लेखन के शुरुआती दिनों में जो कवि/कवयित्री/लेखक/लेखिका रचनात्मक भूमि में अपने नए वैचारिकी बीज, नयी संवेदनात्मक पौध के साथ एक किसान की भाँति उपस्थित होते हैं/होती हैं, उन्हें नवोदित, नवांकुर, नए रचनाकार के रूप में संबोधित किया जाता है, क्योंकि उनकी रचनाएँ आमतौर पर अनुभवहीनता, अपरिपक्वता और विचारों की ताजगी का मिश्रण होती हैं। अर्थात् उनकी रचनाएँ ताजगी और नए विचारों की खोज की खेती हैं, उनके लेखन में समाज, संस्कृति और व्यक्तिगत अनुभवों का कच्चापन मौजूद होता है, लेकिन उनमें ताजी, तटकी अनुभूति की अभिव्यक्ति होती है, एक तरह की मिठास होती है। उनका लेखन अधिक परिपक्व नहीं होता है, लेकिन उसमें नयापन, ऊर्जा और बदलाव की संभावनाएँ होती हैं। नवोदित रचनाकार अक्सर नए विचार, दृष्टिकोण और शैलियों के साथ रचना लिखते हैं, भले ही उनकी भाषा में व्याकरणिक त्रुटियाँ हों, लेकिन उनके भाव में चुंबकीय शक्ति होती है। वे नये शैलियों, शब्दों और विचारों के प्रयोग से अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते हैं। वे अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत चुनौतियों को रचना के माध्यम से व्यक्त करते हैं, जिससे उनकी रचनाओं में ताजगी, समकालिकता और नवीनता की छाप दिखाई देती है, क्योंकि वे अपने लेखन की दिशा, शैली या स्थानिक पहचान पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते हैं, उनकी रचनाओं में सहानुभूति और स्वानुभूति का संगम है। मेरे प्रिय नवोदित साथियो! सृजनात्मक संसार में हर नये रचनाकार को पुराने रचनाकारों से टकराना होता है, उनसे बेहतर लिखने के लिये उनसे बेहतर सोचना पड़ता है, उनके लेखन के साथ-साथ अपने समय और समाज को ख़ूब पढ़ना पड़ता है! सच्चे भूतपूर्व रचनाकार नये रचनाकारों को ही जन्म नहीं देते, बल्कि सच्चे नये रचनाकार भूतपूर्व रचनाकारों को पुनर्जीवित भी करते हैं, क्योंकि साहित्य भाषा में पुनर्जीवन है!
पुरुषप्रधान समाज में स्त्री चेतना का विकास तब होता है, जब स्त्रियाँ अपने अनुभवों को साझा करती हैं, अपनी आवाज़ को प्रमुखता से दर्ज करती हैं और समाज की रूढ़िवादी धारणाओं को चुनौती देती हैं। मानवतावादी स्त्री की अभिव्यक्ति स्त्री चेतना, स्त्री अस्मिता, आत्म-संवर्धन, आत्म-प्रकाशन, आत्मनिर्भरता, सम्मान, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार देती है। इस संदर्भ में नवोदित कवयित्रियों की रचनाएं दृष्टव्य हैं।
सुश्री अंकिता अग्रहरी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बी.ए. द्वितीय वर्ष की मेधावी छात्रा हैं। जो कविता की दुनिया में अभी प्रवेश कर रही हैं और अपने रचनात्मक यात्रा के प्रारंभिक चरण में हैं। उनकी कविताओं में एक विशेष रूप से कोमलता और शुरुआती अवस्था की छवि है, अंतर्मन की सादगी है। उनकी कविताओं में शक्तिशाली भावनाओं का सहज प्रवाह तो है ही; साथ में हृदय की मुक्ति की साधना का स्वर भी है, उनकी कविताओं में मानवीय संवेदना है, मूल्य है, जीवन के रंग हैं, ख़ुशबू है, सृजनात्मक स्मृतियों की तरंग है और उनकी कविताओं में समसामयिक दर्द, द्वंद्व, अँधेरा, उजाला, उम्मीद, टूटन, जिज्ञासा, जीजिविषा जैसे तत्व भी हैं। बहरहाल, मुझे उनकी रचनाधर्मिता से उम्मीद है, वे आने वाले दिनों में और बेहतर रचेंगी!
