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१.
अलि अब सपने की बात -महादेवी वर्मा
अलि अब सपने की बात,
हो गया है वह मधु का प्रात:!
जब मुरली का मृदु पंचम स्वर,
कर जाता मन पुलकित अस्थिर,
कम्पित हो उठता सुख से भर,
नव लतिका सा गात!
जब उनकी चितवन का निर्झर,
भर देता मधु से मानस-सर,
स्मित से झरतीं किरणें झर झर,
पीते दृग - जलजात!
मिलन-इन्दु बुनता जीवन पर,
विस्मृति के तारों से चादर,
विपुल कल्पनाओं का मंथर,
बहता सुरभित वात।
अब नीरव मानस-अलि गुंजन,
कुसुमित मृदु भावों का स्पंदन,
विरह-वेदना आई है बन,
तम तुषार की रात!
२.
अश्रु यह पानी नहीं है -महादेवी वर्मा
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा!
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को,
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले!
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को,
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप, धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा,
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो,
अब चुनौती है पुजारी, ये नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!
३.
किसी का दीप निष्ठुर हूँ -महादेवी वर्मा
शलभ मैं शापमय वर हूँ!
किसी का दीप निष्ठुर हूँ!
ताज है जलती शिखा;
चिनगारियाँ शृंगारमाला;
ज्वाल अक्षय कोष सी;
अंगार मेरी रंगशाला ;
नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ!
नयन में रह किन्तु जलती
पुतलियाँ अंगार होंगी;
प्राण में कैसे बसाऊँ
कठिन अग्नि समाधि होगी;
फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मन्दिर हूँ!
हो रहे झर कर दृगों से
अग्नि-कण भी क्षार शीतल;
पिघलते उर से निकल
नि:श्वास बनते धूम श्यामल;
एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ!
कौन आया था न जाने
स्वप्न में मुझको जगाने;
याद में उन अँगुलियों के
है मुझे पर युग बिताने;
रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ!
शून्य मेरा जन्म था,
अवसान है मुझको सबेरा;
प्राण आकुल से लिए,
संगी मिला केवल अँधेरा;
मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ!
४.
कहाँ रहेगी चिड़िया -महादेवी वर्मा
कहाँ रहेगी चिड़िया?
आंधी आई जोर-शोर से,
डाली टूटी है झकोर से,
उड़ा घोंसला बेचारी का,
किससे अपनी बात कहेगी?
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ?
कैसे यह घोंसला बनाएँ?
कैसे फूटे अंडे जोड़ें?
किससे यह सब बात कहेगी,
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
५.
कौन तुम मेरे हृदय में -महादेवी वर्मा
कौन मेरी कसक में नित,
मधुरता भरता अलक्षित?
कौन प्यासे लोचनों में,
घुमड़ घिर झरता अपरिचित?
स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा,
नींद के सूने निलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?
अनुसरण नि:श्वास मेरे,
कर रहे किसका निरन्तर?
चूमने पदचिह्न किसके,
लौटते यह श्वास फिर फिर!
कौन बन्दी कर मुझे अब,
बँध गया अपनी विजय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
एक करूण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित,
एक लघु क्षण दे रहा,
निर्वाण के वरदान शत शत!
पा लिया मैंने किसे इस,
वेदना के मधुर क्रय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या?
आज खो निज को मुझे,
खोया मिला, विपरीत सा क्या?
क्या नहा आई विरह-निशि,
मिलन-मधु-दिन के उदय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
तिमिर-पारावार में,
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित,
आज ज्वाला से बरसता,
क्यों मधुर घनसार सुरभित?
सुन रहीं हूँ एक ही,
झंकार जीवन में, प्रलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
मूक सुख दुख कर रहे,
मेरा नया शृंगार सा क्या?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या?
आज पुलकित सृष्टि क्या,
करने चली अभिसार लय में,
कौन तुम मेरे हृदय में?
६.
कौन तुम मेरे हृदय में -महादेवी वर्मा
कौन मेरी कसक में नित,
मधुरता भरता अलक्षित?
