है
या ग्लोबलाइजेशन का नया ब्रांड?
जहाँ लेखक का नाम
विज्ञापन की तरह चमकता है,
पर शब्दों का दर्द
धीरे–धीरे अदृश्य हो जाता है।

रहीम ने गंग को छप्पय पर
छत्तीस लाख दिए थे,
क्योंकि कविता ने सम्राट को झुकाया था।
आज तीस लाख का चैक
कविता नहीं,
मार्केटिंग की रणनीति को झुकाता है।

कबीर-तुलसी को मदद मिली थी
मानवीय करुणा से,
आज लेखक को मदद मिलती है
किसी राजनीतिक मंच से।

कविता पूछती है—
क्या साहित्य वही है
जो बिक सके?
क्या वह शब्द,
जो आँसुओं को चीरकर निकलते हैं,
अब केवल आँकड़ों की तालिका में दर्ज होंगे?

सच यह भी है—
विनोद कुमार शुक्ल अनुपम हैं,
उनकी सादगी से लिपटी भाषा
एक गाँव की मिट्टी सी महकती है।
उन्हें मिला धन,
एक व्यक्तिगत सम्मान है।
पर यह भी सच है—
उनकी रचना को बाज़ार का उत्सव बनाकर
अन्य लेखकों की उपेक्षा
हिंदी की आत्मा पर प्रहार है।

नई वाली हिंदी!
तू कब तक नकल करती रहेगी
नई वाली फिल्मों की,
नई वाली अर्थव्यवस्था की,
नई वाली भूख की?
क्या तू कभी
पाठकों और लेखकों के बीच
साझी संस्कृति की आवाज़ बनेगी?

हमें चाहिए
नया अभियान,
जहाँ प्रकाशक लाभ नहीं,
संस्कृति का प्रसार सोचें,
जहाँ लेखक ईर्ष्या नहीं,
आपसी सम्मान बाँटें,
जहाँ पाठक किताब को
सजावट नहीं,
साँस की तरह अपनाएँ।

साहित्य का संकट
स्टंट से नहीं टलेगा।
हमें फिर से खड़ा करना होगा
पढ़ने का लोकतंत्र।
और नई वाली हिंदी को कहना होगा—
तू चमकदार आवरण नहीं,
साधारण शब्दों की गहराई बन।
★★★

2).

किताबों के जंगल में एक खिड़की

हिंदी की दुनिया—
जहाँ एक बूढ़ा कवि
हाथ जोड़े खड़ा है
मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठे
फ़ासीवादी पुरोहित के आगे।

तीस लाख का चेक,
छत्तीसगढ़ की मिट्टी से रिसता रक्त,
सलवा जुडुम की राख में
आदिवासी गाँवों की हड्डियाँ,
और बीच में
साहित्य का उत्सव-भोज।

कितनी सहजता से
पुस्तकों की गिनती
लाशों की गिनती पर भारी पड़ जाती है।
छियासी हज़ार प्रतियाँ बिकना
इतिहास का चमत्कार है,
पर छियासी हज़ार आत्माएँ
जंगलों में भटकती रही हों
तो उसका ज़िक्र क्यों हो?

हिंदी को कहा गया—
‘दुहाजू की बीबी’।
गरीबी, फटेहालपन,
निराला की उदासी उसका श्रृंगार।
लेखक वही
जो भूख से पीड़ित मरियल-सा दिखे,
जिन्हें मंच पर बुलाकर
सम्मानित करने से पहले
भोजन खिलाना न पड़े।

पर आज—
जब एक लेखक
रॉयल्टी के पर्वत पर खड़ा है,
उसकी किताब
गोदान से, राग दरबारी से,
गुनाहों के देवता से
तेज़ दौड़ रही है,
तब हिंदी की आँखें चौंधिया गई हैं।

बिक चुकी प्रतियों का हिसाब
बाज़ार की तकनीक है
या समाज का चमत्कार?
कौन-से पाठक हैं
जो रोज़ पाँच सौ किताबें खरीदते हैं?
क्या सचमुच
इतनी भूखी है यह ज़ुबान
कि शब्दों की थालियाँ
इस वेग से खाली होती जा रही हैं?

सवाल दर सवाल
आरोप दर आरोप।
ईर्ष्या की बिच्छू-दुनिया
डंक मारने को तैयार।
जैसे साहित्य
कोई तपस्वी गुफ़ा हो
जहाँ भूख पवित्र है
और लोकप्रियता अपवित्र।

लेकिन—
यह दृश्य भी अद्भुत है—
एक हिंदी लेखक
धन, पुरस्कार और पाठकों से
उत्सवमूर्ति बनता हुआ।
यह क्षण
सिर्फ़ आलोचना का नहीं,
उत्सव का भी होना चाहिए।
पर हिंदी की परंपरा
ईर्ष्या के शिलालेख में लिखी गई है—
यहाँ ख़ुशी को
हमेशा संदेह से देखा जाता है।

किताबों के जंगल में
एक खिड़की खुली है—
उस खिड़की से झाँक रहा है
बाज़ार,
प्रकाशक,
और पाठक का नया चेहरा।

क्या यह खिड़की
आदिवासियों की जली हुई झोपड़ियों तक खुलती है?
क्या यह खिड़की
उन खेतों तक जाती है
जहाँ कॉर्पोरेट का बुलडोज़र चलता है?
या यह खिड़की
सिर्फ़ दिल्ली के ड्राइंगरूमों तक सीमित है,
जहाँ किताबें
सजावट का हिस्सा हैं?