मैं उनके रचनात्मक उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए उनकी कुछ कविताएँ सुधी पाठकों के प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
(संपादकीय: गोलेन्द्र पटेल)
1).
मैं कहाँ हूँ?
ख़ुद से कुछ कहने जा रही हूँ,
एक ऐसी मुलाकात करने जा रही हूँ,
मत पूछो कौन हैं वो,
बस ख़ुद से ही मिलने जा रही हूँ!
कहाँ हो तुम,
ख़ुद से सवाल किये जा रही हूँ,
अपने मन की गहराइयों को छूने जा रही हूँ,
जो हार रहा था;
बस उसे ही उँचाईयों तक पहुँचाना चाह रही हूँ!
मेरी ख़ुद से मुलाकात बहुत दिनों बाद होती हैं;
वैसे रोज तो बहुतों से मिलते हैं हम;
बस ख़ुद से मिलना भूल जाते हैं;
शायद ख़ुद को पहचानने से इंकार करते हैं,
या फिर सच्चाईयों से दूर भागते हैं हम!
मेरी ख़ुद से इतनी शिकायते हैं कि किताब लिख डालूँ;
मगर मेरी क़लम ही मुझे धोख़ा दे जाती है!
मैं एक अमिट निशानी बन जाऊँ!
आज की फिजाओं का हाल ना पूछों,
बदलते लोगों का सवाल ना पूछों;
यहाँ हर रोज़ प्रेमियों की बदलती कहानी है,
ख़ुदा की इनायत हैं हीर- राँझा की आज भी निशानी है
आज फ़िर वक़्त मेरी दहलीज पर आया है,
खुदा की खैरियत मुझसे फ़िर वही वायदा पाया है!
काश! कोई कहानी बन जाए,
मैं जो लिखूँ मेरी निशानी बन जाए,
मेरी राहों में कोई पत्थर न आए,
जो मुझे कभी गले से लगाए!
मैं अम्बर सी अनंत बन जाऊँ;
मैं ऊँचाईयों से भी ऊँची हो जाऊँ,
चाँदनी की चमक सी;
सूरज की किरणों सी,
मैं भी एक चमकती अमिट निशानी बन जाऊँ!
मैं बादलों जैसी श्वेत बन जाऊँ,
जिसमें एक भी दाग न हो इतनी विशेष बन जाऊँ;
मैं आसमां की तारा बन जाऊँ
अगर तारा न बन सकूँ
तो ज़मीं की धारा बन जाऊँ!
न भूल पाए कोई, मैं ऐसी कहानी बन जाऊँ,
काश! मैं एक अमिट निशानी बन जाऊँ!
मेरी सादगी
किसी को मेरी सादगी पसंद आई,
तो किसी को वो चाँदनी पसंद आई,
किसी को मेरी मुलाक़ाते पसंद आई,
तो किसी को मुझसे बिछड़ना पसंद आया,
किसी को मेरी बाते पसंद आई,
तो किसी को मेरी यादें पसंद आई,
किसी को मेरी फरमाइशें पसंद आई,
तो किसी को मेरी गुज़ारिशें पसंद आई,
किसी को मेरे अल्फ़ाज़ पसंद आये,
तो किसी को मेरी खामोशी पसंद आई,
किसी को मेरी रूह पसंद आई,
तो किसी को मेरे जिस्म पसंद आये,
किन लब्ज़ों से बयां करू ,
लोगों को खुदसे ज्यादा मुझमें क्या पसंद आई!
काश! मुझमे पसंद करने से ज्यादा, लोगों को खुद मे भी कुछ पसन्द आई होती!
एक दिन आयेगा जब लोगों को,
खुद से ज्यादा मुझमें सब कुछ पसन्द आयेगा!
वो होता हैं न जुबां होते हुए भी बेजुबां होते हैं लोग,
वही रहेंगे ये लोग!
वो सारी फ़िज़ूल बाते होंगी लोगों से लिपटे हुए,
मगर टकराने से ज्यादा उस जुबां को भी,
मुझसे दूर रहना पसंद आयेगा!