कौन प्यासे लोचनों में,
घुमड़ घिर झरता अपरिचित?
स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा,
नींद के सूने निलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?
अनुसरण नि:श्वास मेरे,
कर रहे किसका निरन्तर?
चूमने पदचिह्न किसके,
लौटते यह श्वास फिर फिर!
कौन बन्दी कर मुझे अब,
बँध गया अपनी विजय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
एक करूण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित,
एक लघु क्षण दे रहा,
निर्वाण के वरदान शत शत!
पा लिया मैंने किसे इस,
वेदना के मधुर क्रय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या?
आज खो निज को मुझे,
खोया मिला, विपरीत सा क्या?
क्या नहा आई विरह-निशि,
मिलन-मधु-दिन के उदय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
तिमिर-पारावार में,
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित,
आज ज्वाला से बरसता,
क्यों मधुर घनसार सुरभित?
सुन रहीं हूँ एक ही,
झंकार जीवन में, प्रलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
मूक सुख दुख कर रहे,
मेरा नया शृंगार सा क्या?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या?
आज पुलकित सृष्टि क्या,
करने चली अभिसार लय में,
कौन तुम मेरे हृदय में?
७.
अलि! मैं कण-कण को जान चली -महादेवी वर्मा
अलि, मैं कण-कण को जान चली,
सबका क्रन्दन पहचान चली।
जो दृग में हीरक-जल भरते,
जो चितवन इन्द्रधनुष करते,
टूटे सपनों के मनको से,
जो सुखे अधरों पर झरते।
जिस मुक्ताहल में मेघ भरे,
जो तारो के तृण में उतरे,
मै नभ के रज के रस-विष के,
आँसू के सब रँग जान चली।
जिसका मीठा-तीखा दंश न,
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
जो पग में चुभकर, कर देता,
जर्जर मानस, चिर आहत मन।
जो मृदु फूलो के स्पन्दन से,
जो पैना एकाकीपन से,
मै उपवन निर्जन पथ के हर,
कंटक का मृदु मन जान चली।
गति का दे चिर वरदान चली,
जो जल में विद्युत-प्यास भरा,
जो आतप मे जल-जल निखरा,
जो झरते फूलो पर देता,
निज चन्दन-सी ममता बिखरा।
जो आँसू में धुल-धुल उजला,
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
मैं मरु उर्वर में कसक भरे,
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
प्रति पग को कर लयवान चली।
नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत,
जग संगी अपना चिर विस्मित,
यह शूल-फूल कर चिर नूतन,
पथ, मेरी साधों से निर्मित।
इन आँखों के रस से गीली,
रज भी है दिल से गर्वीली,
मै सुख से चंचल दुख-बोझिल,
क्षण-क्षण का जीवन जान चली,
मिटने को कर निर्माण चली!
८.
क्या जलने की रीत -महादेवी वर्मा
क्या जलने की रीति,
शलभ समझा, दीपक जाना।
घेरे हैं बंदी दीपक को,
ज्वाला की बेला,
दीन शलभ भी दीपशिखा से,
सिर धुन धुन खेला।
इसको क्षण संताप,
भोर उसको भी बुझ जाना।
इसके झुलसे पंख धूम की,
उसके रेख रही,
इसमें वह उन्माद, न उसमें
ज्वाला शेष रही।
जग इसको चिर तृप्त कहे,
या समझे पछताना।
प्रिय मेरा चिर दीप जिसे छू,
जल उठता जीवन,
दीपक का आलोक, शलभ
का भी इसमें क्रंदन।
युग युग जल निष्कंप,
इसे जलने का वर पाना।
धूम कहाँ विद्युत लहरों से,
हैं नि:श्वास भरा,
झंझा की कंपन देती,
चिर जागृति का पहरा।
जाना उज्ज्वल प्रात:
न यह काली निशि पहचाना।
९.
क्या पूजन -महादेवी वर्मा
क्या पूजन,
क्या पूजन क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर,
मेरा लघुतम जीवन रे,
मेरी श्वासें करती रहतीं,
नित प्रिय का अभिनंदन रे!