मैं विनोद कुमार शुक्ल को
असाधारण कहूँ या साधारण,
यह मेरा अधिकार है।
पर छियासी हज़ार प्रतियाँ बिकना—
यह घटना
इतिहास में दर्ज हो चुकी है।
यहाँ तक कि आलोचना भी
अब बाज़ार का हिस्सा हो गई है।

सवाल बचा रह जाता है—
क्या साहित्य
पाठकों की गिनती में है
या आदिवासियों की चीख़ में?
क्या हिंदी का उत्सव
लेखक की रॉयल्टी है
या जनता की भागीदारी?

खिड़की खुल चुकी है—
अब देखना है
कि हवा कहाँ से आती है:
जंगल की राख से
या राजधानी की छत से।
★★★

3).

संयोग के नाम पर


संयोग कहो या संजाल कहो—
कैसे टहलते हुए
मुख्यमंत्री उतर आते हैं सभागृह में?
कैसे विधानसभा-अध्यक्ष
अचानक खोज लेते हैं कविता की गली?
क्या सचमुच उनके पास
इतना वक़्त होता है
कि वे बिना बुलाए,
यूँ ही भटकते चले आते हैं
साहित्य की चौपाल पर?

क्या यह प्रेम है कविता से,
या प्रेम है मंच से,
या फिर प्रेम है उस प्रकाशक से
जिसकी नसों में सत्ता का रक्त बहता है?

नरेश सक्सेना कहते हैं—
"अचानक आ गए वे, निजी तौर पर।"
ओम थानवी साझा करते हैं—
"यह तो संयोग है।"
पर क्या यह भोलेपन की भाषा है,
या सच्चाई पर परदा डालने का कौशल?
क्योंकि कोई भी जानता है—
मुख्यमंत्री कभी अचानक नहीं आते।
उनके कदमों की ध्वनि
पहले से तय होती है,
उनके आने की पटकथा
कहीं और लिखी जाती है।

और देखो—
एक ओर विनोद कुमार शुक्ल हैं,
जिन्हें अकादमी ने ग्यारह लाख का ताज पहनाया,
प्रकाशक ने तीस लाख की वर्षा की।
उनकी महानता के लिए
समालोचक नतमस्तक हैं,
पर वही लेखक
पूर्व मुख्यमंत्री के सम्मुख
झुके हुए हाथों की मुद्रा में खड़ा है,
उस भूमि पर
जहाँ आदिवासी अब भी
जल-जंगल-जमीन खो रहे हैं।

दूसरी ओर कुणाल कामरा हैं—
न "महान कवि",
न "अद्वितीय रचनाकार"।
बस एक हँसी से सजी तलवार,
जो सत्ता की आँखों में चुभती है।
उनका दफ़्तर तोड़ा जाता है,
उनके खिलाफ़ मुकदमे दर्ज होते हैं,
उनकी आवाज़ को कुचलने की धमकी
हर रोज़ गूँजती है।
फिर भी वे टूटी-फूटी भाषा से
राजमहल की दीवारों पर
दरार खींच देते हैं।

तो बताओ—
किसे महान कहोगे?
उस कवि को,
जो पुरस्कार की चमक से
अपनी आँखें चौंधिया लेता है?
या उस विदूषक को,
जो जोखिम उठाकर
सत्य का व्यंग्य गढ़ता है?

ज्ञानपीठ अब कोई शंका नहीं छोड़ता—
रामभद्राचार्य के बाद
किसी को शक नहीं रह गया
कि यह सत्ता की थाली में परोसा गया प्रसाद है।
साहित्य को प्रेम नहीं मिलता,
सत्ता को शरणागति मिलती है।
पुरस्कार अब काव्य की गुणवत्ता नहीं,
राजनीति की अनुकंपा गिनते हैं।

हमने तय किया है—
ड्राइंग रूम सजाइए आप
"महान कवि" की तस्वीरों से,
हम तो माथे पर बिठाएँगे
उस "दो कौड़ी के कवि" को
जो फटे सुर में भी
अन्याय की नींद हराम करता है।

सत्ता-प्रसन्न साहित्य
जनता का नहीं,
सिर्फ़ सत्ता का साहित्य है।
जनता का साहित्य वही है
जो जेल की सलाखों से भी
गीत गाता है,
जो धमकियों के साये में भी
हँसकर प्रतिरोध करता है।

संयोग का नाम लेकर
धोखे की लकीर खींची जाती है।
पर कविता जानती है—
संयोग नहीं होता,
यह सब पूर्वनियोजित है।
और कविता यह भी जानती है—
कि इतिहास में
महान वही दर्ज होंगे
जो सत्ता को नकारेंगे,
ना कि वे
जो सत्ता के आँगन में
महाराजा की तरह
पुरस्कार सजोए खड़े रहेंगे।
★★★


रचनाकार: गोलेन्द्र पटेल (पूर्व शिक्षार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।/ बहुजन कवि, जनपक्षधर्मी लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

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