4).
लक्ष्य
तेरा लक्ष्य पूरा करने का समय कब आयेगा?
तु खुद से पूछ कब अपने जीवन को साजयेगा,
तु खुद से झूठा वादा कर कब तक रह पायेगा,
जो पाने की विप्लव तेरे मन मे उमड़ी थी,
उसको कितने दिनों तक टालता जायेगा!
माना तेरा बचपन था कभी,
खुद को न समझा पाया तू,
निष्काम की चीजों से भी दिल लगाया तू;
कहकर यूँही टालता गया जवानी का दिन आयेगा अभी,
जो इस दिन को सजायेगा कभी!
जवानी के दिन दस्तक दिये जब,
यौवन प्रेम और लालसाओ से खुद को न रोक पाया तु,
सुदृढ़ व भावशून्य से, वहाँ न संभल पाया तु,
थोड़ा मिट गया, यह संदेशा जब पाया तु,
फिर भी शेष फिसलता गया तु,
बुढ़ापे के लोभ से,
एक ऐसी सोच से,
इस विष भरी आबादी से,
पृथक् स्थान मे खुद को ले जाना चाहा तू,
कुछ दिन हीं तो बचे हैं जिस्त के,
निशंक फिर डगमगाया तू!
तु कब मिट गया यह कभी न समझ पाया तु;
अपनी पैगामी का निशाना न दे पाया तु,
सोच खुद को कितना जर्फ बनाया तू!
मेरे प्रिये
मैं फूल की महकती खुशबू;
जिसके बिना तुम अधूरे प्रिये,
मैं गुलशन की इत्र;
जो तुमको महकाये प्रिये,
मैं फूलों की हार;
जिसे गले मे तुम सजाओ प्रिये,
मैं हाथों की लकीरें;
जिसे तुम कभी न मिटा पाओ प्रिये,
मैं वो गीत;
जिसे हर शाम तुम गुनगुनाओ प्रिये,
मैं वो तश्वीर;
जिसे सीने से तुम लगाओ प्रिये,
मैं वो वक़्त;
जिसे जब चाहो बुला लो प्रिये,
मैं वो आदत;
जिसे चाह के भी न दूर कर पाओ प्रिये
मैं ऐसी अमिट निशानी;
जिसे तुम चाह के भी न भूल पाओ प्रिये!
दिल का शहर
मेरे दिल के शहर का तू फसाना हो गया,
मेरे दिल को बहलाने का तू बहाना हो गया;
मेरे गम को भुलाने मे जमाना हो गया,
तू आया तो एक पल मे ये गम भी बेगाना हो गया;
मेरा गम भी तेरा अफसाना हो गया
क्योंकि ये भी तेरा आशिकाना हो गया;
मेरे दिल के अम्बर में मेरे ख्वाहिशों का चाँद था,
मगर वो चाँद भी तेरा दीवाना हो गया!
ता उम्र तकती रही मैं उस चाँद को
मगर तु आया तो वो चाँद भी मुझसे बेगाना हो गया
ख्वाहिशें नही थी तुझे पाने की,
मगर मेरी ख्वाहिशें भी तेरे दीवाने हो गये!
तु उस चाँद को मेरी आँखों से कुछ
इस तरह ओझल किया,
मानो उस चाँद से रिश्ता टूटे मेरा
जमाना हो गया,
तेरे आने की ख़ुशी मनाऊ,
या उस चाँद को भूलने का गम,
मुझे यह तराशते जमाना हो गया!
दिल को जब से तेरे आने की आहट हुई,
न जाने तब से क्यूँ?
दिल के शहर को तुझे पाने की चाहत हुई!
©अंकिता अग्रहरी
नवोदित कवयित्री- अंकिता अग्रहरी
पिता - विनोद कुमार अग्रहरी
माता- श्रीमती प्रभावती देवी
पता- सिद्धार्थनगर
कक्षा- बी.ए.( द्वितीय वर्ष), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
संपर्क सूत्र :-
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, तहसील-मुगलसराय, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
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(दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अनमोल ख़ज़ाना)
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