पद रज को धोने उमड़े,
आते लोचन में जल कण रे,
अक्षत पुलकित रोम मधुर,
मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल,
मेरा यह दीपक मन रे,
मेरे दृग के तारक में,
नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं,
प्रतिपल मेरे स्पंदन रे,
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल,
देता पलकों का नर्तन रे!
१०.
जब यह दीप थके -महादेवी वर्मा
जब यह दीप थके तब आना।
यह चंचल सपने भोले हैं,
दृग-जल पर पाले मैने, मृदु
पलकों पर तोले हैं;
दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना!
साधें करुणा - अंक ढली है,
सान्ध्य गगन - सी रंगमयी पर
पावस की सजला बदली है;
विद्युत के दे चरण इन्हें उर-उर की राह बताना!
यह उड़ते क्षण पुलक - भरे है,
सुधि से सुरभित स्नेह - धुले,
ज्वाला के चुम्बन से निखरे है;
दे तारो के प्राण इन्हीं से सूने श्वास बसाना!
यह स्पन्दन हैं अंक - व्यथा के
चिर उज्ज्वल अक्षर जीवन की
बिखरी विस्मृत क्षार - कथा के;
कण का चल इतिहास इन्हीं से लिख - लिख अजर बनाना!
लौ ने वर्ती को जाना है
वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने
रज का अंचल पहचाना है;
चिर बन्धन में बाँध इन्हें धुलने का वर दे जाना!
११
जाग-जाग सुकेशिनी री! -महादेवी वर्मा
जाग-जाग सुकेशिनी री!
अनिल ने आ मृदुल हौले
शिथिल वेणी-बन्धन खोले
पर न तेरे पलक डोले
बिखरती अलकें, झरे जाते
सुमन, वरवेशिनी री!
छाँह में अस्तित्व खोये
अश्रु से सब रंग धोये
मन्दप्रभ दीपक सँजोये,
पंथ किसका देखती तू अलस
स्वप्न - निमेषिनी री?
रजत - तारों घटा बुन बुन
गगन के चिर दाग़ गिन-गिन
श्रान्त जग के श्वास चुन-चुन
सो गई क्या नींद की अज्ञात-
पथ निर्देशिनी री?
दिवस की पदचाप चंचल
श्रान्ति में सुधि-सी मधुर चल
आ रही है निकट प्रतिपल,
निमिष में होगा अरुण-जग
ओ विराग-निवेशिनी री?
रूप-रेखा - उलझनों में
कठिन सीमा - बन्धनों में
जग बँधा निष्ठुर क्षणों में
अश्रुमय कोमल कहाँ तू
आ गई परदेशिनी री?
१२
जाग तुझको दूर जाना -महादेवी वर्मा
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफ़ान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!
कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!
१३.
जाने किस जीवन की सुधि ले -महादेवी वर्मा
जाने किस जीवन की सुधि ले
लहराती आती मधु-बयार!
रंजित कर ले यह शिथिल चरण, ले नव अशोक का अरुण राग,
मेरे मण्डन को आज मधुर, ला रजनीगन्धा का पराग;
यूथी की मीलित कलियों से
अलि, दे मेरी कबरी सँवार।
पाटल के सुरभित रंगों से रँग दे हिम-सा उज्ज्वल दुकूल,
गूँथ दे रेशम में अलि-गुंजन से पूरित झरते बकुल-फूल;
रजनी से अंजन माँग सजनि,
दे मेरे अलसित नयन सार !
तारक-लोचन से सींच सींच नभ करता रज को विरज आज,
बरसाता पथ में हरसिंगार केशर से चर्चित सुमन-लाज;
कंटकित रसालों पर उठता
है पागल पिक मुझको पुकार!
लहराती आती मधु-बयार !!
१४.
जीवन विरह का जलजात -महादेवी वर्मा
विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात!
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका; अश्रु गिनती रात;
जीवन विरह का जलजात!
आँसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल,
तरल जल-कण से बने घन-सा क्षणिक मृदुगात;
जीवन विरह का जलजात!
अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास,
अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात;
जीवन विरह का जलजात!
काल इसको दे गया पल-आँसुओं का हार
पूछता इसकी कथा नि:श्वास ही में वात;
जीवन विरह का जलजात!
जो तुम्हारा हो सके लीला-कमल यह आज,
खिल उठे निरुपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात;
जीवन विरह का जलजात!
१५.
जो तुम आ जाते एक बार -महादेवी वर्मा
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार
हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार
साहित्यिक परिचय :-
महादेवी वर्मा (1907-1987)
(26 मार्च, 1907, फ़र्रुख़ाबाद —11 सितम्बर, 1987, प्रयाग(
-आधुनिक साहित्य की मीरा
@रेखाचित्र
अतीत के चलचित्र (1941)
स्मृति की रेखाएँ (1943)
@संस्मरण
पथ के साथी (1956, अपने अग्रज समकालीन साहित्यकारों पर)
मेरी परिवार (1972, पशु-पक्षियों पर)
संस्मरण (1983)
@ललित निबंध
क्षणदा (1956)
चुने हुए भाषणों का संग्रह
संभाषण (1974)
@कहानियाँ
गिल्लू
@निबन्ध
विवेचनात्मक गद्य (1942)
श्रृंखला की कड़ियाँ (1942, भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों पर)
साहित्यकार की आस्था और अन्य निबन्ध (1962, सं. गंगा प्रसाद पांडेय, महादेवी का काव्य-चिन्तन)
संकल्पिता (1969)
भारतीय संस्कृति के स्वर (1984)।
चिन्तन के क्षण
युद्ध और नारी
नारीत्व का अभिशाप
सन्धिनी
आधुनिक नारी
स्त्री के अर्थ स्वातंत्र्य का प्रश्न
सामाज और व्यक्ति
संस्कृति का प्रश्न
हमारा देश और राष्ट्रभाषा
@महत्वपूर्ण पंक्तियां
सौन्दर्य परिचय -स्निग्ध खंड है और सत्य विस्मय भरा अखण्ड।
काव्य या कला का सत्य जीवन की परिधि में सौन्दर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखण्ड सत्य है।
कवि का दर्शन दीवन के प्रति उसकी आस्था का दूसरा नाम है।
आस्था मानव के युगान्तर से प्राप्त दार्शनिक लक्ष्य पर केन्द्रित रागात्मक दृशटि है।
छायावाद तो करुणा की छाया में सौन्दर्य के माध्यम से व्यक्त होने वाला भावात्मक सर्ववाद ही रहा है और उसी रूप में उसकी उपयागिता है।
*महादेवी ने स्वयं लिखा है, ”मां से पूजा और आरती के समय सुने सूर, तुलसी तथा मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचना की प्रेरणा देते थे। मां से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्रायः सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था। पडौस की एक विधवा वधू के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला शीर्षकों से शब्द चित्र् लिखे थे जो उस समय की पत्र्किाओं में प्रकाशित भी हुए थे। व्यक्तिगत दुःख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा। करुणा बाहुल होने के कारण बौद्ध साहित्य भी मुझे प्रिय रहा है।“
‘‘हिन्दी भाषा के साथ हमारी अस्मिता जुडी हुई है। हमारे देश की संस्कृति और हमारी राष्ट्रीय एकता की हिन्दी भाषा संवाहिका है।’’
@कविता-संग्रह
नीहार (1930)
रश्मि (1932)
नीरजा (1934)
सांध्यगीत (1935)
यामा (1940)
दीपशिखा (1942)
सप्तपर्णा (1960, अनूदित)
संधिनी (1965)
नीलाम्बरा (1983)
आत्मिका (1983)
दीपगीत (1983)
प्रथम आयाम (1984)
अग्निरेखा (1990)
पागल है क्या ? (1971, प्रकाशित 2005)
परिक्रमा
गीतपर्व
पुनर्मुद्रित संकलन
(निम्नलिखित संकलनों में महादेवी वर्मा की नयी कवितायें नहीं हैं, बल्कि पुराने संकलनों को ही नयी भूमिकाओं के साथ पुनर्मुद्रित किया गया है।)
यामा (1940)
हिमालय (1960)
दीपगीत (1983)
नीलाम्बरा (1983)
आत्मिका (1983)
गीतपर्व
परिक्रमा
संधिनी
स्मारिका
पागल है क्या ? (1971, प्रकाशित 2005)
*महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं—
ठाकुरजी भोले हैं
आज खरीदेंगे हम ज्वाला
@बंगाल के अकाल के समय 1943 में इन्होंने एक काव्य संकलन प्रकाशित किया था और बंगाल से सम्बंधित “बंग भू शत वंदना” नामक कविता भी लिखी थी। इसी प्रकार चीन के आक्रमण के प्रतिवाद में हिमालय (1960) नामक काव्य संग्रह का संपादन किया था।
*कुछ प्रतिनिधि कविताएँ
अलि! मैं कण-कण को जान चली
अलि अब सपने की बात
अश्रु यह पानी नहीं है
कहां रहेगी चिड़िया
किसी का दीप निष्ठुर हूँ
कौन तुम मेरे हृदय में
क्या जलने की रीत
क्या पूजन क्या अर्चन रे!
क्यों इन तारों को उलझाते?
जब यह दीप थके
जाग-जाग सुकेशिनी री!
जाग तुझको दूर जाना
जाने किस जीवन की सुधि ले
जीवन विरह का जलजात
जो तुम आ जाते एक बार
जो मुखरित कर जाती थीं
तम में बनकर दीप
तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!
तेरी सुधि बिन
दिया क्यों जीवन का वरदान
दीपक अब रजनी जाती रे
दीप मेरे जल अकम्पित
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
धूप सा तन दीप सी मैं
नीर भरी दुख की बदली
पूछता क्यों शेष कितनी रात?
प्रिय चिरन्तन है
बताता जा रे अभिमानी!
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
मिटने का अधिकार
मेरा सजल मुख देख लेते!
मैं अनंत पथ में लिखती जो
मैं नीर भरी दुख की बदली!
मैं प्रिय पहचानी नहीं
मैं बनी मधुमास आली!
यह मंदिर का दीप
रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता
रूपसि तेरा घन-केश-पाश
लाए कौन संदेश नए घन
वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की
वे मुस्कराते फूल नहीं
व्यथा की रात
शून्य से टकरा कर सुकुमार
सजनि कौन तम में परिचित सा
सजनि दीपक बार ले
सब आँखों के आँसू उजले
स्वप्न से किसने जगाया?
हे चिर महान्!
@
पुरस्कार और सम्मान:-
1934 ‘ नीरजा’ पर ‘सेक्सरिया पुरस्कार
1942 ‘ द्विवेदी पदक’ (‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये)
1943 ‘मंगला प्रसाद पुरस्कार’ (‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये)
1943 ‘ भारत भारती पुरस्कार’, (‘स्मृति की रेखाओं’ के लिये)
1944 ‘यामा’ कविता संग्रह के लिए
1952 उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत
1956 ‘पद्म भूषण’
1979 साहित्य अकादमी फैलोशिप (पहली महिला)
1982 काव्य संग्रह ‘यामा’ (1940) के लिये ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’
1988 ‘पद्म विभूषण’ (मरणोपरांत)
#विशेष:-
-सन् 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की और पं. इला चंद्र जोशी के सहयोग से 'साहित्यकार' का संपादन सँभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ मासिक की भी संपादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘ रंगवाणी नाट्य संस्था’ की भी स्थापना की।
-इन्हे ' वेदना की कवयित्री' एवं 'आधुनिक युग की मीरां' नाम से भी पुकारा जाता है|
-ये प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रचार्य रही हैं|
- रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा- " छायावाद कहे जाने वाले कवियों मे महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही है|"
इनको छायावाद साहित्य की 'शक्ति (दुर्गा)' कहा जाता है|
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संपादक :-
नाम : गोलेन्द्र पटेल
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